________________
मोहनलाल का ओलंभा मुझे आता न ?
मैं शरमाया-शरमाया, सकुंचाया-सा बोला 'खून बंद नहीं हो रहा है, अब क्या होगा?' वे बोले, 'चलो, अभी उसे भी बंद करते हैं। वे आये। पानी टपकाया पर खून नहीं रुका। लगता है किसी रक्तवाहिनी नस पर चोट लगी है। डालचन्दजी अनुभवी व्यक्ति थे। उन्होंने रामू (नौकर)को आवाज दी । सरसों का तेल मंगाया, एक रुई का फोहा बनाकर हाथ पर बांधा । बहता हुआ लोहू थोड़ी देर में बंद हो गया। अब मेरे जी में जी आया। घाव भरते तो कई दिन लगे । आज भी डालचंदजी का बड़प्पन मुझे अभिभूत करता है।
बालचन्द की बांह पर अभी भी वह निशान है। मेरी दीक्षा के बाद जब भी वह आता है, वह अपने हाथ का निशान दिखाया करता है और कहा करता हैयह है मित्रता की अमिट निशानी। पर मुनिश्री ! यह निशान तो शरीर के साथ मिट जाएगा। कोई ऐसा दोस्ती का निशान बनाओ जो सदा-सदा के लिए अमिट हो जाए । आप तो तर गये और मैं संसार में फंस गया । मैं उसे कहा करत--
'बालू ! हाल के बीगड्यो, कर हिम्मत अविखिन्न। असल मित्रता को अमिट, 'चम्पक' मांडे चिन्ह ॥"
संस्मरण २१३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org