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१०० आसीस
अप्रमत्त लाडां रहो, खिण खिण चतुर सुजाण । वरो आत्म-आरोग्यता, करो स्व-पर- कल्याण ॥६॥
आत्म-भावना मै मगन, लगन एक अवलोय । शरीर आत्मा अलग है, दोय मिल्यां दुख होय ॥ १०॥
समतायुत स्वाध्याय में, बणो हृदय तल्लीन । करो उपक्रम जुगत स्यूं, बणै विरूप विलीन ॥ ११ ॥
आत्म स्वरूपोदय हुवै, निखरै अन्तर-नाद । भावै 'चम्पक' भावना, आत्मानन्द अगाध ।। १२ ।।
गुरु-दर्शण री चावना, हुयां करें हरवक्त 1 ( पर) भावां मैं भगवान रा, दर्शण देखें भक्त ॥ १३ ॥
वीदासर रो क्षेत्र ओ, मां-बेट्यां रो जोग । स्थाणा श्रावक श्राविका, नदी- नाव संयोग ॥ १४ ॥
सेवा में सतियां सतत, सावधान सोत्साह । भैक्षव शासण री हुवै, जग मैं यूं वाह ! वाह ।। १५ ।।
फर्ज सिर्फ पुरुषार्थ रो, होसी होवण हार । आत्म-भावना परक औ, 'चम्पक' खुला विचार ॥ १६ ॥
ज्यू- ज्यूं पैंडो काटस्यां, होस्यां त्यूं नजदीक । 'चम्पक' देव गुरु कृपा, जो होसी सो ठीक ॥ १७॥
वीदासर रा लोग मिल, मांगीलाल भी कहण में
करी अर्ज सविवेक । कमी न राखी एक ।। १८ ।।
समाचार विधि-विधि सुण्या, पर दर्शण रो जोग । आसी जद मिलणो हुसी, लाडां ! बणो निरोग ॥ १६ ॥
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