Book Title: Udisa me Jain Dharm
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Joravarmal Sampatlal Bakliwal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ উমম प्रो. लालचन्द जैन J e tion International Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उड़ीसा में जैन धर्म १०० १०४ -R.F 98393 ६४१०, २०१०४६४६६१ mari nisi om saibo दानों के st bnsists o ya lewliis Jelezeqme? Isms werel vd bodeddy nasiusd mist asonsrtals, ॐ प्रो. लालचन्द जैन एम.ए. (दर्शनशास्त्र, प्राकृत- जैनोलोजी एवं संस्कृत) जून २००६ पी. एच. डी., आचार्य (जैन दर्शन) बाल 18003 Hims पूर्व अध्यक्ष, जैन विद्या केन्द्र, उत्कल संस्कृति विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर, उड़ीसा यन Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उड़ीसा में जैन धर्म लेखक : प्रो. लालचन्द जैन द्वारा कुमार राजीव जैन, रेडियो कालोनी, पन्नानाका, छतरपुर, म.प्र,- ४७१ ००१ दूरभाष : ०९३३४३४०१७२, ०९४२५३६५६१९ प्रकाशक : जोरावरमल सपंत लाल बाकलीवाल, चावलीया गंज, कटक, उड़ीसा : लेखक मुद्रण : अंकिता ग्राफिक्स भुवनेश्वर, उड़ीसा, दूराभाष : ०९४३७०७७३३७ प्रछद : सरोज महापात्र प्रकाशन काल : ज्येष्ठशुक्ला पंचमी, वी.नि.सं.२५३२, १जून, २००६ मूल्य : ५०/ By Odisa me jain Dharm : Prof. Dr. Lalchand Jain Published by : Jorawarmal Sampatalat Bakilwal Chauliaganja, Cuttack, Orissa. : Prof. Dr. Lalchandra Jain Printed by : Ankita Graphics, Bhubaneswar, Orissa, Ph.: 09437077337 Cover : Saroj Mahapatra First Edition : Shruta Panchami - 2006 Price : Rs. 50/ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ for the bar श्रुत पंचमी जून, २००६ छतरपुर, म.प्र. समर्पण विद्वानों के प्रेरणा स्रोत एवं शुभ चिन्तक, सराकोद्धारक परमपूज्य उपाध्याय १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज के कर-कमलों में सादर-सनम्र समर्पित । and tea and a sa ।।। शि श्रद्धावनत प्रो. लालचन्द जैन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभु जिन चैत्यालय ज 軀 LC Coisa श्री चन्द्रप्रभु जिन चैत्यालय, चावलीयागंज, नयाबजार, कटक, की स्थापना परमपूज्या आर्यिका १०५ इन्दुमती माताजी के संघस्थ, आर्यिका १०५ सुपार्श्वमती माताजी की मंगल प्रेरणा और आशीर्वाद से तथा आर्यिका विद्यामती माताजी एवं आर्यिका सुप्रभा माताजी की मांगलिक उपस्थिति में श्री संपतलाल बाकलीवाल के भवन में दिनांक १२.०५.१९८० को हुई थी । IV १) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE The Book “Odisha me Jain Dharm” Authored by Porf. Lal Chand Jain in Hindi is a right step in bringing to limelight the glorious heritage of this land connected with Jainsim and Kharavel for the benefit of the Hindi speaking people. It is indeed a long felt need and the Utkal University of Culture have done a lot of work in this regard under the able guidance of Porf. Jain. Jainism grounded in reality of life and living with liberality of mind and a broad outlook of universal piety became popular in Orissa right from the beginning. In spite of the recognition of the status of Tribarna and jain Siddhant the preaching of Mahavira and the practice of Kharavel loosened the rigidity of casteism and created favourable social system opening of the flood gates for the poor and lowly. In a way it recoginised equality of men. This singular factor was responsible for Jainism becoming the facilitator to bring together everyone into a platform cultivating brotherly love and universal peace. The rational explanation of caste that men are born in lower and higher castes according to their conduct in a former existence induced everybody that by living a life of purity and conduct that one could achieve his salvation and by this way, one can ensure his next birth in a higher status as well. This humanist approach of Jainism has been aptly demonstrated by various activities of Kharavel as known from Hatigumpha Inscription and the sculptural representation on the caves found in Khandagiri and Udayagiri. Kharavel heralded a new concept as a soldier and a savant, a conqueror and administrator, a king and a sage. In fact, he has been depicted Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ as a Rajashree as well as the upholder of law, protector of law and the executor of law aiming at bestowing the highest benefit to men. It is with this lived in personal example kharavel unveiled a new religious faith and belief in Jainism which gave birth to syncretic and synthetic humanism that made Orissa famous as a land of meaningful religious toleration. Buddhism, Jainism and Brahminism moved together with least internal strives even with different ruling dynasties professing different religious creed. Prof. Jain has ably dealt with this aspect with suitable and relevant references derived from the Hatigumpha inscription. His attempt to codify the jain monuments spread in the nook and corner of Orissa had made relevant contribution to the history and popularity of jainism in Orissa. I hope, this work will go a long way in projecting Jainism of Orissa in the history and culture of India with specific contribution of Kharavel for the spread of jainism. (S.C. Panda) Vice-Chancellor Utkal University of Culture, Bhubaneswar Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द भुवनेश्वर आने के पूर्व उड़ीसा के विषय में मुझे बृहद जानकारी नहीं थी। यों कहा जा सकता है कि उक्त विषय में मेरी जानकारी सीमित थी। अगस्त २००३ में जैनचेयर (जैन विद्याकेन्द्र), उत्कल संकृति विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर का प्रभार लेने के पश्चात् उस पुनीत धरणी तल को नमन करने का स्वर्ण अवसर मिला जहाँ पर त्र-षभनाथ, श्रेयांसनाथ, अरहनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर तीर्थंकरों के विहार हुए, और जहाँ ई.पू पांचवीं शताब्दी में (सम्भवतः इस से पूर्व भी) सर्व प्रथम निर्मित कलिंगजिन की मूर्ति की पूजा-अर्चना और वंदना होती थी। प्राचीन उड़ीसा विश्व में एक अनोखा, अनूठा और विलक्षण देश था, जहाँ पर ई.पू. दूसरी शताब्दी में जैनधर्म राष्ट्रीय धर्म था। इसका श्रेय तत्कालीन सम्राट खारवेल को है, जो जैन धर्म के लिए समर्पित थे। उनकी उदारवादी और सहिष्णु नीति का ही यह फल था की जैनधर्म ई.सन् १६ वीं शताब्दी तक शैव धर्म के चरमोत्कर्ष काल में भी विभिन्न जिलों में शिव मंदिरों में भी प्रतिष्ठित रह कर अपना अस्तित्व कायम रख सका। जब की इस देश की धर्म-उर्वरा भूमि में अनेक धर्म उत्पन्न हुए और शैशव काल में ही विनष्ट हो गये। प्रताप नगरी, खंडगिरि, उदयगिरि, भानुपुर, कुपारी, अयोध्या, भीमपुर, वर्धनपुर चरम्पा, पुरी कोणार्क आदि जैन दर्शनीय स्मारकों का भ्रमण कर मैने माना कि जगन्नाथपुरी जिसे हिन्दु धर्म का येरूशलम कहा जा सकता है, के मंदिरों में यथा मुक्तेश्वर भुवनेश्वर आदि मंदिरों में और स्थानों पर जैन मूर्तियों की पूजा वे अपनी-अपनी पद्धति के अनुसार आज भी करते हैं। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उड़ीसा में जैन धर्म की जड़ें कितनी गहरी थीं। कलिंग के उक्त जैनधर्म के दर्शनीय स्मारकों को जान ने के लिए हिन्दी भाषा में कोई पुस्तक आज तक नहीं लिखी गई है। यदि इस तरह की कोई प्रकाशित हुइ तो मुझे देखने में नहीं आई है। इसी अभाव की पूर्ति के लिए प्रस्तुत पुस्तक का सृजन हो सका है। एल.एन.साहु ने उड़िआ भाषा में उड़िसार जैनधर्म नामक पुस्तक १९५५ में लिखी थी, जो अनुपलब्ध है। श्री कामता प्रसाद जैन ने इस का अंग्रेजी अनुवाद किया था जो अनुपलब्ध होने के कारण मुझे प्राप्त नहीं हो सका। परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञान सागर जी महाराज के शुभ सान्निध्य में मुझे २००५ का श्रुत संवर्धन पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उस समय अपने आशीर्वचन में एक वर्ष के अंदर एक पुस्तक लिखने की मंगल प्रेरणा प्रदान की थी, इसी कारण से मै इस पुस्तक का सृजन करने के लिए प्रयत्नशील हुआ। उन के चरणों में मेरा बारम्बार नमोस्तु। VIL Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटक के चौधुरी बजार के सन्निकट दिगम्बर जैन मंदिर बहुत प्राचीन और विशाल है। चावलीयागंज से दूरस्थ होने के कारण धर्मशील श्री संपतलाल बाकलीवाल और उनके परिवार के सदस्यों को मंदिर जा कर नित्यप्रतिदिन दर्शन करना संभव नहीं था। इसी असुविधा को दूर करने के लिए आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ स्वामी के नाम पर श्री चन्द्रप्रभ जिन चैत्यालय की स्थापना चावलिया गंज, नया बाजार, कटक में स्थित श्री संपतलाल वाकलीवाल के निजी आवास में १२ मई १९८० के शुभ मुहूर्त में हुई थी। इसकी स्थापना की प्रेरणा स्रोत पूजनीया अर्यिका श्री १०५ इन्दमती माता जी के संघस्थ विदुषी आर्यिका श्री १०५ सुपार्श्वमती माता जी का मंगल आशीर्वाद प्राप्त है। उक्त संघ की आर्यिका थी १०५ विद्यामती माता जी और १०५ थी आर्यिका सुप्रभा माता जी का भी उत्साह वर्धक शुभाशीर्वाद प्राप्त था। उक्त चैत्यालय में आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ स्वामी मूल नायक हैं। इन के अतिरिक्त सोलह वें तीर्थंकर शांतिनाथ और चौवीस वें तीर्थंकर महावीर की मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित हैं। शासन देवी पद्मावती और क्षेत्रपाल कुल पांच मूर्तियों से युक्त चैत्यालय भव्य और शांतिदायक है। इसी चैत्यालय से प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा हैं। अत: इस को मै सतत् नमन करता हूँ। इसकी प्रकाशन राशि श्री संपतलाल बाकलीवाल द्वारा उपलब्ध कराई गई है ; इसलिए इन के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ। इस ग्रन्थ का इन्ट्रोडक्सन प्रफेसर साधुचरण पंडा, कुलपति, उत्कल संस्कृति विश्व विद्यालय, भुवनेश्वर ने लिख कर मेरा बड़ा उपकार किया है। अत: मै उन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। श्री पवन कुमार और संतोष कुमार जैन का भी समय समय पर मुझे सहयोग प्राप्त होता रहा। अत: वे भी धन्यवादाह हैं। डॉ. श्रीमती जैनमती जैन ने इस कार्य को पूरा करने में पूर्ण सहयोग दिया। अत: उन्हें मेरा सतत् शुभाशीष। शीघ्र स्वच्छ प्रकाशन में सहयोगी अंकिता ग्रफिस, भुवनेश्वर के प्रोप्राइटर श्री सरोज महापात्र को मै हार्दिक धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता हूँ। सुधीजनों के सुझाओं का स्वागत है। पाठकों का संतुष्ट होना ही मेरे इस परिश्रम की सफलता है। विनित वी.नि.सं.२५३२ लेखक श्रुत पंचमी VIII Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय - सूची पृष्ठ क्र.सं ०१. ०१-६३ A A A A A विषय कलिंग में जैनधर्म - खारवेल पूर्व-कालीन जैनधर्म » तीर्थंकर और कलिंग » कलिंग में महावीर का विहार और धर्मोपदेश > महावीर निर्वाण के पश्चात् कलिंग में जैन धर्म > सम्राट अशोक का कलिंग पर आक्रमण खारवेल कालीन जैनधर्म > खारवेल का व्यक्तित्त्व और कर्तृत्त्व > खारवेल ज्ञापक साहित्य » खारवेल की जन्मभूमि और उनके पूर्वज > खारवेल की कुमारावस्था और शिक्षण-प्रशिक्षण > जैन राजा » खारवेल की पारिवारिक स्थिति » आकर्षक व्यक्तित्त्व » राजनीति में दक्ष : दिग्विजय राजा सातकर्णी पर आक्रमण मगध देश पर आक्रमण यवन राजा को खदेड़ना भारत पर विजय तमिल राष्ट्र संघ पर विजय पांडवों पर विजय प्रजा के शुभ चिन्तक तथा उदार राजा A A A A A Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म निरपेक्ष राजा निर्माण कार्य उपासक आगम के उद्धारक एवं श्रोता भिक्षु (मुनी) दीक्षा खारवेल और जैन धर्म > खारवेल का धर्म ७ खारवेलोत्तर कालीन जैनधर्म - उड़ीसा में महत्त्वपूर्ण जैन स्मारकस्थल १. खुर्दा जिला २. पुरी जिला ३. कटक जिला ४. केउँझर जिला ५. बालेश्वर जिला ६. म्यूरभंज जिला ७. गंजाम जिला ८. कलाहाण्डी जिला ९. कोरापुट जिला १०. ढेंकानाल जिला - सराक : धार्मिक एवं सांस्कृतिक विमर्ष . उदयगिरि की गुफाओं का शिल्प सैन्दर्य - रानी गुफा बाजा गुफा छोटा हाथी गुफा अलकापुरी गुफा जय-विजय गुफा ६४-९५ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६-१२० ठाकुराणी गुफा पालालपुरी गुफा मंचपुरी गुफा गणेश गुफा जम्बेश्वर गुफा बाघ गुफा सर्प गुफा हाथी गुफा धानघर गुफा हरिदास गुफा जगन्नाथ गुफा रसाई गुफा ०३. खण्डगिरि की गुफाओं का शिल्प सैन्दर्य स ततोवा गुफा (१) ततोवा गुफा (२) अनन्त गुफा तेंतुलि गुफा खण्डगिरि गुफा ध्यान गुफा नवमुनि गुफा बरहभुजि गुफा महावीर या त्रिशूल गुफा अम्बिका गुफा ललाटेन्दु गुफा भग्न गुफा जीर्ण-शीर्ण गुफा XI Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४. ०५. एकादशी गुफा गुप्तगंगा-सन्निकट गुफा खण्डगिरि का चोटीवर्ती जैन मंदिर 2 त्र - षभदेव मंदिर शीतलनाथ मंदिर पार्श्वनाथ मंदिर (१) पार्श्वनाथ मंदिर (२) पंचमूर्त्ति मंदिर श्री दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र मंदिर जैन मंदिर जैन धर्मशाला स्थ खारवेल भोजनशाला खारवेल दातव्य औषधालय ०६. उपसंहार परिशिष्ट - १ उड़ीसा के कतिपय जैन संग्रहालय परिशिष्ट - २ कतिपय प्राचीन जैन मूर्तियाँ और मंदिर परिशिष्ट - ३ XII १२१-१२६ उड़ीसा में जैन प्राचीन दर्शनीय स्थल का मानचित्र परिशिष्ट - ४ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची १२७-१३० १३१-१३३ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन कलिंग में जैन धर्म जब हम कलिंग देश में जैन धर्म की चर्चा करते है तो इसका अभिप्राय खारवेलराज्य कालीन जैन धर्म से होता है। इसका कारण खारवेल के समय में जैन धर्म का चरम संप्रसारण, संरक्षण और संवर्धन होना है। यही कारण है कि कलिंग में जैन धर्म खारवेल का पर्यायवाची बन गया है। तात्पर्य यह नहीं है कि खारवेल के पूर्व कलिंग में जैन धर्म था ही नहीं, खारवेल के पूर्व भी कलिंग में जैन धर्म के अस्तित्व होने के अनेक प्रमाण और चिन्ह जैनागमों एवं हाथी गुफा शिलालेख में उपलब्ध हैं। उनके अध्ययन के आधार पर कलिंग में जैनधर्म के क्रमिक विकास को जानने के लिए उसका वर्गीकरण निम्मांकित भागों में किया जा सकता है। क. खारवेल के पूर्वकाल में जैन धर्म ख. खारवेल कालीन जैन धर्म ग. खारवेलोतर कालीन जैन धर्म यहाँ हम हम इन तीन काल खंडों के आधार पर तत्कालीन कलिंग में जैन धर्म की ऐतिहासिक यात्रा पर दृष्टिपात करेगें। क) सम्राट खारवेल के पूर्व कलिंग में जैन धर्म: प्राचीन काल में कलिंग देश एक महान गौरवशाली देश था। यहाँ की मिट्टी से विविध प्रकार के धर्मों का जन्म हुआ। दूसरे शब्दों में प्राचीन काल में विश्व के अद्वितीय और अनुपम कलिंग देश में उर्वरित होने वाले धर्मों में सर्वश्रेष्ठ, ज्येष्ठ और गरिष्ठ धर्म के रूप में जैनधर्म विश्व विश्रुत(प्रसिद्ध) था। उक्त कलिंग ही आज उडीसा के नाम से जाना जाता है। उडीसा या कलिंग में जैन धर्म का प्रारम्भ कबसे हुआ? यह प्रश्न बार-बार मानस पटल में उभरता रहता है। अनेक विद्वानों ने इसके समाधान करने का प्रयास किया। लेकिन जिज्ञासा ज्यों की त्यों वर्धनशील रही, क्यों कि तत्सूचक साधनों का अमाव होने से प्राक् ऐतिहासिक कालीन घटनाओं की एक तिथि निश्चित करना किसी को भी संभव नहीं है। जैन मोनुमेन्टस ऑफ उडीसा में आर. पी महापात्र ने ठीक ही कहा है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Owing to paucity of materials of positive nature, the exact date of the begining of Jainism in Orissa can not be determined. However from legendary and traditional accounts and indirect references it can be reasonabaly traced back to a period much earlier than that of the rise of Buddhism under Gautam Buddha." तीर्थकर और कलिंग : इस अवसर्पिणी काल में हुए २४ तीर्थकरों में से - त्र-षभदेव, आदिनाथ अथवा प्रथम तीर्थकर का संबंध कलिंग अथवा प्राचीन उडीसा की सांस्कृतिक इतिहास के साथ अत्यधिक है, ऐसा विद्वानों का विश्वास है। विद्वानों का मत है कि खारवेल के हाथीगुम्फा शिला लेख में जिस कलिंग जिन का उल्लेख हुआ है उसका संबंध त्र-षभदेव से है, क्यों कि उडीसा के विभिन्न स्थानों में उनकी पूजा होती थी। आज भी खुदाई करने पर आदिनाथ की मूर्तियाँ वर्तमान उडीसा मे अत्यधिक यत्रतत्र सर्वत्र प्राप्त होती है। जिस प्रकार शत्रुञ्जय के त्र-षभदेव शत्रुञ्जय जिन कहलाते हैं उसी प्रकार कलिंग के त्र-षभदेव कलिंग जिन कहलाते हैं। ऐसा मानना इसलिए भी असम्भव नहीं है क्यों कि जैनपुराण बतलाते है कि त्र-षभनाथ का समवसरण कलिंग देश में आया था और उन्होंने कलिंग में धर्मोपदेश दिया थ। आदिपुराण २५/२८७ में आचार्य जिनसेन ने कहा भी हे : काशीमवन्ति कुरू कोशलसुह्यपुण्ड्रान्। चेद्यङ्गवङ्गमगधन्ध्रकलिंगभद्रान्।। पाञ्चालमालवदशार्णदिर्भदेशान्। सन्मार्गदेशनपरो विजहारधीरः।। एन के साहु ने दावे के साथ कहते हैं कि खण्डगिरि की गुफाओं में त्र-षभदेव को बारम्बार प्रस्तुत किया गया है। खण्डगिरि की चोटीपर स्थित जैन मंदिर आदिनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। खारवेल का पिथुड को बैलों से न जुतवा कर, गधों से जुतवाना भी यही सिद्ध करता है कि व-षभदेव के चिन्ह स्वरूप वृषभ के साथ धार्मिक भावनाएँ जुड़ी हुई थीं। इन सब प्रसगों से यह कहना समुचित है कि प्रथम तीर्थंकर अथवा जिन वृषभदेव ई.पू. छठी शताब्दी के पहले उस समय कलिंग Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक विख्यात, लब्धप्रतिष्ठ तीर्थंकर थे जब कि अंतिम या २४ वे तीर्थंकर महावीर देश के धार्मिक आकाश के रूप में प्रतीत होते हैं । नन्द राजा का कलिंग देश की विजय वस्तु के रूप में कलिंग जिन की मूर्ति को मगध ले जाना उक्त मूर्ति की महानता को प्रकट करता है। आदिपुराण के उक्त उदाहरण से आर. पी महापात्र आदि विद्वानों की यह मान्यता निराकृत हो जाती है कि उडीसा में त्र - षभदेव के विहार का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है । कलिंग देश से संबंधित दूसरा सन्दर्भ जैन साहित्य में ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का उपलब्ध होता है । गुणभद्र कृत उत्तर पुराण हरिवंश पुराण आदि के अनुसार श्रेयांसनाथ का जन्म सिंहपुर में हुआ था। आवश्यक निर्युक्ति में भी यही कहा गया है। उस समय सिंहपुर कलिंग देशकी की राजधानी थी। इसी प्रकार अठारहवें तीर्थंकर अरहनाथ का संबंध भी कलिंग देश में होने का प्रसंग भी प्राप्त होता है। पी. सी राय द्वारा अनुवादित महाभारत के शान्तिपर्व (पृ. ४,८) के अनुसार तत्कालीन कलिंग देश की राजधानी राजपुर नगर में अरहनाथ को प्रथम आहारदान प्राप्त हुआ था । तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के संबंध में भी कहा गया है कि उन्होंने कलिंग देश में विहार किया था और धर्मोपदेश भी दिया था । इस के अलावा भुवनेश्वर के समीप उदयगिरि खंडगिरि की गुफाओं में बहुत बडी संख्या में प्राप्त पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ और गणेश गुफामें चित्रित उनके जीवन से संबंधित घटना प्रमाणित करती हैं कि उत्क तीर्थंकर ने कलिंग को अपने चरणों से पवित्र किया था | उडीसा के लगभग सभी स्थानों पर यथा बालेश्वर, भानपुर, चरम्पा आदि स्थानों पर बड़ी मात्रा में पार्श्वनाथ तीर्थंकर की मूर्तियों का उपलबध होना सिद्ध करता है कि उक्त तीर्थंकर प्राचीन कलिंग के परम पूजनीय, अर्चनीय और सम्मानीय रूप में विख्यात थे। तीर्थंकरों की परम्परा में हुए महान् व्यक्तित्व वाले पार्श्वनाथ भगवान् महावीर जन्म के २५० वर्ष पूर्व निर्वाण को प्राप्त हुए थे । ई.पू. ८वीं शताब्दी में उडीसा जैन धर्म का विख्यात केन्द्र था। जैन धर्म को मनुष्यों के मध्य प्रचार प्रसार करने में पार्श्वनाथ महत्वपूर्ण योगदान दिया था । ३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहता है कि पार्श्वनाथ ने ताम्रलिप्ति और कोपापटक में धर्मोपदेश दिया था । उक्त दोनों स्थानों को क्रमश: बंगाल के तमलुक और उड़ीसा के कुपारी के रूप में पहचाना गया है। पार्श्वनाथ के आध्यात्मिक उपदेशों का प्राचीन उडीसा के लोगों पर काफी प्रभाव पड़ा था । कलिंग देश का तत्कालीन राजा करकण्डु या करण्ड पार्श्वनाथ का राजकीय शिष्य था । कुम्भकार जातक में उल्लेखों के अनुसार कहा जासकता है कि कलिंग के राजा करकण्डु तत्कालीन पांचाल के राजा दुम्मुख, गांधार के राजा नग्गजि और विदेह के राजा निमि के समकालीन राजा थे। उत्तराध्ययन सूत्र बतलाया गया है कि वृषभनाथ द्वारा उपदिष्ट जैन धर्म में उक्त राजाओं ने दीक्षा ली थी। वे राजाओं में वृषभ के नाम से जाने जाते थे। इस कथन से सिद्ध होता है कि करकण्डु, दुम्मुख आदि चार राजा राज्य करते थे, उस समय जैन धर्म कलिंग सहित पूरे देश में व्याप्त था । उस समय जैन धर्म की प्रसिद्धि का कारण तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा प्रवर्तित चतुर्याम अर्थात् अंहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह का, तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय में उत्तरी भारत और पूर्वी भारत में, व्यापक रूप से प्रसार-प्रचार होना है। राजा करकण्डु, जो कि जैन आगमों में राजर्षि के नाम से प्रसिद्ध हैं, ने भी कंलिंग में जैनधर्म का संरक्षण एवं सम्प्रसारण तो किया ही था, इसके अलावा उन्होंने तत्कालीन मित्र राजाओं को भी जैनधर्म की ओर आकर्षित किया था। तेरापुर (महाराष्ट्र) में उन्होने एक जैन मंदिर का निर्माण भी राजा भीम के राजत्व काल में कराया था। उनके द्वारा बनवाये गये जैन मठ में चार हाथी दौड़ते हुए उसी तरह स्थित है जिस प्रकार के हाथी तोषली में हैं। दूसरे शब्दों में कहाजा सकता है कि करकण्डु राजा के समय में कलिंग में जैन धर्म राज्यकीय धर्म रहा। राज्याश्रय प्राप्त होने के कारण कलिंग में जैन धर्म की स्थिति सुदृढ़ थी। उसकी जड़ें गहराई तक जम चुकी थीं। अग्रवाल सदानन्द ने ठीक हीं कहा है कि करकण्डु के बाद में भी पार्श्वनाथ के द्वारा प्रवर्तित चतुर्याम जैन धर्म ने कलिंग को पूर्ण रूप प्रभावित कर रखा था। जैन मुनि सरभंग का विहार गोदावरी के तट पर अवस्थित हो कर हुआ था । सरभंग जातक में प्रतिपादित है कि कलिंग के राजा कालिंग, अस्सक के राजा अट्ठक और विदर्भ के राजा ४ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीम रथ उनके राजकीय शिष्य थे। एन के साहु ने भी हिस्ट्री ऑफ दि उडीसा (पृ.९३) विस्तार से वर्णन करते हुए लिखा है कि तीर्थंकर महावीर के पूर्ववर्ती काल में कलिंग देश में जैन धर्म अत्यधिक प्रभावशाली था। कलिंग में महावीर का विहार और धर्मोपदेशः __ तीर्थकर त्र-षभदेव और पार्श्वनाथ की तरह तीर्थकर महावीर के कलिंग देश में विहार करने का उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध है। प्रथमानुयोग के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हरिवंश पुराण ३/३-७ में कथन हुआ कि भगवान् महावीर का समवसरण कलिंग देश में आया था। कहा भी है : काशिकौशल कौशल्य कुसंध्यास्वष्ट नामकान्। साल्वत्रिगर्त पञ्चाल भद्रकारपटच्चशन्।। मौकमत्स्यकनीयांञ्च सूरसेन वृकार्थपान्। मध्यदेशनिमान् मान्यान् कलिङ्ग कुरूजाङ्गलान्।। कैकेया ऽऽत्रेयकाम्वोज वाह्रीकयवनश्रुतीन्। सिन्धुगान्धारसौवीरसूरभीरू दशेरू कान्।। वाडवान भरद्वाज क्वाथ तोयान समुद्रजान्। उत्तरांस्तार्ण कार्णश्च देशान् प्रच्छालाम कान्।। धर्मेणयोज्यत् वीरो विहरन विभवान्वितः यथैव भगवान् पूर्वं वृषभो भव्यवत्सल: अर्थात् - जिस प्रकार भव्यवत्सल भगवान् त्र-षभदेव ने पूर्व काल में अनेक देशों में विहार कर उन्हें धर्ममय बना दिया था, उसी प्रकार भगवान् महावीर ने भी विहार कर मध्यवर्ती काशी, कौशल्य, कुसन्ध्य, अस्वष्ट, शाल्व, त्रिगर्त, पंचाल, भद्रकार पटच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन और वृकार्थक समुद्र तट के कलिंग, कुरूजांगल, कैकेय, आत्रीय, कम्बोज, वाहलीक, यवन, सिन्ध, गान्धार, सौवीर, सूर, भीरू, दरोरुक, वाडवान, भरद्वाज, क्वाथतोष, तथा उत्तरदेश के तार्ण, कर्ण और प्रच्छाल आदि देशों को धर्ममय बना दिया था। के.सि.पाणीग्राही ने भी हिस्ट्री आफँ उड़ीसा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ he Jain Harivansa Purana records that Mahavir preached his religion in Kalinga. इसी प्रकार आवश्यक नियुक्ति (पृ-५०२-५२०) में मुनिदीक्षा लेने के ग्यारहवें वर्ष में दो बार महावीर का तोषाली में विहार करने का उल्लेख हुआ है। उक्त उल्लेखानुसार दोनों वार उन्हें भयानक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। एक वार उन्हें डाकु भी अपहरण कर ले गये थे और उन्हें विषम यातनायें दी थीं। दूसरी बार उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था। तत्कालीन तोषाली के किसी क्षत्रिय के यथा समय हस्तक्षेप करने से उन्हें बचाया गया था। लेकिन दिगम्बर साहित्य में इस प्रकार का उल्लेख नहीं है। व्यवहार भास्य (६/११५) में आये सन्दर्भ से सिद्ध होता है कि भगवान् महावीर ने तोषाली में विहार किया था। आवश्यक सूत्र(पृ२१९-२२०) में महावीर के कलिंग में विहार करने का स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध है। कल्पसूत्र में भगवान् महावीर के चातुर्मास संपन्न करने वाले स्थानों की सूची दी है। उससे ज्ञात होता है कि उन्होंने पनित भूमि में भी चातुर्मास किया था। विद्वानों ने पनित भूमि को पणीय भूमि का दूसरा नाम माना है। पणीय भूमि फणीय भूमि या यह नागलोक ही प्रतीत होती है। यह नागलोक वर्तमान कालीन नागपुर ही प्रतीत होता है। प्राचीन काल में इसे भोगपुर भी कहते थे। भोगपुर को आजकल मध्य प्रदेश का बस्तर और उडीसा का कलाहांडी क्षेत्र के रूप में पहिचाना गया है। भगवतिसूत्र में कहा गया है कि भगवान् महावीर ने अपने धर्म का उपदेश सर्वप्रथम राजगिरि नालन्दा, पणीय भूमि, कूर्म ग्राम, और सिद्धार्थ ग्राम में दिया था। भगवतीसूत्र में यह भी कहा गया है कि पणीय भूमि से जब भगवान् महावीर उपदेश देने के लिए कूर्म ग्राम और सिद्धार्थ ग्राम की ओर उसी रास्ते से गयेथे, जिस रास्ते से समुद्र गुप्त ने कलिंग के लिए प्रस्थान किया था। कूर्म ग्राम और सिद्धार्थ ग्राम प्राचीन कलिंग देश के शहर थे। भगवान् महावीर के पिता के सम्मान में सिद्धार्थ ग्राम का नामकरण किया गया होगा। इसी प्रकार बालेश्वर जिले में एक ग्राम का नाम वर्धनपुर या वर्धमानपुर भगवान् महावीर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए और स्मरणोत्सव मनाने के वास्ते कलिंग के तत्कालीन राजा मथिर ने भगवान् महावीर के समय में किया होगा। श्री कुर्मम्भृ और प्राचीन कूर्म ग्राम के Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नजदीक सिद्धार्थ ग्राम धार्मिक और सांस्कृतिक केन्द्र था। उक्त कथन का तात्पर्य केवल इतना ही है कि भगवान् महावीर ने उक्त स्थानों पर धार्मिक उपदेश दिये थे, इसलिए वे जैनधर्म के गढ़ थे। व्यवहार भास्य (६/११५) से ज्ञात होता है कि तोषाली (धवल गिरि) उस समय जैन धर्मोपदेश की केन्द्र थी। यही वहस्थान है जहाँ पर कलिंग जिन की वह चमत्कारी मूर्ति स्थापित थी। जिसका संरक्षण राजा तोषालिक करता था। आगे यह भी कहा गया है कि भारी वर्षा होने के कारण फसल के न होने से जैन मुनियों को वहाँ प्रचुरता से उगने वाले ताड़ के फलों पर निर्भर रहना पड़ता था। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जैन आगमों में कलिंग को आर्य देश माना गया है। अत: जैन तपस्वियों को यहाँ विहार करना आसान था। यही कारण है कि कलिंग में जैन धर्म का बहुत प्रचार प्रसार हुआ 91T1 The early read of Jainism in Orissa is evident from these traditions and will not be unreason able to conclude that Jainism made it's first appearance in this country in six century B.C. when Mahavira visit it. के .सी. पाणिग्राही ने हिस्ट्री ऑफ दि उडीसा (पृ २९६) में ऐसा ही कहा है। लेकिन पाणिग्राही का यह कथन तर्क संगत नंही है कि कलिंग में जैन धर्म का प्रवेश महावीर के विहार करने से हुआ है, क्यों कि हम देख चुके हैं कि त्र-षमदेव ने भी यहाँ विहार किया था और धर्मोपदेश दिये थे। यह सत्य है कि भगवान् महावीर के समय में जैन धर्म कलिंग में जड़ें जमा चुका था। हाथी गुम्फां शिलालेख से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर ने कलिंग देश में विहार करने के क्रम में उदयगिरि या कुमारी पर्वत पर धर्म चक्र प्रर्वतन किया था। दूसरे शब्दों में महावीर का समोसरण (धार्मिक सभा) यहाँ आया था और कुमारी पर्वत पर उन्होंने धर्मोपदेश दिया था। उसी स्थान पर बाद में एक जैन मंदिर का निर्माण भी राजा खारवेल ने कराया था। उपर्युत विवरणों से स्पष्ट है कि करोड़ों-करोड़ वर्ष पूर्व में हुए तीर्थकर त्र-षभदेव के समय से कलिंग जैन धर्म का केन्द्र रहा। उनके उत्तरवर्ती तीर्थकरों विशेषकर पार्श्वनाथ और महावीर ने अपने संघ के साथ सम्पूर्ण कलिंग देश में विहार कर जैनधर्म का उपदेश दिया और उसे स्थायित्व प्रदान किया। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के निर्वाण के पश्चात् कलिंग में जैन धर्म : भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् अर्थात् ई.पू. ५२७ के १०० वर्ष पश्चात्, कलिंग (प्राचीन उडीसा) में जैन धर्म राजकीय धर्म मानलिया गया था। उत्तर भारत में जैनधर्मनामक अपनी कृति मे चिमनलाल जैचंद शाह लिखते हैं कि उड़ीसा में जैन धर्म प्रवेश हो कर अन्तिम तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के १०० वर्ष पश्चात् ही जैन धर्म वहाँ का राज धर्म भी बन गया था। यह सब शिलालेख से प्रमाणित होता है। खारवेल का हाथी गुम्फा शिलालेख इस बात का आज भी साक्षी है कि ई.पू पांचवीं शताब्दी में कलिंग में जैन धर्म का बहुत प्रचार था। यहाँ के जन-जन उसके आराधक एवं पुजारी थे। उक्त शिलालेख में नन्द राजा का दो बार उल्लेख हुआ है। पहली वार उल्लेख पांचवीं पंक्ति में और दूसरी बार १२वीं पंक्ति में हुआ है। वहाँ कहा गया है कि नंदराजनीतं कालिंगजिन संनिवेसं कलिंग राज च नराति। उक्त पंक्ति से ज्ञात होता है कि नन्द राजा ने अपने राज्य की सीमा बढ़ाने की इच्छा से कलिंग पर आक्रमण किया था। कलिंग पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् विजय चिन्ह स्वरूप वहाँ की राजधानी में पूजी जाने वाली कलिंग जिन की मूर्ति को अपने साथ मगध ले गये थे। इस कथन से दो महत्वपूर्ण बिन्दु उद्घाटित होते हैं कि जिस समय नन्दराजा ने कलिंग पर आक्रमण किया उस समय कलिंग देश जैन धर्म का गढ़ बन चुका था और कलिंग वासियों के मध्य में वह धर्म लोकप्रिय हो चुका था। वे कलिंग जिन की पूजार्चना किया करते थे। Jain monoments of Orissa में आर.पी. महापात्र ने कहा भी है: "Therefore the Nandaraja who took away the image of Jina from Kalinga.... This reference is very interesting from the point of view of ancient religion of Orissa. It points out that Orissa since the time of mahavira contained to be the stronghold of Jainism in as much as the Nandraja carried of the image of Jina as the highest trophy. It therefore follows that Jainism was the major religion of Kalinga in the forth century B.C. and we shall not be far from the truth, if we conclude that it we its state religion.' Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमनलाल जैचंद शाह भी उत्तर भारत में जैनधर्म (पृ.१५१) नामक अपनी कृति में कहते है कि नन्द राजा की कलिंग विजय के समय वहाँ जैन धर्म प्रचलित धर्म था। इसका समर्थन करते हुए जायसवाल कहते हैं कि शैशुनाग वंश को नन्दिवर्धन अर्थात् राजा नन्द के समय में ही जैन धर्म उडीसा में प्रवेश कर चुका था। खारवेल के समय के पूर्व उदयगिरि पहाड़ीपर अर्हतों के मंदिर थे। क्यों कि शिला लेख में उनका अस्तित्व खारवेल के समय से पूर्व संस्थानों के रूप में वर्णन किया गया है। ऐसा लगता है कि कुछ सदियों से जैन धर्म उड़ीसा का राष्ट्रीय धर्म था। के.सी पाणिग्राही ने हिस्ट्री ऑफ उड़ीसा (पृ.२९६) में लिखा है कि : “.... Mahavira visited it, and since then it continued to be one of its major religions at least up to the end of the first century B.C. when Kharavela's dynasty seems to have ended." नन्द राजा अर्थात् विद्वानों द्वारा मान्य महापद्म राजा के द्वारा कलिंग जिन को कलिंग से मगध ले जाने से स्पष्ट है कि ई.पू ४-५ शताब्दी में कलिंग में जैन धर्म एक महान धर्म था। जो सम्पूर्ण कलिंग में प्रतिष्ठित था। और उस समय भी यह धर्म राष्ट्र धर्म के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका था। के.सी.पाणिग्राही ने हिस्ट्री ऑफ उड़ीसा (पृ.२९७) में कहा भी है: "The honoured real was an object of worship among the Kalinga people who must have left and resented its loss. It there follows that Jainism was the major religion of Kalinga in the fourth century B.C. and we shall not be far from he truth if we conclude that it was its state religion. आर.पी. महापात्र ने भी जैन मोनुमेंट्स (पृ.२०) में कहा है: "It therefore follows that jainism was the major religion in the fourth century B.C. and we shall not far from the truth, if we conclude that it was the state religion." - यहाँ महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उक्त प्रसंग में नन्दराजा से तात्पर्य महापद्मनन्द से है। महापद्मनन्द जैन धर्मानुयायी थे। महापद्मनन्द का समय इतिहास के विद्वानों Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने ई.पू.२५० माना है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ई.पू.४५० के पहले जैनधर्म कलिंग में व्याप्त और लोकप्रिय धर्म बन चुका था। किसी मूर्ति विशेष का आदर सम्मान करना नन्द राजा की महानता का सूचक है। प्राचीन उड़ीसा में राजा महापद्म नन्द के शासन काल में जैन धर्म की बहुत उन्नति हुई थी। कलिंग विजय के पश्चात् नन्द राजा द्वारा कलिंग में प्रवल और प्रभावशाली प्रमुख जैन धर्म को नष्ट कर देने के कोई प्रमाण और कारण नहीं प्रतीत होते हैं। इसके विपरीत नन्द राजा के शासन काल में भी जैनधर्म कलिंग देश का प्रधान धर्म बना रहा। आर.पी. महापात्र और के.सी. पाणिग्राही ने अपनी-अपनी कृतियों में कहा भी है : "There is however no reason to think that Jainism ceased to be the dominant religion of Kalinga soon after its conquest by the Nandas. It must have continued as the major religion of this country." (द्रष्टव्य जैन मोनुमेंट्स ऑफ उड़ीसा पृ.२० और हिष्ट्री ऑफ उड़ीसा पृ.२९७) कलिंग जिन की मूर्ति का उल्लेख ई.पू.५-४ शताब्दी में जैन धर्म संस्कृति की प्राचीनता का द्योतक है। वहीं दूसरी ओर इस बात का प्रतीक भी है कि मूर्तिकला सर्व प्रथम उड़ीसा में प्रारम्भ हुई थी। सम्राट अशोक का कलिंग पर आक्रमण: महापद्म नन्द राजा के लम्बे समय तक राज्य करने के पश्चात् और सम्राट अशोक के मध्य काल का प्राचीन उड़ीसा का इतिहास रिक्त प्रतीत होता है। नन्द वंश के पश्चात् मोर्य वंश का उदय हुआ। उस वंश का राजा चन्द्रगुप्त और उसका पुत्र विन्दुसार जैन धर्मानुयायी थे, लेकिन इन्होंने कलिंग पर शासन किया, ऐसा कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। बिन्दुसार का पुत्र सम्राट अशोक कलिंग और जैनधर्म की दृष्टि से विचारणीय हैं। अशोक जैनधर्म के मानने वाले कुल में उत्पन्न हुआ था। उसे जैन धर्म वंशानुक्रम से प्राप्त हुआ था। जैन साहित्य में अशोक को जैन राजा माना गया है। पं. कैलास चन्द्र शास्त्री प्रभृति विद्वानों की मान्यता है कि सम्राट अशोक प्रारम्भ में जैन थे। विदेशी विद्वान एड्वर्ड टामस ने Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंडियन एण्टीपवेरी (सं.८, १८६९, पृ.३०) में माना है कि अशोक सम्राट का आकर्षण अपने पितामह चन्द्रगुप्त के धर्म की ओर था। वे कहते हैं कि : _ अकवर के कुशल मंत्री अबुल-फजल ने आईन ए अकवरी में काश्मीर के राज्य के लिए तीन आवश्यक तथ्य कहे हैं- जिस में से पहला तथ्य यह है कि अशोक ने स्वयं काश्मीर में जैन धर्म का प्रचार किया था। अशोक के काश्मीर में जैन धर्म प्रचार की बात केवल मुसलमान ग्रन्थकार ही नहीं करते हैं, अपितु राजतरंगिणी में भी यह स्पष्ट स्वीकार करने में आई है। (द्रष्टव्य उत्तर भारत में जैन धर्म पृ.१२१)। कुछ विद्वान अशोक को हिन्दू और कुछ बौद्ध धर्मानुयामी मानते हैं, लेकिन यह दावे के साथ कहा जासकता है कि वे प्रारम्भ में जैन थे। वे धीरे धीरे बदलते गये और अन्त में बौद्ध धर्म की ओर पूर्ण रूप से झुक गये। एच.एच. विल्सन, जे. एफ. फलीट, जैम्स एस मैकफेल आदि विद्वान भी अशोक सम्राट को बौद्ध धर्मानुयायी नहीं मानते थे। सम्भवत: अशोक ने कलिंग पर आक्रमण करने के कुछ समय पूर्व बैद्धों के धर्म से प्रभावित हो कर अपना धर्म परिवर्तित कर दिया था। लेकिन जैन धर्म की पवित्रता और जीवन की शाश्वता सम्बन्धी को जैन सिद्धान्त से अन्त तक प्रभावित रहा। इतिहासकारों की मान्यता है कि ई.पू.२६१ में पूर्वाग्रह तथा सम्प्रदाय से पीड़ित हो कर और बौद्ध भिक्षुओं के बहकावे से प्रेरित हो कर अशोक ने जैनियों के गढ़ माने जाने वाले कलिंग देश पर आक्रमण किया था। उसने जैनधर्म और जैनधर्म को मानने वालों को कुचलने और नष्ट-भ्रष्ट करने का प्रयास किया था। लेकिन वह बौद्ध धर्म को कलिंग में प्रवेश करवा कर भी जैन धर्म को नष्ट नहीं कर सका। उस समय भी जैन धर्म कलिंग के प्रमुख और प्रभावशाली धर्म के रूप में माना जाता रहा। आर.पी महापात्र ने जैन मोनुमेंट्स (पृ.२०) में और के.सी. पाणिग्राही आदि ने हिस्ट्री ऑफ उड़ीसा (२९७-२९८) में कहा भी है: “..... But it can not be imagined that Buddhism under Ashok had completely ousted the old religion of Jainism in Kalinga." "Jainism must have continued as one of the main religions of Orissa after the Kalinga war of 261 B.C." Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहने का तात्पर्य यह है कि अशोक के निर्मम और क्रूरपूर्ण आक्रमण से शोकाकुल हुए कलिंगवासियों ने भले ही जोरजबरदस्ती से खारवेल के पूर्वजों के समय कलिंग में जैन धर्म का स्वीकार करने वालों ने ऊपरी तौर पर जैन धर्म को छोड़ दिआ हो अर्थात् बनावटी बौद्ध धर्म को मानने का स्वांग किया हो, लेकिन वे अपने अन्त:करण जैन धर्म का परित्याग नहीं कर सके थे। इस कथन का प्रमाण यही है कि जब कलिंग पुन: राजनैतिक और धार्मिक दृष्टि से स्वतंत्र हुआ तो जैन धर्म को पुन: कलिंग वासियों ने स्वीकार कर उसे राष्ट्रीय धर्म के रूप में प्रतिष्ठित होने का गौरव प्रदान किया । सम्राट अशोक द्वारा विजयी कलिंग पुनः कब स्वतंत्र हुआ ? इस विषय में सुनिश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। लेकिन अनुमान किया जाता है कि अशोक के उत्तराधिकारी कलिंग को अधिक समय तक गुलाम बनाये रखने में समर्थ नहीं हो सके। ऐसा प्रतीत होता है कि सम्राट खारवेल के पूर्वजों ने इसे स्वतंत्र करबाया होगा। उक्त अनुमान करने का आधार हाथी गुम्फा शिलालेख का विवरण है। जैन मोमेंट्स में कहा भी है: "We do not know when Kalinga became free again, but it seems being that she regained her independence in the region of one of Ashoka's weak successors. As any rate there is little doubt that Kalinga had become an independent country under Kharavela's dynasty of which the Hathigumpha inscription provides us with definite information." हाथी गुम्फा शिला लेख से ज्ञात होता है कि खारवेल का बचपन एक स्वतंत्र राजा के राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ था। वे चेदिवंश की दूसरी पीढ़ी में हुए स्वतंत्र कलिंग देश के किसी जैन राजा के पुत्र थे, क्यों कि उन्होंने अपने आप को चेदिवंश की तीसरी पीढ़ी का राजा होना माना है । इसका अर्थ स्पष्ट है कि चेदिवंश के किसी राजा ने कलिंग को मगध सम्राज्य की गुलामी से मुक्ति दिलाई थी। चेदिवंश एक प्राचीन राजवंश है। हरिवंश पुराण में चेदिवंश की विस्तृत वंशावली दी गई है। मालवा प्रान्त की वर्तमान चन्देरी नगरी के समीपवर्ती क्षेत्र में चेदि क्षत्रिय रहते रहे होंगे । पुन्नाट संघी आचार्य जिनसेन कृत हरिवंश पुराण (के १७ वें सर्ग के ३६२ १२ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक) से ज्ञात होता है कि विन्ध्याचल के समीपवर्ती क्षेत्र में चेदिराष्ट्र की स्थापना अभिचन्द्र राजा ने की थी। यथा: विन्ध्य पृष्ठेऽभिचन्द्रेण चेदिराष्ट्रमाधिष्ठितम्। शुक्तिमत्यास्तटे ऽध्यायि नाम्ना सुक्तिमतीपुरी।। उक्त श्लोक से अभिव्यक्त होता है कि चेदी देश की स्थापना सुक्ति नदी के किनारे पर हुई थी और उत देश की राजधानी की नाम सुक्तिमती पुरी था। अब प्रश्न होता है कि उक्त सुक्तिमती नदी आज कहाँ है ? एन्.के.साहु ने पार्जिटर के मत का प्रस्तुत करते हुए मध्य प्रदेश में बहनेवाली केन नदी को ही सुक्तिमती कहा है। उन के कथनानुसार यमुना नदी के दक्षिण में चम्बल और करवी के बीचोंबीच फैला हुआ मैदान था। यदि यह कथन सत्य मानलिया जाए तो मेरे मत की पुष्टि हो जाती है, कि बुन्देलखण्ड के वर्तमान चन्देरी में ही चेदिवंशवाले रहते थे। उनकी एक शाखा कभी उड़ीसा के आस-पास आकर बस गई होगी। इसी शाखा.के प्रभावशाली व्यक्ति तत्कालीन प्राचीन उड़ीसा के राज्य पद पर आसीन हुआ होगा। इसी व्यक्ति ने अवसर पाकर अपने को तत्कालिन कलिंग का राजा घोषित कर दिया होगा। डॉ.शशिकान्त जैन और डॉ.राजाराम जैन का भी यही मत है। एन्.के.साहु ने खारवेल की वंश की (खारवेल पृ.१८-३१) विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने बलाङ्गीर में बहने वाली शुकतेल नदी को सुक्तिमती नदी मानकर चेदि राज्य कलिंग के आसपास मानकर कहा है कि महामेघवाहन ने कलिंग में चेदि राज्य की स्थापना कर वह प्रथम राजा हुआ। कहा भी है: “Both Vimalsuri and Dhanapala describe Meghavahana as a powerful and adventurous king according to Vimalsuri he got possession of the territory of Lanka where he established the rule of Vidyadhara family. Dhanapala states that king Meghavahana acquired mastery over aparajita Vidha (The becoming invincible) and satisfying Rajalaxmi obtained royal glory. This seems to be a veiled reference to his extension of royal authority over Kalinga, which was great achievement." उक्त उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि चेदि वंश के क्षत्रिय राजा महामेघवाहन कलिंग के प्रथम शक्तिशाली राजा हुए थे। दूसरे शब्दों में मेघवाहन ने कलिंग में Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेदिवंश की स्थापना की थी। खारवेल ने हाथीगुम्फा शीलालेख में अपने को कलिंग में चेदिवंश की तीसरी पीढ़ी का राजा कहा है। अब प्रश्न होता है कि महामेघवाहन के पश्चात् उनका अधिकारी और खारवेल का पूर्ववर्ती कलिंग का राजा कौन था? यह एक जटिल प्रश्न है, क्योंकि खारवेल की शिलालेख में दूसरे राजा के नाम का उल्लेख नहीं हुआ है। दूसरी वात यह है कि उक्त शिलालेख में खारवेल का उल्लेख हम उनकी पन्द्रह वर्षीय वाल्यावस्था से पाते है। इससे सिद्ध होता है कि उनका पिता का देहान्त शैशवावस्था में हो गया होगा, जिसे खारवेल ने देखा भी नहीं होगा। एन.के.साहु की मान्यता है कि उक्त शिलालेख में महाराज मेघवाहन चेतराज का उल्लेख हुआ है। अत: महामेघवाहन के पश्चात् चेदिवंश के चेतराज कलिंग के राजा हुए थे, जो खारवेल के पिता भी थे। (खारवेल पृ.२०)में कहा भी है: The name of the son and successor of king Meghavahana is not known from the literary works referred to above the second king of the Chedi royal dynasty of Kalinga was very likely named chetaraja as known from the Hatigumpha Inscription. This king had a premature death when his son Kharvela was 15yrs of age. The young prince assumed the reins of government as Youvaraja (Crown Prince) and on completion of the 24 yrs. was anointed as king of kalinga. पृ.१८ मे भी कहा है : “In the contest with of the record .... there can be no doubt that Kharvala who descented from two rulers belonged to the Chedi royal family of Kalinga." __अब यह सुनिश्चित होगया की ई.पू. दूसरी और पहली सताब्दी के प्रारम्भ में कलिंग देश में चेदि वंश के राजाओं का राज्य रहा। उक्त तीनों राजाओं में खारवेल अद्भुत धीर, वीर और शौर्यशाली राजा हुए थे। पिता के अभाव में जब १५वर्ष अवस्था में युवराज बने तब तक उनकी ओर से कोई दूसरा राज्याधिकारी प्रशासन करता रहा होगा। किन्तु जैसे ही वे राज्यानुसार शिक्षा संपन्न हुए तो २४वर्ष की अवस्था में वे कलिंगाधिपति के सिंहासन पर आरूढ़ हो गये। राजा खारवेल का व्यक्तित्व उनका राज्य प्रशासनादि का विवेचन अगले शीर्षकों में किया जाएगा। १४ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख) खारवेल कालीन जैनधर्म खारवेल का व्यक्तित्त्व और कर्तृत्त्व प्राचीन काल में कलिंग विश्व का एक महान् देश था। यह देश पुरातन काल से महान् धार्मिक अन्दोलनों की उर्वरा भूमि के रूप में प्रसिद्ध रहा। जैन धर्म विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है। खारवेल कलिंग देश के एक महान् जैन धर्मानुयायी सम्राट् के रूप में विश्रुत थे। यद्यपि इतिहास के आलोड़न से ज्ञात होता है कि जैन धर्म के मानने वाले और उक्त धर्म को राजाश्रय प्रदान करने वालों में शैशुनागवंश के राजा बिन्दुसार (श्रीटिक), नन्दवंश के राजा नन्द (महापद्म नन्द), मौर्य वंश के राजा चन्द्र गुप्त और चेदिवंश के राजा खारवेल गणनीय हैं। इनमें से राजा खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख के आधार पर कहा जा सकता हैं कि मौर्यवंशी राजा चन्द्रगुप्त के अलावा ऐसा कोई राजा नहीं है जिसे चेदिवंशी राजा खारवेल के साथ प्रामाणिक रूप से रखा जा सके क्यों कि जैन इतिहास में खारवेल का महान् अवदान रहा। उसके योगदान को किसी से कम नहीं वल्कि अत्यधिक और अनुपम ही समझना चाहिए। खारवेल जैन धर्म-संस्कृति और अंग साहित्य के महान् संरक्षक, संप्रसारक और संवर्धक रूप में जाने जाते हैं। वे केवल जन्म से ही जैन राजा नहीं थे बल्कि जैनत्व को उन्होंने अपने जीवन में समाहित कर लिया था। नैतिकता के सर्वोच शिखर पर विराजमान होने के कारण वे प्रातः स्मरणीय स्तवनीय और पूजनीय हैं। उनके द्वारा किये गये मानवीय कार्यों के कारण जैन और जैनेतर उडीसावासी, प्रतिवर्ष सम्राट् खारवेल महोत्सव का आयोजन कर कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। खारवेल ज्ञापक साहित्य: उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में ऐसा कोई नहीं था, जो ई.पू. दूसरी शताव्दी में हुए सम्राट् खारवेल के शौर्य, पराक्रम, विद्वत्ता, शील और धार्मिक गुणों को नमन न करता हो और उनकी प्रशासनिक क्षमता और वैभवशाली चतुरगिणी सैना के स्मरण मात्र से काँप नही जाता हो। ऐसे महान् सम्राट् खारवेल का जन्म कब और कहाँ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ ? उनके माता-पिता कौन थे ? उनके जीवन का अन्त कब और कैसे हुआ ? इत्यदि जिज्ञासाओं का समाधान करने वाला एकमात्र साधन हाथीगुम्फा शिलालेख ही है, जो उडीसा की उदयगिरि की एक चट्टान की छत की कगार पर स्वयं खारवेल द्वारा खुदवाया गया था और जो जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और अनुपम है। इसके अलावा हमारे पास इस महान अद्भुत व्यकितत्व वाले राजा खारवेल को जानने के लिए कोई साधन नहीं है। वर्तमान में न सो इतिहासज्ञो के पास न पुरातत्त्वज्ञों के पास ओर न जैनियों के पास कोई साहित्य है और न कोई ठोस प्रमाण है जिसके आधार पर उस अनुपम राजा खारवेल के विशाल व्यकितत्व को जाना जा सके। संभव है भविष्य में किसी पुरातत्त्ववेत्ता को उनके संबंध में अधिक जानकारी देने वाला कोई प्रमाणिक अभिलेख मिल जाये। खारवेल की जन्म भूमि और उनके पूर्वजः हाथीगुम्फा शिलालेख के आन्तरिक विश्लेषण के आधार, पर जिस में उनके वाल्यावस्था से लेकर राजसिंहासन पर आरूढ होने के बाद १३ वर्षों का विवरण प्राप्त है, विद्वानों ने उसकी जन्म तिथि, जन्मभूमि आदि का ऊहापोहपूर्वक विश्लेषण किया है। नवीन कुमार साहु ने अंग्रेजी भाषा में लिखित खारवेल नामक अपनी कृति (पृ१-५३) में देश - विदेश के विद्वानों के विचारों का तार्किक परीक्षण किया है। खारवेल का जन्म ई. पू. दूसरी शताब्दी में चेदि-वंश में हुआ था। उक्त शिलालेख की प्रथम पंक्ति में कहा भी है : चेतराज वस वधनेन अर्थात् उन्होंने चेदि वंश की गौरव गरिमा में वृद्धि की थी। इसके साथ है १७ वी पंक्ति में राजसि वसुकुल विनिसितो कह कर उन्होंने अपने को वसुकुल का होना प्रकट किया है। चेदिवंश पुराना वंश है। इसका उल्लेख विमलसूरि कृत पउमचरितं और जिनसेन कृत हरिवंश पुराण सर्ग (१७/३६) में हुआ है। जिनसेन के अनुसार चेदिवंश की स्थापना पर्वत की तलहटी में शुक्तिमती (केन) नदी के किनारे अभिचन्द राजा ने की थी। इसकी राजधानी शुकितमती पुरी थी। राजर्षि वसु को अभिचन्द का पुत्र कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसी चेदिवंश ने अवसर पाकर कलिंग में १६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामेघवाहन नामक किसी प्रभावकारी और प्रतापी व्यक्ति ने चेदि शासन की प्रतिष्ठा की हो। अत: खारवेल का अपने आपको चेदिवंश का कहना उचित ही है। खारवेल का पूरा नाम ऐरेण महाराजेन महामेघवाहनेन चेतराज। अर्थात् आर्य महाराज महामेघवाहन कलिंगपति श्री खारवेल था। इस कथन से सिद्ध होता है कि खारवेल आर्य जाति में उत्पन्न क्षत्रिय थे। महामेघवाहन एक उपाधि भी है। जैसे शातवाहन, धधिवाहन, नरवाहन आदि। महामेघवाहन शब्द का अर्थ इन्द्र है। अत: जो इन्द्र के समान शक्तिशाली थे ऐसे महाराज खारवेल। - यहाँ ध्यातव्य है कि खारवेल ने अपने आपको चेदिवंश की तीसरी पीढी का राजा कहा है। इस कथन से सिद्ध होता है कि महाराजा मेघवाहन खारवेल के दादा और चेदराज इनके पिता थे। शिलालेख में इनकी जननी और जन्म भूमि का उल्लेख नहीं हुआ है। फिर भी उनकी जन्म भूमि तोषाली (धौलिगिरि) के निकट शिशुपाल गढ़ रही होगी। इसका प्रमाण वहाँ खोदाई करने पर किले का प्राप्त होना हैं। खारवेल इस शब्द का अर्थ क्षार अर्थात् खारा और वेल का अर्थ किनारा या उपवन करके के. पी. जायसवाल ने कहा है कि वे भयानक और काले रंग के थे। उनका जन्म समुद्र के किनारे हुआ था। भाषा विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान सुनीति कुमार चटर्जी ने खारवेल शब्द को द्रविण शब्द माना है और इसका अर्थ काला बतलाकर कहा है कि वे कृष्ण अर्थात् काले रंग के शरीर वाले थे। लेकिन उक्त दोनों कथन ठीक नहीं हैं। क्योकि चटर्जी का मत हाथी गुम्फा शिलालेख से भिन्न और विरुद्ध जान पडता है। उक्त शिलालेख में उन्हें सीरि कडार सरीरवता अर्थात् सुन्दर और पिंगल अर्थात लालिमा संयुक्त भूरी रंग (अत्यधिक गौरवर्ण) के सौम्य और सुन्दर शरीर वाला कहा गया है। उक्त कथन से स्पष्ट है कि वे काले और भयानक नहीं थे। उनका शरीर शुभ लक्षणों से सुशोभित था। वे यशस्वी थे। उसके पराक्रम आदि गुण चतुर्दिकों में व्याप्त थे। कहाभि है : पसथ सुभलखलेन चतुरंत लुठ(न) गुणे उपेनेत कलिंगाधिपतिनासिरि खालवेन। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारावस्था और शिक्षा-प्रशिक्षण: खारवेल की कुमारावस्था का प्रारम्भिक काल कुमार-सुलभ अर्थात् स्वाभाविक और स्वच्छन्द पूर्वक खेल खेलने में व्यतीत हुआ। क्रीडाएँ करते हुए उन्होंने राजकुमार के योग्य शिक्षा ग्रहण की थी। कहा भी है :(पंक्तिर)" पंदरस वसानि..... कीडिता कुमार कीडिका। ततो लेख रूप गणना ववहार विधि विसारदेन सव विजा वदातेन।" अर्थात् खारवेल कुशाग्र बुद्धि और अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। खेल खेलते हुए वचपन अर्थात् वे पन्द्रह वर्ष की अवस्था में ही समस्त विद्याओं के ज्ञाता हो गये थे। उन्होंने लेख अर्थात् राजकीय ढंग से पत्र लिखने में, रूप (मुद्रा या अर्थशास्त्र) गणित, व्यवहार, अर्थात् न्याय और कानून (स्थानीय प्रशासन) विषयों में दक्षता प्राप्त कर ली थी। उक्त शिलालेख की पाँचवी पंक्ति से ज्ञात होता है कि वे गंधर्वशास्त्र के भी ज्ञाता थे, इसलिए उन्हें गंधव वेद बुधो भी कहा गया है। उन्हें राज-प्रशासन करने के प्रशिक्षण हेतु युवराज पद पर प्रतिष्ठित कर दिया गया था। ६ वषों तक युवराज रहने के पश्चात् ही उन्हें चेदिवंश के तीसरे राजा के रूप में उनका अभिषेक किया गया था। जैन राजा: खारवेल के संबंध में प्राय: प्रश्न किये जाते हैं कि वे जैन धर्म के अनुयायी थे या अजैन ? यदि वे जैन धर्म के पुजारी थे तो क्या वे जन्म से जैन थे या सम्राट अशोक की तरह जैन धर्म उनका आयाचित धर्म था ? उक्त जिज्ञासित प्रश्नों का समाधान हाथी गम्फा शिलालेख में प्राप्त है। इसके आधार पर कहा जाता है कि वे जन्म और कर्म से जैन राजा थे। इसके निम्मांकित प्रमाण हैं। १. हाथीगुम्फा शिलालेख का प्रारम्भ जैन धर्म में मान्य पाँच परमेष्ठियों में से दो परमेष्ठियों, अहंत और समस्त सिद्धों को नमन पूर्वक किया गया है। यथा णमो अरहंतानं। णमो सवसिधान। इस से ज्ञात होता है कि जैन धर्म में प्रसिद्ध णमोकार मंत्र पर उनकी अटूट श्रद्धा थी और वे अहंत एवं सिद्धों की पूजा किया करते थे। ऐसी श्रद्धा उन्हें जन्म से जैन धर्मानुयायी होना सिद्ध करती है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. ३. चेदिवंश के अन्य राजा अर्थात् खारवेल के पूर्वज भी जैन थे। क्योकि ई.पू ४थी शताव्दी में जब नन्द राजा ने कलिंग पर आक्रमण किया था, उस समय कलिंग में कलिंग जिन अर्थात् आदिनाथ की पूजा होती थी और वे कलिंग जिन को अपने साथ मगध ले गये थे। कलिंग जिन के अभाव में कलिंगवासी उस वेदी की, जहाँ कलिंग जिन विराजमान थे, पूजा किया करते थे। इससे सिद्ध होता है कि खारवेल के पूर्वज जैन धर्म के अनुयायी थे और जैन धर्म खारवेल को विरासत में मिला था। के. पी. जायसवाल ने बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी पत्रिका ३/४४८ में कहा भी है “शैशुनागवंश के नन्दिवर्धन अर्थात् राजा नन्द के समय में जैन धर्म उड़ीसा में प्रवेश कर चुका था। खारवेल के समय के पूर्व उदयगिरि पहाडी पर अर्हतों के मंदिर थे।" चिमनलाल जैचंद शाह भी उत्तर भारत में जैन धर्म (पृष्ठ १२६) में लिखते है। उडीसा में जैन धर्म प्रवेश होकर अंतिम तीर्थकर महावीर के निर्वाण के १०० वर्ष पश्चात् ही जैन धर्म वहाँ का राज धर्म वन गया था। यह सब इस शिलालेख से प्रमाणित होता है। उक्त कथन से भी यही सिद्ध होता है कि खारवेल के पूर्वजों के समय में जैन धर्म प्रचलित धर्म था, जो खारवेल को जन्म से मिला था। नवीन कुमार साहु ने भी अपनी कृति खारवेल (पृ.४७ में) लिखा है: "He was a Jaina by birth and not a convert like Ashoka." ई.पू. ८वीं शताब्दी में भगवान् पार्श्वनाथ के समय में करकण्डु कलिंग के राजा थे। वे जैन धर्म मानने वाले कलिंग के शायद प्रथम राजा थे। खारवेल के पूर्वजों के पहले से ही जैन धर्म कलिंग में व्याप्त था। अत: खारवेल का जन्म जैन कुल में हुआ था। यवन (मुसलमान) राजा डिमित ने जैन धर्म का गढ़ और सिद्ध तीर्थ माने जाने वाले मथुरा पर अधिकार कर लिया था और जैन धर्म के दूसरे क्षेत्र मगध पर आक्रमण करने वाला था, उस समय खारवेल ने उसे भारत से वाहर भगाकर जैन धर्म के सच्चे पुजारी होने का प्रमाण दिया था। कहा भी है कि सनत सेन Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. वाहने विपमुचितं मधुरं अपयातो यवन राज...। उक्त घटना भी उन्हें जन्मजात होना सिद्ध करती है। कलिंग जिन जिसे नन्दराजा अपहरण कर ले गया था उसे मगध के राजा बृहस्पति मित्र से छीन कर लाने की घटना भी उन्हें जन्मजात जैन होना सिद्ध करती है। इसी प्रकार जैन श्रमणों के लिए गुफायें बनवाना, आगमों का उद्धार करना भी उनके जैन होने के प्रमाण है। यद्यपि राजा खारवेल जन्म से और कर्म से जैन राजा थे तो भी सभी धर्मों का सम्मान करते थे। हाथी गुम्फा शिलालेख इस बात का साक्षी है कि सभी धर्मों के प्रति उनका समभाव समादर था। सभी धर्मों के मंदिरों का उन्होंने जीर्णोद्धार किया था। कहा भी है -सवपासंड पूजको सवदेवायतन संकार कारकों...पंकित १७. उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि खारवेल एक धर्मनिरपेक्ष राजा था। कट्टरता उन्हें छू भी नहीं गई थी। एन.के. साहु ने (खारवेल पू.५६) में भी कहा है : “It thus indicates that kharavela was not only showing patronage to the Jaina Arhats but also extending equal respect and honour. खारवेल की पारिवारिक स्थितिः खारवेल के परिवार के संबंध में हाथीगुम्फा शिलालेख में कुछ संकेत तो मिलते है, लेकिन उनका विवाह कब और कहाँ हुआ, इसका उल्लेख उक्त शिलालेख में उपलब्ध नहीं है। वहाँ उनकी दो रानियों के होने का नामोल्लेख ७वीं और १५ वीं पंक्तियों में किया गया है। १. वजिर घरवती रानी २. और सिंहपथ रानी। वजिर घरवती बडी और सिंहपथ रानी छोटी थी। मंचपुरी गुंफा के ऊपरी भाग में स्थित अभिलेख से ज्ञात होता है कि वजिर घरवती चक्रवर्ती सम्राट खारवेल की अग्रमहिषी (पटरानी) थी जो राजा हाथीसिंह की प्रपौत्री और ललार्क राजा की पुत्री थी। कहा भी है -“ राजिनो ललाकस हाथिसिहस पपोतस अगमहिसिना......।" हाथी गुम्फा शिलालेख की १५वीं पंक्ति से ज्ञात होता है कि सिंहपथ रानी राजा सिंहपथ की पुत्री थी। सिंहपथ रानी की इच्छानुसार खारवेल ने अर्हतों के लिए आश्रय २० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनवाये थे। राजा बनने के सातवें वर्ष में वजिर रानी से उन्हें एक पुत्ररत्न की प्रप्ति हुई थी। कहा भी है: “सतमं च वसे पसायतो वजिर धरवति .... समतुक पद (पुनां) स (कुमार)...।" हाथी गुम्फा शिलालेख पंक्ति-७। ___मंचपुरी गुफा में उनके राजकुमार का नाम कुदेपश्री बतलाया गया है। कहा भी है:“ऐरस महाराजस कलिंगाधिपतिनों महामेघवाहनस कुदेपसिरिनों लेणं।” अत: कहा जा सकता है कि खारवेल की दो रानियाँ और एक राजकुमार था। आकर्षक व्यक्तित्व: राजा खारवेल एक महान् व्यक्तित्व के धनी थे। वे अपने समय के दमकते हुए सूर्य और नरोत्तमथे। हाथीगुम्फा शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि अपने समकालिक महान् व्यवितयों में उनकी गणना एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में की जाती थी। उनकी नैतिकता इतनी ऊँची थी कि जिसे कोई राजा नहीं जान सका। वे एक महान् प्रतापी, शक्तिशाली और अविजेय योद्धा थे। भेद नीति को कुत्सित नीति मानने वाले तथा शाम, दंड तथा संधि नीति में कुशल राजा थे। उक्त शिलालेख की १६ वीं और १७ वीं पंक्ति में उन्हें क्षमाशील राजा, भिक्षु राजा, वर्धमान राजा, धर्मराजा, विशेष गुणों में निपुण, समस्त धर्मो को सम्मान (पूजक) समस्त मंदिरों का जीर्णोद्धारक तथा सजाने वाले, अपराजित सेना के सेनापति, विजयचक्र के प्रवर्तक, राज्य के संरक्षक, राजर्षि, राजवंशों और कुल के आश्रयभूत महान् विजयी और मनोरंजन प्रिय राजा कहा गया है। वे सच्चे निष्ठावान श्रावक (उपासक) थे। कहा भी है: “राजभितिनं चिनवतानं वासासितानं पूजानुरत उपासग खारवेल सिरिना।” पंक्ति १४ । वे धर्मशील भिक्षु अर्थात् जैन मुनिथे। अणु व्रती वर्षावास करने वालों की पूजा करने वाले उपाशक थे। नवीन कुमार साहु ने अपनी अंग्रिजी कृति खारवेल के (पू.८६) में का भी है: “It is significant that the inscription while presinting these accounts describes Kharvela as a yati Jaina monk." Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजनीति में दक्षः सम्राट् खारवेल एक कुशल, राजनीतिज्ञ, साहसी और प्रतापी राजा थे। ये अश्व सेना, गज सेना, रथ सेना और पैदल सेना रूपी विशाल सेना के दक्ष सेनापति थे। राजधर्म के निर्वाह (कर्तव्य पालन) और जैन धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने अनेक संघर्ष रूप भयंकर युद्ध किये थे। १. राजा सातकर्णी पर आक्रमणः अपने राजत्व के दूसरे वर्ष में उनकी दृष्टि तत्काल के सर्वशक्तिमान सातवाहन वंश के राजा सातकर्णी की ओर गई। खारवेल ने उनकी शक्ति की उपेक्षा करते हुए एक महान् सेना उस पर चढाई करने के लिए भेज दी। उस समय दोनों सेनाओं के बीच युद्ध होने का उल्लेख हाथी गुम्फा शिलालेख में नहीं हुआ है। वहाँ केवल यही कहा गया है कि उसकी सेना ने कृष्णावेणी नामक नदी को पारकर आसिक नगर (मूषिक) को नष्ट भ्रष्ट कर दिया था। कहा भी है “द्वितीय चवसे सातकनि अचियिता। कन्हवेनां गताय च सेनाय वितासिति असिक नगरं..." उपर्युक्त विवरण के आधार पर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इस प्रथम आक्रमण के उद्देश्य और परिणाम निम्नांक्ति थे: खारवेल का उद्देश्य अपनी विशाल सेना भेज कर जहाँ एक ओर सातकर्णी की शक्ति को चुनोती देना था वहीं दूसरी ओर अपनी अद्भुत शक्ति को प्रदर्शित करना भी था। इस युद्ध अभियान को न तो सफल कहा जा सकता है और न असफल। क्योंकि युद्ध हुआ ही नहीं। सातकर्णी को पराजित करना इस अभियान का उददेश्य नहीं था। ३. सम्भवत: मूषिक नगर पर कब्जा करना ही इस युद्ध का उद्देश्य रहा होगा। मषिक नगर सातकर्णी राजा के किसी मित्र राजा की राजधानी रही होगी. जिसका राजनैतिक और सामरिक दृष्टि से महत्व रहा होगा। यही कारण है कि इस महत्त्वपूर्ण मूषिक नगर को अपने कब्जे में कर के खारवेल की सेना को संतोष करना पड़ा था। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन खारवेल इस विजय से संतुष्ट नहीं हुए थे। लेकिन वे उत्साहित जरूर हुए होगें। यही कारण है कि अपने शासन के चौथे वर्ष में उन्होंने पुन: विन्ध्याचल के जंगलों में रहने वाले विद्याधर जाति के राजाओं को संगठित कर, पुन: सातकर्णी पर आक्रमण किया था। रथिक और भोजक राजाओं ने सामना किया किन्तु वे परास्त हो गये। उन्होंने उनके राजत्त्व सूचक मुकुट और राजछत्र को छीन लिया और अपने चरणों की उनसे पूजा करबाई। का भी है: “तथा चवुथे वसे... वितध मुकुट स.... निखित छत भिंगारे हित रतन सापतेये सव रधिक भोजके वंदापयति ...।" पंक्ति६ . उपर्युक्त दूसरे युद्धभियान के आधार पर कहा जा सकता है कि इस युद्ध में १. राजा खारवेल की बहादुरी और सूझबूझ प्रकट होती है। जिस कारण पश्चिमी राज्यों पर अपना अधिकार जमाने की उनकी महात्वाकांक्षा सफल हो सकी। २. हाथीगुम्फा शिलालेख की उस पंक्ति में राजा सातकर्णी का उल्लेख नहीं हुआ है, लेकिन एन.के.साहु ने अपनी अंग्रेजी कृति खारवेलपृष्ठ - ७७-७८ में माना है कि उस समय सातकर्णी की मृत्यु हो गई थी और राजकुमार छोटे-छोटे थे। इसलिए विधवा रानी के आदेश से उनके मित्र राजा रथिक और भोजक ने खारवेल का सामना किया था। ३. इस युद्ध का परिणाम यह हुआ कि जहाँ एक और सातवाहन राजवंश की शक्ति क्षीण हुई, वहीं दूसरी ओर चेदिवंश के राजा खारवेल की राजनैतिक शक्ति में वृद्धि हुई। इससे उसका उत्साह और बढ़ गया। मगध देश पर आक्रमण : कलिंग और मगध देश परम्परागत दुश्मन थे। ई. पू. चौथी शताब्दी में मगध का राजा नन्द कलिंग की इष्ट पूज्यनीय मूर्ति कलिंग जिन का अपहरण कर अपने देश मगध ले गया था। इसे छीनने के लिए राज़ा खारवेल ने उस पर दो बार आक्रमण किये थे। पहला आक्रमण अपने राजा होने के ८वें वर्ष अथात् ३२ वर्ष की आयु में और दूसरा आक्रमण पहले आक्रमण के चार वर्ष पश्यात् अर्थात् राजा बनने के १२ वें वर्ष में और ३६ वर्ष की आयु में उतर पथ के राजाओं पर विजय करके वापिस आते समय पहला आक्रमणं विशाल सेना के साथ किया था। राजगिरि (राजगृह) २३ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगध की राजधानी के रक्षक गोरथगिरि नामक किले को नष्ट करके सेना ने वहाँ के निवासियों को आतंकित (व्याकुल) कर दिया था, लेकिन वे अपने लक्ष्य में सफल नहीं हुए थे। दूसरे आक्रमण के समय वे विजयश्री प्राप्त करने में सफल रहे। तत्कालीन मगध के राजा बहसतिमित (वृहस्पति मित्र) ने आत्मसमर्पण कर खारवेल राजा के चरणों की पूजा की थी। रानी गुंफा में उनके आत्मसमर्पण का दृश्य उत्कीर्णित है। खारवेल मगध और अंग की अपार संपत्ति ले कर तथा कलिंग जित को वापिस कलिंग लाये थे। इस प्रकार मगध और अंग राज्यों पर उनका अधिकार हो गया था। कहा भी है: मागधं व राजानं वहसतिमितं पादे वंदापयति। नंद राजनीतं कालिंग जिन संनिवेसं गह रतन परिहारे हि अंग मगधवसुंच नयति। पंक्ति१२ . ३. युवन राजा को खदेड़ना : इसी प्रकार उन खारवेल राजा ने जैन धर्म रक्षा की के लिए जैन धर्म के गढ़ समझे जाने वाले मथुरा और मगध पर अधिकार करने के इच्छुक युवन राजा (डिमित) को खदेड़कर भगाने में सफलता प्राप्त की थी। भारत पर विजयः अपने राजप्रशासन के १०वें वर्ष में खारवेल राजा ने भारतवर्ष को जीतने के लिए विशाल सेना प्रेषित की थी। यहाँ भारतवर्ष से तात्पर्य उत्तर भारत से है। इस विजय यात्रा में उसे सुनहली सफलता मिली। पराजित होने वाले और भगेरू राजाओं से उन्हें मणि, रत्न, आदि अपार धनराशि प्राप्त हुई थी। उत्तरापथ (पंजाव आदि) के राज्यों पर इनका अधिकार हो गया था। इस पराक्रमशाली राजा ने युद्ध या आक्रमण के समय शुद्ध राजनीति के परिचायक दंड, संधि और साम नीति का प्रयोग किया था। उन्होंने गंदी या कुनीति स्वरूप भेद नीति का कभी भी सहारा नहीं लिया। कहा भी है : दसमे च वसे दंड संधि सामयो भरधवस पठानं मही जयनं कारापयति...। २४ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेल का दिग्विजय पथ तक्षशिला उत्तरापथ .. हस्तिनापुर मगव मपुरा प्रसपुत्र पाटलिपुत्र ----- राजगृही भोजक नासिक.. ----- अस्सक PAREN. ONS अमरावती HENR Ji -नदियों मदुरा. . राजधानी -- दिग्विजय पथ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमिल राष्ट्रसंघ पर विजयः खारवेल के समय में दक्षिण के देशों ने एक राष्ट्रसंघ बना लिया था, जिसे जीतना दुष्कर था । खारवेल ने अपनी चतुर युद्ध नीति से तेरह सौ वर्ष पुराने तमिल राष्ट्रसंघ को नष्ट कर अपने कलिंग देश को निष्कंटक बना लिया था । पांड्यों पर विजय : दक्षिणी राजा पांड्यों पर उन्होने जल थल दोनों ओर से आक्रमण कर उनसे लाखों रत्नादि प्राप्त किये थे । इस प्रकार दक्षिण में उनका राज हो गया था । उपर्युक्त वर्णित उनके राजनैतिक विवरणों से उनकी रणनीति और दक्षता स्पष्ट हो जाती है। उन्होंने कलिंग देश के राज्य की सीमा पूर्व, पश्चिम उत्तर और दक्षिण तक बढा दी थी। यही कारण है कि मंचपुरी गुंफा के लघु भित्त अभिलेख में उन्हें चक्रवर्ती कहा गया है । यथा: "अरहंत पसादाय... कलिंग चकवतिनो सिरिखारवेलस अगमहिसिना कारितं । " प्रजा के शुभचिन्तक तथा उदार राजा: राजा खारवेल अपनी प्रजा को बहुत प्यार करते थे। अपनी ३५ लाख प्रजा की सुविधा के लिए उन्होंने खिवीर त्र - षि सागर नामक तलाब के तटों पर सीढियों का निर्माण सर्वप्रथम कराया था । कलिंग को सुंदर और आकर्षक बनाने हेतु उन्होंने बागबगीचों का भी पुनरुद्धार करके उन्हें सजाया था । पानी की कमी को दूर करने के लिए १०३ वर्ष पूर्व बनी नहर को कलिंग नगरी तक लाये थे । २. ३. प्रजा के मनोरंजन के लिए वे सदैव मेलों और सामाजिक उत्सवों का आयोजन करवाया करते थे । राजा खारवेल उदार थे। उनका खजाना भरपूर था। उन्होंने राष्ट्रिक और भोजक आदि चतुर्दिक के राजाओं को प्ररास्त कर मणि, रत्न आदि प्रप्त किये थे। उन्होंने शहरी और ग्रामीण सम्पूर्ण प्रजा के करों को माफ कर दिया था । इसके अलावा प्रजा को अनेक रियायतें देने की घोषणाएँ भी की थीं। २६ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. कहा भी है: “अभिसितो च छठे वसे राजसेयं संदंसयं तो सवकरण अनुग्रह अनेकानि सतसहसानि विसजति पोरं जानपदं।” पंक्ति ६७. राजा खारवेल उदार दानदाता थे। उन्होने मथुरा से लाये गये पल्लव युक्त कल्पवृक्ष प्रत्येक नागरिक को दिये थे। इसके अलावा समस्त ब्राह्मणों को, विजय से प्राप्त धन और कल्प वृक्ष वितरित किये थे। कहा भी है: “कपरूखे.... बम्हणानां जय परिहर ददाति।” पंक्ति ६। उक्त कथनों से राजा खारवेल की दानशीलता प्रकट होती है। धर्म निरपेक्षः यद्यपि राजा खारवेल जन्मना और कर्मणा जैन थे तो भी वे उदार तथा धर्म निरपेक्ष राजा थे। समस्त धर्मो को सम्मान देते थे। यही कारण है कि हाथीगुम्फा शिलालेख में उन्हें धर्मराजा, सर्वपासंड अर्थात् सर्व धर्म पूजक और सवदेवायतन संकारकारको अथात् समस्त धर्मों के मंदिरों के निर्माता और जीर्णोद्धारक कहा गया है। उन्होंने तत्कालीन यतियों तापसों और त्र-षियों श्रमणों और अर्हतों विश्राम हेतु अनेक गुफाओं रूप आश्रयों का निर्माण करवाया था। पंक्ति १५ में कहा भी है : .... "सकत समण सुविहितानं च सव दिशानं यतिनं तपस इसिनं संघायनं ...। सिंहपथ रानिस (भलासेहि)।" निर्माण-कार्य : १. राजा खारवेल ने अपने शासनकाल में अनेक निमाणि कार्य किए थे जो निम्नांक्ति है: राजा बनने के प्रथम वर्ष में सर्वप्रथम अपने देश में तूफानों से क्षत-विक्षत या टूटे दुर्ग, प्राकार, गोपुर और अट्टालिकाओं का जीर्णोद्धार करवाकर उन्होंने प्राचीन इमारतों को नया रूप प्रदान किया था। २. खबीरत्र-षि नामक सागर का जीर्णोद्धार कराकर घाटों को बंधवाया था। ३. राजा खारवेल ने अपने राज सिंहासन पर बैठने के पांचवें वर्ष में उस नहर २७ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को, जिसे ई.पू. चौथी शताब्दी में नन्द राजा ने बनवाया था, बढ़ाकार तनसुली के रास्ते से कलिंग नगरी तक लाये थे, ताकि जनता को पानी की असुविधा न हो। ४. हाथीगुम्फा शिलालेख की १० वी पंक्ति में बतलाया गया है कि तत्कालीन ३८ लाख मुद्रा व्यय कर खारवेल ने अपने राजत्व के ९वें वर्ष में एक राजमहल का निर्माण करवाया था जिसका नाम महाविजय प्रासाद था। कहा भी है : “नवमे च वसे राजा निवासं महाविजय पासादं कारयति अठतिसाय सतसहसेहि।" पंक्ति १०.५. पिथुड या पिथुड खारवेल के पहले जैनियों का तीर्थस्थान था। उत्तराध्ययन सूत्र में इसे बंदरगाह बतलाया गया है। लेकिन यह जैन क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध था। संभव है यहाँ कलिंग जिन की मूर्ति प्रतिष्ठित थी। उक्त मूर्ति का अपहरण हो जाने के वाद उस पर किसी जैनेतर राजा ने अधिकार कर दूषित कर दिया था। खारवेल ने उसका पुनरूद्धार किया था। गधों से जुतवाकर उसे पुन: पवित्र कराया। उक्त कार्य उन्होंने अपने प्रशासन के ग्यारहवें वर्ष में किया था। पंक्ति - २२। उक्त शिलालेख की तेरहवीं पंक्ति से सूचित होता है कि उन्होंने कलिंग की तत्कालीन दो हजार मुद्राओं से बहुत मजबूत और सुन्दर गोपुर और शिखरों का निर्माण कराया था। ७. उन्होंने कुमारी पर्वत पर श्रमणों (अर्हतों) के विश्राम हेतु आश्रय स्थलों अर्थात् गुफाओं को अपने शासन के १३ वें वर्ष में बनवाया था। (देखें पंक्ति -१४)। . राजा खारवेल ने अपनी सिंहपथ रानी की इच्छानुसार एक सभागार का निर्माण, अर्हत की निसीदिका (अवशेषों) के समीप और पर्वत की ढलाई में कराया था। इस निर्माण के लिए अनेक योजन दूरी से ३५ लाख शिलायें लाई गई थी। इसका फर्श पाटल रंग का था। इनके स्तम्भों में वैडूर्य मणि जडे हुए थे। इस सुन्दर इमारत के बनवाने में ७५ लाख तत्कालीन मुद्राएँ खर्च हुई थीं। यह महल वही होना चाहिए जिसे वर्तमान में रानीगुम्फा कहा जाता है। २८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त विवरणों से स्पष्ट है कि खारवेल ने अतुल धन व्यय कर सुन्दर इमारतों, मीनारों, स्तूपों और खम्भों (मान स्तम्भों ) का निर्माण करया था। उपासक : राजा खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख के विश्लेषण से सष्ट है कि उनहोंने तेरह वर्षों तक कलिंग देश पर राज्य किया था। उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया था। उनका राज कोष भी अनन्त माणिमोतियों आदि से परिपूर्ण था। अपने राजकर्तव्यों और उपलब्धियों से वे पूर्ण संतुष्ट थे । यही कारण है कि १४ वीं पंक्ति से १७ वीं पंक्ति तक के अध्ययन से हम निष्कर्ष निकालने के लिए विवश है कि अब उनका कोई शत्रु राजा नहीं रह गया था। इसलिए अब उन्होंने अपनी जीवन की धारा को मोड़ दिया था । वे केवल पाक्षिक श्रावक ही नहीं थे अब वे उत्तम कोटि के जैन गृहस्थ अर्थात् उपासक हो गये थे। आगमिक शब्दावली में नैष्ठिक श्रावक हो गये थे। अब उनका झुकाव धार्मिक कृत्यों की ओर हो गया था। वे अर्हतों के परम पुजारी और उपासक हो गये थे । कहा भी है: “तेरसमे च बासे... राजभितिनं चिनवतानं वासासितानं, पूजानुरत उवासग खारवेल सिरिना जीव देह सायिका परिखाता । " अभी तक जो धन सेना और विजययात्राओं में व्यय होता था, अब वह धन उन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों में खर्च करना आरम्भ कर दिया था। जैन धर्म को उन्होंने जीवन में उतारना आरम्भ कर दिया था। जिस कुमारी पर्वत पर भगवान् महावीर का धर्म प्रवर्तन हुआ था और जहाँ उनका विजय चक्र महोत्सव मनाया गया था वहीं उन्होंने त्यागी, व्रती श्रमणों के लिए आश्रय स्थलों का निर्माण कराया था। उन्हें विवेक या भेद विज्ञान हो गया था । जीव और पुद्गल के स्वरूप भेद को अपने जीवन में उतार लिया था । चिमनलाल जैचन्द शाह ने उत्तर भारत में जैन धर्म (पृ.१५६) में कहा भी है : राजा खारवेल निरा नाम का ही जैनी नहीं था अपितु उसने इस धर्म को अपने नित्य नैमित्तिक जीवन में उचित स्थान दिया था | राज्य विस्तार से संतुष्ट होकर उसने धार्मिक कायों में अपनी शक्ति मोड़ दी थी .I २९ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारवेल ने श्रावक के व्रतों की पालना कर जीव और देह का सद्विवेक का अनुभव किया था। आगम के उद्धारक एवं श्रोता: । राजा खारवेल की जैन सम्मत देव, शास्त्र और गुरु रूपी तीन रत्नों में पूरी श्रद्धा थी। हाथीगुम्फा शिलालेख की १६ वी पंक्ति में कहा गया है कि: मुरियकाल वोछिनं च चोयठि अंग संतिकं तुरियं उपादयति। खेमराजा स वधराजा स भिखुराजा धमराजा पसंतों सुनंतो अनुभवंतो कलणानि ...। राजा खारवेल सिरि। अर्थात् मौर्य काल में नष्ट हुए १२ अंगों रूप श्रुत का शीघ्र ही राजा खारवेल ने उद्धार किया था। वे क्षमाशील राजा वर्धमान राजा, भिखुराजा, धर्मराजा अंगों की वाचना को देखता था, सुनता था और अनुभव अर्थात् मनन करता था। शास्त्रों के प्रति उनकी श्रद्धा-भक्ति स्पष्ट है। यहाँ ध्यातव्य है कि मौर्य काल अर्थात् चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में मगध में १२ वर्ष का दुर्भिक्ष पडा था। उस समय श्रुत छिन्न-भिन्न हो गया। कलिंग के राजा खारवेल ने उस समय स्थूलभद्र की अध्यक्षता में हुई शास्त्र वाचना में स्वीकृत शास्त्रों और उनके पाठों को स्वीकार नहीं किया था। वे भद्रबाहु के अनुगामी थे। इसी कारण से खारवेल राजा ने जैन अर्हतों, यतियों, तापसों, पंडितों आदि संघों और संघपतियों को आमंत्रित करके नवीन निर्मित पाटल वर्ण के सुन्दर इमारत में वाचना आयोजित की थी। जिसमें वे स्वयं उपस्थित रहते थे। इस वाचना के द्वारा अंग साहित्य को व्यवस्थित अर्थात् उनके पाठों को अंतिम रूप दिया गया था। . मुरिय काल वोछिनं च चोयठि अंग संतिकं तुरयिं उपादयति। इस पंक्ति के विभिन्न अर्थ निकाल कर विद्वानों ने उसे विवादग्रस्त बना दिया है। एन.के. साहु आदि जैनेतर विद्वानों में चोयठि का अर्थ ६४ करके उक्त पंक्ति का . अर्थ किया है कि मौर्य शासनकाल में अव्यवस्थित चौसठ कला युक्त तौर्यत्रिक अर्थात् नृत्य, संगीत और वाद्य को उन्नतशील बनाया गया था। लेकिन यह अर्थ प्रसंग के अनुकूल नहीं है। ३० Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विद्वान् भी उक्त के अर्थ करने में एक मत नहीं हैं। आचार्य विद्दानन्द महाराज ने चोयठि का अर्थ १२ अंग करके माना है कि मौर्य काल में नष्ट हुए १२ अंगों की वाचना, पृच्छना और अनुप्रेक्ष अर्थात् मनन कर शीघ्र ही उद्धार किया था। डॉ. शशिकान्त जैन लखनऊ, प्रो. राजाराम जैन प्रभृति दिगम्बर विद्वानों ने आचार्य श्री का अनुकरण किया है। श्वेताम्बर विद्वान् चिमनलाल जैचंद शाह ने उक्त पंक्ति का अर्थ करते हुए कहा है कि मौर्य राजा के काल में खोये हुए ६४ प्रकारण वाले चार खंड के अंग सप्तिका ग्रन्थ का उसने उद्धार किया था । अस्तु । उपर्युक्त कथन से सिद्ध है कि खारवेल ने चतुर्दिक में कलिंग राज्य की विजय दुंदुभि बजाकर उसकी सीमाएँ सुदूर तक विस्तृत तथा निष्कंटक कर वे संतुष्ट हो गये थे। तेरहवे वर्ष में अर्थात् ३७ वर्ष की आयु में उत्कृष्ट श्रावक अर्थात् ग्यारहवी प्रतिमाधारी ऐलक हो गये होगें । भिक्षु (मुनि) दीक्षा : सभी विद्धान् इस विषय में एक मत हैं कि हाथीगुम्फा शिलालेख राजा खारवेल के राज्य में प्रशासन के १३ वर्षो के पश्चात् मौन है। १७ वीं पंक्ति में भिक्षु राजा कहा गया है । इससे अनुमान होता है कि जीवन के अंतिम समय में उन्होंने दिगम्बरी मुनि दीक्षा ले ली थी। मेरे इस कथन का दूसरा आधार खण्डगिरि की बारह भुजी गुंफा में चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियों के अतिरिक्त पश्चिमी दीवाल के कोंने में उनकी दिगम्बर भेष में मूर्ति का उत्कीर्डित होना है। उनका कमण्डलु नीचे रखा है। हाथ में पिच्छी लिए हुए ध्यान ३१ मुनि खारवेल Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रा में खडे हैं । उनके चित्र से भी यही स्पष्ट होता है। उनका मुनि दीक्षा लेना असंभव संरक्षण और संप्रसारण में उन्होंने अपना जीवन समर्पित भी नहीं है, क्यों कि जैन धर्म के कर दिया था। इस संबंध में प्रश्न हो सकता है कि उक्त मूर्ति राजा खारवेल की ही है ? इसका क्या प्रमाण है ? वह किसी दूसरे मुनि की भी हो सकती है। इसके उत्तर में इतना कहना पर्याप्त होगा कि राजा खारवेल जैनधर्म के उत्कर्षक थे। उनके कारण ही कलिंग में भगवान् महावीर का धर्म शासन अब तक स्थापित रह सका। उस धर्म को चर्तुर्दक संप्रसारित, संरक्षित और उन्नतशील बनाने वाले खारवेल राजा के अलावा कोई दूसरा नहीं हुआ है। यही कारण है कि उनके उतराधिकारियों ने चौबीस तीर्थंकर के पश्चात् प्रात: काल स्मरणीय खारवेल की मूर्ति उत्कीड़ित कर कृतज्ञता ज्ञापित की। परम पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्द महाराज की भी यही मान्यता है । राजा खारवेल के कारण ही भ. महावीर द्वारा बहाई गई धर्म - गंगा कलिंग में शुष्क नहीं हो सकी। अंत में यह भी कहना चाहता हूँ कि जैन राजाओं में भ. महावीर के निर्वाण के पश्चात् होने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य राजा के अलावा ऐसा कोई भी जैन राजा नहीं हुआ जिसे राजा खारवेल के समक्ष खड़ा किया जा सके। खारवेल जैन मतानुयायियों के लिए मंगल स्वरूप हैं। गौतम गणधर के वाद राजा खारवेल ही परम पूज्य और स्तवनीय है । विहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी पत्रिका १०/८ में डा. के. पी. जायसवाल के प्रकाशित मत 'अनुसार उनका निर्वाण ई. पू. १५२ में हुआ था । के ३२ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) खारवेल और जैनधर्म : खारवेल जैन धर्म के संरक्षक, संवर्धक और संप्रसारक थे। इसका प्रमाण हमे . हाथी गुंफा शिलालेख से प्राप्त होता है। उसके अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि वे स्वतंत्र देश के जैन राजा थे। जैन धर्म उन्हें परम्परा से प्राप्त हुआ था क्यों की उनके पूर्वज भी जैन थे। आर.पी.महापात्र में जैन मनुमेण्टस् (पृ २०) में कहा भी है : “He was the son of an independent Monarch." जैनधर्म को उन्होंने बाद में स्वीकार नहीं किया अर्थात् जैनधर्म उनका आयाचित धर्म नहीं था। जिस प्रकार सम्राट अशोक ने पूर्व में स्वीकृत जैन धर्म को छोड़कर बौद्धधर्म बाद में स्वीकार किया। उस प्रकार का खारवेल ने धर्म परिवर्तन नहीं किया। वे जन्मजात जैनथे। एन.के.साहु ने खारवेल में भी कहा है : "He was a jain by birth and not converted like Ashok." आर.पी. महापात्र ने जैन मनुमेण्टस् (पृ २१)में भी कहा है "Salutation to the Arhats and Sidhas indicating that Kharvela was a jain by birth." 3461 कथन की पुष्टि उनके हाथी गुम्फा शिलालेख से भी होती है। जैनधर्म में पांच परमेष्ठियों को मंगल स्वरूप परम पूज्य माना गया है। अहँत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमेष्ठियों में से अर्हन्तों और समस्त सिद्धां को प्रारम्भ में मंगलाचरण की रूप में नमन किया गया। इसके पश्चात् हाथी गुम्फा शिलालेख की विषय वस्तु अंकित की गई है। यही कारण है कि खारवेल के समय में जैनधर्म उड़ीसा का राज धर्म के पद पर आसीन था। उक्त कथन से दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि खारवेल जैन सिद्धान्तों में विश्वास करता था और उनका व्यवहार में पालन भी करता था। यह नाम मात्र का जैन नहीं था। उत्तर भारत में जैनधर्म (पृ.१२९) में चिमनलाल जैचंद शाह ने लिखा भी है उड़ीसा में जैन धर्म प्रवेश हो कर अंतिम तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के १०० वर्ष पश्चात् ही जैनधर्म वहाँ का राज धर्म बनगया था। ३३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि उस समय ब्राह्मण, बौद्ध धर्म भी कलिंग में मान्य थे लेकिन सर्वश्रेष्ठता के गौरव जैन धर्म को प्राप्त था । खारवेल का यह जैनधर्म को सब से बड़ा अवदान और सम्मान जैनधर्म को राष्ट्रीय धर्म बनाना था। कलिंगजिन कलिंग की प्रतिष्ठा और गौरव पूर्ण वस्तु थी। जिसे मगध का राजा महापद्म नन्द युद्ध विजय के प्रतीक स्वरूप मगध अपने साथ ले गये थे। दो सौ बर्षों में खारवेल के पूर्व कलिंग का कोई ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ था जो कलिंग जिन को वापस ला सके। यह कार्य खारवेल के लिए छोड़ दिया गया था। दूसरे शब्दों में खारवेल को अपने राजत्व काल के ८वें और १२ वें वर्ष में दो वार मगध पर आक्रमण कर कलिंग जिन को वापिस कलिंग लाने का कार्य करना पड़ा था। मंचूरी गुम्फा के बरामदा में खारवेल द्वारा कलिंग जिन की सपरिवार पूजा करने का दृश्य चित्रित किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब राजा खारवेल कलिंगजिन को वापिस लाये थे और उनकी पुन: प्रतिष्ठा सोल्लास पूर्वक पिथंड नामक उस पवित्र स्थल पर की गई थी। जहाँ पर पहले भी उक्त कलिंगजिन स्थापित थे। लेकिन नन्द राजा द्वारा मगध ले जाने के कारण किसी विधर्मी राजा ने उस पर अधिकार कर लिया था। राजा खारवेल ने उस राजा को परास्त कर पिथंड को पुन : शुद्ध करने के लिए गधों से जुतवाया था। गधों से जुतवाने का कारण भावनात्मक चिन्तन था। वृषभ (बैल) आदिनाथ तीर्थंकर का चिन्ह था। वृषभ से जुतवाने पर उनकी अवमानना, अनादर और अश्रद्धा होती, इस लिए खारवेल ने उक्त स्थान को गंधों से जुतवाया था। उक्त प्रसंग खारवेल का जैनधर्म के प्रति दृढ़ता एवं समर्पण का परिचायक है। जैन मोनुमेंटस में आर. पी. महापात्र ने कहाभी है । "The use of asses in place of Bulls.... Kharvela was a devotee of Rsabhanath bull has been spiritually associated wiht the representation Rsabhanath." सम्राट होने के ९ वें वर्ष में राजा खारवेल ने जैनधर्म के संवर्धन, संरक्षण और सम्प्रसारण के कार्य प्रारम्भ कर दिये थे। उस समय मथुरा जैनधर्म का गढ़ माना जाता था। उस पर किसी यवन राजा ने सम्भवत: डिमित ने अधिकार कर लिया था। अब वह मगध को भी जीतने के लिए सान्निध्य था । वह सेना लेकर राजगृही पर चढ़ाई करने के ३४ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए आया हुआ था । उसी समय खारवेल भी मगध पर आक्रमण करने के लिए आये हुए थे। ज्ञात होने पर खारवेल ने उक्त यवन राजा को ललकारा और उसका पीछा करते हुए न केवल मथुरा को यवनों से मुक्त कारया बल्कि उसे अफगानिस्तान की सीमा से बाहर खदेड़ कर मथुरा में जैनधर्म का संरक्षण किया। यह अद्वितीय कार्य उन्हों ने अपने शासन के ८वें वर्ष में किया था। कहा भी है विपमुचितुं मधुरं अपयातो यवन राज.... आर. पी महापात्र ने कहा भी है। "In the ... Kharvela led an expedition to Mathura to protect this age old strong hold of Jainism from the hands of the inveding yavans." खंडगिरि और उदयगिरि की गुंफाओं से ज्ञात हाता है कि राज परिवार और समस्त कलिंग की प्रजा की जैनधर्म और कलिंगजिन के प्रति अटूट श्रद्धा और भक्ति थी । मथुरा से वापिस आ कर राजा खारवेल ने एक जैन मंदिर का निर्माण भी करवाया था । अपने राजत्वकाल के तेरह वें वर्ष में अणुव्रती राजा खारवेल ने जिस कुमारी पर्वत पर भगवान महावीर ने धर्मचक्र प्रर्वतन किया था, वहीं पर श्रमणों के वास्ते वर्षावास करने के लिए गुंफाओं का निर्माण करावाया था । खारवेल श्रमणों के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखते थे, उनकी पूजार्चना करते थे और उनके उपासक थे। जैनधर्म में जीव और अजीव दो स्वतन्त्र तत्व माने गये है। इन दोनों तरवों का स्वरूप भेद विज्ञान से जान कर साधक मोक्ष प्राप्त कर सकता है । खारवेल ने जैनधर्म के इस सिद्धान्त को भलीभांति पूर्वक आत्मसात कर लिया था । अर्थात् वे भेद विज्ञानी थे। कहा भी है "Kharvel's statement in this connection that his sole is dependen (Sarita and Asarita) upon body in accord with Jain concept." खारवेल की सिंहषथ नामक रानी की भी जैन धर्म के प्रति श्रद्धा, विश्वास और उसके प्रति सम्मान था । यही कारण है कि उनकी इच्छानुसार अरहंत की निसीधिका के समीप एक मान स्तम्भ का निर्माण कराया गया था। जिस में मणि जड़े हुए थे। वहीं पर उन्हों ने एक सभागार का निर्माण कराया था। जहाँ पर सभी श्रमण ३५ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति आदि संगोष्ठी क्रिया करते थे। कहा भी है सकत समण सुविहितानं च सव दिसानं यतिनं तपस इसिनं संघायनं अर्हन्त निसीदिया समिपे सिंगपथ रानीस (भलासेही) पटलिक चतरे च वेडुरिय गभे थंभे पटथापयती । पंक्ति १५-१६ खारवेल का सब से महत्त्वपूर्ण कार्य मौर्यकाल में बारहवर्षों तक दुर्भिक्ष पड़ने के कारण छिन्न- मिन्त्र और विनष्ट हुए अंग साहित्य को व्यस्थित करना था । उस समय स्थूलमद्राचार्य की अध्यक्षता में हुई वाचना में निर्णीत अंग साहित्य के पाठों को अस्वीकार कर खारवेल ने चतुर्दिक से श्रमणों को आहूत कर वाचना कराई थी उस में १२ अंग साहित्य को वाचना के द्वारा व्यवस्थित किया गया था। राजा खारवेल स्वयं उस संगोष्ठी में उपस्थित हो कर सुनते थे, मनन करते थे और अनुभव करते थे। हाथी गुंफा शिलालेख की १७वीं पंक्ति में कहा भी है : मुरिय काल वोछिनं च चोयठि अंग संतिकं तुरयिं उपादयति । खेम राजा स वध राजा स भिखु राजा धम राजा पसंतो सुनंत अनुभवंतो कल्याणानि । इससे सिद्ध है कि खारवेल की श्रद्धा आचार्य भद्रवाहु की अध्यक्षता में थी। इस सम्बन्ध में डॉ. शशिकान्त जैन का कथन महत्वपूर्ण है । In front of the assembly hall was set of a palered and quadrilateral pillar in laid with berly apparently to serve replace of the monsteambha in accord with the traditional discription of jain concils as vachnana (reading found in letrature). खारवेल युद्ध भी जैनधर्म के प्रचार प्रसार की दृष्टि से किया करते थे । उसने पश्चिम दक्षिण और उत्तर में जैनधर्म की प्रतिष्ठा की थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म खारवेल के समय में समस्त कलिंग में व्याप्त होने के साथ ही राजधर्म के रूप में प्रसिद्ध था । जैनधर्म का संरक्षक राजा खारवेल का उदय उस समय न हुआ होता तो तीर्थंकर महावीर द्वारा की गई धर्म क्रांति उड़ीसा में उसी प्रकार नष्ट हो गई होती जिस प्रकार तथागत बुद्ध द्वारा की गई बौद्ध धर्म की क्रांति सुयोग्य उत्तरधिकारी के आभाव में ऐसे व्यक्ति के हाथों बिल्कुल नष्ट हो गई। जिसकी ख्याति बौद्ध सिद्धान्त के उन्मूलन कर्ता के नाम से है। ३६ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिंग का महान सम्राट खारवेल जैनधर्म का महान समर्थक, संप्रसारक, संरक्षक और संर्वधक होते हुए भी महान उदार, व्यवहार कुशल और समन्वयात्मक चिन्तक थे। उनके द्वारा जैन धर्म का आधार भूत सिद्धान्त अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को आत्मसात करने का प्रमाण है हमारे समक्ष हाथी गुम्फा शिलालेख की १७वीं पंक्ति प्रस्तुत करती है। वहाँ स्पष्ट कहा गया है कि अपने उदारवादी और धर्म निरपेक्ष गुणों के कारण वे समस्त धर्मों अर्थात् अल्प संख्यकों का सम्मान करते थे और उनकी पूजा करते थे । इतना ही नहीं उन्होंने जैनेतर धर्मों के अधिष्ठानों मंदिरों आदि का जीर्णोद्धार कराया था। दूसरों के धर्म के प्रति समुचित सम्मान की भावना रखने के कारण कलिंग की जनता ने उन्हें खेम राजा, वध राजा, मिखु राजा और धर्म राजा की उपाधियों से सम्मानित किया था। धीरोदात्त गुणों के कारण ही जैनधर्म तत्कालीन कलिंगवासियों की स्वत: जैनधर्म के प्रति सुरुचि प्रगाढ़ होती गई। उसी कारण से जैनधर्म संपूर्ण कलिंग में व्याप्त हो कर राज धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। प्राचीन काल के कलिंग का महान आकर्षक व्यक्तित्व और नैतिकता के शिखर पर प्रतिष्ठित खारवेल की महानता और धर्म निरपेक्षता का यह सुपरिणाम है कि आज अधिकांश प्राचीन स्मारक अर्थात् तीर्थंकरों और शासन देवियों की मूर्तियों को हिन्दू या ब्राह्मणीय मंदिरों में संस्थापित और सुरक्षित पाते है। भगवान महावीर के पश्चात् यादि ई.पू. दूसरी शताब्दी में खारवेल नहीं हुआ होता तो भगवान् महावीर द्वारा बहाई गई जैनधर्म रूपी गंगा की धारा सदैव सदैव के लिए विलुत्प हो गई होती। यही कारण है कि उड़ीसा में जैनधर्म की चर्चा करने पर हमारा ध्यान खारवेल कालीन जैनधर्म की ओर बरवस चला जाता है । अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि महान उदात्त खारवेल के कारण ही आज उड़ीसा में जैन धर्म अवतक अमर है। ३७ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) खारवेलोत्तर जैनधर्म : राजा खारवेल के पश्चात् जैनधर्म की उड़ीसा में क्या स्थिति रही यह सुनिश्चित रूप से कह पाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है। क्यों कि तत्कालीन उड़ीसा का इतिहास अन्धकार में है। यद्यपि ई.पूप्रथम शताब्दी तक जैन बौद्ध और ब्राह्मण धर्मों का उड़ीसा में अस्तित्व था, लेकिन खारवेल के पश्चात् भी बहुत समय तक जैनधर्म राजधर्म के रूप में बना रहा। लेकिन बौद्ध धर्म और शिव धर्म के तेजी से उदित होने के कारण जैनधर्म को हानि उठानी पड़ी। विद्वानों का मानना है कि ई.सन के प्रारम्भ में जैन धर्म का प्रभुत्व उड़ीसा में समाप्त हो गया था अर्थात् जैसा एकछत्र राज्य उड़ीसा में पहले था अब नहीं था। दूसरे शब्दों में उड़ीसा में जैनधर्म का युग समाप्त हो गया था। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि अब जैनधर्म का उड़ीसा में अस्तित्व ही नहीं बचा था। अब जैनधर्म अन्य धर्मों के साथ मिलकर अस्तित्व में बना रहा। जैनधर्म हिन्दू धर्म के प्रति अविरोधी और अप्रतिद्वन्द्वी होने के कारण महत्वपूर्ण सत्ता बनाये रहा। दूसरे शब्दों में जैनधर्म ने हिन्दू धर्म के साथ कभी भी विरोध भाव नहीं रखा। इसी महत्वपूर्ण नीति के कारण जैनधर्म उड़ीसा में बनारहा। उपर्युक्त भावना से काम करने के कारण उड़ीसा में जैन धर्म अन्य धर्मों के साथ निरन्तर अस्तित्व में बना रहा। ई.सन् दूसरी शताब्दी में जैनधर्म के भाग्य ने पुन: पल्टा खाया। बुद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण विस्तार उस समय हो गया, जब सम्पूर्ण कलिंग पर मुरुण्डों का अधिपत्य था। मुरुण्डों ने ई. सन् की दूसरी शताब्दी में किसी समय कलिंग पर आक्रमण किया था। उस समय सातवाहन राजा का राज्य था। उनका पूर्वी भारत में शासन था और पाटलीपुत्र उनकी राजधानी थी। मुरुण्ड के अंतिम राजा गुहशिव के बौद्धधर्म से प्रभावित होने के कारण जैन निग्रन्थ कलिंग छोडकर पाटलीपुत्र चले गये थे। ई.सन् ३-४ शताब्दी में जब नाग वंश और गुप्त वंश का उड़ीसा के केउँझर जिले में राज्य हुआ तो कलिंग में जैनधर्म पुन: निरन्तर गतिशील हो गया। केउँझर जिले के Asanpata अभिलेख से ज्ञात होता है कि वहाँ नागवंशी महाराजा शत्रुभंज ३८ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने वेद वेदाङ्ग का विद्वान और आराधक होते हुए भी धार्मिक अधिष्ठान और जैन निर्ग्रन्थों को बहुत बड़ी मात्रा में धन दान स्वरूप दिया करता था। उक्त स्थान निर्ग्रन्थ की गतिविधि का केन्द्र था। उसके चार ओर जैन तीर्थंकर और शासन देवियों के बहुत बड़ी मात्रा में अवशेष मिलते है। जब मुरुण्ड राजा दक्षिणी कलिंग पर और पित्रिभा कटस अथवा माथरस उत्तरी कलिंग पर शासन कर रहे थे, उस समय कोई नहीं जानता था कि उनके प्रारम्भिक शासन काल में जैन धर्म इतना व्याप्त हो जायेगा। यही कारण है कि उन्होंने भगवान् महावीर के सम्मान में वर्धमान नामक स्थान को अपना मुख्यालय बनाया था। कलिंग के माथर वंश के महाराज उमावर्मन और महाराज नन्दप्रभंजन वर्मा ने वर्धमान सहर से अपने संकल्प निर्धारित किए थे। अर्थात् अपने चरित्र का निमार्ण किया। कलिंग में प्राचीन गंग नरेश माथरों के उत्तराधिकारी हुए। मैसूर के श्रवणवेलगोला अभिलेख के अनुसार गंगवंश के डड्डिंग और माधश नामक राजकुमार दक्षिण में आश्रय भूत स्थल खोज ने के लिये अयोध्या चले गये। रास्ते में सिंहनन्दि नामक जैन मुनि की प्रेरणा से माधश कलिंग में ठहर कर कलिंग में राज्य निर्माणार्थ प्रयास करने लगा। जब की डाड्डिग सुदूर दक्षिण की ओर चला गया। माधस ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया और उस जैन धर्म के सम्मान में हाथी चिन्ह वाली मुहुर तैयार कर उसका उपयोग करने लगा। मैसूर के राजा द्वारा भी हाथी के चिन्ह वाली मुहुर का उपयोग करने के कारण कलिंग के गंगवंश के राजा प्रारम्भिक मध्यकाल में जैनधर्म को बदल कर शैवधर्म के प्रिति निष्ठावान हो गये। लेकिन वे जैनधर्म को भी मानते रहे। राम तीर्थ पहाड़ी पर जैन धर्म के अनेक कार्य किये। उसी समय उन्होंने केउँझर जिले के बूल पहाड़ की तरह रामतीर्थ में एक जैन मंदिर बनवाया। ई.सन् ७ वी शताब्दी में उसी प्रकार के जैन मंदिर का निर्माण चालुक्यों के क्षेत्र में कराया था। ई. सन् ७वी शताब्दी में जैनधर्म उड़ीसा में सुसम्पन्न स्थिति में था। जब उड़ीसा कंगोद, उड़ और कंलिग इन तिन जागीरों में विभाजित था तव चीनी यात्री ह्यूएनत्संग ने ई. सन् ६२९ से ६४५ तक कलिंग में राजनैतिक कारणों से भ्रमण करके कहा था कि कलिंग जैन धर्म का गढ़ था। वहाँ जैनियों की संख्या अत्यधिक थी। वहाँ अनेक संप्रदायों के अनेक लोग रहते थे, लेकिन उसने सबसे Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक संख्या निर्ग्रन्थों की थी। आर. पी. महापात्र ने कहा भी है: “However the observation of the Chinese pilgrim suggests that as late as middle of the 7th century AD Jainism was in flourishing condition in Orissa although Brahmanism had its sway in this region." उसने यह भी लेखा कि उड्र में ५०, कंगोद में १०० और कंलिंग में १०००० तीर्थंकर और देवों के मंदिर थे। बानपुर में प्राप्त ताम्रपात्र से ज्ञात होता है कि ई. सन्. ७-८वीं शताब्दी में कंगोद में जैन धर्मावलम्बि थे और शैलोदभव् वंशी राजा धर्मराज द्वितीय और रानी भगवती कल्याण देवी जैन धर्म की संरक्षिका और संवर्द्धिका थी। उन्हों ने जैन धर्म की वृद्धि के लिये आचार्य अर्हत नासीचन्द्र के शिष्य प्रवुद्ध चन्द्र त्यागी को भूमि दान में दी थी। खंडगिरि की गुफाओं में प्राप्त आलेखों और मूर्ति कला के प्रमाणों से ज्ञात होता है कि ई. सन १०-११ वी शताब्दी तक जैन धर्म उड़ीसा में सुदृढ़ स्थिति में होता रहा । इस समय सोमवंशी राजा का सम्पूर्ण उड़ीसा में राज्य था । यद्यपि उस समय शैव धर्म की प्रमुखता थी। सोमवंशी राजा यायति द्वितीय चन्दीहर महाशिव गुप्त के पुत्र और उत्तरधिकारी उद्योत केशरी सोमवंशी राजा के नवमुनि गुम्फा में दो और ललाटेन्दु में एक अभिलेख उत्कीर्णित हुए उपलब्ध है। नवमुनि गुम्फा के अभिलेख से ज्ञात होता है कि उद्योत राजाई. सन् १०४० - १०६५ के राजत्व काल के १८ वें वर्ष में श्री आर्यसंघ के ग्रहकुल तथा देशी गण के आचार्य कुलचन्द्र भट्टारक के शिष्य शुभचन्द्र कामर पर्वत पर आये थे। उस समय कुमार पर्वत पर कुछ प्रसिद्ध जैन छात्र रहते थे। मुनि शुभचन्द्र ने इस नव मुनि गुंफा का निर्माण कराया था। कहा भी है । ॐ श्री मदुद्योत केशरी देवस्य प्रवर्द्धमाने विजय राज्ये संवत् १८ श्री आर्य संघ प्रतिवद्ध गृहकुल विनिर्गत देशीगण आचार्य श्री कुलचंद्र भट्टारकस्य शिष्य सुभचंद्रस्य । ललाटेन्दु केशरी गुम्फा में निम्नांकित प्राप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि उद्योत केशरी ने अपने शासन के पांचवें वर्ष में कुमार पर्वत के जीर्ण मंदिरों और जीर्ण कुण्डों तालावों आदि की मरम्मत करवाई थी। इसके अतिरिक्त चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियों ४० Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को स्थापित करया था । कहा भी है : ॐ श्री उद्योत केशरी विजय राज्य सम्वत पांच श्री कुमार पव्वत स्थाने जिन्न वापि जिन्न इसण उद्योतित तस्मिन थाने चतुर्विसति तीर्थंकर स्थापित प्रतिष्ठा काले हरिओप जसनंदिक श्री पारसस्यनाथस्य कम्म खया: उक्त अभिलेख में यह भी कहा गया है कि प्रतिष्ठापित चौबीस तीर्थंकरों की पूजा करने के लिए हरिओप जसनन्दि को नियुक्त किया गया था। उक्त अभिलेख में खंडगिरि को कुमार पर्वत पहली बार कहा गया है। इस कथन से प्रकट होता है कि पुरातन काल में उदयगिरि को कुमारी पर्वत और खण्डगिरि को कुमार पर्वत के नाम से जाना जाता था। इस सोम वंश राजाओं के राज काल में खण्डगिरि कुमार पर्वत मठावासीय गुंफाओं के प्रकोष्ठों की विभाजक दीवाल को हटाकर और फर्श गहरा खोद कर उनकी ऊँचाई बढ़ा कर और तीर्थंकरों की मूर्तियों को गुंफाओं की दीवालों पर उत्कीर्णित कर गुफाओं को मंदिर में परिवर्तित करवाया गया था । प्राप्त मूर्तियों, ध्वंसित मंदिरों और इमारतों के संरचनात्मक या ढाँचा गत बहुमात्रा में प्राप्त अवशेषों से ज्ञात होता है कि उक्त वंश के राजा के शासन काल में निर्माण के कार्य हुए थे। इस कालावधि से संबंधित बहुत बडी मात्रा में जैन मूर्तियाँ उड़ीसा के विभिन्न स्थानों यथा भद्रक बालेश्वर जिला के समीपवर्ती स्थान चरम्पा, बालेश्वर जिले के अयोध्या, म्यूरभञ्ज जिले के खीचिंग आरै केउँझर, कोरापुट, कटक और पुरी जिले के अनेक स्थानों में खोजने पर उपलब्ध हुई है। इस से सिद्ध है कि सोमवंश के समय में जैनधर्म का चतुर्दिक विकास हुआ था। मंदिर बनाये गये थे और मूर्तियों की प्रतिष्ठायें की गई थीं । वास्तविकता यह है कि शैवधर्म की प्रमुखता होने के वाबजूद भी शैव धर्मावलम्बियों ने जैन धर्म का विरोध नहीं किया था। इसके विपरीत अनेक विशेष अवसरों पर शैवों ने अपने शिव मंदिरों में जैन मूर्तियों की प्रतिष्ठा करने की आज्ञा भी दी थी। भुवनेश्वर के मुक्तेश्वर नामक शिव मंदिर में उक्त अबधि में स्थापित तीर्थंकरों की लघु मूर्तियां उक्त कथन को सुस्पष्ट करती है । अतः निष्कर्ष ४१ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप में कहा जा सकता है कि सोमवंशी राजाओं का संरक्षण प्राप्त कर जैन धर्म अत्यधिक विकसित और उन्नतशील हुआ । सोमवंश के पश्चात् गंगवंश का अभ्युदय हुआ । साम्राट गंग राजाओं और गजपती के शासन काल में उड़ीसा में जैन धर्म पूर्ण रूप से उपेक्षित नहीं रहा। एस.एन. राजगुरु ने उड़ीसा के इनस्क्रिपसन नामक कृती में कहा है कि शक संवत् ११०० अथवा अनन्त वर्मा के ग्यारहवें राजत्व काल में राज- राज द्वितीय गंगवंश के साम्राज्य कन्नम नामक सम्राट जैन धर्म का श्रद्धालु समर्पित और पुजारी था। उस ने उत्कल के राजा को रम्भामजिरी (रामतीर्थम्) में परमपूज्य जिन की एक मूर्ति राज- राज जिनालय नामक मंदिर में स्थापित करने के लिए सहयोग दिया था। भोगपुर के कतिपय व्यापारियों ने अमर ज्योति प्रज्वलित करने के लिए भूमि प्रदान की थी। उक्त अभिलेख में यह भी कहा गया है कि २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ की शासन देवी अम्बिका की मूर्ति की भी उसी मंदिर में स्थापना की गई थी। इस प्रकार ई.सन १६ वीं शताब्दी तक उड़ीसा में जैनधर्म का अस्तित्व निरन्तर और उन्नतशील बना रहा। लेकिन इस के पश्चात् जगन्नाथ धर्मपंथ के अभ्युदय होने से उड़ीसा में अनेक सदियों तक में अपना प्रभुत्व रखने वाला जैनधर्म कमजोर हो गया । मनमोहन गांगुली ने अपनी कृति उड़ीसा एण्ड हर रिमेन्स में ठीक ही कहा है कि जैनधर्म की जड़ें इतनी गहरी थी कि हम उसके चिन्ह १६ वीं सदी ईस वीं तक भी पाते है। उड़ीसा का सूर्यवंशी राजा प्रताप रूद्र देव जैनधर्म की ओर बहुत झुका हुआ था, जो विशेष रूप से उल्लेखनीय है । जो उदयगिरि खंडगिरि आध्यात्मिक रूप से जैनधर्म की केन्द्र थी और जहाँ धार्मिक अनुष्ठान होते रहते थे, तथा जिस ने सम्पूर्ण देश को जैनधर्म का संदेश दिया वही खडगिरि और उदयगिरि १६ वीं शताब्दी के पश्चात् सुसुत्प हो गई। आर. पी. महापात्र ने जैनमोनुमेटस (पृ. ३०-३१ ) में कहा भी है : "After 16th century Jainism give away to the rising Jagannath cult. Khandagiri the most illustrious centre of Jainism in Orissa was found to have been deserted having acquired ४२ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ spiritual domination for several centuries with occasional setback Khandagiri Udayagiri stand today as silent witness to the rise growth and decline of Jain religious faith in Orissa." ई. सन् १९ वीं शताब्दी के अन्त में खंडगिरि की चोटी पर जैन मन्दिर दिगम्वर संप्रदाय के कटक निवासी मंजू चौधरी उनके भतीजे ने बनवा कर पुन: जैन धर्म के अनुष्ठान होने में योगदान दिया है। इस संबंध में विस्तार से चर्चा आगे करेगें । घ) महत्वपूर्ण जैन स्मारक : इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि जैन धर्म उड़ीसा का न कैवल प्राचीन धर्म था बल्कि ई. पू. दूसरी शताब्दी में इसे यहाँ का राजकीय धर्म होने का भी गौरव प्राप्त था । ६वीं शताब्दी से १२ वीं शताब्दी तक अर्थात् सोम वंशी राजाओं और गंगेय राजाओं के समय में जैनधर्म का उड़ीसा में चतुर्दिक विकास हुआ माना जाता है। अत: यहाँ जैन स्मारक बहुत बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं। जैन स्मारक से तात्पर्य प्राचीन जैन मंदिर, तीर्थंकरों की मूर्तियां, मानस्तम्भ, गुंफाओं और स्तुप से है । हाथी गुम्फा शिलालेख के विश्लेषणात्मक चिन्तन कर हम ने देखा कि महापद्मनन्द राजा के समय में जैन मूर्तिकला का प्रारम्भ प्राचीन उड़ीसा में सर्व प्रथम हुआ था । कलिंग जिन की मूर्ति के निर्मित होने का " उदाहरण उक्त कथन का प्रमाण है । समय के साथ साथ सम्पूर्ण कलिंग में जैन मूर्तियों को पूजने की परम्परा का विकास हुआ प्रतीत होता है। इसके दो कारण हैं। पहला कारण है कि जैनधर्म मोक्ष मूलक है। मोक्ष हेतु साधना का साधन मंदिर और मूर्तियों को जैनधर्म में विशिष्ट मान्यता हुई है। दूसरा कारण मूर्ति कला के प्रति राग का होना है। आज उड़ीसा में जैन स्मारक चतुर्दिक व्याप्त हैं । उड़ीसा में जिन स्थानों पर खुदाई हुई है वहीं पर मंदिर और मूर्तियों के उपलब्ध होने से स्पष्ट है कि उड़ीसा जैन स्मारकों का केन्द्र है । उपलब्ध मूर्तियाँ ई.सन्. ७ वीं शताब्दी से लेकर १२ वीं और कहीं कहीं १४ वीं शताब्दी तक की उपलब्ध है। उपलब्ध मूर्तियों में से तीर्थंकर आदिनाथ, पार्श्वनाथ ४३ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और महावीर की मूर्तियाँ बहुतायत से मिलती हैं। यहाँ उड़ीसा में ब्याप्त महत्त्वपूर्ण जैन स्मारकों की चर्चा करेंगे। यह उल्लेखनीय है कि जैन स्मारक या तो जमीन के अन्दर दवे हुए प्राप्त होते हैं और कहीं जल के अन्दर उपलब्ध होते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यकाल में मुसलमानों के आक्रमण के समय मूर्ति भंजकों से बचाने के लिए लोगों ने उन्हें जमीन के अन्दर छिपा दिया होगा। हिन्दु मंदिरों में जैन मूर्तियों का उपलब्ध होना सर्वधर्म समभाव का सूचक है, जो उड़ीसा की एक अनोखी और अद्वितीय परम्परा गत विशेषता है। प्राचीन जैन स्मारकों का दिग्दर्शन पूर्व में विभाजित जिलों के आधार पर करेंगे। इस उपशीर्षक के कलेवर की संरचना का आधार मेरे द्वारा किये गये सर्वेक्षण के अतिरिक्त के.सी.पानिग्राही, एन.के साहु, एल.एन.साहु और आर.पी.महापात्र की उपलवध महत्वपूर्ण कृतियाँ है। __ उड़ीसा में जैन स्मारक यों तो वर्तमान कालीन सम्पूर्ण उड़ीसा में उपलब्ध हैं। किन्तु पहाड़ी इलाकों और मैदानी इलाकों में जैन स्मारक प्रचुरता से मिलते है। निम्नांकित जिले जैन स्मारकों की दृष्टि से विशेष रूप से उल्लेखनीय है : . १. खुर्दा जिला २. पुरी जिला ३. कटक जिला ४. केउँझर जिला ५. बालेश्वर जिला ६. म्यूरभंज जिला ७. गंजाम जिला ८. कलाहाण्डी जिला ९. कोरापुट जिला १०. ढेंकानाल जिला ४४ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त जैन स्मारक केन्द्रो में से कोरापुट, केउँझर और म्यूरभंज जिले पहाड़ी इलाके में है । यहाँ जैन स्मारक प्रचुरता से उपलब्ध हैं। शेष जिले मैदानी इलाके में विद्यमान हैं । प्राचीनतम जैन स्मारकों के अवशेष खंडगिरि और उदयगिरि में विद्यमान हैं। प्रारम्भिक मध्यकालीन जैन स्मारक केन्द्र की दृष्टि से केउँझर और कोरापुट के जिले महत्वपूर्ण हैं। इनका विवरण निम्नांकित है। खुर्दा जिला १. २. ३. ४. २. ३. पुरी जिला १. ४. ६. ७. खंडगिरि उदयगिरि में गुम्फाऐं एवं जैन मंदिर विद्यमान हैं । पंचगाँव (जटनी रोड़) जीर्णशीर्ण बाग महादेव मंदिर में त्र - षभनाथ आदि १६० गन्धर्व और पूर्वधर आचार्यों की ८. खंडगिरि के पास आइगिनिया में त्र- षभदेव की मूर्ति है । चन्दका जंगल में पद्मासन अवस्था में किसी तीर्थंकर की मूर्ति प्राप्त हुई हैं। काकटपुर के पास विश्वामित्र मठ में त्र-षभदेव नाथ पद्मासनावस्था में विद्यमान हैं। लताहरन प्राची घाटी में गोमेध यक्ष और अम्भिका यक्षीणि विद्यमान हैं। अन्तर्वेदी मठ में नेमिनाथ तीर्थंकर की मूर्ति विद्यमान हैं । विश्वामित्र आश्रम में उक्त तीर्थंकर की मूर्ति विद्यमान हैं। भरद्वज आश्रम प्राची घाटी में भी योगासन अबस्था में तीर्थंकर की मूर्ति विद्यमान हैं। निभारन (ग्रामेश्वर शिव मंदिर), नहररोड़, काकटपुर में त्र- षमनाथ की मूर्ति विद्यमान हैं। चधीवर बालकटी के समिप में (नृसिंह मंदिर ) त्र- षमनाथ विद्यमान हैं। उदेई तुरिन्तीरा में त्र- षभनाथ, पार्शनाथ विद्यमान हैं । ४५ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. भईंचुआ (प्राची वैली) लघु आकृतिवाले तीर्थंकर विद्यमान हैं। १०. तुलसीपुर (चौरासी के पास) में विभिन्न प्रकार के तीर्थंकर (धातु से निर्मित मूर्तियों) उड़ीसा संग्रहालय, भुवनेश्वर में विद्यमान हैं। ११. काकटपुर में उपलब्ध तीर्थकर त्र- षभदेव और पार्श्वनाथ की धातु की मूर्तियाँ उड़ीसा संग्रहालय में विद्यमान हैं । १२. शिशुपाल गढ़ में उपलब्ध (भुवनेश्वर के आसपास) में पार्शनाथ की मूर्ति (उड़ीसा संग्रहालय में) विद्यमान हैं। १३. ब्रह्मोश्वरपाटना से प्राप्त (शिशुपाल गढ़ के पास ) - षभनाथ और अम्विका ( ढेंकानाल संग्रहालय में) विद्यमान हैं । १४. मुक्तेश्वर मंदिर (भुवनेश्वर) में दो तीर्थंकरों की मूर्तियाँ (चिन्हाभाव) हैं। अच्युत राजपुर (बाणपुर के पास में) तावें की मूर्तियाँ मिली थीं। (उड़ीसा संग्रहालय में संचित हैं) । १५. १६. श्रीरामचन्द्र पुर १७. (वालुंकेश्वर मंदिर) तावें की मूर्ति है । श्री रामचन्द्र पुर (सत्यवादी पुलिस स्टेसन ग्रामदेवी मंदिर के पास) त्र-षभनाथ तीर्थंकर, पार्श्वनाथ अजितनाथ, शान्तिनाथ और महावीर तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं । १८. पुरी ( जगन्नाथ मंदिर, दक्षिणी, द्वार मार्ग की दीवाल के एक आले ने स्थापित) आदिनाथ तीर्थंकर की मूर्ति है । कटक जिला १. ललितगिरि में आदिनाथ तीर्थंकर की मूर्ति है । २. अड़सपुर में त्र-षभनाथ की मूर्ति उपलब्ध है। ३. पोडासिंगिड़ी में तीर्थंकरों थी मूर्तियाँ विद्यमान है । बड़म्बा में दो तीर्थंकर त्र- षभनाथ और अचिह्नित मूर्ति विद्यमान है। नरसिंहपुर में रूपनाथ मंदिर में पद्मनाथ तीर्थंकर, पार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभो तीर्थंकर हैं । ४. ४६ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. तिगिरिया में तीर्थंकर पद्मप्रभ तालाब से प्राप्त हुए हैं। चउद्वार में एक छोटा मंदिर है, उस में त्र-षभनाथ, शिव के रूप में परिवर्तित कर दिए गये हैं। जाजपुर अखंडेश्वर महादेव मंदिर में नेमिनाथ तीर्थंकर की मूर्ति है। पार्टी प्राचीघाटी में स्वप्नेश्वर मंदिर में त्र-षभदेव की मूर्ति उपलब्ध है और निलकंठेश्वर शिव मंदिर में महावीर तीर्थंकर की मूर्ति विद्यमान है। १०. जगत्सिंहपुर में खण्डेश्वर महादेव मंदिर (नासिक, कोटिअन) शांतिनाथ तीर्थंकर की मूर्ति विद्यमान है। प्रति कटक शहर, चौधुरी बाजार में एक जैन मंदिर, मान स्तम्भ (तीन वेदियां) है। त्र-षभनाथ की पांच, महावीर की एक, पार्श्वनाथ की ४, पद्मप्रभ एक, शान्तिनाथ की एक, इसके अतिरीक्त चौमुखा, गणधर, पूर्वधर की मूर्तियाँ विद्यमान हैं। इन में अधिकांश प्राचीन मूर्तियाँ खंडगिरि, उदयगिरि और पोडासिंगड़ी से इकत्र की गई हैं। अर्वाचीन धातु की मूर्तियाँ श्रधालुओं द्वारा दान स्वरूप प्रदान की गई हैं। त्र-षभनाथ, महावीर और पार्श्वनाथ जैन मन्दिर, चौधुरी बजार, कटक ४७ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ दोलमुन्डाइ के जगन्नाथ मंदिर के आले में कटक शहर में त्र-षभनाथ कि मूर्ति है। यह बहुत सुन्दर है। जो लगभग ३०बर्ष पहले एक तालाब से प्राप्त हुई थी। १३ चावलियागंज कटक (चैत्यालय) में चन्द्रप्रभुशान्तिनाथ, महावीर स्वामी, पद्मावती, और क्षेत्रपाल की एक-एक मूर्ति है। १४. जयपुर, दश्वासमेध घाट के गणेश मंदिर में शान्तिनाथ की सुन्दर मूर्ति है। १५. मंगराजपुर (जयपुर) बड़ चरपोई में चौमुखा है। १६. प्रताप नगर के आसपास से प्राप्त जैन तीर्थंकरों की १४ जैन तीर्थंकरों की सभी मूर्तियाँ नव निर्मित जैन संग्रहालय में संचित कर दी गई है। (देखें परिशिष्ट-१) १७. भाणपुर में कांसे की पार्श्वनाथ की मूर्ति एक छोटे मंदिर में राखी हुई है। १८. जाउँलिया पट्टी (कटक शहर) में पार्श्वनाथ की मूर्ति है। काजी बाजार, कटक सहर में नव निर्मित श्वेताम्बर जैन मंन्दिर में मारबल और कांसे की एक-एक नवीन मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। झाड़ेश्वर पुर (कुशमंडल) में गणधर पूर्वधर, श्रावक, श्राविका की मूर्तियाँ जमीन से निकाली गई हैं। २१. बरूनिया में त्र-षभनाथ की मूर्ति है। २१. लेन्द्र भगवानपुर केन्दुपाटना के पास में एक जैन चौमुखा है। २२. अतुटग्राम में कनकेश्वर महादेव मंदिर में पार्श्वनाथ और त्र-षभनाथ की एक एक मूर्ति है और एक तीर्थकर की पहिचान नहीं हो सकी। केउँझर जिला यह एक जंगली इलाका है। आनन्द पुर सवडिभीजन में जैन स्मारको के केन्द्र विद्यमान हैं । आनन्दपुर केउँझर जिले के वैतरणी नदी के किनारे पर अवस्थित है। यहाँ पर त्र-षि तड़ाग होने का उल्लेख जैन साहित्य में हुआ है। आनन्दपुर से १५ किलोमीटर की दूरी पर वैदखिआ नामक गाँव है। इस ग्राम से लगभग २/३ किलोमीटर ४८ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की दूरी पर साल आदि वृक्ष से घेरा हुआ पर्वत है। जैन रूइन्स इन केउँझर स्टेट नामक अपनी कृति में बी. आचार्य ने कहा है कि जीर्ण-शीर्ण मंदिर और जैन तीर्थंकरों के पुरावशेष यहाँ-वहाँ विखरे हुए हैं। पोड़सिंगिडी ग्राम के नजदीक रामचंडी स्थान में जैन तीर्थंकरों और शासन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ आधुनिक मंदिरों की दीवालों में या तो दृढ़ता से सटी हुईं हैं या रखी हुईं है । उन मूर्तियों में आदिनाथ और पद्मप्रभु की मूर्तियाँ प्रमुख हैं । यहाँ के स्मारकों का दिग्दर्शन निम्नांकित है। १. २. ३. ४. ६. पोड़ासिंगिड़ी आनन्दपुर सवडिविजन में है। यहाँ जीर्ण शीर्ण मंदिर और तीर्थंकर की मूर्तियाँ फैली हुई हैं। रामचन्डी पोड़ासिंगिड़ी के पास, यहाँ त्र- षभनाथ, अम्बिका की दो मूर्तियाँ और अंबिका - गोमेध की संयुक्त एक मूर्ति हैं। वैदकिखा में मूर्तियों का निर्माण होता है। मूर्तियाँ ६ फीट ऊँची तक निर्मित होती है । द्वार चंडी या गद चंडी में पार्श्वनाथ की मूर्ति है। इन के दोनो ओर २३ तीर्थंकर भी उत्कीर्णित हैं। पंचभबन (आनन्दपुर) में पार्श्वनाथ तीर्थंकर की १. त्र - षभनाथ तीर्थंकर की २ और यक्षिणी अम्बिका की १ मूर्ति स्थापित है। जम्भीरा में अम्विका की मूर्ति है, पार्श्वनाथ तीर्थंकर और चौमुखा भी उपलब्ध हैं। थुमिगाँव में - षभनाथ, अम्बिका और गोमेध की मूर्तियाँ है । ७. ८. बाईंचुआ में शिर रहित पार्श्वनाथ की मूर्ति है । ९. सैन्कुल में पार्श्वनाथ की दो मूर्तियाँ हैं । १०. सलपुर में जैन धर्म सम्बन्धी चिन्ह उपलब्ध होते हैं । ४९ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IGI भद्रक जिला : किया जा चरम्पा : यहाँ पर रहानिया टेन्क क्षेत्र में सराक जाति के लोग रहते है, जो प्राचीन जैन हैं। एक पार्श्वनाथ की मूर्ति बरगद के पेड़ के नीचे उपलब्ध है। वालेश्वर जिला : १. कुपारी में पार्श्वनाथ की तीन मूर्तियाँ विद्यमान है। २. पुन्डल, सोन नदी के तलहटी में स्थित है। पार्श्वनाथ की मूर्ति प्राचीन जैन कला की उदाहरण रूप में विद्यमान है। ਕਲgਥ ਰਿਗੇਡ भीमपुर बालेश्वर शहर से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस ग्राम में महावीर तीर्थंकर (वर्धमान स्वामी) त्र-षभदेव, और शांतिनाथ की मूर्तियाँ हैं। अयोध्या नीलगिरि से ६ किलोमीटर दूरस्थ यहाँ पर अनेक पुराने तथा जीर्णशीर्ण मंदिर गुम्बज, आम्बलक इधर-उधर फैले हुए हैं । मणिनागेश्वर मंदिर (अयोध्या ग्राम) में शिवलिंग के पास त्र-षभनाथ की मूर्ति रखी हुई है। इस मंदिर की बाहरी दीवाल पर पार्श्वनाथ की मूर्ति उत्कीर्णित है। मंदिर के समीप बहुत बड़ा कुंड Com है। आयो ध्या संग्रहालय में त्र-षभनाथ की मूर्तियाँ, गोमेध यक्ष और आम्बिाका - यक्षिणी, पार्श्वनाथ भीमपुर में शान्तिनाथ तीर्थंकर और आदिनाथ तीर्थंकर ५० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PM JHAR 98 R की मूर्ति, चौमुखा, भग्न तीर्थंकर की मूर्ति स्थित है। बालेश्वर संग्रहालय में एक खड़गासन तीर्थंकर हैं जो अभीतक पहिचाने नहीं गये। एक त्र-षभदेव मी मूर्ति कायोत्सर्गावस्था में और एक त्र-षभदेव ध्यानावस्था में विद्यमान हैं। इसमें मनसा शासनदेवी भी उपलब्ध हैं। कालिमंदिर (बालेश्वर) में बुढ़ावलंग नदी के किनारे स्थित कालि मंदिर में " IC MARA S THE KAR HORT वालेश्वर म्युजियम में स्थित पार्श्वनाथ तीर्थंकर । SA नेमिनाथ की शासन देवी अम्बिका विराजमान हैं जो अभी पार्वती के रूप में पूजी जाती हैं। नेमिनाथ की मूर्ति उक्त शासन देवी के शिर के ऊपर विद्यमान है। १०. मार्तसोल ग्राम (जलेश्वर क्षेत्र में) यहाँ शांतिनाथ तीर्थंकर की खड्गासन तथा कायोत्सर्ग मूर्ति उपलब्ध है। ११. माणिक चौक में शांतिनाथ तीर्थंकर और चौमुखा की मूर्ति उपलब्ध हुई थी, अयोध्या संग्रहालय में पार्श्वनाथ तीर्थंकर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RATE S जो अब उड़ीसा संग्रहालय में विद्यमान हैं। चौमुखा में त्र-षभनाथ महावीर, शांतिनाथ और चन्द्रप्रभु तीर्थकर की मूर्तियाँ हैं। ११. चरम्पा में अम्बिका देवी आम के वृक्ष के नीचे बैठी हुई प्रतीत होती है जो अब ग्राम देवी के रूप में पूजी जाती है। मयूरभंज जिला: ___ मयूरभंज जिले में मध्यकालीन प्राचीनता प्रचुरता से प्राप्त होती है।। प्राचीन कालीन अवशेषों का अभाव होने के कारण यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि मयूरभंज कब से जैन धर्म का केन्द्र रहा। ले किन निम्नांकित स्थानों में मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। झारखंड की तरह मयूरभंज में भी सराक जैनों की वस्तियाँ हैं। मयूरभंज के राजा के जैन धर्म के साथ सम्बन्ध थे। उन्हों ने इस धर्म की स्थापना में संरक्षण प्रदान किया था और उनका जैनधर्म के प्रति अत्यधिक मोह था। सराक लोगजैन सिद्धान्तों का पालन, व्यवहार में करते थे और सामाजिक रीति रिवाजों में भी उनका प्रयोग करते थे। समस्त धार्मिक प्रथाओं का पालन करते थे। यहाँ संक्षेप में जैन स्मारक स्थलों का वर्णन करेंगे। बडुसई : बारिपदा से ३० किलोमीटर दूर है। बौधिपोखरी ग्राम के समीप मंगला मंदिर के निकट अनेक जैन मूर्तियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। यहाँ के चौमुखा में चन्द्रप्रभ, त्र-षभनाथ, अजितनाथ और पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ उत्कीर्णित हैं। तीर्थंकर नेमिनाथ की शासन देवी आम्बिका और योगासन में स्थित तीर्थंकर की एक छोटी प्रतिमा है। मयूरभंज में प्राप्त तीर्थंकर त्र-षभनाथ ५२ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. कोइसली : बडुसई के समीप में हिजल पेड़ के नीचे स्थित इस स्थान पर क्लोराईट पत्थर की निर्मित बहुत सुन्दर पार्श्वनाथ की मूर्ति है। इन के समीप में एक पट्टी पर कायोत्सर्ग अवस्था में दो छोटे गन्धर्व हैं। बरूडी में बडुसई से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस स्थान पर एक अम्बिका की मूर्ति बरगद के पेड़ के नीचे स्थित है। यह कुताजनी ठाकुरानी के नाम से ग्रामीणों द्वारा पूजी जाती है। रानी बंध (बडुसई से लगभग पांच किलोमीटर दूर) में भगवान् महावीर की एक प्रतिमा है। बड़ जगन्नाथ मंदिर ई.सन्. १५७५ में निर्मित इस मंदिर में पार्श्वनाथ तीर्थकर और त्र-षभनाथ की दो-दो मूर्तियाँ हैं। बारिपदा संग्रहालय में त्र-षभनाथ और चैमुखा प्राप्त हैं। चैमुखा में त्र-षभनाथ, शान्तिनाथ, चन्द्रप्रभ और महावीर की मूर्तियाँ विद्यमान हैं। जो खुन्तपाल ग्राम से प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ ताँवें की नो मूर्तियाँ भी विद्यमान हैं। ७. खुन्टपाल : इ.सन्. १९३५ में यहाँ ताँवें की जो मूर्तियों प्राप्त हुईं थीं उन में तीन त्र-षभनाथ की, तीन पार्श्वनाथ की, दो शांतिनाथ की, एक अम्बिका की और एक ऐसे तीर्थंकर की मूर्ति है जिन्हें पहिचाना नहीं गया है। ८. रवीचिंग : ब्रांच में चार त्र-षभनाथ, सांतिनाथ, पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ विद्यमान हैं। इनके अतिरिक्त कुछ और ऐसे तीर्थंकरों की मूर्तियाँ है जिन में चिन्ह न होने के कारण उन्हें पहिचाना असम्भव हैं। कुछ मूर्तियाँ भग्म भी हैं। ये सभी मूर्तियाँ बिभीन्न स्थानों से संगृहीत की गई हैं। बेनु सागर भजगाँव से लगभग १२ किलोमीटर दूर और खीचिंग के बिल्कुल सनिकट है। यहाँ अनेक प्राचीनतम जैन मंदिर हैं। उन में से अधिकांश में तीर्थकर कमर तक जमीन के अंदर हैं। १०. बारीपदा के जगन्नाथ मंदिर में तीर्थंकर त्र-षभनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर की खड्गासन तथा कायोत्सर्ग रूप में दिवालों पर दृढ़ता पूर्वक स्थाई रूप से स्थापित की गई दृष्टिगोचर होती हैं। . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोरापुट जिला : ___ कोरापुट जिला जंगलों से आच्छादित हैं। जैन धर्म के तीर्थंकरों, गणधरों, मूनियों और प्रचारकों के लिये यह शान्त और उपयोगी स्थान होने के कारण जैन धर्म का यहाँ बहुत प्रचार हुआ है। यही कारण है कि जैन पुरातत्त्व सम्बन्धी साम्मग्री और जैन स्मारकों के लिए कोरापुट जिला अनन्यतम रूप से धनी और अग्रणीय है। यहाँ पर मध्यकाल में निर्मित मंदिर, तीर्थकरों की यक्ष यक्षिणियों सहित मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। इसके अलावा हिन्दू मंदिरों की दीवालों पर भी जैन मूर्तियाँ दृढ़ता से स्थापित हैं। किसी-किसी हिन्दू मंदिर में वे हिन्दू देवी-देवताओं की तरह पूजी जाती हैं। जैन स्मारकों के लिए विख्यात कोरापुट क्षेत्र में जैन धर्म की कब प्रधानता रही या जैन धर्म का यहाँ कब अधिपत्य रहा है? यह निश्चित रूप से कह पाना या निश्चित समय निर्धारण करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। नन्दपुर, सुअई, कचेला, चतुआ, सिंधपुर, बोरिंगुम्मा, यमुद, कोटपाड़, चरमुल, नारी गावँ, कमट, मली नयागाँव, देवता गंजर, कथरगुदा, पखान गुड़ा और पालव जैन मूर्तियों के प्रधान और लब्धप्रतिष्ठ केन्द्र हैं। इसके अतिरिक्त जयपुर के ब्राह्मणिक मंदिरों के परिसरे में जैन मूर्तियों को सुरक्षित रखा गया है। तुरन्त निर्मित जिला संग्रहालय जयपुर में भी विभिन्न स्थानों से जैन तीर्थंकरों और शासन देवियों की मूर्तियाँ बहुत बड़ी मात्रा में संचित की गई हैं। उड़ीआ भाषा में लिखी गई कृति ओड़ीशार जैनधर्म (पृष्ठ १५२) में एल.एन.साहु ने लिखा है कि कुमार विद्याधर सिंहदेव ने संसूचित किया था कि जयपुर और नन्दपुर में जैन अवशेषों को देखने से मेरा चिन्तन और भी अधिक दृढ़ हुआ कि इन क्षेत्रों में जैनधर्म का प्रभुत्व था। नन्दपुर में जैन मूर्तियों की प्रचुरता पूर्वक उपलब्धि और महत्त्वपूर्ण विशाल जैन मंदिरों के महत्त्वपूर्ण तथा बृहत अवशेषों के मिलने से स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि प्राचीन काल में नन्दपुर जैनधर्म का केन्द्रथा। जयपुर में प्राप्त जैनत्व हमे समझने के लिए बाध्य करता है कि प्राचीन काल में कलिंग जैनधर्म में था। क्यों कि कंलिग पर बहुत समय तक जैन धर्मानुयायी नन्दवंश के राजाओं का राज्य रहा। ५४ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैननगरी: जानिsatण किलि - यह जयपुर के सन्निकट अभी भी स्थित है। जयपुर के स्थानीय निवासी हिन्दु मतावलम्बी जैन मूर्तियों को हिन्दू देवी-देवताओं की तरह पूजते हैं। अकृत्रिम कायोत्सर्ग रूप में खड़गासन जैन मूर्तियों को हिन्दू लोग गंगा माई की मूर्ति मान कर उन्हें संतुष्ट करने के लिए उनके सामने बकरादि की बलि चढ़ाते हैं। भविष्य में अवश्य ही यह सिद्ध हो जायेगा कि जयपुर की समस्त पाषाण की मूर्तियाँ जैनधर्म की हैं । जैन नगरी नामक गाँव का अभी भी अस्तित्व में होना यही सिद्ध करता है कि जयपुर जैनधर्म का अनन्यतम गढ़ था। एक गोशाक यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि कोरापुट जिले का महत्वपूर्ण और अग्रणीय भाग पूर्वी गंगेय सोम वंशी राजाओं और तेलगु चोदस के राजाओं के राज्य में सम्मिलित था। उन राजाओं ने अन्य धर्मों के साथ जैन धर्म के प्रचार-प्रसार करने की अनुमति दी थी। अब हम कोरापुट जिले में प्राप्त जैन स्मारक स्थलों का निरीक्षण प्रस्तुत करेंगे। नन्दपुर का सर्वेश्वर मंदिर : कणा ताजा नन्दपुर से पांच किलोमीटर दूर स्थित मली नुआ गाँव से लाई गई तेईस वें तीर्थंकर की शासन देवी ललितासन में स्थित पद्मावती की मूर्ति खुले वितान के नीचे रखी हुई है। इस के चार हाथ हैं और पांच फण वाला सर्प उन के मस्तक को ढाके हुए है। इनका एक हात खंडित है। इनके मस्तक पर सात फणी सर्पयुक्त पार्श्वनाथ तीर्थंकर विराजमान हैं। सुअई: मक यह घनघोर झाड़ियों और झुरमुटों से युक्त सुअई ग्राम में जैन स्मारक विद्यमान हैं। यहाँ १० - सुअई से प्राप्त तीर्थकर त्र-षभनाथ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोटे मंदिर हैं जो अण्डाकार में सटे हुए और नीचे दीवाल से घेरे हुए कतार बद्ध हैं। ले किन वे सभी क्षतिग्रस्त हैं। उन में से केवल कुछ ही अभीतक खड़े हुए हैं। मंदिरों में बने पट्टिओं पर जैन तीर्थंकर और शासन् दोवियाँ उत्कीर्णित हैं। त्र-षभनाथ की ९ मूर्तियाँ महावीर तीर्थंकर की शासन देवी चक्रेश्वरी और अजितनाथ तीर्थंकर की शासन देवी रोहिनी की एक एक मूर्ति हैं। कचेला: यह भाखरा जल प्रपात से दश किलोमीटर और कोरापुट से पन्द्रह किलोमीटर दूर है। यहाँ पर पत्थर से बना हुआ और बहुत सुन्दर एक मंदिर और छह मूर्तियाँ हैं। गोमेध यक्ष और अम्बिका का एक पट्टिये पर और अम्बिका का एक पत्थर पर उत्कीर्णन हुआ है। त्र-षभनाथ, शान्तिनाथ, महावीर, अजितनाथ और महावीर, तीर्थंकरों की मूर्तियाँ विद्यमान हैं। बोरीगुमा : बोरीगुमा गाँव के समीप भैरव पहाड़ी की तलहटी में स्थित भैरव मन्दिर है। इस की दीवाल में पीले रंग के पाषाण की तीर्थंकर महावीर की एक मूर्ति अन्तः स्थापित है। गोमेध यक्ष और अम्बिका यक्षिणी भी उक्त मंदिर की दक्षिणी दीवाल के आले में रखी हुई है। भगवती मंदिर : बीशवीं सताब्दी में निर्मित जयपुर के भगवती मंदिर पर टीन का छपर हैं। इस ब्रह्मनीकल मंदिर में अनेक तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं। जयपुर के इस मंदिर के गर्भ गृह में १६ भुजाओं वालि चक्रेश्वरी की बहुत सुन्दर मूर्ति है। स्थानीय निवासी इसे भगवती के रुप में पूजते हैं। तीर्थंकरो की पंक्ति उक्त मंदिर में सुरक्षित है। स्थानिय लोग महादेव के रुप में उनकी पूजा करते है। उक्त तीर्थंकरों में से त्र-षभनाथ, शान्तिनाथ, अजितनाथ विमलनाथ की पहचान कर ली गई है। ५६ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस मंदिर की आले में शान्तिनाथ की एक और मूर्ति सुरक्षीत है । उक्त मंदिर में अन्य मूर्तियाँ विद्यमान हैं। उक्त मंदिर में उन्य मूर्तियों में दो और तीर्थकरों की मूर्तियाँ है लेकिन पहचाना नहीं गया हैं। इस में ध्यानस्थ तीर्थंकर महावीर उनकी शासन देवी सिद्धायिका और त्र- षभनाथ और उनकी शासन देवी चक्रेश्वरी उत्कीर्णित है। काली मंदिर : (जयपुर) : इस में त्र- षभनाथ और उन की शासन देवी चक्रेश्वरी उत्कीर्णित है। गंगादेवी मंदिर : काली मंदिर के दक्षिण में स्थित गंगादेवी मंन्दिर में एक तीर्थंकर की मूर्ति है । जिस के चिन्ह को न समझ ने के कारण उन्हें पहिचाना नहीं गया। इन के अतिरिक्त जयपुर से लाई गई तीर्थंकर महावीर की दो प्रतिमायें रखी हुई हैं। जयपुर जिला संग्रहालय : इस में तीर्थंकर महावीर की एक मूर्ति और एक शासन देवी की मूर्ति सुरक्षित है। इस संग्रहालय में ३४ मूर्तियाँ हैं । २१ सिंगपुर, २ चारमूला, २ कोरापुट, ७ जामुण्डा और २ कमट से लाई गई हैं। सिंगपुर : यह किसी समय जैन धर्मका केन्द्र था । इस के आस-पास अत्यधिक मात्रा में एक फुट से लेकर पांच फीट तक ऊँची जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ दृष्टि गोचर होती हैं। छप्परियामंदिर : त्र - षभनाथ की छप्पर युक्त मंदिर में पूजा की जारही है। जगन्नाथ मंदिर : - षभनाथ की एक मूर्ति जगन्नाथ मंदिर में रखी हुई है, जिसका उपयोग ग्रामीण अपनी कुल्हाड़ी तेज (पैनी) करने में करते हैं 1 ५७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवमंदिर : पहाड़ी की तलहटी में स्थित हैं। बहुत बड़ी मात्रा में जैन मूर्तियाँ शिव मन्दिर की दीवाल में निर्मित हैं। चारमूला और नारि गाँव : __ सिंगपुर से चार-पांच किलोमीटर दूर स्थित इन दोनों गाँवों में भी बहुत बड़ी मात्रा में जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। जमुन्डाग्राम : भाषणवाले छपर युक्त आदिवसियों द्वारा निर्मित इस मंदिर में सरपंच के अनुसार संख्यात गुफाओं में जैन मूर्तियों को छिपा कर रख दिया गया है। इस मंदिर में पांच तीर्थंकरों की मूर्तियाँ स्थित हैं। विद्वानों की मान्यता कि उड़ीसा का यह भाग जैनधर्म का अधिष्ठान था। सिंगपुर : (संग्रहालय) यहाँ पर २१ जैन मूर्तियाँ रखी हुई हैं। उन में से ६ मूर्तियाँ त्र-षभनाथ की हैं। पार्श्वनाथ, अजितनाथ और महावीर की एक एक मूर्ति है। पांच एसे तीर्थंकर की मूर्तियाँ हैं जिन को अभी तक पहिचाना नहीं गया है। सात यक्ष और यक्षिणियों की भी मूर्तियाँ हैं। बोरीगुमा ब्लक् के पाकनीगुड़ा और काथर गुड़ा ग्राम में खोदाइ करने पर जीर्णसीर्ण एक जैन मन्दिर भी उपलब्ध हुआ है। कमट: __ जैन मूर्तियों की दृष्टि से यह क्षेत्र बहुत समृद्ध है। यहाँ दो तीर्थंकरों की मूर्तिया हैं। उन में से एक त्र-षभदेव की है। ___इसी प्रकार से गंजाम जिले में खलिकोट और कलाहांडि जिले में जूनागड़ और ढेंकानाल जिले में बालाणी और आठमल्लिक में भी जैन मूर्तिया उपलब्ध हैं। ५८ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड. सराक : धार्मिक एवं सांस्कृतिक विमर्श 1 उड़ीसा में जैन स्मारकों की चर्चा करने के पश्चात् सराकों की चर्चा किये विना स्मारकों की चर्चा अधूरी रह जायेगी । सराक शब्द श्रावक का विगड़ा हुआ रूप है जैनधर्म में मद्य पीना, मांस खाना, जुआ खेलना, वेश्या गमन, परस्त्री गमन, शिकार खेलना और चोरी करना ये सात व्यसन माने गाये हैं । मद्य, मांस और मधुका त्याग करना, तथा अहिंसाणु सत्याणु अचौर्याणु, ब्रह्मचर्याणु और अपरिग्रह गुण व्रतों का पालन करना ये आठ जैन धर्म में मूल गुण ग्रहस्थों के बतलाये गये हैं। अत: सात व्यसन का त्याग करना और मूल गुणों का पालन करने वाले जैन गृहस्थ श्रावक कहलाता है। जैन श्रावक न तो रात में भोजन करता है और न बिना छना पानी पीता है। जीवों पर दया करता है और नित्य प्रतिदिन देव वन्दना करता है । पीपल, ऊमर, कठूमर, बड़ और पाकर जैसे क्षुद्र उदम्बर फलों को जैन श्रावक नहीं खाता है। वह तीन गुणव्रतों अर्थात् दिगव्रत, देशव्रत और अनर्थ दंडव्रत तथा ४ शिक्षाव्रतों अर्थात् भोग-उपभोग परिमाण व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य का भी जैन श्रावक पालन करता है। उक्त अनिवार्य लक्षण वाला श्रवक त्यागी, यति, मुनि और श्रमण की अपेक्षा सब से नीची श्रेणी का होता है । प्राचीन उड़ीसा में सराक शब्द का प्रयोग प्राचीन मनुष्यों के ऐसे वर्ग के लिए हुआ जो वर्तमान उड़ीसा के विभिन्न भागों में पाये जाते हैं, और जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। उड़ीसा के अतिरिक्त बिहार के छोटा नागपुर, मान भूमि और सिंहपुर के क्षेत्रों में और बंगाल के सन्निकट के क्षेत्रों में भी व्यापक रूप से सरक रहते हैं। उड़ीसा में सराकों को वर्तमान में पुरातन जैनों का अवशेष कहा जा सकता है। उड़ीसा में प्राचीन जैन मंदिरों के अवशेष, दोष पूर्ण मूर्तियाँ और स्थानीय दन्त कथायें इन जैन श्रावकों के अस्तित्व की गाथा गाते हैं। हस्तकलाकारी इन की विशिष्ट पहिचान है। म्यूरभंज जिले के अन्तर्गत सराकों की जीर्ण-शीर्ण वस्तियाँ अभी भी विद्यमान है। मयुरभंज के सन्निकट स्वीचिंग नामक ग्राम में बहुत पुरातन काल से सराकों की वस्तियाँ थीं । खीचिंग और बारीपदा संग्रहालय की ग्यालिरियों में जैनधर्म के ५९ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों को संचित किया गया है। यथा- कोसली, बादशाही, पुण्डल, कसब, आदिपुर वारिपदा शहर के जगन्नाथ मंदिर आदि स्थानों में जैन अवशेष अनुक्रम से सुरक्षित है। एसी परम्परा है कि भूतकाल में सम्पूर्ण म्यूरभंज में सराक अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए धीरे धीरे अस्पष्ट प्रभाव डालते रहे। जनरल ऑफ बिहार और उड़ीसा (भाग १२/३ पृ ४१) में एस.एन. राय ने म्युरभंज के सराकों के सम्बन्ध में बतलाया है कि उनकी संस्कृति और श्रेष्ठता प्रायः अर्ध देवों की तरह है। उनकी वस्तियों के स्थलों पर ध्वंस मंदिर उनके प्राचीन गौरव के साक्ष्य हैं। अपने भगवानों के लिए उन्होंने मन्दिरों का निर्माण पत्थरों से उत्कृषर्ता पूर्वक किया था, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने लिए पत्थरों के घर नहीं बनाये। यह उनके धार्मिक और आत्म संमय का प्रतीक है। उड़ीसा के गॉवों लोग आज भी अपने भगवान् ईश्वर के मंदिरों का निर्माण पत्थरों और ईंटो से करते हैं, लेकिन स्वयं पीढ़ी दर पीढ़ी खपरों के छाये मिट्टी की कुटिया में रहते हैं । यद्यपि सराकों की संस्कृति और सभ्यता का चित्रण करना बिल्कुल भी संभव नहीं है। उनकी परपंरानुसार प्रत्येक सराक परिवार का एक निजी स्वतंत्र तालाब होता था। ऐसी किवदन्ती है कि उनके समीपस्थ तालाबों को गिन कर संबंधित वस्ती में रहने वाले परिवारों की संख्या पता लगाया जा सकता था। आज कल जो तालाब उपलब्ध हैं वे सचमुच बड़े हैं। उन का उत्खनन करने से वे उच्चस्तरीय सभ्यता की ओर संकेत करते हैं। कृषि कर्म के लिए लोहेके औजार यंत्र, उपकरण और टूटी तलवारें बहुत बड़ी संख्या में टीले को खोदकर निकाली गई हैं। खोदकर निकाली गई जैन पन्थ की पत्थर की मूर्तियों में से कुछ मूर्तियाँ उत्कृष्टता पूर्वक उत्कीर्णित की गई हैं। पत्थरों से निर्मित मंदिर गुच्छों में खड़े हुए उच्च स्तरीय सभ्यता का संकेत कर रहे है या वे उच्च स्तरीय सभ्यता के प्रतीक हैं। परम्परा पूर्ण दावे के साथ कहती है कि जिस प्रकार प्रत्येक सराक परिवार का एक तालाब होता था उसी प्रकार उनके अपने- अपने मंदिर भी होते थे । वस्तियों के स्थानों के समीप में कोई समाधिस्थल या कब्रागाह नहीं होने से शंका होती है कि क्या सराक लोग मुर्दे को जलाते थे ? इसका निश्चित समाधान करना संभव नहीं है, कयों कि इस संबंध में परम्परा से कुछ भी ६० Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानकारी नहीं होती है । सशक्त प्रमाणों के अभाव में हम यह मानने के लिए विवश हैं कि मृत व्यक्ति के शरीर को जलाया करते थे। वर्तमान में भी जैन मुर्दे को जलाते हैं । 1 एस. एन. राजगुरु अपनी कृति इन्सक्रिप्सनस ऑफ उड़ीसा (भाग ६) में लिखते हैं कि बामनधाटी की प्लेट से ज्ञात होता है कि सराकों को ग्रामों को देने का अंकन सुरक्षित है। खिज्जग के उत्तराखण्ड के देव कुंड और कोरापिन्डिया ग्रामों में रहने वाले सराकों को जो कपड़े बुनने का काम करने से बुन कर कहलाते थे, टिमंदिर, ननकोल, जम्बपोडका और वसन्त ग्राम दान में दिये गये थे । भद्रक जिले के चरम्पा नामक ग्राम में एक बट वृक्ष की खोह में अनेक जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुईं जो उड़ीसा राज्य संग्रहालय में लाई गई हैं। वहाँ की मूर्तियों के सर्वेक्षण के क्रम में मैने भी एक बहुत गहरी पोखरी देखी, जो पानी से भरी हुई थी। उसके पूर्वी किनारे पर बट वृक्ष के नीचे एक मूर्ति पार्श्वनाथ की प्राप्त हुई, जो खण्डगासन में थी । उन की पूजा में सम्मिलित हो कर वे सहयोग देते थे । ढेंकनाल जिले के सदर सब-डिबीजन में बहुत बड़ी मात्रा में सराकों की वस्तियाँ पाई गई हैं। कन्ध पाटना, राजुआ पाटना, अयुखुमा पाटना, सराक पाटना, नुआगाँव पाटना, चम्पा पाटना, जेनासाह पाटना आदि ग्रामों को सराकों ने बसाया था । उन में से कुछ ग्रामों में सराक कपड़े बुना करते थे । उन में से जो अत्यधिक सम्पन्न हैं वे विभिन्न प्रकार का व्यापार करते थे। आज भी यही स्थिती है। कटक जिले के आठगढ़ बांकी, बरम्बा और तिगिरिया क्षेत्रों के अरखा पाटन, रगड़ी, नुआ पाटना, जरी पाटना और मानिआबन्ध के गाँवों में रहने वाले इन सराकों का व्यवसाय बुनाई करना है। उन में से कुछ पूर्व में स्थानीय उपयोगी वस्तु शिल्प दस्तकारी करने में आसक्त रहते थे। कुछ कृषि करते थे। इन गाँवों के सभी सराक अन्यत्र रहने वाले सराक बन्धुओं की आदतो और रीति रिवाजों का कर्मण्तता पूर्वक अनुकरण करते थे। उन के धार्मिक संबंध जैनधर्म के साथ थे । तिगिरिया क्षेत्र के हाटमाल गांव से तीर्थंकर की एक मूर्ति प्राप्त हुई थी। जो नरसिंहपुर क्षेत्र के रूपनाथ मंदिर में तीर्थंकरों की प्रतिमायें देखी जा सकती हैं। भूतकाल में तीर्थंकरों की दो प्रतिमायें भी प्राप्त हुई थी जो ६१ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरम्बा में सुरक्षित रखी हुईं है। बांकी क्षेत्र के वैदेश्वर गाँव में पार्श्वनाथ की एक मूर्ति प्राप्त हुई है। जो बगल वाले छोटे मंदिर में सुरक्षित रखी हुई हैं। नुआपाटणा ग्राम में सराकों की बस्ती में बौद्ध और नवीन बुद्धों के मंदिरों का उन केलिए निर्माण कराया गया है, लेकिन वे लोग कभी भी बौद्ध धर्म महोत्सव में नरसिंहपुर के बानेश्वरीनासी में भी सम्मिलित नहीं हुए हैं। इस के विपरीत यथा समय खण्डगिरि उदयगिरि की धार्मिक यात्रायें अवश्य करते हैं । सराकों की कोई उप-जातियाँ नहीं होती हैं। वे अपनी बेटी का विवाह शिशु अवस्था में कर देते हैं। उनके यहाँ विधवा विवाह नहीं होते हैं। तलाक को भी वे मान्यता नहीं देते हैं। यदि किसी को यह आशा हो जाय कि उसकी पहली पत्नी से बेटा नहीं होगा तो उसे बहु विवाह की अनुमती है अर्थात् वह दूसरा विवाह कर सकता है। सराकों में विवाह महोत्सव उच्च स्तरीय होते है। एच. एच रिसले Thribes and castes of Bangal (Page-236-237) में लिखते है कि सराकों की यह परम्परा सुरक्षित है कि उन के पूर्वज जैन थे। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हों ने पूर्ण रूप से हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया है। वे ब्राह्मणों के सहयोग से हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। फिर भी जैन धर्म के तीर्थंकर पार्श्वनाथ को अपना मुख्य देवता मानते हैं। वे श्यामचन्द्र, राधामोहन और जगन्नाथ की भी पूजते हैं। ऐसा करने पर उन लोगों पर सामाजिक रूप से जुर्माना नहीं लगा सकता है। जैन मन्दिरों में ब्राह्मण ही पूजा का कार्य करते हैं। आर.पी. महापात्र ने जैन मोनुमेंटस इन उड़ीसा (पृ.४३) में लिखा है कि सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से सराक उच्च स्तरीय होते हैं । ब्राह्मण उन के हाथ से पानी और रोटि आदि पके हुए विभिन्न प्रकार का आहार रूप पदार्थ ले सकते हैं। सराक किसी भी परिस्थिति में किसी भी जानवार का मांस नहीं खाते हैं । मांस खाने से अपने को बचाये हुए हैं। उनका भोजन पूर्ण रूप से शाकाहारी होता है। सराकों में यह परम्परागत प्राथा है कि यदि कोई उन के भोजन बनाते समय काटने शब्द का प्रयोग कर दे तो वे इसे महान अनर्थकारी समझते हैं। भोजन बनाने वाली महिला उस शब्द को सुन कर समस्त पकाई जाने वाली चीजें बाहर फेक देती हैं। वे ऐसी ६२ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति में ब्राह्मणों के द्वारा छोड़े गये भोजन करते हैं। राजपूत, वैद्य और कायस्थों के यहाँ पानी पीते है, या मिठाई लेते हैं। पूज्य उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज का ध्यान सराकों के उद्धार करने की ओर है। अत: उनकी प्रेरणा से अब जैनियों ने सराक भाइयों की आर्थिकि सहायता करना प्रारम्भ कर दिया है। उनके मंदिरों की मरम्मत तथा नया मंदिरों का निर्माण करवा रहे हैं। उन के बच्चों के उच्चाध्यन की व्यवस्था भी कर रहे हैं। ६३ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयगिरि की गुम्फाओं का शिल्प-सौन्दर्य वर्तमान उड़ीसा में स्थित उदयगिरि की गुफायें मध्यप्रदेश की उदयगिरि की गुफाओं से मिन्न हैं । खुर्दा जिला में स्थित उदयगिरि उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर शहर से लगभग ५ किलोमीटर दूर उत्तर की और स्थित है। उदयगिरि को कुमारी पर्वत के नाम से भी जानाजाता है। यह लगभग ११० फीट उँची है। ई.पू. दूसरी शताब्दी में हुए सम्राट खारवेल के शासन काल में इन गुफाओं का निर्माण जैन श्रमणों के लिए किया गया था। उक्त पहाडी पर विद्यमान गुफाओं में से अधिकांश गुफाओं का निर्माण स्वयं सम्राट खारवेल ने कराया था। उदयगिरि की गुफाओं की संख्या के संबंध में विभिन्न मत हैं। जॉन मार्शल ने इनकी संख्या ३५ सूचित की है। जब कि मनमोहन गांगुली ने यहाँ २६ गुफाओं के होने का उल्लेख किया है। इस समय यहाँ १८ गुफायें विद्यमान हैं। इससे प्रतीत होता है कि प्रकृति और मनुष्यों की क्रूरता के कारण कतिपय गुफायें नष्ट हो गई हैं। यहाँ धातव्य है कि उडीसा भाषा में गुफा को गुम्फा कहा जाता है। निम्नलिखित गुफाओं को देखा जा सकता है। १. रानी गुम्फा २. बाजा गुम्फा, ३. छोटा हाथी गुम्फा, ४. अलकापुरी गुम्फा, ५. जयविजय गुम्फा, ६. पणस गुम्फा, ७. ठाकुराणी गुम्फा, ८. पातालपुरी गुम्फा, ९. मंचपुरी गुम्फा, १०. गणेश गुम्फा, ११. जग्बेश्वर गुम्फा, १२. व्याघ्र गुम्फा, १३. सर्प गुम्फा, १४. हाथी गुम्फा, १५. धानघर गुम्फा, १६. हरिदास गुम्फा, १७. जगन्नाथ गुम्फा, १८. रसोई गुम्फा। इन गुफाओं के नाम स्थानीय निवासियों ने बाद में दिये हैं। १. रानी गुम्फा : उदयगिरि कुमारी पर्वत पर निर्मित यह पहली गुम्फा है। इसको रानी-नूर गुम्फा के नाम से भी जाना जाता है। सम्भवतः यह वही गुफा है। जिसका उल्लेख हाथी गुम्फा शिलालेख में किया गया है। उक्त शिलालेख की १५वीं पंक्ति में कहा गया है कि इस रानी गुम्फा का निर्माण सिंहपथ रानी की इच्छानुसार हुआ था। इसके ६४ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्माण हेतु योजनों दूरी से पत्थर लाये गये थे। ई.पू. दूसरी शताब्दी में सम्राट खारवेल द्वारा बनवाई गई इस गुम्फा के निर्माण में तत्कालीन पांच लाख मुद्रायें खर्च हुई थीं। इस दो मंजिला इमारत का निर्माण अर्हतों, पूज्य श्रमणों, यतियों, तपस्वियों आदि के आराम लिए किया गया था। उक्त शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि पाटल रंग वाले इसके फर्श तथा स्तम्भों में वैडूर्य मणि जड़े हुए होने से सुशोभित थे। वर्तमान में स्तम्भ तो बहुत सुन्दर हैं, लेकिन उनमें वैडूर्य मणि दृष्टि गोचर नहीं होते हैं। गेरूआ रंग से रंगी हुई इस गुफा की इमारत एक बहुत सुन्दर महल, मठ या विहार की तरह प्रतीत होती है जो निम्नाकिंत चित्र से स्पष्ट है । THE THR IPTE भारतमा TOT उक्त सुन्दर और दर्शनीय दो मंजिला भवन तीन दिशाओं से घिरा हुआ है। केवल दक्षिण-पूर्व की ओर से खुला हुआ है। इसके सामने बहुत सुन्दर प्रांगण है। इस प्रांगण के सामने आज कल बहुत सुन्दर लघु उद्यान भी बना दिया गया है। जिसकी हरी मखमली घास और रंग-विरंगे छबीले फूल उक्त भवन की छवि को और भी दुगुणित कर रहे हैं। इस गुफा को देखने से ज्ञात होता है कि इसका निर्माण कुदरती चट्टान से हुआ है। चट्टान को चिकना और बराबर कर खुले भाग की और तिरछा बनाया गया है । प्रचुर मूर्ति कला, चित्रित लताओं, विशाल और सुविधा जनक पार्श्वक, अनेक लघु कोठियों और सामने स्थित विशाल प्रांगण के कारण यह गुफा अपनी समकालीन ६५ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुफाओं की अपेक्षा अपने आप में अनोखी और अद्वितीय प्रतीत होती है। तूफानी, हवाओं, आंधियों और कर्कश मौसम के कारण नीचे तल्ला के बरामदा के गिरजाने से मूर्तियों के मुखों की प्राचीन भव्यता नष्ट हो गई है। सर्व प्रथम निचली मंजिल की कला प्रस्तुत की जाती है। १. निचली मंजिल: रानी गुम्फा की निचली मंजिल तीन भागों में विभाजित है।१ दाहिना भाग, २ बायाँ भाग और ३. मुख्य भाग। इन तीनों भागों में उपलब्ध सौन्दर्य का क्रमश: बर्णन करना अत्यावश्यक है। (क) निचली मंजिल का दाहिना भाग : यह भाग बहुत बड़ा है। इस और तीन प्रवेश द्वारों सहित एक बहुत विशाल प्रकोष्ठ है। इसके सामने के खम्भों पर आधारित एक बरामदा है। सामने की ओर बेंच है। कमरे की छत समतल है। फर्श पीछे से उठा हुआ ढालुदार है, जो तकिये का कार्य करता है। प्रवेशद्वार मोटे घनाकार खम्भों से युक्त है। दरवाजों के प्रवेश मार्गों का आकार ऐसा है कि मनुष्य धीरे से झुकते हुए रेंग कर अन्दर जाने को विवश हो जाता है। अर्ध स्तम्भों के शीर्ष भाग बैलों और पंख युक्त शेरों से सजे हुए हैं। वक्राकार तोरण (कर्णपट्ट) के अतिरिक्त भाग सजावट रहित है। दरवाजे के प्रवेश मार्ग के उपर के तोरण सजे हुए हैं। बायें दरवाजे के मार्ग के तोरण पट्टों पर आम जैसे फल और पौधे उत्कीर्णित किये गये हैं। नीचे स्थित दो जानवरों के मुरव से निकली हुईं लतायें उक्त पौधों पर लिपटी हुईं दृष्टि गोचर होती हैं। इस तोरण के शीर्षभाग के ऊपर नन्दिपाद भी सुशोभित होता है। केन्द्रीय दरवाजे के प्रवेश मार्ग के धनुषाकार तोरणपट्ट के ऊपर माधवी लतायें खिले हुए कमलो और सिर उठायें स्थित दो हाथियों के मुख से निकलते हुए पूर्ण खिले हुए कमल उत्कीर्णित हैं। - इस तोरण के सब से ऊपरी भाग पर श्रीवत्स भी उत्कीर्णित है। दाहिने दरवाजे के प्रवेश मार्ग के ऊपरी भाग अधखिले कमलों उनके तनों और नान्दिपाद उत्कीर्णित कर सजाये गये हैं। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाई हाथ लम्बाकार में विभिन्न प्रकार के उपासक मनुष्यों के कतारबद्ध अनुक्रम से चित्र उत्कीर्णित कियेगये हैं । बाईं ओर से प्रथम दृश्य में हाथ जोड़े हुए स्त्री पुरूष का एक जोड़ा है। एक जोड़ा वहीं पर एक पेड के नीचे खड़ा है। स्त्री के बायें हाथ के बगल में एक बौना स्थित है और दाहिने हाथ में एक पेटी है। दूसरे दृश्य में एक पुरुष और हाथ जोडे हुए महिलाओं का चित्रित किया गया है। दाहिनी ओर दूसरे दृश्य में एक पुरुष और दो महिलाओं को हाथ जोड़े हुए तथा एक बेंच पर बैठा हुआ दिखाया गाया है। दाहिनी ओर स्थित महिला एक थाली लिए हुए है। बाईं ओर दूसरी महिला कलस लिए हुए है। तीसरे उपखण्ड दृश्य में अलंकृत खम्भों पर आधारित मंडप के नीचे एक स्त्री का नाचते हुए और चार साथियों को मृदंग, नगाड़े, बांसुरी और वीणा जैसे वाद्यों का बजा कर मनो विनोद करते हुए दिखलाया गया है । चोथे दृश्य में एक महिला को हाथ में थाली लिए आगे-आगे जाते हुए और हाथ जोडे हुए तेज गति से उसका पीछा करते हुए पुरुष और थाली तथा घड़ा ले जाते हुए एक दूसरी महिला प्रदर्शित की गई है। अंतिम दृश्य में एक बालक है। बारमदा की दीवाल के सीमावर्ती खम्भों पर दोनों ओर एक-एक चौकीदार खडे हुए हैं। उनके शिर खंडित हैं। बारमदा सहित प्रकोष्ठ के खम्भों का चौखुंटा निचला भाग उठा हुआ है । बरामदा को खम्भों की कतार सहारा दिये हुए हैं। खम्भों के तल भाग में उत्कीर्णित जानवरों के चिन्ह अवशिष्ठ दिखलाई पडते हैं । खम्भों के उपरी भाग पर जानवर उत्कीर्णित हैं। प्रत्येक खम्भे के मध्य भाग में जानवर हैं। बाईं ओर बैल । दाहिनी ओर शेर उत्कीर्णित किये गये हैं। सामने की ओर पृष्ठ भाग से पृष्ठ भाग मिलायें हुए दो शेर बैठे हुए और एक दूसरे की ओर मुँह किये पैरों पर खडे हुए दो शेर उत्कीर्णित किये गये हैं। बगल के घनाकार (कूट) स्तम्भों के मध्य भाग में तीन जानवार उत्कीर्णित किये गये हैं। उन में से बाईं ओर घोड़े और दाहनी ओर हाथी हैं । अवशिष्ठ कारबेल्ट के तोरण के ऊपरी भाग पर घंटी के आकार के कमल उभरे हुए हैं। बरामदा के दोनों ओर सँकरा स्थान अर्थात् आला या ताक विद्यमान हैं। जमीन पर आधारित कूटस्तम्भों को आधार, केन्द्रीय आखिरी, वर्गकार और माध्यमिक इन पांच भागों में विभाजित किया गया है। ६७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निचली मंजिल का बांयांभाग : . भीतर की ओर मुड़ने पर तिरछाकार इस गुम्फा का विस्तृत बायां भाग अवस्थित है। इस भाग में एक लम्बा बरामदा है। जो नवीन खम्भों के सहारे स्थित है। इस बरामदा में तीन ओर से बेंचे है। बरामदा की छत कुछ जीर्ण-शीर्ण है। फर्स उठा हुआ और समतल है। वर्गाकार खम्भों का चौखुटा निचला भाग मजबूत है। बरामदे के बाहर निर्भीकता पूर्वक दोनों ओर बाहर खडे हुए चौकीदार इस भाग की रक्षा करते हुए से प्रतीत होते हैं मानो वे दाहिने भाग में सामने खडे चौकीदारों के प्रतिद्वन्द्वी हों। उक्त तीन बेंचों से युक्त बरामदा के तीन ओर तीन कोठिया हैं। घनाकार खम्भों पर आधारित बरामदा की छात गिर गई है, लेकिन फर्श के चिन्हों और बगल के कूटस्तम्भों से ऐसा प्रतीत होता है कि दाहिनी भाग में जो उपलब्ध है उसके वे प्रतिरूप थे। शेर और वृषभ की आकृतियों के चिन्ह, बरामदे की छत के निकट के स्थम्भों के मध्य भाग में दृष्टि गोचर होते हैं। बरामदा की छत को संभालने के लिए आधुनिक राजगिरियो ( शिल्पकारों) द्वारा निर्मित चार खम्भे लगाये गये हैं। ठोस चट्टान को काटकर बनाये गये दरवाजों का बाजू का सिरा शीर्ष भाग पर स्तम्भों से जुड़ा है। तीनों कमरों के फर्श और छतें दाहिनी भाग के कमरों के समान हैं। बायीं ओर की कोठी लम्बी है। इस में एक खिडकी भी है और तीन खुले दरवाजे हैं। बरामदे के पीछे वाले कमरे में तीन प्रवेशद्वार हैं। पूर्व की ओर इसी प्रकार का प्रकोष्ठ है। उसमें सुगमता से प्रवेश करने हेतु एक दरवाजा है, जो थोड़ा बन्द हैं। बरामदा के बाहर दोनों ओर चौकीदारी करते हुए चौकीदारों को तोड-फोडकर उन्हें विरुपित करदिया गया हैं। उनकी कमर में तलवार लटकती हुई दृष्टि गोचर होती हैं। जिस कोने पर दायें और बायें भाग मुख्य भाग से मिलते हैं उस कोने पर दो छोटी छोटी कोठियां विद्यमान हैं। दाहने भाग में संलग्न प्रकोष्ठ में दो प्रवेश द्वार हैं। एक पूर्व की ओर और दूसरा दक्षिण की ओर खुला हुआ है। प्रांगण के समतल होने से दोनों का पानी बहता रहता है। बांई भाग की ओर से सटा प्रकोष्ट का पूर्व मुखी एक दरवाजा है। इन प्रकोष्ठों के बाहरी मुख पहाड़ी, झरनो, वृक्षों, हाथी, शेर, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोमड़ी आदि जंगली जानवर हिलती हुई झोपड़ी आदि आश्रय रूप स्थान, पक्षी, बन्दर और हाथियों से युक्त कमल वनों से सजा हुआ है। खम्भों के बगल में स्थित दरवाजे मैदान में स्थिर घनाकार स्तम्भों के घट के तल भाग पर स्थिर हैं। पंख युक्त जंगली जानवर वनस्पति, पुष्पीय तथा सुरुचि पूर्ण तोरणों पर उछलते हुए दिखलाये गये हैं। नीचे का मुख्य भाग : रानी गुम्फा के नीचे तल के मुख्य भाग के चार प्रकोष्ठ बने हुए हैं। तीन कमरे बेंच बरामदा के पीछे और एक दाहिनी ओर है। कमरे के सामने का बरामदा पहले ही विध्वंस हो गया है। इसमें मौलिक स्तम्भ थे बरामदा के घनाकार (स्तम्भ) नीचे वर्गाकार और नक्कासी से युक्त हैं। इनके ऊपरी भाग अष्ट कोणीय हैं। ये घनाकार स्तम्भों पर स्थिर हैं। बरामदा के दाहिनी ओर ताक दृष्टि गोचर होता है। बरामदा पहले ही नष्ट हो गया है। खुले प्रांगण से प्रवेश कर कमरे में पहुँचा जा सकता है। बगल के प्रत्येक कमरों में दो-दो प्रवेश द्वार हैं। मध्य के कमरे में तीन प्रवेश द्वार हैं। बरामदा के दाहिने वाले कमरे में एक खुला दरवाजा है। इन में से प्रत्येक कमरे की छत समतल है। और फर्श पीछे की दीवाल के सन्निकट से उठा हुआ है। इन कमरों के प्रवेश द्वार, तोरण और कूड्य स्तम्भों से सुसज्जित हैं। इनके समीप के ब्रेकेटों पर अनेक आकृतियाँ निर्मित हैं। उसे वे रेलिंग संभाले हुए हैं जिनसे प्रवेश द्वार के तोरण जुडे हुए हैं। दरवाजों के कूड्य स्तम्भ नीचे और ऊपर वर्गाकार हैं किन्तु मध्य में अष्ट कोणीय हैं। उनके चौरस मेहरान पर क्षत विक्षत जानवार को देखा जा सकता है। इसके अलावा इनके तोरणों और स्तम्भों पर कोई कलाकारी दृष्टि गोचर नहीं होती है। द्वार मार्ग के उपर के तोरण आलंकारिक डिजायनों से अलंकृत हैं लेकिन कर्णपट्ट बिलकुल सपाट है अर्थात कलाकृति नहीं है। प्राकृतिक कारणों से धनुषाकार तोरण, रेलिंग ब्रेकेटों पर बनी आकृतियाँ उत्कीर्णित जानवर आदि विलुप्त हो गये हैं। रानी गुम्फा के मुख्य भवन के नीचे के भाग के सामने की बायीं ओर के उपखण्ड के प्रारम्भ में एक चित्रित वृक्ष के समीप दो मंजिला की संरचना हुई है जिसके ६९ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपरी भाग में ढोलाकार तोरण और छत उत्कीर्णित है। द्वितीय उपखंड लगभग पूर्णरूप से प्रभावित है। उसमें उत्कीर्णित एक जानवर, सवार और तलवार के साथ आकृतियों की रूप-रेखा को बहुत कठिनाइ से समझा जा सकता हैं। तीसरे उपखण्ड में स्त्री के वक्षस्थल, और अनेक आकृतियों सिरों को जाना जा सकता है। कुछ सेवकों सहित जानवर पर सवारी किये हुए और छत्र धारण किये हुए एक और आकृति दृष्टि गोचर होती है। उक्त सेवको में से एक सेवक लाठी पर किसी वस्तु को लटकाये हुए है और घुड़सवार उसके सामने खडा है। चौथे दश्य में एक आदमी को तलवार लिए हुए और दो को एक हाथी पर चढते हुए दिखलाया गया है। पांचवें उपखंड में सात आकृतियाँ चित्रित की गईं हैं। उन में से एक राजकीय दृश्य है। उस में राजा को उनके दो अनुचरों सहित दिखलाया गया हैं। एक अनुचर छत्र पकडे हुए है और दूसरा वायें हाथ में तलवार लिए हुए है। दाहिनी ओर उत्कीर्णित चार चित्रों में से दो व्यक्ति हाथ जोडे हुए उस (राजा) के समक्ष झुके हुए हैं। मध्य में एक व्यक्ति अपने वायें हाथ को लटकाये हुए और दाहिने हाथ को अपने वक्षस्थल पर रखे हुए है। छठे दृश्य में एक व्यक्ति मध्य में स्थित दूसरे पर छत्र लगाये हुए है। सातवें उपखंड में पांच आकृतियाँ चित्रित हैं, उन में से एक हाथ जोडे खड़ा है और शेष चार तलवार पकड़े हुए हैं।" FISISHSE कालीज किसमि me TRAN AACARE PORA NAR TERREE : và B SAMANNAR M M inol A ENTRE । area मगध नरेश वृहस्पति मीत्र का राजा खारवेल का समक्ष आत्मसमर्पण ७० Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा आठवें दृश्य में अंतिम छोर पर एक राजकीय दृश्य प्रतीत होता है। राजा के साथ उसके दो अनुचर भी हैं। उन में से एक अनुचर छाता पकड़े हुए है जौर दूसरा हाथ जोड़े खड़ा है। कुछ दूरी पर दो महिलायें खड़ी हुई हैं। वे भेंट स्वरूप अर्घ लिये हुए हैं। एक महिला के सिर पर थाली रखे हुए और दूसरी फूल लिए हुए है। घुटना झुकाये हुए दो आकृतियाँ चित्रित की गई हैं। उन में से एक के सिर के चारों ओर तंतुबंध टुकडा घूमता रहता है। आगे दृश्य समूह के प्रारम्भ में एक व्यक्ति दूसरे के चरणों को पकड़े हुए है। उसके मस्तक पर राजकीय सूचक पगड़ी आदि नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने पैरों की पूजा कराने वाले ने समर्पण स्वीकार करलिया है। यह दृश्य मगध नरेश का सम्राट खारवेल के समक्ष आत्म समर्पण करने का प्रतीक है। अंन्तिम उपखण्ड में विजय यात्रा से वापिस आसे हुए राजा खारवेल के स्वागत करते हुए दिखाया गया है। सौभाग्यवती महिलायें कलस लेकर कतार में खड़ी हुई हैं। क्रमश: उन के चरण प्रक्षालितकर उनका अभिनन्दन कर रही हैं। ___ खारवेल के चरण प्रक्षालित करती हुईं और मंगल कलस लिये हुए सौभाग्यवती महिलाएँ ऊपरी मंजिल : रानी गुम्फा की ऊपरी मंजिल निचली मंजिल के ठीक ऊपर न हो कर इसके कुछ पीछे स्थित है। निचली मंजिल के कमरों की छत, ऊपरी ७१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंजिल के सामने खुली छत यावे दिका सी बनी हुई प्रतीत होती है। बरामदा की छत को नौ मोटे तथा शक्तिशाली खम्भे संभाले हुए हैं। इन में सात स्तम्भ बिल्कुल नवीन है । दो की मध्य काल में मरम्मद की गई है। उन स्तम्भों के अवशेषों से स्पष्ट है कि मौलिक स्तम्भ ब्रैकेड्सों के साथ एक ही बार लगाये गये थे। बरामदा की पूरी लम्बाई के बराबर लगातार लम्बी बेंच बरामदा की पीछे की दीवाल के बगल से बनी हुई है। बरामदा की छत सामने से समतल है। बरामदा की छत से चूनेवाले पानी को निकालते के लिए सजीव चट्टान को काट कर खांचो सहित गहरी नाली बनाई गई है। इस मंजिल के प्रमुख भाग में चार कोठे बने हुए हैं। इनके द्वार मार्ग की चौखट के रूप में बगल में स्तम्भ लगे हुए हैं। इनके मध्यवर्ती भाग में पंख युक्त जानवरों को उत्कीर्णित किया गया है। अर्ध स्तम्भों के शीर्ष से होते बना हुआ तोरण विभिन्न प्रकार की वनस्पतीय और पुष्पीय चिन्हों माधवी लताओं मधुमालती लताओं, वेलों, और बच्चों द्वारा भगाये गये जानवरों से सुरुचिपूर्ण और मनमोहक है। इन तोरणों के शीर्ष भाग पर श्रीवत्स, नन्दिपाद, सर्प और कमल निर्मित किये गये हैं। तोरण के बीच के स्थान विभिन्न दृश्यों के उत्कीर्णित बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं। उन में से कुछ दृश्य जो बायीं ओर से बने हुए अच्छी अवस्था में संरक्षित हैं। उनका संक्षेप में विवरण प्रस्तुत किया जा रहा हैं। CERIES MARATI SHARE का हाथ में पूजा की सामग्री लेकर दैड़ते हुए गन्धर्व ७२ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रावली का प्रारम्भ एक उड़ते हुए देव को उत्कीर्णित किया गया है। यह एक साधरण धोती पहने हुए है। पीछे से दोनों हाथों के मध्य में से उत्तरीय धारण किये हुए है। उसके दोनों छोर दोनों ओर से नीचे लटक रहे हैं। उस के एक हाथ में फूल, गोलमाला आदि से युक्त एक थाली तस्तरी है। दुसरे हाथ में कुछ खिले हुए कमल के फूल है। पहले और दूसरे प्रवेश द्वार के मध्य में दूसरा उपखण्ड चित्रित है । इस में तीन हाथियों के झुण्ड के साथ एक पुरुष और दस स्त्रियों को भीड़ सहित द्वन्द्व युद्ध करते हुए प्रदर्शित किया गया है। पुरुष राजकीय अलंकार पहिने हुए है। उसके पास एक युवती अलंकार पहिने हुए है। हाथ के अलंकार से हाथी पर प्रहार कर रही है। उस युवती को एक महिला के द्वारा खीचते हुए दिखाया गया है। आक्रमक हाथी से युद्ध करती हुई राजकुमारी TESPRITE तीसरे दृश्य में एक पुरूष को एक युवती के पैरों पर सिर रखे हुए दिखाया गया है। युवती उसके कंधे पर हाथ रखे हुए है। इससे प्रतीत होता है कि वह पुरूष युवती का पिता है जो गज-युद्ध में घायल हो गया है। आगे के चित्र में एक युवती और पुरुष को खड़ा हुआ चित्रित किया गया है। हथियार और ढाल से युक्त युवती का एक पुरूष के साथ युद्ध दिखलाया गया है। आगे पुरुष को युवती को गोद में लेकर भागते हुए दिखाया गया है। इससे प्रतीत होता है कि युद्ध में युवती हार गई है और उसका चहेता उस का अपहरण कर लिये जा रहा है। कि ७३ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथे उपदृश्य में किसी राजा द्वारा शिकार करने का चित्रण किया गया है। हथियारों से युक्त सैनिक खडे हैं। पास में एक अनुचर एक राजकीय घोडे की लगाम पकड़े हुए खड़ा है। उसके आगे एक राजा सम्मवतः राजा खारवेल तीर और धनुष लिए खड़े हैं। आगे राजा कन्धे पर धनुष रखे हुए हैं अभय मुद्रा में दिखलाई पड़ रहे है। उसके आगे दो तीन भागते हुए हिरन और एक पेड की डाल पर बैठी हुई वस्त्र विहीन युवती है। वह युवती राजा की ओर हाथ उठये हुए रक्षा करने की याचना करती हुई प्रतीत होती है। सिंहपथ राजा की कुमारी खारवेल से रक्षा की याचना करती हुई उक्त दृश्यावली से.प्रतीत होता है कि सिंहपथ रजा की कुमारी ही राजा खारवेल को मिली हुई होगी, जिसे राजा ने छोटी रानी के रूप में स्वीकार किया है। इसी को हाथी गुम्फा शिलालेख की प्रन्द्रहवीं पंक्ति में सिंहपथरानी कहा गया है। सिंहपथ आज के आन्ध्रपदेश (श्रीकाकुलम जिल में स्थित ) का सिंगपुर होना चाहिए। आगे के दश्यों की आकृतियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो गई हैं। कुछ महिलाओं के मध्य में उक्त युवती शुसज्जित हो कर बैठी हुई हैं। नृत्य और संगीत का आयोजन किया गया है। पति-पत्नि का युगल वैठ कर उक्त संगीत का आनन्द ले रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि राजा खारवेल ने छोटी सिंहपथ रानी के स्वागत में उक्त आयोजन किया है। छठे और सातवें उपखण्ड की चित्रावली पूर्ण रूप से नष्ट हो गई है। सातवें दृश्य अत्यधिक विकृत है। इसमें पुरुष और महिला (राजा और सिंहपथ रानी) के प्रणय संबंधी चित्रों को दो-तीन बार चित्रित किया गया है । ७४ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवें उपखंड बुरी तरह से क्षत-विक्षत है जिस में एक हाथी की आकृति दाहिनी और वाईं ओर दो पुरुष अस्पष्ट रूप से प्रतीत होते हैं। नववें दृश्य में उड़ते हुए विद्याधर को पुन: दिखलाया गया है। प्रकोष्ठों के सामने के लंबे बरामदे की चौकीदारी जानवरों की पीठ पर बैठ कर मनुष्य कर रहे हैं। दाहिना ऊपरी भाग : दाहिनी और एक पतला (संकरा ) बरामदा है। और एक कोठी है जिसमें खुले हुए दो प्रवेश द्वार है । इस में किसी प्रकार की सजावट नहीं है और न बगल में कोई स्तम्भ है। बरामदा के तीन ओर से बेंच बनी हुई है। घनाकार और आधुनिक कारीगिरी से निर्मित एक स्तम्भ बरामदे की छत को संमाले हुए है। खम्भे के ब्रेकेट पर एक महिला आकृति उत्कीर्णित है। बरामदा के बाहर और बरामदे पार्श्ववर्ती स्तम्भ के विपरीत भाग में दो द्वारपाल खड़े हुए हैं। उनकी कमर पर तलवार लटकी हुई है। बायीं ओर के द्वारपाल की तोंद निकली हुई है। वह धोती एवं भारी पगडी धारण किये हुए है। इनको खोद खरोंच कर विकृत कर दिया गया है। बाहर एक कोने में एक शेर पर एक व्यक्ति हाथियार लिए बैठा हुआ है। इस भाग के कमरे की छत समतल और फर्श पीछे से उठा हुआ है। बांई ओर का भाग : बाई ओर एक कोठी है उसके अन्दर भी एक कमरा है। पहला कमरा एक प्रवेश द्वार से युक्त है जो खुला हुआ है। फर्श अनुदार है। पतला वरामदा है। जिस तीन ओर बेंच बनी हुई है । अन्दर के कमरे में बनी हुइ खिड़की से बाहर वाले कमरे से प्रकाश आता है। कोठी बाहर के एक जानवर भी उत्क्रीर्णित है । उस पर एक सबार बैठा हुआ है । २. बाजा गुम्फा इस गुंफा में दाहिनी और बाईं ओर दो स्वतंत्र कमरे हैं। इनके सामने समतल छत वाला बारामदा है। बायें ओर के कमरे के सामने की दीवाल क्षतिग्रस्त है । इसे कूड्य स्तम्भ सहारा दिये हुए है। कमरे में दो प्रवेश द्वार हैं। छत दरारी है और फर्श ७५ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूटा हुआ है। खम्भे पर पक्षियों के सिर वाले जानवरों का जोड़ा उत्कीर्णित है। यह जोडा एक दूसरे से पिछले भाग को सटा कर अर्थात् विपरीत दिशा में मुख किये हुए खडे हैं। खम्भे के ऊपरी भाग पर पंखों वाले जानवरों के जोड़े भी विद्यमान हैं। कि माटी रातमा दाहिनी ओर के कमरे की दीवाल और खम्भे नष्ट हो गये हैं। अब यह पार्श्वस्थ स्तम्भों के सहारे सुरक्षित है। इसका फर्श आधुनिक है। जो पुन: बनाया गया है। इसकी छत पहले के कमरे की तरह दरारी हो गई हैं । यह कमरा पहले की अपेक्षा छोटा है। इसका प्रवेश द्वार खुला हुआ है। इसका तोरण आधुनिक कारीगरों द्वारा बनाये गये दो स्तम्भों पर आधारित है। इसका फर्श और छत क्षतिग्रस्त है। इसके नामकरण का कारण अज्ञात है। ३. छोटा हाथी गुम्फा या ई.पू. दूसरी शताब्दी में निर्मित इस गुंफा में एक छोटी कोठी है। इसकी छत बहुत नीची है। फर्श खुदा है। इसका दरवाजा भी छोटा और नीचा है। इस में बड़ी कठिनाई से प्रवेश किया जा सकता है। दरवाजे के ऊपर स्थित गोल चट्टान प्राकृतिक रूप से इसे सुरक्षित किये हुए है। इसके दरवाजे के तोरण पर छह हाथी अनुक्रम से उत्कीर्णित हैं। दोनो ओर तीन-तीन हाथी हैं। M For । मान छोटा हाथी गुफा 1ि प्रारम्भ में हाथी का बच्चा फिर बड़े दांतो वाला हाथी अंत में हाथिनी दोनों पार्श्व में कमलों को सूंढ़ में लिये हुए जाते से प्रतीत होते है। दाहिनी ओर एक चैत्य ७६ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृक्ष है, जिसकी पूजा करने के लिए हाथी का परिवार जाता हुआ दिखलाई पड़ रहा है । यह गुंफा हाथी गुम्फा से छोटी अर्थात् कम ऊँचाई वाली है और छोटे छोटे हाथी भी चित्रित हैं। इसी कारण से इसका नाम छोटा हाथी गुम्फा प्रसिद्ध हुआ है। लोगों ने हाथियों को क्षतिग्रस्त कर दिया है। कोठी की छत समतल और फर्श पीछे से उठा हुआ है । धनुषाकार तोरण, प्रवेश मार्ग के ऊपर को दो कुड्य स्तम्भ संभाले हुए हैं। इन स्तम्भों के मध्य भाग पंख युक्त जानवरों से सुसज्जित है । वांई ओर ग्रस्त तोरण पर खिले हुए कमल और पौधे उत्कीर्णित हैं । कर्णपट पर एक समर्पणात्मक अभिलेख के कुछ शब्द प्रतीत होते हैं। यथा स लेनं (अर्थात् ... की गुम्फा) इसके प्रारम्भ के अंश को पढ़ना दुष्कर है। इसका गृह-मुख अधखिले गोलाकार कमलों से आकर्षित है। ४. अलकापुरी गुफा : दो मंजिल बाली इस गुफा का निर्माण ई. पू. दूसरी शताब्दी में हुआ था । इस की दोनों मजिलें एक दूसरे के ऊपर नीचे एक एक लम्बा कमरा है । निचली मंजिल का प्रकोष्ठ लम्बा है। इस में कोई बरामदा नहीं है। इस कमरे को क्रूरता पूर्वक खोद कर नष्ट कर दिया गया है। यह एक खदान की तरह प्रतीत होता है। इसके सामने की दीवाल और बरामदा भग्न हो गया है । यह अनावृत सा दृष्टि गोचर होता है । बरामदा के मोटे खम्बो पर क्षतिग्रस्त ब्रेकेट और पंख युक्त घोड़े दृष्टि गोचर होते हैं। कमरे के बाहर एक बेंच बनी हुई है जिसके ऊपर सामान रखने के लिए रैक बना हुआ है। उपरी भाग : है । इस गुफा की ऊपरी मंजिल पर सीढियों के द्वारा गुम्फा पांच के सामने से जाया जा सकता है ? नीचे के कमरे की अपेक्षा ऊपर का कमरा लम्बा है। इसकी छत उन्नतोदराकार की है। फर्श और छत क्षतिग्रस्त है । उसमें तीन प्रवेश द्वार हैं। प्रथम दो प्रवेश द्वारों की दीवार टूट गई है। इसका फर्श मौलिक रूप से पीछे से उठा हुआ इसके सामने एक बरामदा है। इसके तीन ओर बेंच है। बरामदा का फर्श और स्तम्भों के ७७ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R A AND mer NE TAMIN अधिकांश को नवीनी करण करदिया गया है। बरामदा की छत समतलाकार है। इसके दोनों ओर रैक बने हुए हैं। जी ऊपरी मंजिल के ब्रेकेटों पर हाथी शेर जैसे जानवर उत्कीर्णित हैं। उन में कुछ पंख वाले और कुछ मनुष्यों तथा पक्षियों के सिर वाले हैं। बरामदे के पहले और बांयी ओर के प्रवेश द्वार के एक स्तम्भ के ऊपरी भाग पर एक पुरुष को बांयें हाथ में एक युवती दबा कर ले NOHARotigat युवती को लेकर भागने के लिए उद्यत Jan जातेहुए दिखाया गया है। उसके सामने एक बहुत सुन्दर हाथी खडा हुआ है। वह पुरुष उसकी सूंढ को दाहिने (चित्र) हाथ से सहला रहा है। हाथी भी पूंछ गुडयाये हुए बैठने की मुद्रा में है। वह व्यक्ति उसपर वैठकर उस युवती के साथ भागना चाहता है। उस प्रवेश द्वार के दाहिने स्तम्भ के ब्रेकेट के ऊपर एक सिंह उत्कीर्णित है। जिसके मुख में उसका शिकार दबाहुआ है। चतुर्दन्ति गजराज की सेवा में रत दो हाथिनियाँ मार दूसरे प्रवेश द्वार के दूसरे स्थम्भ पर अन्दर के दूसरे ब्रेकेट पर दो हाथिनियों से घिरा हुआ बीच में चार दांतों वाला एक सुन्दर हाथी की आकृति चित्रित है। इस हाथी की सूंढ़ में कमाल का फूल है। इस प्रकार का हाथी बहुत कम देखने को मिलता है। ऐसा हाथी इन्द्र का होता है। हाथी के पार्श्वस्थ एक हथिनी की सूंढ़ में चंवर और दूसरी छत्र लिए हुए उस राज हस्ति की सेवा में तत्पर हैं। इसी स्तम्भ के बांयीं ओर विपरीत दिशा में ७८ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुँह किये हुए एक-दूसरी से पछाड़ी को सटाये हुए पंख युक्त घोड़े हैं। दाहिनी और मनुष्यों के मुखाकार के पंख युक्त दो जानवर पिछला भाग सटाये हुए खड़े हैं। यहीं पर तोता पकड़े हुए दासियाँ भी हैं। खड़े (चित्र) हाथी को विशाल सर्प लपेटे (बांधे) हुए है। यह विचित्र और दुर्लभ आकृति है । क तीसरे प्रवेश द्वारा के दाहिनी और के स्तम्भ पर एक पेड के नीचे एक स्थूलाकार इस गुंफा की दांई ओर एक छोटी कोठी है जो बरामदा से सटी हुई है। इसका दरवाजा और छत नीची है। इस में झुक कर प्रवेश किया जा सकता है। इस का फर्श पीछे से उठा हुआ है। इस में एक प्रवेश द्वार है जो बरामदा की और खुलता है। बरामदा में एक ओर बेंच है। बरामदा के अंत में समाप्त होने वाली छत इतनी नीची है कि वर्षा का पानी कोठी के अन्दर भरजाता है। ५. जय - विजय गुम्फा ई.पू. दूसरी शताब्दी में निर्मित जय-विजय गुम्फा के नामकरण का कारण अवगत नहीं है। यह गुम्फा अलकापुरी के सन्निकट है। इसका निर्माण बहुत ऊँची चट्टान की कगार को खोदकर किया गया है। यह दो मंजिला गुम्फा है। इसके नीचे के तल्ला के भाग में कमरा गहरा और समतल है। यह कला विहीन है । विस्तृत प्रवेश द्वार है। इसके अंदर की छत ऊँची है। तोरण ऊँचा और स्वच्छ ७९ इस गुफा की ऊपरी मंजिल में दो प्रकोष्ट हैं। इनकी छत समतल है, और फर्श उठा हुआ है। इसका दरवाजा स्वतंत्र है, जो खुला हुआ है। इसकी छत और फर्स टूटा विडी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ है। इसे के बरामदे की छत समतल है और बेंचें है। इसे आधुनिक मोटे स्तम्भ सहारा दिये हुए हैं। बरामदे की छत का लटकता हुआ ऊपरी भाग वर्षा के पानी के अन्दर आने से रोकता है। बरामदा की दीवालों के पार्श्व पर कप आदि रखने के लिए अलमारी भी बनी हुई है। बरामदा को दोनों ओर से दो स्तम्भ इसे संभाले हुए हैं। प्रत्येक प्रकोष्ठ में एक एक प्रवेश द्वार है। दोनों कमरों की प्रवेश द्वारों पर धनुषाकार तोरण बने हुए हैं। इन के ऊपरी भाग क्रमान्तर माधवी लता और कमलों से सुसज्जित हैं। दूसरी ओर मकर के मुख से निकलती हुई लतायें दृष्टि गोचर होती हैं। मध्यवर्ती भाग में कोई नक्काशी या कला नहीं है। बांई ओर के कमरे के दोनों ओर दो विलऊआ चित्रित हैं। बरामदे के बाहर दो तोता पहरेदार खड़े हुए हैं जो प्रवेश द्वार की रक्षा कर रहे लिए हुए हैं। पुरुष धोती पहिने हुए है। पैर जूता विहीन हैं। महिला दुष्टों ने इसे विकृत कर दिया है। दाहिने ओर के दरवाजे के बगल में महिला द्वारपाल है। इसके दाहिने हाथ में एक तोता है। महिला पैर मोड़ कर खड़ी हुई बहुत सुन्दर प्रतीत होती है। फूल युक्त पत्तों से इसके केश सजे हुए हैं। इसके थोड़े ऊपर लताओं से लिपटी हुए एक महिला है जो शाल मंजिका कहलाती है। — दोनों कमरों के दरवाजों के मध्यवर्ती भाग के ऊपर अर्थात् तोरण पर एक पवित्र और पूज्य चैत्य-वृक्ष उत्कीर्णित किया गया है। जैन धर्म में चैत्य-वृक्ष का विशेष महत्व है। यह वृक्ष चारो ओर से एक घेरे से घिरा हुआ है। इसके ऊपर छत्र और बगल में पताकायें सुशोभित हो रही हैं। इसके दोनों ओर स्त्री और पुरुष का एक-एक जोड़ा दृष्टि गोचर होता है। ये चैत्य-वृक्ष की पूजा करने के लिए आये हुए प्रतीत होते हैं। पुरुष हाथ जोड़े हुए है और स्त्री फूलों की माला आदि पूजा की सामग्री ८० Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 台 शालभंजिका द्वारपालिका लिए हुए है। वे नमन कर रहे हैं। दोनों दरवाजों के दोनों ओर उड़ते हुए गन्धर्व पूजा की सामग्री और कमल के फूल लिए हुए उत्कीर्णित किये गये हैं। जो ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे वे चैत्य-वृक्ष की पूजा करने के लिए आये हैं । चैत्य वृक्ष पूजा का दृश्य उक्त चित्राकंन से सिद्ध होता है कि खारवेल के समय में चैत्य-वृक्षों की भी पूजा करने का रिवाज (प्रथा) था। इस गुफा के कमरे बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हैं । बरामदा की छत वर्तमान कालीन घनाकार स्तम्भों पर आधारित है। य ८१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. पन्नास गुम्फा उड़िया भाषा में कटहल को पन्नास कहते हैं। इस गुंफा के समीप पहले पन्नास का वृक्ष रहा होगा, इसलिए इस गुंफा को पन्नास गुफा के नाम से जाना जाता है। यह एक साधारण गुफा है। इसमें एक सादा और लम्बा कमरा है, जो दो ऊँचे घनाकार स्तम्भों पर आधारित है। यह सामने से खुली हुई है। छत खुरदारी है। फर्श खुदा हुआ है, जो गड्ढा नुमा है। उस में तीन प्रवेश द्वार हैं। यह आकर्षण विहीन है। ७. ठाकुराणी गुम्फा इस गुफा में दो प्रकोष्ठ हैं, जो एक दूसरे के ऊपर-नीचे है। उपरी प्रकोष्ठ की अपेक्षा नीचे का प्रकोष्ठ बड़ा है। इसकी उन्नतोदर छत भी ऊँची है। बरामदा में बेंचे बनी हुई हैं। बरामदा को परम्परा से बने स्तम्भ संभाले हुए हैं। इस में दो प्रवेश द्वार हैं आन्तरिक ब्रेक्रेट पर पंख युक्त जानवरों के जोड़े विद्यमान हैं। घनाकार स्तम्भों के सर्वोच्च भाग पर मकर, घोड़े और तोते की सिर तथा पंख वाले जानवर उत्कीर्णित हैं। 1 ऊपर का कमरा नीचे के कमरे की अपेक्षा छोटा है। इसकी छत भी बहुत नीची है। फर्श पीछे से ढालुदार है। कमरे के बाहर घुमावदार बेंच और एक छोटा बरामदा है, जो बन्द है । कमरा दरवाजा विहीन है। इसमें किसी भी प्रकार की कलाकारीगिरी नहीं है। सिर झुका कर इस गुंफा की अन्दर जाया जा सकता हैं। ८. पातालपुरी गुम्फा पातालपुरी गुम्फा में पहले चार प्रकोष्ठ रहे होंगे। पीछे की ओर दो कमरे थे लेकिन उनकी विभाजक दीवाल के गिर जाने से अब यह एक लम्बा प्रकोष्ठ बन गया है। इसमें चार प्रवेश द्वार है। इसकी छत दरारी हुई है। फर्श खुदा हुआ है और ढालुदार है । प्रकोष्ठ की छत धनुषाकार है। इसके पीछे के दीर्घ प्रकोष्ठ के सामने एक बरामदा है। इसकी दायें और बांयें ओर एक-एक कोठी है। दोनो कोठियों के फर्श और छत जीर्ण-शीर्ण है। बरामदा में तीन प्रवेश द्वार हैं । बरामदा की छतको घनाकार स्तम्भ सहारा दिये हुए हैं। स्तम्भों के उच्च और ब्रेकेटों पर पंखदार जानवर उत्कीर्णित है। ८२ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यों को शेरों से लड़ते हुए अशिष्ट ढंग से चित्रित किया गया है । अंदर के ब्रेकेटों की आकृतियाँ नष्ट हो गई हैं। पीछे के दीर्घ प्रकोष्ठ का अग्रभाग साधारण और कला विहीन है। इसके दरवाजों और प्रारम्भ की दीवाल का पुनः आधुनिकीकरण किया गया है I ९. मंचपुरी (स्वर्गपुरी) गुम्फा पातालपुरी गुम्फा से दाक्षिण पश्चिम की ओर जाने पर मंचपुरी गुंफा के दर्शन होते हैं। यह गुम्फा रानी गुम्फा की डिजाइन की तर्जपर बनी हुई है। यह गुम्फा दो मंजिल वाली है । इसका ऊपरी भाग स्वर्गपुरी और अपर भाग मंचपुरी गुम्फा के नाम से प्रसिद्ध है । मंचपुरी गुम्फा की पूर्ण जानकारी के लिए दोनों मंजिलों का पृथक-पृथक वर्णन करना आवश्यक है। इस गुम्फा का निर्माण ई. पू. की पहली दूसरी शताब्दी में हुआ प्रतीत होता है, ऐसा विद्वानों का मत है। यह गुफा एक चट्टान पर बनी हुई हैं। मंचपुरी (अपर मंजिल गुम्फा : नीचे की मंजिल मंचपुरी कहलाती है। इसमें चार कमरे हैं। मुख्य भवन में तीन कमरे विद्यमान हैं। ये तीनों कमरे शृंखला बद्ध हैं। एक कमरा मुख्य भवन के बाहर स्थित हैं । उक्त तीन कमरों में से दो कमरे एक लाईन (सीध) में बने हुए हैं। इन कमरों का मुख पश्चिम की ओर है। तीसरे का मुख उत्तर की ओर है। सम्पूर्ण शृंखला के बाहर एक बेंच वाला बरामदा है। पृष्ठ कमरों की छत कुछ वक्र और क्षतिग्रस्त हो गई है। फर्श सुन्दर और पीछे से उठा हुआ है। सामने के दोनों कमरों की बीच की दीवाल में गहरा ओर बडा बिल बरामदा में प्रवेश करने के लिए बना कर लोगों ने जंगला बनालिया हैं। इन दोनों कमरों में दो-दो प्रवेश द्वार हैं। चार खम्भों का अधिकांश भाग आधुनिक कारीगिरि (शिल्प कौशल) से युक्त हैं। स्तम्भों पर बने ब्रेकेटों पर महिलाओं और घुड़ सवारों की आकृतियों अंकित हैं। बरामदा में प्रवेश करने के लिए बने पांच प्रवेश द्वारों को पार्श्ववर्ती घटों पर स्थित घनकार स्तंम्भ संभालें हुए हैं। इनके शीर्षगों पर बनी अकृतियां नष्ट हो गई हैं। पिछला भाग एक-दूसरे से सटाये हुए जानवार भी चित्रित हैं । पुष्पीय, वनस्पतीय, लताओं और जानवरों को खदेड़ते हुए लडकों से युक्त एक अर्धवृत्ताकार पट्टी को उत्कीर्णित किया ८३ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। इनके शीर्ष भागों पर भी वत्स और नन्दीपाद भी हैं। बरामदे के बाहर हथियारों से युक्त दोनों और एक एक चौकीदार दोनों मंजिलों की रक्षा कर रहे हैं। लोगों ने इनके सिर और मुखों को क्षत-विक्षत कर उन्हें विकृत करदिया है। बरामदा की दाहिनी ओर पश्चिम भाग में एक छोटा प्रकोष्ठ है। उसके प्रवेश द्वार के तोरण के ऊपर फूलों से सुसज्जित कला विद्यमान है। इस कोठी के दरवाजों के दाहिने भाग के मुखौटे पर एक छोटा अभिलेख है जो घिस गया है। यह अभिलेख निम्न प्रकार है : कुमारो वडुख स लेणं अर्थात् कुमार वडुख की गुंफा । इस गुम्फा की महत्वपूर्ण आकृति बुरी सरह से नष्ट हो गाई है प्रमुख खण्ड के द्वितीय और तृतीय प्रवेश पथ के मध्य में धार्मिक चिन्ह की पूजा करने का दृश्य विद्यमान है। यह दृश्य उस समय की स्मृति को अमर बनाने के लिए उत्कीर्णित किया गया हैं, जब सम्राट खारवेल ने मगध नरेश से कलिंग जिन को वापस ला कर पिथंड में मायाजा कलिंग जिन की पूजा करते हुए सपरिवार राजा खारवेल ८४ फि Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा कर सपरिबार पूजा की थी। उक्त पुरुष पुरोहित है, जो पूजा कराने की मुद्रा में है। दूसरा पुरुष राजा खारवेल जो पहले पुरुष के पीछे खडे हैं। उनके पीछे एक महिला है। यह रानी होना चाहिए। उनके पीछे सम्भवत: राजकुमार कुदेप भी हैं। पूरा राजपरिवार हाथ जोडे खड़े हुए ऐसे प्रतीत होते हैं। मानो वे भगवान की स्तुति कर अर्घ चढ़ाने का अनुष्ठान कर रहे हैं। वाद्य बजाते हुए दो गंधर्व भी उत्कीर्णित हैं। राजकुमार के सिर के ऊपर उगता हुआ एक सूर्य भी चित्रित है। राज परिवार के पीछे एक हाथी भी खड़ा दृष्टिगत होता है। जो इस बात का प्रतीक है कि उसी पर सवार हो कर उक्त राजपरिवार आया था। हाथी के ऊपरी भाग में विद्याधर को उड़ते हुए दिखाया गया है। उसके बायें हाथ में पूजा-सामग्री से युक्त एक थाली है और दूसरा हाथ उठा हुआ है। उक्त तोरण के अवशिष्ट स्थान में बौनी आकृतियों द्वारा सहारा दिये हुए तीन जंगला विद्यमान हैं। दाहिने कमरे के पहले और दूसरे अर्थात् तीसरे और चौथे दरवाजे के मध्य में निम्नांकित एक पंक्ति का अभिलेख है। एरस महाराजस कलंगाधिपतिनो महामेघवाहनस कुदेपसिरिनोलेणं। अर्थात् कलंगाधिपति महाराज आर्य महामेघवाहन कुदेप सिरि (श्री) की यहगुंफा है। इसके बगल के तीसरे कमरे के पश्चिम की ओर एक छोटी कोठी है, जो पूर्व . से पश्चिम तक विस्तृत फैली हुई है। इसमें दो प्रवेश दरवाजे हैं। इसका फर्श खुदा हुआ है और छत दरारी हुई है। इस में कला का अभाव है। इस कोठी के सामने तीन ओर बेंचों से युक्त एक बरामदा है। इसे दो अन्तरिक एक भारी घनाकार स्तम्भ संभाले हुए हैं। इस बरामदे के बाहार भी दोनों ओर एक-एक चौकीदार उत्कीर्णित हैं। इस गुफा के मुख्य भवन के बाहर के ऊपरी सतह पर कमल, हाथी, घोड़े आदि की आकृति बनी हुई हैं, जो अब नष्ट हो रही हैं। इसके आंगन के सामने नष्ट हुई गुंफा का समतल मैदान भी कतिपय वर्षों पूर्व निकाला गया है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरी मंजिल अर्थात् स्वर्गपुरी गुंफा : इसमें एक लम्बा प्रकोष्ठ है। इसकी छत निचली और जीर्ण-शीर्ण है। फर्श पीछे से उठा हुआ है। इस में तीन प्रवेश द्वार हैं। फुलों और वनस्पति से युक्त तोरण बने हुए हैं। बगल में एक दरवाजे वाली एक और कोठी हैं। इसकी छत भी निचली और क्षतिग्रस्त है । बरामदा की छत और साहरा देने वाले खम्भों के गिरजाने से सामने बेंच युक्त बरामदा भी है। दूसरे और तीसरे दरवाजों की बीच में तीन पंक्तियों का एक अभिलेख है। जो निम्नांकित हैं । १. २. ३. अरहन्त पसादाय कलिंगानं समनानं लेनं कारितं राजिनो ललाकस हथिसिस पपात धुतुना कलिगं चकवतिनो सिरि खारवेल स । अगमहिसिना कारितं अर्थात् अरहतों के प्रसाद से कलिंग के श्रमणों के लिए निर्मित की गई गुम्फा राजा ललक की (पुत्री) और हाथी सिंह की प्रपौत्री कलिंग के चक्रवर्ती श्री खारवेल की अग्र महिषी (पटरानी) ने इस गुंफा का निर्माण कराया था। बगल के कमरे में और पश्चिमी दीवाल के मध्य में एक खिड़की हैं। मरम्मत किये गये बगल के खंभों पर पंख युक्त जानवरों की आकृतियाँ हैं । उनके उपर निर्मित तोरण पर वनस्पतीय चिन्ह और मकर के मुख से निकलती हुई लतायें सुशोभित होती है। १०. गणेश गुंफा १. रानी गुम्फा से दाहिनी पश्चिम की ओर कुछ दूरी पर गणेश गुम्फा स्थित है । इस गुफा में दो लम्बे प्रकोष्ठ हैं, जिनका उपयोग श्रमणों के आवास के लिए किया जाता था। इन दोनों कमरों में दो-दो प्रवेश द्वार हैं। इनके सामने बेंच युक्त बरामदा है। प्रांगण से शीघ्र ही कुछ कदम चल कर बरामदा में प्रवेश किया जा सकता है। कमरों की छत कुछ नीची और समतल है। फर्श पीछे उठा हुआ है। कमरों को विभाजित करने वाली बीच की दीवाल में खुली हुई एक खिड़की है। बरामदा की छत साधारण है। इसे घनाकार स्तम्भों की पंक्ति संभाले हुए हैं। ८६ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. बाई ओर के कमरे के पीछे की। की दीवाल पर किसी तीर्थकर की मूर्ति उत्कीर्णित है। यह मूर्ति पर्यकांसन और योगमुद्रा में विराजमान हैं। लेकिन इस में कोई चिन्ह न होने के कारण इन्हों पहिचानना संभव नहीं है। मूर्ति के देखने से ज्ञात होता है कि इसे चूना पत्थर के आवरण के साथ प्लास्टर कर जोड़ दिया गया है। इसी प्रकार बायीं ओर की कोठी ध्यानस्थ जैन तीर्थंकर में गणेश की मूर्ति उत्कीर्णित है। इस मूर्ति की दाहिनी ओर पांच पंक्ति के एक आलेख से प्रकट होता है कि भौम वंश के राजा शांतिदेव के राजत्व काल में विरजा के निवासी वैद्य भीमट्ट के पुत्र नन्नट ने प्रसस्त धान दी थी। शांतिदेव के राजत्व का समय ई.सन्. ८२९ है। अत: अनुमान किया जाता है कि उक्त गणेश की स्थापना ई.सन्. ८२९ के आस पास हुई होगी। इसी गणेश की मूर्ति स्थापित होने के कारण यह गुंफा गणेश मंफा कहलाती है। कमरो के प्रवेश द्वारो की ऊपर तोरण पर वनस्पति के चिन्ह और मकर के मुख से निकलने बाली लताओं से सुसज्जित है। ऊपरी भागों पर नन्दिपाद और श्रीवत्स भी दृष्टि गोचर होते हैं। एक ओर पहले ओर दूसरे द्वारपथ के बीच के और दूसरे और तीसरे और चौथे द्वारपथ के वीच के स्थान में दो दृश्य उत्कीर्णित है। प्रत्येक के उपर घेरा बना हुआ है। उसी में पालथी लगाकर बैठे हुए तीन तोंदवाले स्त्री पूरूष की CPNU । Ram ८७ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ४. ५. ६. आकृतियाँ है। पहले और दूसरे दरवाजे के मध्य में एक पेड के नीचे एक आदमी लेटा हुआ है और उसके पैरो के समीप एक स्त्री बैठी हुई है। महिला पैरों में पैजनियाँ पहने हुए है। उसका एक हाथ उस व्यक्ति की जाँघ के रखा है। • उपर दूसरे दृश्य में एक महिला किसी व्यक्ति को पकड़े हुए है। तीसरे दृश्य में पुरुष और महिला के बीच में हथियारों से युद्ध होता दिखाया गया है। स्त्री पुरुष को पकड़ कर ले जाते हुए चित्रित है। चौथे दृश्य में स्त्री को लेकर पुरुष को भागतें हुए चित्रित किया गया हैं । गणेश गुफा के सामने फूल - गुच्छ लिए हुए हाथी तीसरे और चौथे दरवाजे पर भी बहुत सुन्दर दृश्यावली है, जिस में कुछ लोग हथियार लिये हुए हैं । महिलायें भी युद्ध करती हुई दृष्टिगत होती है। एक हाथी पर तीन महिलाओं को धनुष और तलवारों से युद्ध करते हुए दिखाया गया है। एक पेड़ के नीचे एक हाथी बैठा है। उसके बगल में दो महिलायें और एक पुरुष खड़ा हुआ है। एक स्त्री अफ्सोस की मुद्रा में जमीन पर बैठी हुई है। कोई पुरुष उसे मना रहा है। बरामदे के ब्रेकेट्स पर महिलाओं और पुरुषों की आकृतियाँ बनी हुई है। माधवी लता, फूल, टूटे-फूटे बर्तन, थाली आदि भी दृष्टिगोचर होते हैं । बरामदा ८८ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. के बाहर बायीं ओर भाला या लाठी लिए चौकीदार खड़ा उक्त गुंफा की रक्षाकर रहा है। बहिर्मुख ब्रेकेट पर पागुराता हुआ तथा ककुद (पीठ के ऊपर उठा भाग) सहित बैल उत्कीर्णित है। बरामदा के ओर जाते हुए दाहिनी और बोयीं ओर अपनी सुंढ़ में फूल के गुच्छे लिए हुए (हाथी) उत्कीर्णित दृष्टिगोचर होते है। मानो वे आगन्तुकों का स्वागत कर रहे हैं। अनुमान किया जाता है ई.सन्. दूसरी शताब्दी में इस गुफा का निर्माण हुआ ८. होगा। ११. जम्बेश्वर गुम्फा भालुओं का राजा जम्बेश्वर कहलाते है। ई.पू. प्रथम शताब्दी में निर्मित इस गुंफा में दो प्रवेश द्वारों वाली एक कोठी है। दरवाजे सादा है। इसकी छत बहुत नीची और जीर्ण-शीर्ण है। फर्श ऊपर से उठा हुआ ढालुदार है और खुरदरा है। उसके आगे तीन घनाकार स्तम्भ के सहारे एक छत युक्त बरामदा है। बारामदे के तीनों ओर बेंच है। दोनों ओर एक-एक छोटा रैक भी है। कला विहीन इस गुम्फा के ब्रेकेट भी साधारण है। इस गुंफा में निम्नांकित लघु शिलालेख से ज्ञात होता है कि महामद महामदस बारियाम नाकियास लेणं। इस गुंफा के उत्तर पश्चिम में ढलान पर सामने खुली एक छोटी गुंफा भी है। १२. बाघ गुंफा ई.सन्. की प्रथम शताब्दी में निर्मित इस गुफा के सामने का भाग मुँह खोले बाघ के समान होने के कारण इसे बाघ गुंफा के नाम से जाना जाता है। हाथी गुम्फा के पश्चिम में स्थित इस गुफा में एक छोटा प्रकोष्ठ है। इसकी छत नीची है। फर्श ऊपर से उठा हुआ और चिकना है। कमरे का निकास मार्ग बहुत छोटा और नीचा है, उस में झुककर प्रवेश किया जा सकता है। इसके ऊपर बाघ के आकार की चट्टान है। जिस में जबड़ा फैलाये हुए, भयानक दाँत और चंचलता पूर्ण आखों Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TSE बाघ गुफा फ्री और नाक युक्त सजीव बाघ के सिर की तरह प्रतीत होता है। इसके कमरे के सामने एक बरामदा है। प्रवेश द्वार के दाहिनी ओर एक छोटा आलेख निम्न प्रकार है। नगर अखदमस सभूतिनो लोणं । इससे ज्ञात होता है कि यह नगर के न्यायधीश समूति की गुंफा है । लेख के अन्त में त्रिभुज और स्वास्तिक का चिन्ह है। किंचित दूरी पर एक सजीव छिपकुली (गृह को किला) चित्रित है । स्तम्भों पर हाथियों के जोड़े और जानवर विद्यमान हैं। दरवाजे का तोरण सादा है। कमरे के अन्दर एक ऐसा स्थान है जैसे जीवित जानवर का गला हो । ST १३. सर्प - गुम्फा हाथी गुम्फा से पश्चिम में सर्प गुफा स्थित है। इसका निर्माण एक गोल चट्टान को काट कर किया गया है। यह सब से छोटी गुम्फा है। जिस पत्थर से यह निर्मित है वह चिकना है । इस में दो छाटी कोठियाँ हैं। उन में से ऊपर वाली कोठी पूर्व मुखी है। यही सर्प गुंफा के नाम से प्रसिद्ध है। उसके उत्तर मुखी प्रवेश द्वार में कोई कला नहीं है। उसी प्रवेश द्वार के ऊपर की चट्टान पर सर्प की आकृति उतकीर्णित ९० Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्प गुफा BANI S । ONA PORTAINS RANASNA 18 की गई है। इसके चार फणों पर अपरिष्कृत नक्कासी दर्शनीय है। इस भयानक आकृति वाले सर्प का मुँह खुला हुआ (चित्र) है। इसका फर्श पीछे से उठा हुआ है। गुंफा मुँह पर बहुत संकरा बरामदा है। इस में पहुंचना संभव नहीं है। इस में दो अभिलेख है। (क) चुलकंमस कोठाजेया च (चि) अर्थात् चुलकम (उपकर्म सचिव) का अभेद्य आवासीय प्रकोष्ठ। (ख) कम्मस हल खिगाय च पसादो अर्थात् कम्म और हलक्षिण का प्रकोष्ठ है। इन आलेखों से सिद्ध है कि चूलकर्म अर्थात्-उपकर्म सचिव के इस अभेद्य आवासीय कोठी का निर्माण कर्म और हलक्षिरा (खानिया) ने कराकर उसे उपहार में दे दिया था। इस गुंफा में घिसट (रैंग) कर प्रवेश किया जा सकता है। उसकी दाहिनी ओर दो-तीन और गुफायें विद्यमान हैं जो उल्लेखनीय नही हैं। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. हाथी-गुम्फा - यह एक प्राकृतिक गुंफा है। इस गुफा का आकार विषम है। दीर्घाकार इस गुफा में एक शिलालेख उपलब्ध है। सामने से खुली है। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में राजा खारवेल ने एक विशाल चट्टान पर अपने शैशव कालीन स्मृतियों और स्वयं के राजत्व के १३ वर्षों का विवरण १७ पक्तियों में टंकित करवाया था। इसकी भाषा शौरसेनी प्राकृत है और ब्राह्मी लिपि है। जैन धर्म और इतिहास की दृष्टि से हाथी गुंम्फा का अनन्य महत्व है। भारत शब्द का उल्लेख इसी प्राचीनतम हाथी गुम्फा शिलालोख में सर्व प्रथम हुआ है। इस में मांगलिक चिह्न अंकित हैं। १५. धानघर गुम्फा हाथी गुंम्फा से दाहिनी ओर से गणेश गुंफा की ओर बढ़ने पर धानघर गुंफा को देखा जा सकता है। दूसरे शब्दों में हाथी गुम्फा और गणेश गुम्फा के मध्य में दाहिनी ओर धानधर गुंफा है। इसमें एक दीर्धाकार प्रकोष्ठ है। इसकी छत नीची और भग्न है। इस में तीन द्वारपथ हैं। इस प्रकोष्ठ के सामने बेंच वाला बारामदा है। इस बारामदा को दो स्तम्भ और तीन घनाकार स्तम्भ संमाले हुए है। घनाकार स्तम्भ के पार्श्व भागों और उपरी भागों में स्थित तोरणों से द्वार मार्ग अलंकृत हैं। बांयें कूड्य स्तम्भ के समीप एक चौकीदार खड़ा है। वह धोती पहने, चादर धारण किये और पगड़ी बांधे पैर नंगे एवं एक बड़ी लाठी टिकाये हुए खड़ा है। यह गुंफा अनुच्च और कला विहीन है। ब्रेकेटसों के ऊपर हाथी, शेर, माधवी लतायें और कमल उतकीर्णित हैं। इस में कोई कारीगिरि या कला नहीं है। फर्श खुरदरा और ऊपर से उठा हुआ है। १६. हरिदास गुम्फा : इस गुंफा का नाम १७ वीं शताब्दी में हुए उड़ीसा संत हरिदास के नाम पर हुआ है, ऐसा कतिपय विद्वानों का मानना है। ई. पू. प्रथम शताब्दी में निर्मित यह गुंफा हाथी गुम्फा के बाई ओर थोडी दूरी पर दक्षिण-पश्चिम की की ओर पूर्व मुखी है। इस लाईन में तीन गुंफायें निर्मित है। हरिदास गुम्फा सर्व प्रथम स्थित है, इस ९२ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुम्फा के गृह मुख पर एक लघु आलेख अंकित है। इस से ज्ञात होता है कि इस गुंफा का निर्माण खारवेल के पश्चात् हुआ है । यह भी ज्ञात होता है कि यह चूल कर्म का अजेय उपासना और आवास प्रकोष्ठ था । कहा है : चूल कम्पस पसाती कोठजोय च यह एक लम्बे प्रकोष्ठ वाली गुंफा है। इसकी छत किं चित वक्राकर है । इस के सामने बरामदा है, जिसमें एक ओर से बेंच है। इस बरामदो को दो घनाकार खम्भे साहार दिये हुए हैं और इस में दो द्वार-मार्ग हैं। इस गुंफा का सम्पूर्ण ढांचा शिल्पकला से विहीन है। कटावदार ब्रेकेट भी उल्लेखनीय है । १७. जगन्नाथ गुम्फा नगा जगन्नाथ गुम्फा का एक बृहत प्रकोष्ठ है । हरीदास गुम्फा से सटी हुई बांयीं ओर जगन्नाथ गुम्फा है। उदयगिरी के समस्त गुंफाओं के समस्त प्रकोष्ठों में यह सबसे बड़ा प्रकोष्ठ है। कहा जाता है कि पहले इस गुंफा में श्रीजगन्नाथ का एक रंगीन चित्र था । कांटा नीकालवाने के लिये अपना मुँह खोलेहुए सारस ९३ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी कारण से इस गुफा को जगन्नाथ गुंफा के नाम से जाना जाता है। उक्त दीर्घाकार प्रकोष्ठ में चार प्रवेश द्वार है। एक बेंचं वाला बरामदा है। इस बरामदे को तीन खम्भी संमाले हुए हैं। लैम्प आदि रखने के लिए इसमें तीन आला (ताक) हैं। दो आले (Niches) प्रकोष्ठ की दीवाल पर और एक बरामदा के खम्भे पर है। स्तम्भों और घनाकार खम्भों पर हिरन, पंख युक्त जानवर, मछलियों, फूल और पौधों से युक्त हैं। इसके अलावा ब्रेकेटों पर गण, विद्याधर तस्तरी में माला रखे हुए, पंख वाले किन्नर की युगलों की आकृतियाँ उभरी हुई हैं। खम्भे के ब्रेक्रेट के ऊपर एक मूर्ति भी है। जिसमें एक सारस अपने गले से कांटा निकलावाने के लिए अपना मुँह गण की तरफ खोले हुए है। यह बहुत सुन्दर और आकर्षक चित्र है । १८. रसोई गुम्फा रसोई गुम्फा को रन्धन गुंफा भी कहते हैं। यह गुम्फा जगन्नाथ गुम्फा की बांई ओर और उससे सटी हुई है। यह एक बहुत छोटे कमरे वाला आवास गृह है। इसके पतले और सकरे खम्भों पर एक बरामदा निर्मित है। इसके सामने के ऊबड़-खाबड पत्थरों को खोद कर निकाल दिया गया है । दन्त कथा है कि जब इसके दाहिने भाग में स्थित जगन्नाथ गुंफा में भगवान श्रीजगन्नाथ की पूजा होती थी तो इसी गुंफा में महाप्रसाद तैयार होता था, इस लिए इस गुंफा का नाम रसोई या रन्धन गुंफा हुआ है। ९४ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. खण्डगिरि की गुफाओं का शिल्प सौन्दर्यः उदयगिरि की तरह खण्डगिरि भी युग्म पहाड़ियों में से एक है। दोनों को एक आधुनिक रोड विमाजित करता है। यह भुवनेश्वर शहर के नजदीक है। इसकी उँचाई १२३ फीट है। खण्डगिरि का प्राचीन नाम कुमार पर्वत है। एन.के.साहु कहते है कि कुमार पर्वत से खण्डगीरी का नाम खण्डशब्द ब्राह्मनी कल शब्द स्कन्ध से बना है। जैन प्राकृत में स्क के स्थान ख और ध के स्थान पर ड हो जाने पर खन्ड हो जाता है। इस प्रकार प्राचीन नाम कुमार गिरि खण्डगिरि में परिवर्तित हो गया। १८ वी १९ वीं शताब्दी में रचे गये उड़ीसा संस्कृत साहित्य में खण्डगिरि को खण्डाचल कहा गया है। भगवान् भुवनेश्वर के उत्तर पूर्व में डेढ़ कोश की दूरी पर खण्डाचल नामक सुन्दर और अनेक प्रकार के वृक्षों से ढकी हुई पवित्र पहाड़ी है। जो जंगली जीवों का आश्रयस्थल है। यहाँ सदैव शीतल हवायें चलती रहती हैं और उदयाचल पहाड़ी से संयुक्त है। इस पहाड़ी पर अनेक गुंफायें मंदिर और जलाशय बनाये गये थे। यह धार्मिक और आध्यात्मिक क्रियाकलापों की केन्द्र रही। खण्डगीरी की गुंफाओं में उत्कीर्णित शीलालेखों से ज्ञात होता है कि ई.सन्. ९वीं शताब्दी के पश्चात् कुमार पर्वत का महत्व जैन धर्म और संस्कृति के कारण अत्यधिक बढ़ गया था । १०वी ११वीं शताब्दी तक कुमार पर्वत जैन धर्म का सुदृढ़ गढ़ बन गया था। यहाँ पर निम्नांकित गुंफायें अवशेष हैं। तातोवा गुम्फा नं १ तातोवा गुम्फा नं २ अनन्त गुम्फा तेन्दुल गुम्फा खण्डगिरि गुम्फा ध्यान गुम्फा नवमुनि गुम्फा बारहभुजी गुम्फा त्रिशूल अथवा महावीर या सत्बखरा गुम्फा ori s n x. i w ij i Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. १०.ी अम्बिका गुम्फा घाणागिमिह ६ ११. ललाटेन्दु गुम्फा जीर्ण-शीर्ण-राधाकुण्ड के पास गुम्फा कमी होणार राधाकुण्ड से आगे भग्न गुम्फा ma पिर १४. एकादशी गुम्फामा विजय १५. गुप्तगंगा के सन्निकट गुम्फा उक्त गुंफाओं के नाम स्थानीय निवासियों ने रखे थे जिन्हे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने स्वीकार कर लिये हैं। अत: उक्त गुफाओं का परिचयात्मक निन्मांकित हैं। १. तातोवा गुम्फा नं-१ अविन तातोवा नामक दो गुफायें हैं, और ये एक दूसरे के नीचे ऊपर स्थित हैं। जो तातोवा गुफा नीचे है उसे तातोवा गुफा नं -१ और जो इस के ऊपर स्थित है उसे तातोवा गुम्फा नं-२ कहा गया है। इन दोनों गुम्फाओं को तातोवा गुम्फा कयों कहा गया ? इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। लेकिन अनुमान किया जा सकता है कि उक्त दोनों गुम्फाओं के तोरणों पर प्रमुख रूपसे उत्कीर्णित तोता युगल बहुत आकर्षक हैं, सम्मवत: इसी कारण से उक्त गुम्फाओं को तातोवा गुम्फा कहा गया है। DAL 208 STO RIES sh । ONEY NAIN M तातोवा गुफा के अन्दर की दीवाल पर सूर्य और चन्द्रमा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस गुम्फा में एक दीर्घाकार कमरा है। इस कमरे के सामने बेंच युक्त बरामदा है। प्रकोष्ठ की छत समतल और फर्श पीछो से उठा है। इस गुम्फा के गर्भ ग्रह (कमरे) के अन्दर के बगल में बने तथा खुले हुए दो दरवाजों अर्थात् निकास द्वारों से प्रवेश किया जा सकता है। इन दरवाजों में किवाड़ों के स्थान पर पत्थर से निर्मित चौखट और स्तम्भ हैं । घनाकार स्तम्भों के शीर्ष भाग विभिन्न प्रकार के युगल रूप में स्थित जानवरों से अलंकृत है। स्तम्भों के ऊपरी भाग में हुए अर्धवृताकार तोरण मकर के मुख से निकलने वाली माधवी लताओं से युक्त एकान्तर कमलों और फलो से युक्त लताओं से खूबसूरत रूप से चित्रित हैं। तोरणों के शीर्ष भाग त्रिभुजाकार हैं। जो चोचों मे फूल दबाकर (पकड) उड़ते हुए तोतों से युक्त है। तोरणों और पार्शवी दीवाल का मध्यवर्ती स्थान ढोलाकार और मेहरानी छत का नमूना प्रतीत होता है। इसे कलसियों की कतारों से युक्त शीर्ष भाग वाले ब्रेकेट सहारा दिये हुए हैं। बरामदा की छत को दो खम्भे और पार्श्वस्थ घनाकार स्तम्भ सहारा दिये हुए हैं। खम्भों और घनाकार स्तभ्मों के ब्रेकेटें कमलों माधवी लताओं और गुच्छों से उत्कीर्णित हैं। बरामदा के सामने स्तम्भों के बगल में धोती पहने हुए और चादरं धारण किए हुए अगल-बगल में इस गुम्फा की रक्षा करते हुए दो चौकीदार खड़े हुए हैं। इनके हाथों में तलवार है। दूषित प्रवृत्ति के लोगों ने इनके सिर काट कर क्षतिग्रस्त कर दिया है। दरवाजों के मार्ग के दो तोरणों के बीच में निन्मांकित लघु शिलालेख उपलब्ध है। पादमूलिकस कुसुमस लेणं()नि अर्थात पादमूलिक कुसुम की गुम्फा। इस गुम्फा का निर्माण ई.पू. प्रथम शताब्दी में होना चाहिए। तातोवागुफानं-२ ई.पूर्व प्रथम शताब्दी तथा कलिंग नरेश खारवेल के समय में निर्मित यह गुंफा पहली गुंफा के ऊपरी विस्तृत सतह पर स्थित है। प्रथम गुम्फा के दाहिनी ओर निर्मित सीढियों द्वारा उक्त गुम्फा तक पहुँचा जा सकता है। इस की सजावट विसद, जटिल और श्रम साध्य है। इस गुम्फा में एक दीर्घाकार प्रकोष्ठ है। इस प्रकोष्ठ में २. ९७ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PARANORAN SARAN EXCE । वृक्ष के नीचे नृत्य करते हुई संगीत पार्टि तीन प्रवेश द्वारों से प्रवेश किया जा सकता है। इस कमरे के सामने एक बेंच युक्त बरामदा है। इस प्रकोष्ठ की छत उन्नतोदर है। इसका फर्श पीछे से उठा हुआ है। कमरे के पीछे की दीवाल पर गेरूआ रंग से ब्राह्मनी लिपि में ६ पंक्तियों में कुछ शब्द लिखे गये प्रतीत होते हैं। विद्वानों का मत है कि उक्त लिपि खारवेल कालीन नहीं है। कमरे के पीछे की दीवाल पर सूर्य और चन्द्रमा सूचक चिन्ह भी अंकित हैं। दरवाजों के पल्लों के स्थान परे उनके वगल में घनाकृति खम्भे हैं। जो घट पर आधारित हैं। इन खम्भों के शीर्ष भाग शेरों, वृषभों और हाथियों के जोडों से युक्त हैं। प्रत्येक द्वार मार्ग के पार्श्वस्थ घनाकृति खम्भों से संबंधित तोरणों से आच्छादित हैं। इन तोरणे के शीर्ष भागों पर नन्दिपाद का चिन्ह विद्यमान है। तोरणों के मध्यवर्ती भाग कमल के फूलों की मालाओं, कलियों और माधवी लताओ से भरपूर हैं। पार्श्व भाग में हिरणों, तोतों और पांडुक पक्षियों के जोडे उत्कीर्णित हैं। कमरे की छत ढोलाकार है। बॉयी ओर शेर और दाहिनी ओर हाथी उत्कीर्णित किये गये हैं। सर्पो के फण मध्यवर्ती तोरणों पर उत्कीर्णित हैं। काममा दातमाटामाची Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरामदा को तीन ओर से घेरे हुए बेंच है। स्तम्भों के सामने अधिकांश भाग और बरामदा के फर्श का आधुनिक ढंग से पुनरोद्धार किया गया दृष्टिगोचर होता है। या खम्भों के आन्तरिक ब्रेकेटों पर माधवीलता और एकान्तर कमल के फुलों से नक्कासी की गई है। एक वृक्ष के नीचे एक संगीत-पार्टी ने संगीत का आयोजन किया है। एक नारी नाच रही है। कोई एक पुरुष वीणा बजा रहा है। दो नारियों में से एक फूलों से भरी हुई थाली पकडे हुए है। महिला के केशविन्यास सुन्दर और अलंकारों से अलंकृत चित्ताकर्षक है। उनकी वेश-भूषा विस्मयोत्पादक है। ३. अनन्त गुम्फा की समापित 15 अनन्त शब्द के अर्थ शेषनाग, वासुकि आदि होते हैं। इस गुम्फा के तोरणों पर तीन फन वाले सर्प अंकित हैं। इसी कारण से इस गुम्फा को अनन्त या सर्प गुम्फा के नाम से जाना जाता है। ई.पू. प्रथम शताब्दी में निर्मित इस गुम्फा का महत्त्व, ऐतिहासिक, धार्मिक तथा शिल्पकला की दृष्टि, से अत्यधिक है। इस गुम्फा में एक लम्बा और संकरा (तंग) प्रकोष्ठ है। इस में चार प्रवेश द्वार हैं जिनसे कमरे के अन्दर प्रवेश किया जा सकता है। प्रकोष्ठ के सामने एक बरामदा है। बरामदा की छत अनन्त गुफा के प्रकोष्ठ की पीछे की दीवाल पर अंकित मांगलिक चिह्न एवं तीर्थंकर Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकोष्ठ की छत की अपेक्षा नीची है। बरामदा को एक बेंच तीन ओर से घेरे हुए है। बरामदा की छत के दो-तीन स्थूलाकार खम्भे और पार्श्ववर्ती घनाकार आकृति वाले स्तम्भ सहारा दिये हुए हैं। कमलों के ऊपर एक हाथी स्थित है, जो बोना से युक्त ब्रेकेटों को सहारा दिये हुए है। पूर्ण खिलेहुए कमल, हाथ जोडे महिला माधवी लताऐं बर्तुलाकार पेटवाले गण अधिरचना को सहरा दिये हुए हैं। कमलों पर घुड़ सवार भी दिखलाई पड़ रहे हैं। प्रथम और दूसरे द्वार मार्ग की विभाजिका दीवाल, कर्णपट्ट और चित्रण के साथ नष्ट हो गई है। प्रकोष्ठ का फर्श पीछे से उठा हुआ है। इसकी छत थोडी धनुषाकार है। बएमदा समतल है। प्रकोष्ट के पीछे की दीवालपर सात सांकेतिक मांग लिक चिन्ह उत्कीर्णित किये गये हैं। मध्य में नन्दिपद है । स्वस्तिस्क, चैत्यबृक्ष त्रिरत्न, पंच परमेष्ठि, नन्दिपद और स्वस्ति एक क्रमश: एक पंक्ति में नक्काशी युक्त हैं। इन्हीं चिन्हों के नीचे किसी खडे हुए तीर्थंकर को भी, उड़ते हुए विद्याधर, चंवरढोने वाले आदि नक्काशी युक्त देवताओं के साथ अधूरा उत्कीर्णित किया गया है। इस गुंफा का सब से मजेदार पहलु मूर्तिकला और कर्णपट्ट के सजाने का नमुना है। द्वारमार्ग के तोरणों और तोरणों के मध्यवर्ती भाग बहुत सुन्दर ढंग से अलंकृत हैं। चारों प्रवेश द्वार मार्ग मौलिक रूप से आलंकारिक घनाकृति वाले स्तम्भों तोरणों से १०० Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसज्जित हैं । अन्तित तोरण का शीर्ष भाग भी वत्स और नन्दिपद चिन्हों से युक्त है। स्तम्भों के पाद प्रदेश में पूर्ण कुम्भ, शिखर पर उल्टा कमल और उसके उपर तीन फन वाले सर्प चित्रित हैं । तोरण के शीर्षांगों पर उक्त सर्पों की पूंछे लिपटी हुई हैं। वे सर्प तोरण को घेरे हुए हैं। घनाकार स्थूल स्तम्भों के मध्य भाग विभिन्न प्रकार के पंख वाले जानवरों से उत्कीर्णित हैं। गुम्फा के तोरणों पर सुक्ष्म कला शोभायमान है। प्रथम तोरण पर पुष्पमाला दूसरे तोरण पर सिंह तीसरे तोरण पर हाथी और चौथे पर नीलोत्पल लेकर उडते हुए राजहंसों की पंक्तियाँ चित्रित हैं । तोरणों के आन्तरिक भागों में ऐतिहासिक और धार्मिक चित्रांकित हैं । जो निम्नांकित है: चतुर्दन्ती अर्थात् - चार दांत वाला विशालकाय राजसी हाथी दो हाथिनियों के मध्य में खड़ा है। हथिनियाँ कमल का फूल अपनी-अपनी सूंढ में लिए हुए उसकी पूजा करती हुई प्रतीत होती हैं। उक्त हाथी गंभीर मुद्रा में है। जैन धर्म की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण हैं । तीर्थंकरों की माता सर्वप्रथम इसी प्रकार के हाथी को स्वप्न में देखती हैं। दूसरे तोरण में चारघोडों वाले रथ पर एक व्यक्ति बैठा हुआ गतिशील हैं। उसके दोनों ओर दो देवियाँ भी वैठी हुई दृष्टिगोचर होती हैं। उक्त व्यक्ति के उपर राजछत्र भी है । कुछ विद्वान उस व्यक्ति को दो हाथों वाला सूर्य मानते हैं। उक्त दोनों महिलायें उस सूर्य की ऊषस् और प्रत्यूष नामक पत्नियाँ हैं । आकाश में सूर्य, चन्द्रमा एवं तारिकाऐं हैं। रथ की गति के साथ एक दुर्वल शरीर वाला मनुष्य दौड़ता हुआ दृष्टिगोचर होता है। उसके बांये हाथ में पानपात्र और दाहिने हाथ में दूसरे तोरण पर अंकित चार घोड़े वाले रथ पर दे देवियों के फयराती हुई पताका है। मध्य में बैठा व्यक्ति १०१ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरे तोरण पर अंकित कमल सरोवर में लक्ष्मी की कमल से अभिषेक करते हुए हाथी तीसरे तोरण पर एक गजलक्ष्मी के दर्शन होते हैं, जो एक कमल वाले तालाब में मनुष्याकार में उत्कीर्णित है। उसके प्रत्येक हाथ में कमल के फूल हैं। उस लक्ष्मी के दोनों ओर कमल पर खड़े हुए दो हाथी सूंढ उठाकर पानी से उसका अभिषेक कर रहे हैं। उक्त दोनों हाथियों के पीछे शुक युगल कमल बीज समूह के दोनों ओर विद्यमान हैं । चौथे तोरण पर वृक्ष देवता की पूजा करने का चित्र है । घेरे के अन्दर स्थित पवित्र वृक्ष है। दोनों ओर खड़े हो कर राजा-रानी पूजार्चना करते हुए दिखलाई पड रहे चौथे तोरण पर अंकित चैत्य वृक्ष की पूजा करते हुए राजा रानी १०२ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। उनके पास क्षीण शरीर वाले दो पुरुष भी खड़े हैं। अनन्त गुंफा के बरामदे को निम्नांकित प्रकार से सजाया गया है। (क) इसके अंतिम किनारों पर फूल लियेहुए विद्याधरों कों उड़ते हुए चित्रित किया गया है । दाहिनी ओर एक विद्याधर अंकित है जो उड़ता हुआ प्रतीत होता हैं। बाहर निकलते हुए बडे बडे दाँतों वाले और पत्तों के समान बडे कान वाले भूतों को चित्रित किया गया है। बडे भूत की तस्तरी से दूसरे भूत, माला खींचते हुए दृष्टिगोचर होते है। ख (ग) (घ) (च) चौथे ब्रेकेटों पर कमल लिए हुए स्त्रियाँ दृष्टिगोचर होती हैं । उन स्त्रियों में से एक धातु के आभूषण से प्रतीत होनेवाले अनेक मणिबन्ध पहने हुए हैं। पांचवें ब्रेकट पर एक हाथी कमलासन पर खडा दृष्टिगोचर होता है। गुफा के बाहरी ब्रेकेट पर घुड़ सवार और भूत की आकृतियां विद्यमान है। बरामदा के बायें स्तम्भ और प्रथम स्तम्भ के बीच में एक लघु अभिलेख प्राप्त है : दोहद समणानं लेनं, अर्थात- दोहद श्रमणों की गुम्फा । इस गुम्फा के बरामदा के बाहरी चट्टान पर एक और दूसरा अभिलेख उत्कीर्णित किया गया है 1 लेकिन घिसजाने के कारण वह पढने योग्य नहीं रहा। यह गुम्फा भारतीय स्थापत्य कला का आदर्श नमूना है। (छ) खम्भे के ब्रेकेट (शीर्षभाग) पर भूत स्त्री-पुरुष को ले जाते हुए हाथी की सहायता करते की तरह प्रतीत होता है । (ज) दूसरे शीर्ष भाग पर लीला पूर्वक झुकी हुईं दो कामनियां आकर्सक प्रतीत होती है। जो पत्रों के गुलदस्ते के दोनो ओर डंठलकी पूजा कर रही हैं। १०३ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. तेंतुलि गुम्फा: उड़िया भाषा में इमली को तेंतुलि कहा जाता है । अत: अनुमान के आधार पर कहा जाता है कि इस गुम्फा के नजदीक कभी तेंतुलि का वृक्ष रहा होगा, इस लिए इस गुम्फा का तेंतुलि गुम्फा के नाम से जाना जाता है। यह गुम्फा दूसरी ततोवा गुम्फा के बांई ओर जाने पर प्राप्त होती है। इस गुम्फा में एक लघु प्रकोष्ठ है। इसके सामने एक बरामदा है जो बेंच से युक्त है। इसके कमरे का फर्श पीछे से उठा हुआ है और इसकी छत की डिजाईन सामान्य अर्थात् कला रहित है। इस में प्रवेश करने के लिए दो प्रवेश द्वार हैं। इन में कोई पल्ला या किबाड़े नही है । घट के आधार पर स्थित बगल के स्तम्भों के किनारे से प्रवेश द्वार खुले हुए हैं। स्तम्भों के शीर्ष भाग हाथी और घंटी के आकार के उलटे कमलों से उत्कीर्णित किये गये है । बरामदा का भाग वहाँ स्थित चट्टानों से अवरुद्ध है। बरामदा के छत की डिजाइन समतल है । खम्भों और घनाकार स्तम्भों का पार्श्व भाग साधारण हैं, ब्रेकेट पर कमल की कली हाथ में लिये हुए नारी को चित्रित किया गया है। इस के अलावा एक हाथी भी चित्रित है, जो क्रीडारत है । ५. खंडगिरि गुम्फा: यह एक सामान्य गुम्फा है। यह दो मंजिल वाली है। इसका बांया भाग आंशिक रूप से टूट गया है। इसका दाहिना भाग और छत सहित इसकी पीछे की दीवाल अनेक खंडों में खंडित हो जाने के कारण इसे खंडगिरि गुम्फा के नाम से जाना जाता है। इस में दो कमरे हैं, एक ऊपर और दूसरा नीचे है। इस गुम्फा के नीचे के कमरे की छत झुक गई है और फर्श उठा हुआ है। इस के सामने कोई बरामदा नहीं है। इसकी ऊपरी मंजिल पर पहुँचना बहुत कठिन है। इस के कमरे की दीवाल पर स्वामी जगन्नाथ की रंगीन आकृति बनी हूइ है। इसकी छत आगे की ओर झुकी हुई और फर्श पीछे की ओर उठा हुआ है। इस गुंफा का कलादि की दृष्टि से कोई का महत्त्व नहीं है। १०४ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ध्यान गुम्फा: आपकी शिकार साल इस गुम्फा के नाम से ही ध्वनित होता है कि इसका उपयोग ध्यान करने में किया जाता था। इस गुम्फा का दूसरा नाम शंख गुम्फा भी है। क्यों कि इस में प्राप्त अभिलेख के अक्षर शंख के आकार के हैं। बरामदे की छत साधारण तथा समतल है। बांई दीवार पर शंख के समान सात अक्षरों का एक अभिलेख है। पीछे की दीवाल पर भी एक लाईन का अभिलेख प्राप्त है। इस में एक अक्षर प्राचीनता का द्योतक है। FE ७. नवमुनि गुम्फाः इस गुम्फा में नवमुनि अर्थात् नौ तीर्थकरो की मूर्तियाँ स्थापित होने के कारण उक्त गुम्फा नव मुनि गुम्फा कहलाती है। इस गुम्फा में मुलत: दो दीर्घ प्रकोष्ठ थे। इन दो प्रकोष्ठों की विभाजक सामने की दीवाल दरवाजे सहित टूट जाने के कारण एक विस्तृत प्रकोष्ठ बनगया है। यह ध्यातव्य है कि सोमवंशी राजा उद्योत केशरी के समय में प्रकोष्ठों के मध्य और बरामदा की दीवाल को तोडकर उक्त प्रकोष्ठ को बड़ा किया गया है ताकि पूजार्चना की जा सके। दाहिनी कमरे के पीछे की दीवाल पर सात तीर्थकर त्र-षभनाथ, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दननाथ, वासुपूज्य, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ योगासन अवस्था में विराजमान हैं। प्रत्येक तीर्थकर मस्तक पर तीन छत्र, नीचे चिन्ह, दोनों पार्थों में चमरधारी । नव मुनि गुंफा में त्र-षभनाथ, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दननाथ, वासपूज्य, पार्श्वनाथ और नेमिनाथ अपनी शासन देवियों के साथ १०५ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवक, केवलवृक्ष, उड़ते हुए मालायुक्त विद्याधर और उनके नीचे उनकी शासन देवियाँ चक्रेश्वरी, रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृंख्ला, गांधारी, पद्मावती,और आम्रा उतकीर्णित हैं। इनके हाथों में उनके प्रतीक और उनके आसन की नीचे उनके चिन्ह भी अंकित हैं। दाहिनी दीवाल पर पुन: त्र-षभनाथ और पार्श्वनाथ की योगासन में स्थित मूर्तियाँ उत्कीर्णित हैं। इन्हें मिला कर तीर्थंकरों की संख्या नव हो जाती है। इसी कारण उक्त गुम्फा नव मुनि गुम्फा के नाम से प्रसिद्ध है। महाराज लीला के रूप में स्थित गणेश की प्रतिमा शासन देवियों के प्रारम्भ में है। बांई दीवार पर चन्द्रप्रभु की एक छोटी प्रतिमा भी है। लेकिन इसकी गणना नवमुनियों में नहीं होती है। इस गुम्फा में पांच शिलालेख विद्यमान थे। दाहिने कमरे की दाहिनी दीवाल पर एक शिलालेख में जो कि पार्शनाथ की मूर्ति के नीचे उपलब्ध है, श्रावकी रूवी का उल्लेख हुआ है। तीन आलेख अवशिष्ट विभाजक दीवाल पर विद्यमान है। पांचवा आलेख सब से बड़ा है। तीन लाईनों वाला यह आलेख बरामदा के अन्दर के शीर्ष भाग में है। उस महत्त्वपूर्ण अभिलेख में कुल चन्द्र के शिष्य शुभचन्द्र का उल्लेख हुआ है। कुलचन्द्र देशीगण के आचार्य थे। ११ वी. शताब्दी में सम्पूर्ण उड़ीसा में शासन करने वाले और शोमवंशी उद्योत केशरी के ८वें राज्य काल में आर्यसंघ कुलचन्द्र गृहकुल चलाते थे। कहा भी है : उँ श्रीमदुद्योत केशरी देवस्य प्रवर्द्ध माने विजयराज्ये, संवत-१८ श्री आर्यसंघ प्रतिबद्ध गृहकुल विनिर्गत देशीगण। आचार्य श्री कुलचन्द्र भट्टारकस्य शिष्य सुभचंद्रस्य।। उक्त विभक्त दीवाल के ३ शिलालेखों में सुभचन्द्र और उनके शिष्य विजय और श्रीधर का उल्लेख हुआ है। अनधिकृत कब्जा करने वाले इस गुम्फा को ताला डाल कर बन्द किये हुए हैं। अत: जैन मतानुयायी अपने इस मंदिर में स्थित प्राचीन तीर्थंकरों की पूजा, अर्चनादि करने से वंचित हैं। १०६ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TET ८. बारहभुजी गुम्फा : सामान्यावस्था में स्थित इस गुम्फा में पीछे की ओर एक बृहद् कमरा है। इस कमरे के सामने एक खम्भे का बरामदा है। कमरे का फर्श एक तकिया की तरह है। इसकी छत उन्नतोदर है, लेकिन कमरे का संपूर्ण फर्श खुद गया है। इसके स्थान पर आधुनिक भवननिर्माण सामग्री से कार्य किया गया है। दरवाजे सहित सामने की दीवाल, खुली मध्यवर्ती दीवालें और बरामदा का फर्श भी जान-बूझ कर नष्ट करदिया गया है। बरामदा की बाँई दीवाल में कप अलमारी है। यह गुम्फा आयताकार और प्रशस्त है। इस गुम्फा के बरामदे की दीवाल के दोनों ओर बारह हाथों वाली दाहिनी ओर शासन देवी रोहिणी अजितनाथ तीर्थकर की शासन देवी रोहिणी और बाँई ओर आदिनाथ की शासन देवी चक्रेश्वरि विद्यमान होने के कारण ही उक्त गुम्फा बारहभुजी गुम्फा के नाम से प्रसिद्ध है। उक्त दोनों मूर्तियाँ श्याम पाषाण से निर्मित हैं। जैन धर्म के २४ तीर्थंकरों की काले पत्थर की प्रतिमायें पीछे की बगल वाली दीवाल में २५ स्थानों पर उत्कीर्णित हैं। तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति दो बार संस्थापित की गई है। बॉई दीवालपर पांच पीछे की दीवालपर १८ और दाहिनी दीवाल पर २ मूर्तियाँ विद्यमान हैं । २५ मूर्तियाँ योगासन में Saina शासन देवी चक्रेश्वरी १०७ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। पीछे की दीवाल पर उत्कीर्णत पार्श्वनाथ की एक मूर्ति कायोत्सर्ग अवस्था में भी है। सभी तीर्थकर अपने-अपने चिन्ह के साथ तथा दुलते चमर, केवल वृक्ष, उड़ती आकृतियाँ और दिव्य संगीत सहित उत्कीर्णित की गई हैं। उक्त सभी तीर्थंकरों की २४ शासन देवियां उन तीर्थंकरों के नीचे पर्यकांशन में स्थित हैं। इन में से शांतिनाथ की शासन देवी महामानसी पैरों को आर-पार किये हुए बैठी है। मुनिसुव्रत तीर्थंकर की शासन देवी बहुरूपणी लेटी हुई है। शेष शासन देवियां पैरों पर विराजमान है। चौथी, १६वीं, २२वीं और २३वीं शासन देवियाँ नीचे अपने अपने वाहन जानवारों पर बैठी हुई हैं। हाथों के प्रतीक क्षतिग्रस्त हो युके हैं। जैनतरों ने अनधिकृत कब्जा कर चक्रेश्वरी और रोहिणी देवी को कपड़ा पहिना कर उनको काली और दुर्गा के रूप में पूजते और पुजवाते हैं। कायोत्सर्ग पार्श्वनाथ की मूर्ति को कपड़ा पहिनाकर उन्हें विष्णु कह कर मिथ्या प्रचार कर रहे हैं। बरामदे के बाहर यज्ञकुण्ड और हनुमान की मूर्ति बना ली है। बरामदा के आगे पहले टीन का छप्पर था लेकिन अव छत की अधूरी ढलाई पर रोक लगा दी गई है। बारहभुजी गुम्फा का निर्माण एक मंदिर के रूप में हुआ था यहाँ पहले श्रधालु भक्ति पूजा-पाठ किया करते थे। लेकिन सम्प्रति वे अपने परम पूज्य आराध्य तीर्थंकरों के दर्शन भी नहीं कर सकते है। ९. महावीर गुम्फा : - पूर्वोक्त गुम्फाओं की तरह इस गुम्फा का निर्माण भी श्रमणों के आवास के उदेश्य से किया गया था। कालान्तर में इसे पूजा गृह या मंदिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। इस गुम्फा को TIMIDIOMATO Idel त्रिशूल और सतखबरा के नाम से जाना जाता है। इसके नामकरण के संबंध में कोई तार्किक आधार महावीर गुफा में सूमतिनाथ एवं पद्मप्रभ तीर्थंकर ROBRUNG १०८ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध नहीं है। चूंकि इस में उत्कीर्णित तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थंकर महावीर का धर्म शासन चलरहा है और उनका धर्म चक्र प्रर्वतन भी यहाँ हुआ था, इसलिए इसे महावीर गुम्फा कहना सार्थक है। टी.एन. रामचन्द्र और बाबू छोटेलाल जैन की मान्यता है कि इस महावीर गुफा में संभवनाथ और अभिनन्दननाथ गुम्फा के बरामदे में एक अर्ध निर्मित त्रिशूल की आकृतिक्किारण इसका नामकरण त्रिशूल गुम्फा हुआ है। दिनी इस गुम्फा के अन्दर एक बृहद प्रकोष्ठ है। इस प्रकोष्ठ के सामने एक बरामदा है। कमरे की छत सामान्यत: समतल है। फर्श पीछे से उठा हुआ है। फर्श खुद गया था, बाद में नवीनी करण किया गया है। सामने की मूल दीवाल प्रारम्भ में दरवाजे सहित खंडित हो गई थी। अब उसे कँक्रीट से मरम्मत कर बदल दिया गया है, लेकिन इसका स्तम्भ मूल रूप में है। महावीर गुफा में शीतलनाथ तीर्थंकर कमरे के तीन ओर पंक्तिबद्ध चौबीस तीर्थकरों की दिगम्बर मूर्तियाँ उत्कीर्णित हैं। पूरातत्त्व-वेत्ताओं ने इस गुंफा की मूर्तियों को बारहभूजी की मूर्तियों की अपेक्षा अर्वाचीन माना है। उनकी POST यह मान्यता है कि कला की दृष्टि से इस गुम्फा की मूर्तियाँ ई.सन्. १५ वीं सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ और अनन्तनाथ तीर्थंकर शदी के पहले की नहीं हैं। १०९ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ alien मात पीछे की दीवार के खुरदरे मध्यवर्ती स्थान पर तीर्थंकर महावीर के पहले पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थित है। उक्त २४ तीर्थकरों मे से आठ तीर्थकरों की मूर्तियाँ पत्थर को काटकर खड़गासन तथा कायोत्सर्ग में उत्कीर्णित की गई हैं। शेष पद्मासन में हैं। खड़गासन मूर्तियों में आदिनाथ तीर्थकर त्र-षभनाथ की मूर्ति सब से बड़ी है। कमरे के पीछे की दीवाल के पास कारीगरी द्वारा एक प्रकार के रासायनिक मिश्रण से बदली गई त्र-षभदेव की तीन कायोत्सर्ग प्रतिमायों की शिल्प कारीगरी अपेक्षाकृत अच्छी है। इन तीनों के सिर छोटा कर विकृत कर दिया गया है। १०. अम्बिका गुम्फा : महावीर गुम्फा से बांई ओर से तिरछा तथा गोलाकार जाने पर क्रूरता पूर्वक तोड़ कर नष्ट की गई अनेक गुंफाओं में से केवल वे ही गुम्फाएँ शेष बची रहीं; जो अत्यधिक ऊँचाई विद्यमान थीं। अम्बिका गुम्फा भी उन में से एक है। इसे काटकर समतल बनाया A आदि तीर्थंकर त्र-षभनाथ ARTHATANTRA कवि अम्बिका गुफा में उत्कीर्णित त्र-षभदेव और अम्बिका दावा ११० Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। इसके पीछे की दीवाल पर अत्यधिक ऊँचाई पर तीन मूर्तियाँ उत्कीर्णित है। उन में से दो त्र-षभनाथ भगवान की है और एक तीर्थंकर नेमिनाथ की शासन देवी आम्रा की है। अनुमान किया जाता है कि आम्रा या अम्बिका देवी की मूर्ति के कारण ही लोगों ने इस गुम्फा का नाम अम्विका गुंफा रखा है। इन नक्कासी युक्त मूर्तियों और विभाजक दीवाल के अंशों के अलावा अब और कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। उक्त मूर्तियों की कला के आधार पर विद्वानों की मान्यता है कि उक्त गुम्फा का निर्माण ई.सन्. ८वीं९वीं शताब्दी में हुआ होगा। त्र-षभदेवकी दोनों मूर्तियाँ कायोत्सर्ग और खड़गासन अवस्था में हैं। तीर्थकर त्र-षभनाथ की दोनों मूर्तियाँ पंखुडीदार कमल की चौकी (पाद पीठ) पर दिगम्बर अवस्था में खड़ी हैं। उन मूर्तियों के नीचे उनके चिन्ह वृषभ भी दृष्टिगोचर होता है। उनके बाजू में दोनों ओर अष्टाग्रह चँवर ढ़ोने वाले माला पहने उड़ती हुई आकृतियां सिर पर कंपायमान तीन छत्र, मंजीरे और ढोल बजाते हुए अदर्शनीय हाथ और चैत्य वृक्ष हैं। उनके उलझे हुए गुच्छेदार अर्थात् धुंघराले बालों से उनका सिर सुशोभित होता है। उनके शिर के पीछे भामंडल दृष्टि गोचर होता है। आम्र या आम के फलों से युक्त आम के वृक्ष के नीचे त्रिभंगिमाकार में आम्रा (अम्बिका)यक्षिणी की मूर्ति खड़ी हुई आंशिक दृष्टिगोचर होती है। मूर्ति बांयी से कुछ टूटी हुई है, लेकिन मुंह-मंडल और सिरोभूषण अभग्न है। उनके तीर्थकर नेमिनाथ भी योगासन में उनके पेड़ के उपर विराजमान हैं। उनके दाहिने हाथ की ओर एक लड़का भी खड़ा है। ११. ललाटेन्दु केशरी गुम्फा : ___ अम्बिका गुम्फा से कुछ और दक्षिण की ओर जाने पर ललाटेन्दु केशरी गुम्फा दृष्टिगोचर होती है। इस गुम्फा में दो कमरे और गुम्फा सामने एक बरामदा था, जो अब सब विनष्ट हो गया है। इस गुंफा के नजदीक के पहाड़ को भी काट दिया गया है। दीवार का अवशिष्ट भाग ऊपर चट्टान पर चिपका हुआ प्रतीत होता है। खंभे, दीवाले और फर्श नीव चट्टान के साथ खोद डाले गये है। दोनों कमरों की छतें समतल थीं। १११ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । । । OM । । Via ललाटेन्दु गुफा में उत्कीर्णित तीर्थंकर त्र-षभदेव और पार्श्वनाथ गुफा के अन्दर की पिछली और बांयी ओर के कमरे की बाँयी दीवाल पर पांच मूर्तियां है। उन में से दो तीर्थंकर त्र-षभनाथ की तीन पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग अवस्था में खड़ी मूर्तियाँ विद्यमान है। इसी प्रकार दाहिनी ओर के कमरे में भी ३ मूर्तियाँ हैं। उन में से दो पार्श्वनाथ की और एक त्र-षभनाथ की मूर्तियाँ है। उसके अलावा एक आला खाली है। उस से प्रतीत होता है कि यहाँ भी किसी तीर्थंकर की मूर्ति रही होगी, जिसे खोदकर अपहरण करलिया गया है। दाहिनी कोठी के पीछे की ओर बांई तथा त्र-षभनाथ की प्रतिमा के ऊपर ई.सन् १०४५ के सोमवंशी राजा उद्योत केसरी के राजत्व के पांचवें वर्ष का निम्नांकित प्राकृत मिश्रित संस्कृत में शिलालेख मिलता है। ॐ श्री उद्योत केशरी विजयराज्य सम्वत् ५ श्री कुमार पव्वत स्थाने जिन्न वापि जिन्न इसण उद्योतित तस्मिन नव्या स्थाने चतुर्विसति तीर्थंकर स्थापित मासिक पति ११२ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा काले हरि ओप जसनंदिक श्री पारस्यनाथस्य कम्म खयः । इससे ज्ञात होता है कि राजा उद्योत केशरी ने अपने राजा होने के ५वें वर्ष में कुमार पर्वत (खंडगिरि) के जीर्ण-शीर्ण जलकुण्ड एवं तालावों की मरम्मत करवाई थी और २४ तीर्थकरों की प्रतिमाओं की स्थापना करवाई थी। यशनन्दि जौनाचार्य पूजा करने केलिए रखे गये थे। उक्त शिलालेख में इस बात का उल्लेख नहीं किया गया है कि २४ तीर्थकरों . की स्थापना कहाँ की गई थी अनुमान किया जाता है कि या तो इसी गुम्फा में उक्त तीर्थंकरों की स्थापना हुई होगी या अन्य गुम्फाओं में स्थापना कर वाई गई होगी। इस से प्रकट होता है कि ई.सन ११ वीं शताब्दी तक कलिंग में जैनधर्म जनधर्म की रूप में मान्य था। उस समय तीर्थकरों की पूजा के लिए गुम्फाओं और मंदिरो का निर्माण करायाँ जाता था। यही कारण है कि खंडगिरि में मंदिरों के खंडहर, आमल की शिला और शिखर इधर-उधर चारों ओर विखरे पड़े हुए हैं । इस गुंफा के आस-पास आकाशगंगा, गुप्तगंगा, श्याम कुण्ड और राधाकुण्ड जलाशय अभी भी विद्यमान है। १२. भग्न गुम्फा:(राधा कुण्ड के समीप) - बहुत गहरे राधाकुण्ड नामक जलाशय के समीप एक गुम्फा थी। इस गुम्फा में मूल रूप से दो कोठियाँ और मध में एक विभाजक दीवाल थी। छत और सामने के बगल की दीवार, दरवाजों सहित बरामदा आदि सभी पूर्ण रूप से नष्ट हो गये हैं। पीछे की दीवाल के नजदीक दो कोठियों को अलग-अलग करने वाली मध्यवर्ती दीवाल का भाग अभी भी विद्यमान है। उस में पहले चार स्तम्भों पर आधारित बरामदा के होने के भी प्रमाण मिलते हैं, जो अब नष्ट हो गया हे। कमरों का फर्श पीछे से उठा हुआ था। छत समतल थी। यहाँ पर किसी तीर्थकर के उत्कीर्णित होने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। ११३ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. जीर्ण-शीर्ण गुम्फा : (राधाकुण्ड से आगे) राधा कुण्ड से थोड़ा आगे जाने पर एक भग्न गुंफा दृष्टिगोचर होती है। इस गुम्फा के आन्तरिक भाग में एक बृहद अर्थात-बहुत बड़ा (लम्बा-चौड़ा) प्रकोष्ठ है। इस में दो कोठियाँ हैं और इसके सामने बेंचों से युक्त कमरा है। उक्त दोनों कोठियाँ आकार में निश्चित रूप से विस्तृत हैं। उनकी छत, विभाजक दीवार सामने का खुला भाग और मध्यवर्ती दीवार सहित अब सब नष्ट हो गया है। सामने बाला बरामदा भी समाप्त हो गया है। बरामदा की छत को सहारा देने वाले एक साथ चार स्तम्भ और पार्श्ववर्ती घनाकृति वाले स्तम्भ थे। को ठियों के फर्श पीछे से उठे हुए है और छत समतल है। १४. एकादशी गुम्फा : यह बहुत बड़ा आवासीय कमरा वाली गुंफा है। जिसकी छत का वहिर्विष्ठ भाग के अलवा खम्भे सहित बाहारी भाग नष्ट हो गया है। छत सामान्म और फर्श पीछे से उठा हुआ था। १५. गुप्तशंगा के सन्निकट गुम्फा : पहाड़ी के वृत्ताकार के रूप में घूमने पर कुछ दूर चलने पर पश्चिम की ओर पहाड़ी की तलहटी के सनिकट दो संकरी चट्टानों के मध्य में एक कुण्ड है। इस में पानी के आने का रास्ता दृष्टिगोचर नहीं होता है। स्थानीय लोगों का कहना है कि दोनो हाथों से ताली बजाने पर पानी स्वत: निकलने लगता है। यहाँ एक छोटी गुम्फा विद्यमान है। यह सामने से खुली है। गुम्फा का पश्चिमी मुखी कमरे का फर्स पीछे से उठा हुआ है एवं तकिया के समान है। इसकी छत समतल है। यह गुम्फा जंगली जानवरों के रहने का अड्डा बन गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ साधक ध्यान-साधना करते थे। उदयगिरि और खण्डगिरि की गुफाओं में जैनधर्म के तत्त्व : उदयगिरि और खण्डगिरि युग्भ पहाड़ियों पर गुफाओं के निर्माण का उद्देश्य जैन श्रमणों को सुख-सुविधा पहुँचाना था। जैन अर्हत अर्थात् श्रमण बर्षावास में एक स्थान ११४ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर रहते हैं। शेष दिनों में वे विहार करते रहते हैं। वर्षावास में उन को, जप-तप, सामायिक, स्वाध्याय आदि संयमित आचरण पूर्ण साधना निर्वाध पूर्वक सम्पन्न हो और उन को किसी प्रकार का खेद न हो, इस मांगलिक दृष्टि से श्रमणोपासक, अणुव्रती और धार्मिक राजा खारवेल और उन के उत्तराधिकारियों ने उक्त जुड़वा पहाड़ियों पर गुंफाओं का निर्माण करवाया था। यही कारण है कि चर्चित गुफायें साक्ष होते हुए भी शांति प्रदायक और त्यागिओं-तपस्यिों के विश्राम तथा धार्मिक अनुष्ठान के योग्य हैं। इन भव्य गुंफाओं का अनेक सदियों (ई.पू.२री शताब्दी के अंतिम समय से ई.सन् १६ वीं शताब्दी) तक अवश्य ही जैन साधुओं ने उपयोग किया। जैन धर्म मोक्षमूलक धर्म है। मोक्ष की प्राप्ति या मोक्ष की साधना में मंदिर-मूर्ति आदि उपकारक साधन हैं। उनके मंदिर मूर्ति आदि प्राय: घनघोर जंगलों से युक्त पहाडियों पर या उनके ढलान में हुआ करते थे। हाथी गुम्फा शिलालेख में उदयगिरि और खण्डगिरि की पहाड़ियों पर एक ओर स्तूप या शरीरावशेष या निषिधिकाओं की पूजा करने का उल्लेख है। वहीं मूर्ति पूजा करने की प्रथा का सशक्त उल्लेख हुआ है। जो आकारवान होता है और जिसे स्पर्शन, चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा जाना जाता है, वह मूर्ति है। हाथी गुम्फा के शिलालेख में कलिंगजिन की मूर्ति को पद्मराजानन्द द्वारा ले जाने की चर्चा से सिद्ध है कि नन्द राजा के बहुत पूर्व से जैनधर्म में मूर्ति पूजा की प्रथा थी। सम्भवत: ई.पू५ वीं शताब्दी में जैनधर्म में मूर्ति पूजना प्रारम्भ हो गया होगा। यद्यपि उस समय प्रचुर मात्रा में मूर्तियों का निर्माण नहीं हुआ था। यही कारण है कि ७वीं शताब्दी से पूर्व की प्राचीन मूर्तियां उड़ीसा के जैनस्थालों पर अभीतक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं। चैत्य वृक्ष की पूजाः खंडगिरि और उदयगिरि की गुफाओं की क्रमश: अनन्त गुंफा और जयविजय गुम्फाओं से ज्ञात होता है कि जैन धर्म में चैत्य वृक्षों की पूजा की प्रथा मूर्ति पूजा के पहले थी। चैत्य वृक्ष भी एक प्रकार की मूर्ति है, क्यों कि उन में आकार होता है। चैत्य वृक्ष जिन प्रतिमाओं के आधार भूत होते हैं इसलिए पूज्य हैं। ये वृक्ष वनस्पति कायिक नहीं बल्कि पृथ्वी कायिक होते हैं। तिलोय पण्णत्ति में कहा गया है कि ११५ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन वृक्षो के नीचे तीर्थंकरों को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ वे अशोक वृक्ष कहलाते हैं। अशोक वृक्ष अर्थात शोक रहित या आनन्द दायक २४ तीर्थंकरों के २४ अशोक वृक्ष हैं। न्यग्रोध, सप्तपर्ण, साल, सरज, प्रियंगु, शिरीष, नाग वृक्ष अक्ष, बहेणा, धूलिपलाश, तेंदू, पाटल, जम्बु, पीपल, दधिपर्ण नन्दी, तिलक, आम्र, कंकेलि, अशोक, चम्पक, वकुल, मेषशृङ्ग, धकऔर शाल। ये अशोक भी अर्चनीय और पूजनीय हैं। अनन्त गुम्फा और जयविजय गुंफा में कैवल्य वृक्ष की पूजा दृश्य उत्कीर्णित किये गये है। श्रधालु महिलायें पूजा की सामग्री थाली में लिए हुऐ है और पुरुष हाथ जोड़े हुए है। इसी प्रकार अनन्त गुंफा में राजा-रानी वृक्ष की पूजा करते हुए उत्कीर्णित किये गये हैं। विशिष्ट चिन्हों की पूजा : प्राचीन काल में जैन धर्म में विशिष्ट चिन्हों की पूजा हुआ करती थी। खंडगिरि और उदयगिरि की गुंफाएँ इसका प्रमाण हैं। हाथी गुम्फा शिलालेख, अनन्त गुम्फा, आदि कतिपय गुम्फाओं में वद्ध मंगल, स्वत्तिक, नंदिपद श्रीवत्स, श्री वृक्ष त्रिरत्न मांगलिक चिन्ह उत्कीर्णित होने से सिद्ध होता है कि इन चिहों की पूजा करने का विधान जैनधर्म में था। क्यों कि आराधक को आराधना करने के लिए आलम्बन की आवश्यकता होती है। तीर्थंकरों की पूजाः ___ युग्म पहाड़िओं में उत्कीर्णित तीर्थंकर की मूर्तियों से सिद्ध होता है कि यहाँ पर तीर्थंकरों की पूजा होती रही। खंण्डगिरि की नवमुनि गुम्फा में सात तीर्थंकरों की बारहभूजा गुम्फा में २४ तीर्थंकरों और महावीर गुम्फा में २४ तीर्थकरों को उनके विशिष्ठ चिन्हों और शासन देवियों के उत्कीर्णित किया गया है। इसी प्रकार अम्बिका गुम्फा में दो तीर्थंकर त्र-षभनाथ और अम्विका की, ललाटेन्दु गुम्फ, अनन्त गुम्फा, और गणेश गुम्फा में क्रमश: खण्डगासन और पद्मासन अर्हतों की मूर्तियाँ उत्कीर्णित की गई हैं। इससे सिद्ध है कि इन गुम्फाओं में जैन विधि से पूजा विधान महोत्सव होता रहा। ११६ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहस्वप्नः जैन धर्म की मान्यतानुसार प्रत्येक तीर्थंकर की माता; तीर्थंकर के गर्भ में आने के पहले सोलह शुभ स्वप्न देखती हैं। १. सुन्दर चतुर्दातोवाला हाथी; २. सफेद बैल, ३. कांतिवान सिंह, ४. मनोहर लक्ष्मी ५. सुगंधित दो मालायें, ६. पूर्ण चन्द्रमा, ७. देदीप्यमान सूर्य, ८. कमलों से ढके हुए दो सुवर्ण कलश, ९. कमलों से युक्त सरोवर, १०. मीनों (मत्स्य) का जोडा, ११. चंचल समुद्र, १२. सुन्दर सुवर्ण का सिंहासन, १३. स्वर्ग १४. नागेन्द्र का भवन, १५. रत्नों की राशि और १६. निधूर्म अग्नि। इन सोलह स्वप्नों को शुभ सूचक मान कर गुंफाओं में चित्रित किया गया है। जिससे जैन धर्मत्व एवं संस्कृति प्रकट होती है। ___ अनन्त गुम्फा और अलकापुरी के बरामदे के ब्रेकेट पर चार दाँतो वाला हाथी उत्क्रीर्णित किया गया है। अनन्त गम्फा की बांई ओर के दरवाजे के बगल में उत्कीर्णित सुन्दर हाथी की दो हथिनियाँ सूंढ में कमल लेकर पूजा करती हुई प्रतीत होती हैं। उक्त दृश्य जैन धर्मत्व को प्रकट करने के लिए उत्कीर्णित किया गया है। इसी प्रकार उदयगिरि की अलकापूरी नामक गुम्फा में विशालकाय चतुर्दन्ती दो हस्तियों के मध्य में उत्कीर्णित किया गया हैं। एक हथिनी चंवर दुला रही है और दूसरी छत्र सूंढ़ में लेकर हाथी के आतप का निवारण कर रही है। इन दृश्यों के द्वारा जैनधर्म की संस्कृति प्रकट होती है। सुन्दर बैल या वृषभ तथा मनोहर सिंहों के दृश्य अधिकांश गुफाओं में देखने को मिलते हैं, जो जैनधर्मत्व के प्रतीक है। बैल आदिनाथ का चिन्ह हैं और सिंह तीर्थंकर महावीर का है। ___ अनन्त गुम्फा में एक कमल युक्त सरोवर में सुन्दर लक्ष्मी का दृश्य है, जिसका अभिषेक कमल युक्त हाथी कर रहे हैं। यह दृश्य जैनत्व और जैन संस्कृति का प्रतीक हैं। इसी प्रकार मालाओं को भी लिये हुए गन्धर्वो को विशेष कर रानी गुम्फा आदि अनन्त गुम्फाओं में दिखलाया गया है। . तात्तोवा गुम्फा में सूर्य और चन्द्रमा के आकार अन्दर की पिछली दीवाल पर उत्कीर्णित जैनधर्म संस्कृति को प्रकट किया गया है। इसी प्रकार अनन्त गुम्फा में भी ११७ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक रथ पर सूर्य-चन्द्रमा को भी उतकीर्णित किया गया है जो जैनधर्म संस्कृति के प्रतीक है। ___इसी गुम्फा में धातु निर्मित घट और पताकाएँ दाहिने कोने पर दृष्टि गोचर होती है। बांई ओर भी बौना को पानी से भरे घडे और वैनर लिए हुए अंकित कर स्वप्न स्वरूप मंगल कलश के साथ संगति बैठाई गई है। रानी गुम्फा में मंगल कलश लिये सैभाग्यवती महिलाओं को प्रकट किया गया हैं। __ अनन्त गुम्फा में चार घोड़े वाले रथ का उत्कीर्णित होना जैनधर्म संस्कृति का प्रतीक है। जैनधर्म की मान्यता है कि सूर्य भी अपने विमान में रहता है। स्वर्ग के सभी देवों का अपना-अपना विमान होता है। महावीर की मा ने स्वप्न में विमान देखा था। अत: उक्त रथ जैनधर्म संस्कृति का प्रतीक है। एन.के.साहु भी माना है। आर.पी.महापात्र ने भी जैन मोनुमेन्टस (१९९) मे कहा है: The Jainas use the Viman in the sence of celestiol abode. इसी प्रकार कमल युक्त सरोवर भी अनंत गुम्फा में चित्रित कर जैन धर्मत्व को प्रकट किया गया है। जगन्नाथ गुम्फा में मछलियों के जोड़े भी उत्कीर्णित कर जैनधर्म में मान्य शुभ स्वप्न को प्रकट किया गया है। इसी प्रकार अन्य स्वप्न भी विभिन्न गुफाओं में उत्कीर्णित करने से स्पष्ट है कि खण्डगिरि-उदयगिरि में जैनधर्म-संस्कृति प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। अष्ट मंगल द्रव्य के रूप में जैनत्व: ___ जैनधर्म की दोनों परम्पराओं में भृगार, कलश, दर्पण, बँवर, ध्वजा, वीजना(पंखा), छत्र और सुप्रतिष्ठित जैनधर्म में ये आठ मंगल प्रसिद्ध है। इन अष्ट मंगलों की पूजा आज भी धार्मिक अनुष्ठान के समय होती हैं। इन में से अधिकांश मांगलिक द्रव्यों को खंडगिरि की अनन्त गुम्फा अलका पूरी में कलशध्वजा चंवर छत्र आदि को दिखलाया गया है। अष्ट प्रातिहार्य के रूप में गुफाओं में जैनत्व : जैनधर्म में अर्हन्त के ४६ गुणों में आठ प्रातिहार्य रूप गुण बतलाये गये हैं। अशोक वृक्ष, तीन छत्र, रत्न जडित सिंहासन, भक्तगणों से वेष्टित रहना द्वन्दुभी वादन, ११८ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्प वृष्टि, प्रभामंडल और चौसठ चमरयुक्तता। खंडगिरि और उदयगिरि की गुफाओं में अष्ट प्रातिहारों में से एकाधिक को प्रकट किया गया है। लेकिन बारह भुजी गुंफा, महावीर गुंफा, अम्बिका गुफा आदि में उत्कीर्णित तीर्थंकरों के अगल बगल में अष्ट प्रतिहारों को उत्कीर्णित किया गया है। अहिंसा की प्रधानताः अहिंसा जैनधर्म का मूलाधार है। इस धर्म में एकेन्द्रिय जीवों, पृथवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति रूप पांच स्थावरों को और दो इन्द्रिय जीवों से लेकर पांच इन्द्रिय तक के जीवों को चित्रित किया गया है। इस से हिंसा का निरोध किया गया है। हिंसा न्हीं करना अंहिसा है दूसरे शब्दों में जीवों का संरक्षण करने का उपदेश दिया गया है। खंडगिरि और उदयगिरि में फल, फूल, लता, पेड-पौधे आदि वनस्पति को उत्कीर्णित कर उनके संरक्षण की प्रेरणा दी गई है। प्राय: सभी गुंफाओं में उन्हें प्रदर्शित कर केवल गुंफाओं को अलंकृत नहीं किया गया है, बल्कि उस में अहिंसा की भावना निहतार्थ है। इसी प्रकार तोता पांडुक आदि पक्षियों, सिंह, बैल, हिरन, सर्प, बंदर, हाथी, बाघ आदि जानवरों को चित्रित कर इनके संरक्षण एवं संवर्धन की प्रेरणा दे कर अहिंसा का प्रचार किया गया प्रतीत होता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है की उक्त पहाड़ियों में जैनधर्म - संस्कृति को पर्याप्त रूप में प्रस्तुत किया गया है। ११९ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंडगिरिकाचोटी पर स्थित जैन मंदिर : खंडगिरि पहाड़ी की सर्वोच्च चोटी पर पांच आधुनिक जैन मंदिर बने हुए है। यहाँ पहुँचने के लिये चार रास्ते हैं। पहला आनन्द गुंफा से जाया जा सकता है। दूसरा खण्डगिरि गुंफा नं.५ के दाहनी ओर से ऊँची चट्टानों की सीढ़ियों से चढ़ कर पहुँचा जा सकता है। तीसरा बारहभुजी गुंफा की दुष्कर चढ़ाई से सीढ़ियों से चढ़कर और चौथा श्याम कुण्ड की ओर से चढ़ कर उक्त चोटी पर पंहुचा जा सकता है। उक्त पांच मंन्दिर निम्नांकित हैं। १. आदिनाथ मंदिर २. शीतल मंदिर ३. पार्श्वनाथ मंदिर ४. पार्श्वनाथ मंदिर ५. पंचमूर्ति मंदिर आदिनाथ मंदिर : इस मंदिर का निर्माण लगभग २०० वर्ष पूर्व १८ वीं शताब्दी में कटक निवासी तथा दिगाम्बर जैन धर्म आम्नाय के अनुयायी श्री मंजु चौधरी और उन के भतीजे दादु भवानी चौधरी व्यापारी ने कराया था। जैन मंदिर के सामान्य नियमानुसार यह वड़े भव्य सुन्दर स्थान पर निर्मित किया गया है। खंडगिरि की चोटी पर बने पांच मंदिरों में यह सब से बड़ा और प्रमुख मंदिर है। यह २७ बर्ग फीट लम्बा-चौडा क्षेत्र वाला और २५ फीट ऊँचा है। मंदिर के सामने ५० वर्ग फीट लम्बी-चौडी सुन्दर छत है। छत के मंदिर के उत्तर में इस मुख्य मंदिर के अगल- बगल में छोटे-छोटे मंदिर हैं। सम्पूर्ण मंदिर सफेद संगमरमर का बना है। त्र-षभदेव मंदिर में तीन वेदिकाएँ हैं। (क) तीर्थंकर आदिनाथ वेदी, (ख) भ.महावीर वेदी, (ग) भ.कलिंग जिन वेदी । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) तीर्थंकर आदिनाथ वेदी: PMCUP इस वेदी के गर्भग्रह अर्थात् मंदिर के अन्दर वाले भाग में एक चबूतरा है। इस वेदी के मूल नायक बलुआ पत्थर से निर्मित आदिनाथ त्र-षभदेव हैं। त्र-षभदेव मध्य में सफेद संगमरमर के पद्मासन और ध्यानावस्था में कमलासन चौकी पर विराजमान है। नेत्र झुके और धुंघराले बाल कंपायमान छत्र और कान लम्बे है। मध्यस्थ आदिनाथ तीर्थकर के दोनों ओर कुल मिलाकर १६ छोटी-छोटी क्लोराईट पत्थर की मूर्तियाँ हैं। बांई ओर १० और दाहिनी ओर १६ मूर्तियाँ मंदिर से भी अधिक प्राचीन हैं। सब मिलाकर २४ मुलनायक आदिनाथ के मूर्तियाँ इस मदिर में विद्यमान है। आदिनाथ की बाई ओर खड़गासन अवस्था में पहली मूर्ति आदिनाथ की है। इनका चिन्ह भी है, दो चंवर धारी नीचे खड़े है। दोनों ओर दो-दो मूर्तियाँ हैं। बाई ओर संभवनाथ और शान्तिनाथ एवं दाहिनी ओर अभिनन्दन नाथ और अजितनाथ तीर्थकर हैं। इसके पश्चात् दोदो आदिनाथ की और मूर्तियाँ है। तीसरे नम्बर की आदिनाथ मूर्ति अष्टाग्रह से भी युक्त है। इसके अलावा सुमति नाथ तीर्थंकर की भी एक मूर्ति है। उसी प्रकार दाहिनी ओर आदिनाथ तीर्थकर की क्लोराईट खडगासन मूर्ति सभी मूर्तियों की अपेक्षा बड़ी है। दाहिनी ओर अम्बिका शासन देवी अधिकांश मूर्तियाँ आदिनाथ तीर्थंकर और एक १२१ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ तीर्थंकर और उनकी शासन देवी चौकी पर विराजमान है। अम्बिका गोमेद के साथ SISTE (ख) भगवान् महावीर वेदी उत्तरी ओर के दरवाजे से प्रवेश करते ही, बांई ओर संगमरमर की कलात्मक वेदी भ. महावीर वेदी कहलाती है । इस वेदी के मूलनायक महावीर तीर्थंकर हैं। इन के अलावा भगवान् महावीर के बाई ओर तीर्थंकर चन्द्रप्रभ और दाहिनी ओर तीर्थंकर शांतिनाथ की मूर्ति विराजमान हैं। इस वेदी की तीनों तीर्थंकर की पार्श्वनाथ तीर्थंकर की हैं। सभी तीर्थंकरों के सिर के ऊपर ३ छत्र सुशोभित होते हैं। सभी मूर्तियाँ बहुत सुन्दर ढंग से प्रदर्शित की गई हैं। इसके अलावा बांई ओर के आले (जंगला) में अम्बाका और गोमेद का जोड़ा आम के वृक्ष के नीचे बैठा है। उस पेड के ऊपर धर्म चक्र प्रवर्तित करते हुए नमिनाथ तीर्थंकर प्रतीत होते हैं। दाहिनी ओर के जंगला में चक्रेश्वरी की मूर्ति बहुत सुन्दर है। एक पैर मोड़कर और एक पैर नीचे लटकाये हुए एक The o १२२ मूर्तियाँ पर्य्यकासन में ध्यानस्थ रूप में विराजमान है। तीनों मूर्तियों सफेद संगमरमर से निर्मित हैं। दीपाबली के अवसर पर समस्त जैन समाज मिल कर भगवान् महाविर का निर्वाणोत्सव मनाते है। इस खुशी में लड्डू चढ़ाते हैं और दीप जलाते हैं। कि ए Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 200 ARMATHARU88095 (ग) भगवान्कलिंग जिन वेदी: महावीर वेदी के दाहिनी ओर श्याम रंग की कायोत्सर्ग के रूप में तीर्थकर त्र-षमदेव की मूर्ति एक खुले जंगला में विराजमान है। इन्हें कलिंग जिन कहा जाता है। लेकिन वे वही कलिंग जिन नहीं है जिसे भगधा धिपति नन्द राजा ले गया था और जिसे खारवेल कलिगाधिपति छीन कर वापस लाये थे। इस मूर्ति के दोनों ओर १२-१२ तीर्थकर अर्थात् चौवीसी उत्कीर्णित है। इनके चरणों के समीप यक्ष-यक्षिणी विद्यमान RameRANTARNA NRNAL २. भगवान् शीतलनाथ मंदिर : STFBFमा यह मुख्य मंदिर की बांई ओर छोटा मंदिर है। इस में तीन मूर्तियाँ योगा सन में कमलाकार चौकी पर विराजमान हैं। मध्य में स्वस्तिक चिन्ह वाले १०वें तीर्थंकर शीतलनाथ मूल नायक की मूर्ति विराजमान है। जो दोनों ओर स्थित शांतिनाथ तीर्थकर की मूर्तियों से अपेक्षाकृत बड़ी है। तीनों मूर्तियां सफेद संगमरमर की हैं। इस मंदिर में २४ तीर्थकरो के चरण भी निर्मित है। BAR ASIA Janama tokGAR Pos १२३ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. भगवान् पार्श्वनाथ मंदिर (पुराना) : शीतल नाथ मंदिर के बांई ओर तीर्थंकर पार्श्वनाथ का मंदिर है । इस में पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग रूप में खड्गासन मूर्ति श्याम संगमरमर की है । यह लगभग ८ फीट ऊँची है। इसकी स्थापना वैशाख शुक्ल सम्बत्२००७ और २० अप्रैल १९५० में हुई -थी। इसके बांई ओर धरणेन्द्र और दाहिनी ओर पद्मावती खड़ी हुई हैं। दोनों के सिर के ऊपर छोटे-छोटे पार्शनाथ की मूर्तियाँ भी दृष्टिगोचर होती हैं। मूर्ति के दोनों ओर तुरही वादक और चंवरधारी खड़े हुए हैं। ४. भगवान् पार्श्वनाथ मंदिर (नया) : यह मंदिर इस के पूर्व के पार्श्वनाथ मंदिर की अपेक्षा बड़ा है। इस मंदिर के मूल नायक २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हैं। इस के अलाबा चार और तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं । १२४ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलनायक के बाई ओर क्रमश: चन्द्रप्रभ और पर्श्वनाथ की ओर दाहिनी ओर दोनो मूर्तियाँ भगवान् महावीर के है। वे चारो मूर्तियाँ योगासन में कमलाकार चैकि पर विराजमान हैं। योगासनस्थ पार्श्वनाथ की मूर्ति श्याम वर्ण की चन्द्रप्रभ की और एक महावीर की हैं। सफेद रंग के संगमरमर की और एक बादामी रंग के संगमरमर की है। मूलनायक पार्श्वनाथ एक काली रंग की चौकी पर कायोत्सर्ग रूप में खड़े है। ९फण वाला सर्प इन के चरणों से ले कर पूरी मूर्ति से लिपटा हुआ उनके मस्तक पर छत्र की तरह फ़ण फैलाए हुए मूर्ति को चमत्कारी बना रहा है। सभी तीर्थकर के चिन्ह नीचे बनेहुए हैं। यह नवीन मंदिर वि.सं.२०४४ वी.नि. २५२४ में निर्मित हुआ था। ईसी मंदिर में दो वेदीयों पर ५०० सिद्ध होने वाले मूनियों के चरण निर्मित हैं। ५. पंचमूर्ति मंदिर : . पंचमूर्ति मंदिर आदि मंदिर की दाहिनी ओर बहुत छोटा मंदिर है, जिस में ५ तीर्थकरों की मूर्तियाँ विराजमान हैं। इस के मूलनायक आदिनाथ प्रथम तीर्थकर भी खडगाहन कायोत्सर्ग रूप में हैं। दोनों ओर अष्टग्रह उत्कीर्णित है। इनका चिन्ह वृषभ भी दृष्टिगोचर होता है। यह मूर्ति श्याम वर्ण के पाषण से निर्मित है। इन के अगल-बगल में चँवरधारी भी खड़े हैं। इन के बांई ओर से दो मूर्तियां आदिनाथ तीर्थंकर कायोत्सर्ग में खड्गासन अवस्था में विद्यमान है यह मूर्ति बीच के आदिनाथ की अपेक्षा छोटी है। m NE A Page । are ARUN Jammation Hane KHES HAMANANEHA १२५ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाहिनी ओर सर्वप्रथम पार्शनाथ भगबान् की कार्यत्सर्ग रूप में खड़ी प्रतिमा बांदामी रंग के पाषाण से निर्मित है । ७ फण बाला सर्प मस्तक पर फण फैलाये हुए है। चंवर धारी नीचे खड़े हुए हैं। उनके बगल में त्र- षमदेव की मुकट धारण से हुए एक मूर्ति है। इस मंदिर ४ मुकुट युक्त आदिनाथ की और एक पार्श्वनाथ की इस प्रकार कुल ५ मूर्तियां हैं । इस मंदिर की सभी मूर्तियाँ दिगम्बर आम्नाए की हैं। खंडगिरि उदयगिरि अतिशय तीर्थ क्षेत्र के रूप में विख्यात है। आचार्य कुन्दकुन्द के मतानुसार यशोधर राजा के पांचसौ पुत्रों और एक करोण मुनियों ने यहाँ से निर्वाण प्राप्त किया था। निर्वाण भक्ति की गाथा में आचार्य कुन्द कुन्द ने कहा भी है। जसहररायस्स सुआ पंचसया कलिंगदेसम्म । कोडसिला कोडिणी णिव्वाणगया णमो तेसिं । । + १२६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दिगम्बर जैन मंदिर एवं धर्मशाला : खंडगिरि और उदयगिरि की तलहटी के समीप में एक भव्य दिगम्बर जैन मंदिर विद्यमान है। श्री बंगाल, बिहार और उड़ीसा दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी का यहाँ की क्षेत्रीय कमेटी पर नियंत्रण रहता है। स्वर्गीय श्री निहालचन्द्र जैन अग्रवाल यहाँ के सक्रिय मंत्री थे। वर्तमान में श्री शान्ति कुमार अग्रवाल जैन, कटक सन१९७० से क्षेत्रीय मंत्री के रूप में उक्त क्षेत्र की सक्रिय रूप में सेवा कर रहे हैं। सन् १९५० के CAT Asually । । प्रारम्भ में यहाँ एक छोटा मंदिर था। लेकिन अब ४० x ४० फीट वर्गफीट में बहुत सुन्दर और भव्य दिगम्बर जैन मंदिर बना है। यह लगभग ४५ फुट ऊँचा है। जिसकी वेदी और फर्श संगमरमर का है। सन् २००५ में निर्मित नबिन भव्य वेदी पर विभिन्न तीर्थकरों की १० प्रतिमायें हैं। इसके अलवा छोटे-बडे विभिन्न सिद्धि दायक यंत्र भी तीर्थकर की प्रतिमाओं के पृष्ठ भाग की ओर सिंहासनों पर रखे हुए हैं । वेदी पर प्रतिष्ठित मूर्तियों के मध्य में मूल नायक सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ प्रतिष्ठत हैं। सफेद संगमरमर की यह मूर्ति पदमासन अवस्था में (ध्यान-मुद्रा में) विराजमान हैं। इनका चिन्ह हिरन भी नीचे विद्यमान है। इस मूर्ति की पतिष्ठा वि.सं.२०२७ सन् १२७ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७० में हुई थी, ऐसा मूर्ति में उत्कीर्णित आलेख से ज्ञात होता है। यह मूर्ति लगभग ढाई फीट ऊँची है। इस की बांई ओर दो मूर्तियाँ हैं । २. भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति : चाँदी के सिंहासन पर चाँदी से निमर्ति इस मूर्ति की स्थापना वि.सं. २०५७ में माघ शुक्ल ५वीं को हुई थी । ९ फण वाली यह प्रतिमा बहुत भव्य है । ३. भगवान् आदिनाथ : पीतल की धातु से निर्मित इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा वि.सं. २००७ अर्थात् १९५० में हुई थी। इस की स्थापना वैशाख शुक्ल अक्षय तृतीया को हुइ थी। ध्यान मुद्रा में विराजमान इस मूर्ति का चिन्ह प्रतिमा के नीचे विद्यमान है। इसके पश्चात् दूसरी पंक्ति में महावीर स्वामी की प्रतीमा है। ४. भगवान् महावीर स्वामी : इस की स्थापना २००७ में हुई थी। यह मूर्ति ध्यानावस्था और पद्मासन में विराजमान है। ५. चौबीसी : पीतल से निर्मित इस फलख में २४ तीर्थंकर स्थापित हैं । सब से ऊपर आदिनाथ भगवान् की प्रतिमा और सबसे नीचे भगवान् महावीर की प्रतिमा उत्कीर्णित है। तत्पश्चात् ५-५ की दो पंक्तियों में फिर २-२ की ३ पंक्तियों में तीर्थंकरों की मूर्तियां जड़ी हुई हैं । यह चौवीसी मनमोहक और कलापूर्ण है । ६. पार्श्वनाथ : शान्तिनाथ भगवान् की दाहिनी ओर पार्श्वनाथ की मूर्ति ध्यनावस्था में विराजमान है । इसकी स्थापना वि.सं. २०५७ में माघ माह में हुई थी। यह प्रतिमा लगभग साढ़े सात इंच ऊँची है । ९ फणी सर्प का चिन्ह भी है । १२८ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. महावीर की मूर्ति : यह सफेद संगमरमर से निर्मित ध्यानावस्था में विराजमान है । वि.सं २०५१ में इस मूर्ति की स्थापना होने का उल्लेख प्राप्त है। इनका चिन्ह सिंह भी उत्कीर्णित है । ८. शांतिनाथ : इन की दाहिनी ओर की दूसरी पंक्ति में शांतिनाथ भगवान् की लगभग ५ इंच और छोटी मूर्ति है जिसकी स्थापना वि. सं २००७ में हुई थी। इनका चिन्ह हिरन भी नीचे उत्कीर्णित है। यह मूर्ति भी पद्मासन अवस्था और ध्यानमुद्रा में संस्थापित है। पार्श्वनाथ की मूर्ति : पार्श्वनाथ भगवान् की यह मूर्ति बहुत छोटी लगभग ३ इंच ऊँची है । ९ फणी सर्प सिर के ऊपर फण फैलाये हुए है। यह वि. सं २०५७ की मूर्ति है । १०. आदिनाथ : यह अष्ट धातु से निर्मीत मूर्ति कायोत्सर्गावस्था में खड्गासंन रूप में है। यह अष्ट धातु की चौकी पर खड़ी हुई सुशेभित होती है। इस प्रकार उक्त वेदी पर स्थापित मूर्तियों का वर्गीकरण निम्नांकित रूप से प्राप्त होता है । १. शांतिनाथ भगवान की, २ ३. आदिनाथ भगवान की, २ ५. चौबीसी की, १ २. पार्श्वनाथ भगवान की, ३ महावीर भगवान की, २ इस के अतिरिक्त दक्षिण की ओर के संगमरमर के आले में पदमावती की मूर्ति के शिर के ऊपर पार्श्वनाथ तीर्थंकर की मूर्ति है। इसी प्रकार क्षेत्रपाल (शासनदेव ) भी हैं। सभी मूर्तियां दिगम्बर आम्नाय की हैं। ४. अष्टमंगल द्रव्य : उक्त वेदी के नीचे अष्ठ मंगल द्रव्य भी है- भृंगार (झारी) कलष, दर्पण, चँवर, ध्वजा, पंखा, छत्र, और सुप्रतिष्ठ । १२९ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रातिहार्य ५. १. अशोक वृक्ष, २ . तीन छत्र, ३. रत्न खचित सिंहासन ४. भक्तियुक्त गण, दुन्दुभिनाद, ६. पुष्पवृष्टि, ७. प्रभामंडल, और ८. चौसठ चमरयुक्तता उत्कीर्णित है। अठ मंगल द्रव्य और अष्ठ प्रतिहार के बीच में गाय और शेर विरुद्ध स्वभाव वाले एक साथ एक नॉद में खाते हुए उत्कीर्णित हैं, जो अंहिसा के प्रतीक हैं। मंदिर में अखंड ज्योति भी प्रज्वलित होती रहती है। महावीर जयन्ति, महावीर निर्वाण दिवस, दशलक्षणी पर्व (पर्युषण पर्व) आदि जैन पर्वों के सुअवसरों पर समस्त जैन समाज मिलकर धर्म प्रवाहना करती है । : मानस्तम्भ : मंदिर के सम्मुख एक मानस्तम्भ है। इसका निर्माण २००३ में हुआ था। इसके चारों ओर शान्तिनाथ भगवान् की चारमूर्तियां स्थापित हैं। धर्मशाला : जैन तीर्थ क्षेत्र समिति ने तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए दो मंजिला धर्मशाला का निर्माण किया गया है। इस में २४ कमरे हैं। प्रकोष्ठों के सामने चौड़ा बरामदा है। धर्मशाला में सम्राट खारवेल शुद्ध जैन भोजनालय की व्यवस्था एवं पानी की व्यवस्था सन २००३ से प्रारम्भ हुई है। जैन यात्रियों को शुद्ध शाकाहारी भोजन शुल्क देने पर उपलब्ध हो सकता है । खारवेल दातव्य औषधालय: धर्मशाला में न केवल यात्रियों की सुविधा के लिए, बल्कि सभी लोगों के लिए एक होमिओ पैथिक खारवेल औषधालय की स्थापना भी हुई है। इस औषधालय में निःशुल्क दवा दी जाती है। १३० Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार : उड़ीसा में जैन धर्म के उद्भव और विकाश एक झरने की तरह रहा । उस ने उत्थान और पतन सब कुछ देखा । ई.पू. दूसरी शताब्दी जैन धर्म का स्वर्ण युग के रूप में विख्यात रही । ई. सन् १६वीं शताब्दी उस के ह्रास की साक्षी बनी। जैन धर्म ने तत्कालिन धर्म और पन्थों को प्रभावित किया है। इस के साथ ही वर्तमान कालीन समाज और साहित्य पर भी उस का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यहाँ चिन्तनीय है कि उक्त धर्मों और पन्थों पर उस ने क्या प्रभाव डाला है? जैन धर्म के समय में महिमा धर्म का उदय भी हुआ था। महिमा स्वामी ने इस धर्म को स्थापना की थी। महिमा धर्मानुयायी साधु खण्डगिरि के आस-पास आश्रम (मठ) बनाकर रहते है। वे जैन धर्म के दक्षिणी क्षुल्लक की तरह गेरुआ रंग की एक कौपीन और एक उत्तरीय वस्त्र धारण करते है । वे रात में भोजन नहीं करते है और पूर्णता शाकाहारी होते है। दया को धर्म मानते है । आर. पी. महापात्र ने जैन मोनुमेंटस् (पृष्ठ ४०) में कहा भी है : No parking of food after sunset and their practice of burning the dead body showes the ifluence of the Digambar Jains. जगन्नाथ पन्थ भी जैन धर्म से काफी प्रभावीत हुआ है। जगन्नाथ की रथयात्रा की अवधारणा पूर्ण रूप से जैन धर्म से ली गई है। जगन्नाथ पन्थ का उदय ई. सन्. १२वीं शताब्दी में हुआ है। इस के बहुत पहले से पंचकल्याणाक-महोत्सव के अवसर पर जैन धर्म में रथयात्रा की प्रथा चली आ रही है। रथ की बनायट भी जैन धर्म की रथ की तरह होती है। 1 उड़ीसा के केउँझर, पुरी और कटक जिले मध्य काल में नाथ संप्रदाय की गढ़ थे। यही नाथ संप्रदाय सिद्ध संप्रदाय की रूप में प्रसिद्ध है। नाथ शब्द किसी परम सत्ता का सूचक है । और सिद्ध शब्द मुक्त परमात्मा का संसूचन करता है। यह दोनो शब्द जैन आगमिक शब्दावली से लिये गये हैं । नाथ संप्रदाय काय साधना नामक योग करते है । उनकी अवधारणा है कि इसी योग से अविनाशी और आध्यात्मिक जीवन प्राप्ति होता है। यहाँ ध्यातव्य है कि जैन धर्म में कायोत्सर्ग तप बहुत महत्वपूर्ण है। जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ कायोत्सर्ग और योग मुद्रा में उपलब्ध होती है। अतः सिद्ध है कि नाथ पन्थ काय १३१ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की साधान के लिए जैन धर्म का त्र-णी है। नाथ संप्रदाय के लोगों के नाम के अन्त नाथ उपाधि भी जैन धर्म से ली गई है। उदाहरणार्थ : गोरखनाथ, मीन नाथ, बोधि नाथ, मत्सेन्द्र नाथ आदि में जैन धर्म के तीर्थंकरो तरह नाथ शब्द जुड़ा हुआ है। इस से प्रतीत होता है कि नाथ संप्रदाय भी जैन धर्म से काफी प्रभावित है । सारला दास के उड़िआ महाभारत में नाथ योग के उद्भव और युगधर्म के पालन करने की विधी जैन धर्म के साथ प्रभावीत, प्रतीत होती हुई कही गई है। आर्. पी. महापात्र ने जैन मोनुमेंटस् आफँ उड़ीसा (पृ. ३९) में कहा भी है : In the Sharala Mahabharat be find referance to the origin and practice of the Nath yougis indicate their link with Jain religion. उड़ीसा के समाज और साहित्य पर भी जैन धर्म का प्रभाव दिखलाई पड़ता है । सारला दास के उड़िआ महाभारत में जैन धर्म के अनेक सिद्धान्तो को देखा जासकता है। इस में उपलब्ध जगन्नाथ की कथा का रूप जैन साहित्य में विभीन्न रूप में कही गई कथाएँ प्रतीत होती है। उड़ीसा के मध्य कालीन साहित्य पर भी जैन धर्म का प्रभाव परिलक्षित होता है। वाउल चरित्र और राम गाथा जैसे प्रचीन उड़िआ ग्रन्थ भी जैन धर्म से बहुत प्रभावित हैं । इसी प्रकार जगन्नाथ दास का भागवत, चैतन्यदास का विष्णुगर्भ पुराण और दीनकृष्ण दास का रसकल्लोल उड़िआ साहित्य जैन दार्शनिक सिद्धान्तों के विवेचन तथा व्यवहार में उन सिद्धान्तों के पालन करने से परिपूर्ण हैं | जगन्नाथ दास के उड़आ भाषा में रचित भागवत के पांचवें खण्ड के पांचवें अयोध्या के त्र-षभ चारित विभाग में त्र- षभदेव के द्वारा अपने एक सौ पुत्रों को ब्रह्मचर्य, अंहिंसा, श्रद्धा, सत्ककर्म आदि का पालन करने कि उपेदश दिये जाने के प्रसङ्ग हमे उपलब्ध होते हैं। I उक्त सिद्धान्त जैन धर्म में गृहस्थों के आचरण के नियम बतलाए गये है। इसी प्रकार विवाहोपरान्त अष्ट मंगल करने का विधान जैन धर्म (श्वेताम्बर) से लिया गया प्रतीत होता है। उड़ीसा की जीवनशैली को भी जैन धर्म ने काफी प्रभावित किया है। उड़ीसा के ग्रामीण इलाकों में रहनेवालों विशेष कर सराकों पर जैन धर्म के साकाहार और अंहिसा सिद्धान्त का बहुत प्रभाव पड़ा है। पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में स्थित वट वृक्ष की पूजा करने की सामाजिक प्रथा जैन धर्म से ली गई है। जैन धर्मानुसार आदिनाथ तीर्थंकर ने वट वृक्ष के नीचे मुनि दीक्षा ली थी और तपस्या कर केवलज्ञान प्राप्त किया था। ईसी कारण से १३२ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहा जैनधर्मावलम्बी वट वृक्ष की पूजा करते है। इसी से प्रभावित होकर संपूर्ण उड़ीसा में वट वृक्ष की पूजा होती है। इसी प्रकार उड़ीसा मे जो नीति विषयक लोक कथायें उपलब्ध होती हैं वे निश्चित रूप से जैन धर्म से ली गयी है। जैन खगोल शास्त्रियों ने देश में सर्व प्रथम शक संवत् चलाया है। शकाब्द का प्रयोग सब से पहले जैन लेखक सिंह सूरि की कृति लोक विभाग में उपलब्ध होता है । यह कृति कांची में शकाब्द ३८८ (ई.सन्.४६६) में लिखी गयी थी। उड़ीसा में अनेक लेखक और ताम्र की प्लेट के अभिलेख में सर्व चन्द्र, खण्डि चन्द्र, भानु चन्द्र, विनय चन्द्र आदि उतकिर्णिकों के नाम से प्रमाणीत होता है कि वे जैन संप्रदाय के थे। आर.पि महापात्र ने जैनमोनुमेण्टस् ऑफ उड़ीसा (पृ.४६) लिखा है कि दक्षिणी उड़ीसा के सुनार सामान्य रूप से सरभ कहलाते है। सरभ शब्द का उद्भव मूलत: श्रवक से हुआ है। उड़ीसा में मनुष्य का एक संप्रदाय कलिंग कुमुति के नाम से जाना जाता है। वे उद्योग और वाणिज्य करते है। वे दक्षिण से आये थे और जैन धर्म स्वीकार कर दोनो क्षेत्रों के मध्य में शृङ्खला बन गये। शारला दास के महाभारत आये हुए वृतान्त का प्रमाण देते हुए यह स्वीकार किया गया है कि जानुघंट सम्भवत: बहुत शक्तिशाली राजा था। जो भिक्षा या दान मांगे विना जीवित और दिगम्बर रहता था तथा अंहिसा का पालन करता था। इससे प्रतीत होता है कि वह और उस के अनुयायी भी जैन धर्म से प्रभावित थे। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की सा ॐ वह पिछ प्रकार थ परिशिष्ट- १ आम उड़ीसा के कतिपय जैन संग्रहालय : उड़ीसा सरकार ने जैन स्मारकों को राज्य की धरोहर मानकर बहुत महत्त्व दिआ है। उनके संरक्षण हेतु जैन स्मारक केन्द्र पर जैन संग्रहालय निर्मित करने की योजनानुसार नम्निांकित जैन संग्रहालयों का निर्माण किया गया है। बालेश्वर, अयोध्या, जामुंडा, पोड़सिंगिड़ी और प्रतापनगरी के जैन संग्रहालय उल्लेखनीय हैं। उन में प्राप्त क्षेत्रीय जैन मूर्तियों को सुरक्षित रखा गया है। प्रमाण स्वरूप कतिपय संग्रहालय की भवन अंकित किये जाते है । III 3219 न ADRES बगनाथ दास के दलिया भाषा जैन संग्रहालय : जमुंडा के लोगों के नाम के अन्य नियम का जैन संग्रहालय : पोड़सिंगिड़ी १३४ STC 1ST Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D emon BAR CHAR जैन संग्रहालय : प्रतापनगरी परिशिष्ट- २ कतिपय प्राचीन जैन मूर्तियाँ और मंदिर: पोड़सिंगिड़ी रामचंडी मंदिर में स्थित अंबिका और तीर्थंकर की मूर्ति १३५ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोड़सिंगिड़ी में तीर्थंकर और रामचंडी मंदिर जमुंडा के त्र-षभनाथ तीर्थंकर और जैन मूर्तियाँ Trolle १३६ शि Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pale N 20 MEEN SANSAR HESENT ANSAR S । GARNER जमुंडा के पार्श्वनाथ तीर्थंकर और जैन मूर्तियाँ १३७ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ त्र - षभनाथ प्रताप नगरी संग्रहालय कोशी आ १३८ पार्श्वनाथ त्र- षभनाथ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 SHR Ans HANNE www NAAN Home Sen POINE AN ANN त्र-षभनाथ पार्श्वनाथ SNE WER NA पार्श्वनाथ गोमेध और अंबिका १३९ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANCE । खंडित त्र-षभनाथ खंडित जैन मूर्तियाँ ARMA PANA S HTTER News RAM तीर्थंकर त्र-षभनाथ तीर्थंकर महावीर के साथ त्र-षभनाथ T PESTE १४० Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- ३ उड़ीसा में जैन प्राचीन दर्शनीय स्थल का मानचित्र : REFERENCE Howmane O 1NEHome - 0 Portants GANPATI Jaina Heritage Sites of Orissa o १४१ Jain Education Interational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुना प्रयाग सन्दर्भ ग्रन्थ सूची १. अग्रवाल, सदानन्द : खारवेल कटक १९९३ २. आचार्य जिनसेन : हरिवंश पुराण दिल्ली ३. कत्रे, एस.एम : प्राकृतं लैंगवेज एण्ड देअर कन्ट्रीव्यूसन टु इन्डियन 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१९५९ २१. क्षु. वर्णी जिनेन्द्र : जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश दिल्ली १९९३ २२. शाह सी.जै : जैनिजम इन नोर्थन इंडिया बम्बई १९३२ २३. सलेटोरे बी.ए. : मिडिवल जैनिजम बम्बई १९३८ २४. साहु. एन.के : खारवेल भुवनेश्वर १९८५ साहु. एन. के : बुद्धिजम इन उड़ीसा भुवनेश्वर १९८५ साहु. एन. के : हिस्ट्री ऑफ उड़ीसा भुवनेश्वर १९५८ २५. साहु. एल.एन्. : उड़ीसार जैनधर्म कटक १९५९ १४२ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक का परिचय नाम : प्रो. डॉ. लालचान्द जैन जन्म : ३ मई १९४४ जन्मस्थान कवरहटी,पन्ना (म.प.) माता-पिता स्व. बाबूलाल जैन, स्व. मलीदाबाई जैन, बडकुल पत्नी डा. (श्रीमती) जिनमती जैन, अध्ययन श्री स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणासी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणासी एम.ए. (दर्शनशास्त्र-प्राकृत जैनलोजी-संस्कृत) पी-एच.डी., शास्त्राचार्य (जैन दर्शन) आचार्य (जैन दर्शन) कृतियाँ (मौलिक) : १. जैन दर्शन में आत्म-विचार : (तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन) २. अद्वैतवाद, ३. भारतीय दर्शन में सर्वज्ञता ४. तीर्थंकर त्र-षभदेव का कर्तृत्त्व एवं व्यक्तित्व ५. प्राकृत साहित्य में अनेकान्तवाद ६. जैन दर्शन में प्रमाण स्वरूप विमर्स ७. सम्राट चक्रवर्ती खारवेल और उनका शिलालेख ८. उड़ीसा में जैनधर्म संपादित एवं अनुवादित : ९ लीलावई कहा १० कंसवहो ११ नयचक्र १२ तत्त्वसार प्राकृत १३ गद्य-पद्य वंध भाग-२ १४ गद्य पद्य बंद्य भाग-३ १५ गद्य पद्य बंद्य भाग- ३ (हिन्दी अनुवाद) १६ जैनवाङ्मय में चम्पापुरी, शोध पूर्ण निबन्ध : १५० १४३ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व प्रधान संपादक पत्रकारिता पुरस्कार एवं सम्मान अध्यापन सेवा निवृत रिसर्च बुलेटिन एवं प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोधं संस्थान वैशाली ग्रन्थमाला महावीर विमल देशना (मासिक),सिद्धान्त भास्कर आचार्य विद्यानन्द पुरस्कार, विद्वत्रत्न, २००० गोल्डमेडल, विहार वि. वि. मुजफ्फरपुर आ.शान्तिसागर छाणी स्मृति श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार,२००५ जैन विश्वभारती लाडनूं, प्राकृत जैन शास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान वैशाली। उत्कल संस्कृति विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर। निदेशक, प्राकृत जैन शास्त्र अंहिसा शोध संस्थान, वैशाली प्रो.अध्यक्ष, जैन विद्याकेन्द्र, उत्कल संस्कृति विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर । दो पुत्र १. कुमार राजीव जैन, एम.एस सी.(गणीत) छत्रपुर २. प्रदीप प्रकाश बड़कुल, कंप्युटर इंजीनियर, दिल्ली दो बेटियाँ १. श्रीमती रजनी जैन, एम.ए. (संस्कृत एवं प्राकृत) बी. एड, पत्नी, श्री अरबिन्द कुमार जैन, छत्रपुर, मध्य प्रदेश, २. प्रज्ञा जैन (गुड़िया) एम.टेक., कंप्युटर इंजीनियर, दो पोते १. आगम जैन और २. अमित जैन (टूटू) नतनी अनुप्रेक्षा पारीवारीक स्थितिः त्र-पभनाथ - ऋषभनाथ छत्रपुर - छतरपुर पारीवारीक - पारिवारिक १४४ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BAT , SERLOOR