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________________ नजदीक सिद्धार्थ ग्राम धार्मिक और सांस्कृतिक केन्द्र था। उक्त कथन का तात्पर्य केवल इतना ही है कि भगवान् महावीर ने उक्त स्थानों पर धार्मिक उपदेश दिये थे, इसलिए वे जैनधर्म के गढ़ थे। व्यवहार भास्य (६/११५) से ज्ञात होता है कि तोषाली (धवल गिरि) उस समय जैन धर्मोपदेश की केन्द्र थी। यही वहस्थान है जहाँ पर कलिंग जिन की वह चमत्कारी मूर्ति स्थापित थी। जिसका संरक्षण राजा तोषालिक करता था। आगे यह भी कहा गया है कि भारी वर्षा होने के कारण फसल के न होने से जैन मुनियों को वहाँ प्रचुरता से उगने वाले ताड़ के फलों पर निर्भर रहना पड़ता था। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जैन आगमों में कलिंग को आर्य देश माना गया है। अत: जैन तपस्वियों को यहाँ विहार करना आसान था। यही कारण है कि कलिंग में जैन धर्म का बहुत प्रचार प्रसार हुआ 91T1 The early read of Jainism in Orissa is evident from these traditions and will not be unreason able to conclude that Jainism made it's first appearance in this country in six century B.C. when Mahavira visit it. के .सी. पाणिग्राही ने हिस्ट्री ऑफ दि उडीसा (पृ २९६) में ऐसा ही कहा है। लेकिन पाणिग्राही का यह कथन तर्क संगत नंही है कि कलिंग में जैन धर्म का प्रवेश महावीर के विहार करने से हुआ है, क्यों कि हम देख चुके हैं कि त्र-षमदेव ने भी यहाँ विहार किया था और धर्मोपदेश दिये थे। यह सत्य है कि भगवान् महावीर के समय में जैन धर्म कलिंग में जड़ें जमा चुका था। हाथी गुम्फां शिलालेख से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर ने कलिंग देश में विहार करने के क्रम में उदयगिरि या कुमारी पर्वत पर धर्म चक्र प्रर्वतन किया था। दूसरे शब्दों में महावीर का समोसरण (धार्मिक सभा) यहाँ आया था और कुमारी पर्वत पर उन्होंने धर्मोपदेश दिया था। उसी स्थान पर बाद में एक जैन मंदिर का निर्माण भी राजा खारवेल ने कराया था। उपर्युत विवरणों से स्पष्ट है कि करोड़ों-करोड़ वर्ष पूर्व में हुए तीर्थकर त्र-षभदेव के समय से कलिंग जैन धर्म का केन्द्र रहा। उनके उत्तरवर्ती तीर्थकरों विशेषकर पार्श्वनाथ और महावीर ने अपने संघ के साथ सम्पूर्ण कलिंग देश में विहार कर जैनधर्म का उपदेश दिया और उसे स्थायित्व प्रदान किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003670
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherJoravarmal Sampatlal Bakliwal
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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