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बरम्बा में सुरक्षित रखी हुईं है। बांकी क्षेत्र के वैदेश्वर गाँव में पार्श्वनाथ की एक मूर्ति प्राप्त हुई है। जो बगल वाले छोटे मंदिर में सुरक्षित रखी हुई हैं।
नुआपाटणा ग्राम में सराकों की बस्ती में बौद्ध और नवीन बुद्धों के मंदिरों का उन केलिए निर्माण कराया गया है, लेकिन वे लोग कभी भी बौद्ध धर्म महोत्सव में नरसिंहपुर के बानेश्वरीनासी में भी सम्मिलित नहीं हुए हैं। इस के विपरीत यथा समय खण्डगिरि उदयगिरि की धार्मिक यात्रायें अवश्य करते हैं ।
सराकों की कोई उप-जातियाँ नहीं होती हैं। वे अपनी बेटी का विवाह शिशु अवस्था में कर देते हैं। उनके यहाँ विधवा विवाह नहीं होते हैं। तलाक को भी वे मान्यता नहीं देते हैं। यदि किसी को यह आशा हो जाय कि उसकी पहली पत्नी से बेटा नहीं होगा तो उसे बहु विवाह की अनुमती है अर्थात् वह दूसरा विवाह कर सकता है। सराकों में विवाह महोत्सव उच्च स्तरीय होते है। एच. एच रिसले Thribes and castes of Bangal (Page-236-237) में लिखते है कि सराकों की यह परम्परा सुरक्षित है कि उन के पूर्वज जैन थे। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हों ने पूर्ण रूप से हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया है। वे ब्राह्मणों के सहयोग से हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। फिर भी जैन धर्म के तीर्थंकर पार्श्वनाथ को अपना मुख्य देवता मानते हैं। वे श्यामचन्द्र, राधामोहन और जगन्नाथ की भी पूजते हैं। ऐसा करने पर उन लोगों पर सामाजिक रूप से जुर्माना नहीं लगा सकता है। जैन मन्दिरों में ब्राह्मण ही पूजा का कार्य करते हैं।
आर.पी. महापात्र ने जैन मोनुमेंटस इन उड़ीसा (पृ.४३) में लिखा है कि सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से सराक उच्च स्तरीय होते हैं । ब्राह्मण उन के हाथ से पानी और रोटि आदि पके हुए विभिन्न प्रकार का आहार रूप पदार्थ ले सकते हैं। सराक किसी भी परिस्थिति में किसी भी जानवार का मांस नहीं खाते हैं । मांस खाने से अपने को बचाये हुए हैं। उनका भोजन पूर्ण रूप से शाकाहारी होता है। सराकों में यह परम्परागत प्राथा है कि यदि कोई उन के भोजन बनाते समय काटने शब्द का प्रयोग कर दे तो वे इसे महान अनर्थकारी समझते हैं। भोजन बनाने वाली महिला उस शब्द को सुन कर समस्त पकाई जाने वाली चीजें बाहर फेक देती हैं। वे ऐसी
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