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दो शब्द भुवनेश्वर आने के पूर्व उड़ीसा के विषय में मुझे बृहद जानकारी नहीं थी। यों कहा जा सकता है कि उक्त विषय में मेरी जानकारी सीमित थी। अगस्त २००३ में जैनचेयर (जैन विद्याकेन्द्र), उत्कल संकृति विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर का प्रभार लेने के पश्चात् उस पुनीत धरणी तल को नमन करने का स्वर्ण अवसर मिला जहाँ पर त्र-षभनाथ, श्रेयांसनाथ, अरहनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर तीर्थंकरों के विहार हुए, और जहाँ ई.पू पांचवीं शताब्दी में (सम्भवतः इस से पूर्व भी) सर्व प्रथम निर्मित कलिंगजिन की मूर्ति की पूजा-अर्चना और वंदना होती थी। प्राचीन उड़ीसा विश्व में एक अनोखा, अनूठा और विलक्षण देश था, जहाँ पर ई.पू. दूसरी शताब्दी में जैनधर्म राष्ट्रीय धर्म था। इसका श्रेय तत्कालीन सम्राट खारवेल को है, जो जैन धर्म के लिए समर्पित थे। उनकी उदारवादी
और सहिष्णु नीति का ही यह फल था की जैनधर्म ई.सन् १६ वीं शताब्दी तक शैव धर्म के चरमोत्कर्ष काल में भी विभिन्न जिलों में शिव मंदिरों में भी प्रतिष्ठित रह कर अपना अस्तित्व कायम रख सका। जब की इस देश की धर्म-उर्वरा भूमि में अनेक धर्म उत्पन्न हुए और शैशव काल में ही विनष्ट हो गये। प्रताप नगरी, खंडगिरि, उदयगिरि, भानुपुर, कुपारी, अयोध्या, भीमपुर, वर्धनपुर चरम्पा, पुरी कोणार्क आदि जैन दर्शनीय स्मारकों का भ्रमण कर मैने माना कि जगन्नाथपुरी जिसे हिन्दु धर्म का येरूशलम कहा जा सकता है, के मंदिरों में यथा मुक्तेश्वर भुवनेश्वर आदि मंदिरों में और स्थानों पर जैन मूर्तियों की पूजा वे अपनी-अपनी पद्धति के अनुसार आज भी करते हैं। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उड़ीसा में जैन धर्म की जड़ें कितनी गहरी थीं।
कलिंग के उक्त जैनधर्म के दर्शनीय स्मारकों को जान ने के लिए हिन्दी भाषा में कोई पुस्तक आज तक नहीं लिखी गई है। यदि इस तरह की कोई प्रकाशित हुइ तो मुझे देखने में नहीं आई है। इसी अभाव की पूर्ति के लिए प्रस्तुत पुस्तक का सृजन हो सका है। एल.एन.साहु ने उड़िआ भाषा में उड़िसार जैनधर्म नामक पुस्तक १९५५ में लिखी थी, जो अनुपलब्ध है। श्री कामता प्रसाद जैन ने इस का अंग्रेजी अनुवाद किया था जो अनुपलब्ध होने के कारण मुझे प्राप्त नहीं हो सका।
परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञान सागर जी महाराज के शुभ सान्निध्य में मुझे २००५ का श्रुत संवर्धन पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उस समय अपने आशीर्वचन में एक वर्ष के अंदर एक पुस्तक लिखने की मंगल प्रेरणा प्रदान की थी, इसी कारण से मै इस पुस्तक का सृजन करने के लिए प्रयत्नशील हुआ। उन के चरणों में मेरा बारम्बार नमोस्तु।
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