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ने वेद वेदाङ्ग का विद्वान और आराधक होते हुए भी धार्मिक अधिष्ठान और जैन निर्ग्रन्थों को बहुत बड़ी मात्रा में धन दान स्वरूप दिया करता था। उक्त स्थान निर्ग्रन्थ की गतिविधि का केन्द्र था। उसके चार ओर जैन तीर्थंकर और शासन देवियों के बहुत बड़ी मात्रा में अवशेष मिलते है। जब मुरुण्ड राजा दक्षिणी कलिंग पर और पित्रिभा कटस अथवा माथरस उत्तरी कलिंग पर शासन कर रहे थे, उस समय कोई नहीं जानता था कि उनके प्रारम्भिक शासन काल में जैन धर्म इतना व्याप्त हो जायेगा। यही कारण है कि उन्होंने भगवान् महावीर के सम्मान में वर्धमान नामक स्थान को अपना मुख्यालय बनाया था। कलिंग के माथर वंश के महाराज उमावर्मन और महाराज नन्दप्रभंजन वर्मा ने वर्धमान सहर से अपने संकल्प निर्धारित किए थे। अर्थात् अपने चरित्र का निमार्ण किया।
कलिंग में प्राचीन गंग नरेश माथरों के उत्तराधिकारी हुए। मैसूर के श्रवणवेलगोला अभिलेख के अनुसार गंगवंश के डड्डिंग और माधश नामक राजकुमार दक्षिण में आश्रय भूत स्थल खोज ने के लिये अयोध्या चले गये। रास्ते में सिंहनन्दि नामक जैन मुनि की प्रेरणा से माधश कलिंग में ठहर कर कलिंग में राज्य निर्माणार्थ प्रयास करने लगा। जब की डाड्डिग सुदूर दक्षिण की ओर चला गया। माधस ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया और उस जैन धर्म के सम्मान में हाथी चिन्ह वाली मुहुर तैयार कर उसका उपयोग करने लगा। मैसूर के राजा द्वारा भी हाथी के चिन्ह वाली मुहुर का उपयोग करने के कारण कलिंग के गंगवंश के राजा प्रारम्भिक मध्यकाल में जैनधर्म को बदल कर शैवधर्म के प्रिति निष्ठावान हो गये। लेकिन वे जैनधर्म को भी मानते रहे। राम तीर्थ पहाड़ी पर जैन धर्म के अनेक कार्य किये। उसी समय उन्होंने केउँझर जिले के बूल पहाड़ की तरह रामतीर्थ में एक जैन मंदिर बनवाया। ई.सन् ७ वी शताब्दी में उसी प्रकार के जैन मंदिर का निर्माण चालुक्यों के क्षेत्र में कराया था। ई. सन् ७वी शताब्दी में जैनधर्म उड़ीसा में सुसम्पन्न स्थिति में था। जब उड़ीसा कंगोद, उड़ और कंलिग इन तिन जागीरों में विभाजित था तव चीनी यात्री ह्यूएनत्संग ने ई. सन् ६२९ से ६४५ तक कलिंग में राजनैतिक कारणों से भ्रमण करके कहा था कि कलिंग जैन धर्म का गढ़ था। वहाँ जैनियों की संख्या अत्यधिक थी। वहाँ अनेक संप्रदायों के अनेक लोग रहते थे, लेकिन उसने सबसे
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