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(ख) खारवेल और जैनधर्म :
खारवेल जैन धर्म के संरक्षक, संवर्धक और संप्रसारक थे। इसका प्रमाण हमे . हाथी गुंफा शिलालेख से प्राप्त होता है। उसके अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि वे स्वतंत्र देश के जैन राजा थे। जैन धर्म उन्हें परम्परा से प्राप्त हुआ था क्यों की उनके पूर्वज भी जैन थे। आर.पी.महापात्र में जैन मनुमेण्टस् (पृ २०) में कहा भी है : “He was the son of an independent Monarch."
जैनधर्म को उन्होंने बाद में स्वीकार नहीं किया अर्थात् जैनधर्म उनका आयाचित धर्म नहीं था। जिस प्रकार सम्राट अशोक ने पूर्व में स्वीकृत जैन धर्म को छोड़कर बौद्धधर्म बाद में स्वीकार किया। उस प्रकार का खारवेल ने धर्म परिवर्तन नहीं किया। वे जन्मजात जैनथे। एन.के.साहु ने खारवेल में भी कहा है : "He was a jain by birth and not converted like Ashok."
आर.पी. महापात्र ने जैन मनुमेण्टस् (पृ २१)में भी कहा है "Salutation to the Arhats and Sidhas indicating that Kharvela was a jain by birth." 3461 कथन की पुष्टि उनके हाथी गुम्फा शिलालेख से भी होती है। जैनधर्म में पांच परमेष्ठियों को मंगल स्वरूप परम पूज्य माना गया है। अहँत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमेष्ठियों में से अर्हन्तों और समस्त सिद्धां को प्रारम्भ में मंगलाचरण की रूप में नमन किया गया। इसके पश्चात् हाथी गुम्फा शिलालेख की विषय वस्तु अंकित की गई है। यही कारण है कि खारवेल के समय में जैनधर्म उड़ीसा का राज धर्म के पद पर आसीन था। उक्त कथन से दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि खारवेल जैन सिद्धान्तों में विश्वास करता था और उनका व्यवहार में पालन भी करता था। यह नाम मात्र का जैन नहीं था।
उत्तर भारत में जैनधर्म (पृ.१२९) में चिमनलाल जैचंद शाह ने लिखा भी है उड़ीसा में जैन धर्म प्रवेश हो कर अंतिम तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के १०० वर्ष पश्चात् ही जैनधर्म वहाँ का राज धर्म बनगया था।
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