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मुद्रा में खडे हैं । उनके चित्र से भी यही स्पष्ट होता है। उनका मुनि दीक्षा लेना असंभव संरक्षण और संप्रसारण में उन्होंने अपना जीवन समर्पित
भी नहीं है, क्यों कि जैन धर्म के कर दिया था।
इस संबंध में प्रश्न हो सकता है कि उक्त मूर्ति राजा खारवेल की ही है ? इसका क्या प्रमाण है ? वह किसी दूसरे मुनि की भी हो सकती है।
इसके उत्तर में इतना कहना पर्याप्त होगा कि राजा खारवेल जैनधर्म के उत्कर्षक थे। उनके कारण ही कलिंग में भगवान् महावीर का धर्म शासन अब तक स्थापित रह सका। उस धर्म को चर्तुर्दक संप्रसारित, संरक्षित और उन्नतशील बनाने वाले खारवेल राजा के अलावा कोई दूसरा नहीं हुआ है। यही कारण है कि उनके उतराधिकारियों ने चौबीस तीर्थंकर के पश्चात् प्रात: काल स्मरणीय खारवेल की मूर्ति उत्कीड़ित कर कृतज्ञता ज्ञापित की। परम पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्द महाराज की भी यही मान्यता है । राजा खारवेल के कारण ही भ. महावीर द्वारा बहाई गई धर्म - गंगा कलिंग में शुष्क नहीं हो सकी।
अंत में यह भी कहना चाहता हूँ कि जैन राजाओं में भ. महावीर के निर्वाण के पश्चात् होने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य राजा के अलावा ऐसा कोई भी जैन राजा नहीं हुआ जिसे राजा खारवेल के समक्ष खड़ा किया जा सके। खारवेल जैन मतानुयायियों के लिए मंगल स्वरूप हैं। गौतम गणधर के वाद राजा खारवेल ही परम पूज्य और स्तवनीय है । विहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी पत्रिका १०/८ में डा. के. पी. जायसवाल के प्रकाशित मत 'अनुसार उनका निर्वाण ई. पू. १५२ में हुआ था ।
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