SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कहता है कि पार्श्वनाथ ने ताम्रलिप्ति और कोपापटक में धर्मोपदेश दिया था । उक्त दोनों स्थानों को क्रमश: बंगाल के तमलुक और उड़ीसा के कुपारी के रूप में पहचाना गया है। पार्श्वनाथ के आध्यात्मिक उपदेशों का प्राचीन उडीसा के लोगों पर काफी प्रभाव पड़ा था । कलिंग देश का तत्कालीन राजा करकण्डु या करण्ड पार्श्वनाथ का राजकीय शिष्य था । कुम्भकार जातक में उल्लेखों के अनुसार कहा जासकता है कि कलिंग के राजा करकण्डु तत्कालीन पांचाल के राजा दुम्मुख, गांधार के राजा नग्गजि और विदेह के राजा निमि के समकालीन राजा थे। उत्तराध्ययन सूत्र बतलाया गया है कि वृषभनाथ द्वारा उपदिष्ट जैन धर्म में उक्त राजाओं ने दीक्षा ली थी। वे राजाओं में वृषभ के नाम से जाने जाते थे। इस कथन से सिद्ध होता है कि करकण्डु, दुम्मुख आदि चार राजा राज्य करते थे, उस समय जैन धर्म कलिंग सहित पूरे देश में व्याप्त था । उस समय जैन धर्म की प्रसिद्धि का कारण तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा प्रवर्तित चतुर्याम अर्थात् अंहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह का, तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय में उत्तरी भारत और पूर्वी भारत में, व्यापक रूप से प्रसार-प्रचार होना है। राजा करकण्डु, जो कि जैन आगमों में राजर्षि के नाम से प्रसिद्ध हैं, ने भी कंलिंग में जैनधर्म का संरक्षण एवं सम्प्रसारण तो किया ही था, इसके अलावा उन्होंने तत्कालीन मित्र राजाओं को भी जैनधर्म की ओर आकर्षित किया था। तेरापुर (महाराष्ट्र) में उन्होने एक जैन मंदिर का निर्माण भी राजा भीम के राजत्व काल में कराया था। उनके द्वारा बनवाये गये जैन मठ में चार हाथी दौड़ते हुए उसी तरह स्थित है जिस प्रकार के हाथी तोषली में हैं। दूसरे शब्दों में कहाजा सकता है कि करकण्डु राजा के समय में कलिंग में जैन धर्म राज्यकीय धर्म रहा। राज्याश्रय प्राप्त होने के कारण कलिंग में जैन धर्म की स्थिति सुदृढ़ थी। उसकी जड़ें गहराई तक जम चुकी थीं। अग्रवाल सदानन्द ने ठीक हीं कहा है कि करकण्डु के बाद में भी पार्श्वनाथ के द्वारा प्रवर्तित चतुर्याम जैन धर्म ने कलिंग को पूर्ण रूप प्रभावित कर रखा था। जैन मुनि सरभंग का विहार गोदावरी के तट पर अवस्थित हो कर हुआ था । सरभंग जातक में प्रतिपादित है कि कलिंग के राजा कालिंग, अस्सक के राजा अट्ठक और विदर्भ के राजा Jain Education International ४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003670
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherJoravarmal Sampatlal Bakliwal
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy