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________________ लिए आया हुआ था । उसी समय खारवेल भी मगध पर आक्रमण करने के लिए आये हुए थे। ज्ञात होने पर खारवेल ने उक्त यवन राजा को ललकारा और उसका पीछा करते हुए न केवल मथुरा को यवनों से मुक्त कारया बल्कि उसे अफगानिस्तान की सीमा से बाहर खदेड़ कर मथुरा में जैनधर्म का संरक्षण किया। यह अद्वितीय कार्य उन्हों ने अपने शासन के ८वें वर्ष में किया था। कहा भी है विपमुचितुं मधुरं अपयातो यवन राज.... आर. पी महापात्र ने कहा भी है। "In the ... Kharvela led an expedition to Mathura to protect this age old strong hold of Jainism from the hands of the inveding yavans." खंडगिरि और उदयगिरि की गुंफाओं से ज्ञात हाता है कि राज परिवार और समस्त कलिंग की प्रजा की जैनधर्म और कलिंगजिन के प्रति अटूट श्रद्धा और भक्ति थी । मथुरा से वापिस आ कर राजा खारवेल ने एक जैन मंदिर का निर्माण भी करवाया था । अपने राजत्वकाल के तेरह वें वर्ष में अणुव्रती राजा खारवेल ने जिस कुमारी पर्वत पर भगवान महावीर ने धर्मचक्र प्रर्वतन किया था, वहीं पर श्रमणों के वास्ते वर्षावास करने के लिए गुंफाओं का निर्माण करावाया था । खारवेल श्रमणों के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखते थे, उनकी पूजार्चना करते थे और उनके उपासक थे। जैनधर्म में जीव और अजीव दो स्वतन्त्र तत्व माने गये है। इन दोनों तरवों का स्वरूप भेद विज्ञान से जान कर साधक मोक्ष प्राप्त कर सकता है । खारवेल ने जैनधर्म के इस सिद्धान्त को भलीभांति पूर्वक आत्मसात कर लिया था । अर्थात् वे भेद विज्ञानी थे। कहा भी है "Kharvel's statement in this connection that his sole is dependen (Sarita and Asarita) upon body in accord with Jain concept." खारवेल की सिंहषथ नामक रानी की भी जैन धर्म के प्रति श्रद्धा, विश्वास और उसके प्रति सम्मान था । यही कारण है कि उनकी इच्छानुसार अरहंत की निसीधिका के समीप एक मान स्तम्भ का निर्माण कराया गया था। जिस में मणि जड़े हुए थे। वहीं पर उन्हों ने एक सभागार का निर्माण कराया था। जहाँ पर सभी श्रमण Jain Education International ३५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003670
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherJoravarmal Sampatlal Bakliwal
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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