SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यति आदि संगोष्ठी क्रिया करते थे। कहा भी है सकत समण सुविहितानं च सव दिसानं यतिनं तपस इसिनं संघायनं अर्हन्त निसीदिया समिपे सिंगपथ रानीस (भलासेही) पटलिक चतरे च वेडुरिय गभे थंभे पटथापयती । पंक्ति १५-१६ खारवेल का सब से महत्त्वपूर्ण कार्य मौर्यकाल में बारहवर्षों तक दुर्भिक्ष पड़ने के कारण छिन्न- मिन्त्र और विनष्ट हुए अंग साहित्य को व्यस्थित करना था । उस समय स्थूलमद्राचार्य की अध्यक्षता में हुई वाचना में निर्णीत अंग साहित्य के पाठों को अस्वीकार कर खारवेल ने चतुर्दिक से श्रमणों को आहूत कर वाचना कराई थी उस में १२ अंग साहित्य को वाचना के द्वारा व्यवस्थित किया गया था। राजा खारवेल स्वयं उस संगोष्ठी में उपस्थित हो कर सुनते थे, मनन करते थे और अनुभव करते थे। हाथी गुंफा शिलालेख की १७वीं पंक्ति में कहा भी है : मुरिय काल वोछिनं च चोयठि अंग संतिकं तुरयिं उपादयति । खेम राजा स वध राजा स भिखु राजा धम राजा पसंतो सुनंत अनुभवंतो कल्याणानि । इससे सिद्ध है कि खारवेल की श्रद्धा आचार्य भद्रवाहु की अध्यक्षता में थी। इस सम्बन्ध में डॉ. शशिकान्त जैन का कथन महत्वपूर्ण है । In front of the assembly hall was set of a palered and quadrilateral pillar in laid with berly apparently to serve replace of the monsteambha in accord with the traditional discription of jain concils as vachnana (reading found in letrature). खारवेल युद्ध भी जैनधर्म के प्रचार प्रसार की दृष्टि से किया करते थे । उसने पश्चिम दक्षिण और उत्तर में जैनधर्म की प्रतिष्ठा की थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म खारवेल के समय में समस्त कलिंग में व्याप्त होने के साथ ही राजधर्म के रूप में प्रसिद्ध था । जैनधर्म का संरक्षक राजा खारवेल का उदय उस समय न हुआ होता तो तीर्थंकर महावीर द्वारा की गई धर्म क्रांति उड़ीसा में उसी प्रकार नष्ट हो गई होती जिस प्रकार तथागत बुद्ध द्वारा की गई बौद्ध धर्म की क्रांति सुयोग्य उत्तरधिकारी के आभाव में ऐसे व्यक्ति के हाथों बिल्कुल नष्ट हो गई। जिसकी ख्याति बौद्ध सिद्धान्त के उन्मूलन कर्ता के नाम से है। Jain Education International ३६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003670
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherJoravarmal Sampatlal Bakliwal
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy