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________________ कुमारावस्था और शिक्षा-प्रशिक्षण: खारवेल की कुमारावस्था का प्रारम्भिक काल कुमार-सुलभ अर्थात् स्वाभाविक और स्वच्छन्द पूर्वक खेल खेलने में व्यतीत हुआ। क्रीडाएँ करते हुए उन्होंने राजकुमार के योग्य शिक्षा ग्रहण की थी। कहा भी है :(पंक्तिर)" पंदरस वसानि..... कीडिता कुमार कीडिका। ततो लेख रूप गणना ववहार विधि विसारदेन सव विजा वदातेन।" अर्थात् खारवेल कुशाग्र बुद्धि और अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। खेल खेलते हुए वचपन अर्थात् वे पन्द्रह वर्ष की अवस्था में ही समस्त विद्याओं के ज्ञाता हो गये थे। उन्होंने लेख अर्थात् राजकीय ढंग से पत्र लिखने में, रूप (मुद्रा या अर्थशास्त्र) गणित, व्यवहार, अर्थात् न्याय और कानून (स्थानीय प्रशासन) विषयों में दक्षता प्राप्त कर ली थी। उक्त शिलालेख की पाँचवी पंक्ति से ज्ञात होता है कि वे गंधर्वशास्त्र के भी ज्ञाता थे, इसलिए उन्हें गंधव वेद बुधो भी कहा गया है। उन्हें राज-प्रशासन करने के प्रशिक्षण हेतु युवराज पद पर प्रतिष्ठित कर दिया गया था। ६ वषों तक युवराज रहने के पश्चात् ही उन्हें चेदिवंश के तीसरे राजा के रूप में उनका अभिषेक किया गया था। जैन राजा: खारवेल के संबंध में प्राय: प्रश्न किये जाते हैं कि वे जैन धर्म के अनुयायी थे या अजैन ? यदि वे जैन धर्म के पुजारी थे तो क्या वे जन्म से जैन थे या सम्राट अशोक की तरह जैन धर्म उनका आयाचित धर्म था ? उक्त जिज्ञासित प्रश्नों का समाधान हाथी गम्फा शिलालेख में प्राप्त है। इसके आधार पर कहा जाता है कि वे जन्म और कर्म से जैन राजा थे। इसके निम्मांकित प्रमाण हैं। १. हाथीगुम्फा शिलालेख का प्रारम्भ जैन धर्म में मान्य पाँच परमेष्ठियों में से दो परमेष्ठियों, अहंत और समस्त सिद्धों को नमन पूर्वक किया गया है। यथा णमो अरहंतानं। णमो सवसिधान। इस से ज्ञात होता है कि जैन धर्म में प्रसिद्ध णमोकार मंत्र पर उनकी अटूट श्रद्धा थी और वे अहंत एवं सिद्धों की पूजा किया करते थे। ऐसी श्रद्धा उन्हें जन्म से जैन धर्मानुयायी होना सिद्ध करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003670
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherJoravarmal Sampatlal Bakliwal
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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