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________________ तीर्थंकरों को संचित किया गया है। यथा- कोसली, बादशाही, पुण्डल, कसब, आदिपुर वारिपदा शहर के जगन्नाथ मंदिर आदि स्थानों में जैन अवशेष अनुक्रम से सुरक्षित है। एसी परम्परा है कि भूतकाल में सम्पूर्ण म्यूरभंज में सराक अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए धीरे धीरे अस्पष्ट प्रभाव डालते रहे। जनरल ऑफ बिहार और उड़ीसा (भाग १२/३ पृ ४१) में एस.एन. राय ने म्युरभंज के सराकों के सम्बन्ध में बतलाया है कि उनकी संस्कृति और श्रेष्ठता प्रायः अर्ध देवों की तरह है। उनकी वस्तियों के स्थलों पर ध्वंस मंदिर उनके प्राचीन गौरव के साक्ष्य हैं। अपने भगवानों के लिए उन्होंने मन्दिरों का निर्माण पत्थरों से उत्कृषर्ता पूर्वक किया था, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने लिए पत्थरों के घर नहीं बनाये। यह उनके धार्मिक और आत्म संमय का प्रतीक है। उड़ीसा के गॉवों लोग आज भी अपने भगवान् ईश्वर के मंदिरों का निर्माण पत्थरों और ईंटो से करते हैं, लेकिन स्वयं पीढ़ी दर पीढ़ी खपरों के छाये मिट्टी की कुटिया में रहते हैं । यद्यपि सराकों की संस्कृति और सभ्यता का चित्रण करना बिल्कुल भी संभव नहीं है। उनकी परपंरानुसार प्रत्येक सराक परिवार का एक निजी स्वतंत्र तालाब होता था। ऐसी किवदन्ती है कि उनके समीपस्थ तालाबों को गिन कर संबंधित वस्ती में रहने वाले परिवारों की संख्या पता लगाया जा सकता था। आज कल जो तालाब उपलब्ध हैं वे सचमुच बड़े हैं। उन का उत्खनन करने से वे उच्चस्तरीय सभ्यता की ओर संकेत करते हैं। कृषि कर्म के लिए लोहेके औजार यंत्र, उपकरण और टूटी तलवारें बहुत बड़ी संख्या में टीले को खोदकर निकाली गई हैं। खोदकर निकाली गई जैन पन्थ की पत्थर की मूर्तियों में से कुछ मूर्तियाँ उत्कृष्टता पूर्वक उत्कीर्णित की गई हैं। पत्थरों से निर्मित मंदिर गुच्छों में खड़े हुए उच्च स्तरीय सभ्यता का संकेत कर रहे है या वे उच्च स्तरीय सभ्यता के प्रतीक हैं। परम्परा पूर्ण दावे के साथ कहती है कि जिस प्रकार प्रत्येक सराक परिवार का एक तालाब होता था उसी प्रकार उनके अपने- अपने मंदिर भी होते थे । वस्तियों के स्थानों के समीप में कोई समाधिस्थल या कब्रागाह नहीं होने से शंका होती है कि क्या सराक लोग मुर्दे को जलाते थे ? इसका निश्चित समाधान करना संभव नहीं है, कयों कि इस संबंध में परम्परा से कुछ भी Jain Education International ६० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003670
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherJoravarmal Sampatlal Bakliwal
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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