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OTHU
पार्श्वनाथ विद्यापीठ
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विद्यापति
हाराणसी
जनवरी-मार्च १६६६ वर्ष ४७] [अंक १.३ पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
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श्रमण
पार्श्वनाथ विद्यापीठ की त्रैमासिक शोध-पत्रिका अंक १-३]
[जनवरी-मार्च, १९९६
प्रधान सम्पादक प्रोफेसर सागरमल जैन
सम्पादक मण्डल डॉ० अशोक कुमार सिंह
डॉ० शिवप्रसाद डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय
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श्रमण पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई० टी० आई० मार्ग, करौंदी पो० ऑ० - बी० एच० यू० वाराणसी - २२१ ००५
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श्रमण हिन्दी खण्ड प्रस्तुत अङ्क में
पृष्ठ
३ - १०
११ - १९
२१ - ४६
१. जैन धर्म और हिन्दू धर्म (सनातन धर्म ) का पारस्परिक सम्बन्ध
प्रो० सागरमल जैन २. प्राचीन जैन आगमों में राजस्व व्यवस्था
डॉ. अनिल कुमार सिंह ३. शब्द साम्य : प्राकृत-अंग्रेजी
प्रो० सुरेन्द्र वर्मा ४. जैन-दर्शन में पुरुषार्थ-चतुष्टय ।
प्रो० सुरेन्द्र वर्मा ५. वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान
डॉ० रज्जन कुमार ६. धूमावली-प्रकरणम्
साध्वी अतुलप्रभा ७. पुस्तक समीक्षा ८. जैन जगत् 8. Vidyapeeth in the Eyes of Distinguished Visitors १०. श्रमण पाठकों की नज़र में
४७ - ५९
६० -६४
६५ - ७९
८० -८
० - ९३
९४ - ९६
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श्रमण
जैन धर्म और हिन्दू धर्म (सनातन धर्म ) का पारस्परिक सम्बन्ध
प्रो० सागरमल जैन
भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। उसे हम विभिन्न चहारदीवारियों में अवरुद्ध कर कभी भी सम्यक् प्रकार से नहीं समझ सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड में विभाजित करके देखने में उसकी आत्मा ही मर जाती है। जैसे शरीर को खण्डखण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया-शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को खण्ड-खण्ड करके उसकी मूल आत्मा को नहीं समझा जा सकता है। भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण रूप से समझ सकते हैं, जब उसके विभिन्न घटकों अर्थात जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म-दर्शन का समन्वित एवं सम्यक अध्ययन कर लिया जाय। बिना उसके संयोजित घटकों के ज्ञान के उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव ही नहीं है। एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक् प्रकार से समझने के लिए न केवल उसके विभिन्न घटकों अर्थात् कल-पुर्जी का ज्ञान आवश्यक होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित रूप को भी देखना होता है। अतः हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिए कि भारतीय संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवर्ती परम्पराओं और उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के बिना कोई भी शोध परिपूर्ण नहीं हो सकता है। धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होते, वे अपने देश, काल और सहवर्ती परम्पराओं से प्रभावित होकर ही अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं। यदि हमें जैन, हिन्दू या अन्य किसी भी भारतीय सांस्कृतिक धारा का अध्ययन करना है, उसे सम्यक् प्रकार से समझना है, तो उसके देश, काल एवं परिवेशगत पक्षों को भी प्रामाणिकतापूर्वक तटस्थ बुद्धि से समझना होगा। चाहे जैन धर्म के अध्ययन का प्रश्न हो या अन्य किसी भारतीय धर्म का, हमें उसकी दूसरी सहवर्ती परम्पराओं को अवश्य ही जानना होगा और यह देखना होगा कि वह उन दूसरी सहवर्ती परम्पराओं से किस प्रकार प्रभावित हुई है और उसने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया है। पारस्परिक .प्रभावकता के अध्ययन के बिना कोई भी अध्ययन पूर्ण नहीं होता है।
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४ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६
यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति के इतिहास के आदिकाल से ही हम उसमें श्रमण और वैदिक संस्कृति का अस्तित्व साथ-साथ पाते हैं, किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में इन दोनों स्वतन्त्र धाराओं का संगम हो गया है और अब इन्हें एक दूसरे से पूर्णतया अलग नहीं किया जा सकता। भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल से ही ये दोनों धारायें परस्पर एक दूसरे से प्रभावित होती रही हैं। अपनी-अपनी विशेषताओं के आधार पर विचार के क्षेत्र में हम चाहे उन्हें अलग-अलग देख लें, किन्तु व्यावहारिक स्तर पर उन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं कर सकेंगे। भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद प्राचीनतम माना जाता है। उसमें जहाँ एक ओर वैदिक समाज एवं वैदिक क्रिया-काण्डों का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर उसमें न केवल व्रात्यों, श्रमणों एवं अर्हतों की उपस्थिति के उल्लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि, जो जैन परम्परा में तीर्थङ्कर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर भाव भी व्यक्त किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ से ही भारत में ये दोनों संस्कृतियाँ साथ-साथ प्रवाहित होती रही हैं।
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से जिस प्राचीन भारतीय संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है, उससे सिद्ध होता है कि वैदिक संस्कृति के पूर्व भी भारत में एक उच्च संस्कृति अस्तित्व रखती थी। जिसमें ध्यान, साधना आदि पर बल दिया जाता था। उस उत्खनन में ध्यानस्थ योगियों की सीलें आदि मिलना तथा यज्ञशाला आदि का न मिलना यही सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं ध्यान प्रधान व्रात्य संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी। किन्तु इतना निश्चित है कि आर्यों के आगमन के साथ प्रारम्भ हुए वैदिक युग से दोनों ही धाराएँ साथ-साथ प्रवाहित हो रही हैं और उन्होंने एक दूसरे को पर्याप्त रूप से प्रभावित भी किया है। ऋग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद में समादर भाव में बदल जाता है, जो दोनों धाराओं के समन्वय का प्रतीक है। तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, समाधि, मुक्ति और अहिंसा की अवधारणायें, जो प्रारम्भिक वैदिक ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण ग्रन्थों में अनुपलब्ध थीं, वे आरण्यक आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में और विशेष रूप से उपनिषदों में अस्तित्व में आ गयी हैं। इससे लगता है कि ये अवधारणाएँ संन्यासमार्गीय श्रमणधारा के प्रभाव से ही वैदिक धारा में प्रविष्ट हुई हैं। उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक कर्मकाण्ड की समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नये रूप में परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी ओर तप, संन्यास, मुक्ति आदि की स्पष्ट रूप से स्वीकृति, यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ श्रमण और वैदिक धारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक हैं। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद्
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और महाभारत, जिसका एक अंग गीता है, शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डात्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं हैं। वे निवृत्तिप्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिक धारा के समन्वय का परिणाम हैं। उपनिषदों में और महाभारत, गीता आदि में जहाँ एक
ओर श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्तिप्रधान तत्त्वों को स्थान दिया गया, वहीं दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की, श्रमण परम्परा के समान, आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गईं। उनमें यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितों की बलि या समाजसेवा हो गया। हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा, हिन्दू धर्म वैदिक श्रमण धाराओं के समन्वय का परिणाम है। वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध में जो आवाज औपनिषदिक युग के ऋषि-मुनियों ने उठाई थी, जैन, बौद्ध
और अन्य श्रमण परम्पराओं ने मात्र उसे मुखर ही किया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली आवाज उठायी तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि ये यज्ञरूपी नौकाएँ अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम नहीं हैं। यज्ञ आदि कर्मकाण्डों की नयी आध्यात्मिक व्याख्यायें देने और उन्हें श्रमणधारा की आध्यात्मिक दृष्टि के अनुरूप बनाने का कार्य औपनिषदिक ऋषियों और गीता के प्रवक्ता का है। जैन और बौद्ध परम्परायें तो औपनिषदिक ऋषियों के द्वारा प्रशस्त किये गये पथ पर गतिशील हुई हैं। ये वैदिक कर्मकाण्ड,जन्मना जातिवाद और मिथ्या विश्वास के विरोध में उठे हुए औपनिषदिक ऋषियों के स्वर के ही मुखरित रूप हैं। जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषदिक ऋषियों की अर्हत् ऋषि के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है।
___ यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्णव्यस्था और वेदों की प्रामाण्यता से इन्कार किया और इस प्रकार से वे भारतीय संस्कृति के समुद्धारक के रूप में ही सामने आये; किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय संस्कृति की इस विकृति का परिमार्जन करने की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं न कहीं उन विकृतियों से प्रभावित हो गये। वैदिक कर्मकाण्ड अब तन्त्र-साधना के नये रूप में बौद्ध, जैन और अन्य श्रमण परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया और उनकी साधना पद्धति का एक अंग बन गया। आध्यात्मिक विशुद्धि के लिये किया जाने वाला ध्यान अब भौतिक सिद्धियों के निमित्त किया जाने लगा। जहाँ एक ओर भारतीय श्रमण परम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास, और मोक्ष की अवधारणायें प्रदान की, वहीं दूसरी ओर वैदिक परम्परा के प्रभाव से तान्त्रिक साधनायें जैन और बौद्ध परम्पराओं में भी प्रविष्ट हो गयीं। अनेक हिन्दू देवदेवियों प्रकारान्तर से जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर ली गईं। जैनधर्म में यक्षयक्षियों एवं शासनदेवता की अवधारणाएँ हिन्दू देवताओं का जैनीकरण मात्र हैं।
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अनेक हिन्दू देवियाँ जैसे - काली, महाकाली, ज्वालामालिनी, अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती, सिद्धायिका तीर्थङ्करों की शासनरक्षक देवियों के रूप में जैनधर्म में स्वीकार कर ली गयीं। श्रुतदेवता के रूप में सरस्वती और सम्पत्ति प्रदाता के रूप में लक्ष्मी की उपासना जैन जीवन पद्धति का अंग बन गई। हिन्दू परम्परा का गणेश पार्श्व-यक्ष के रूप में लोकमंगल का देवता बन गया। वैदिक परम्परा के प्रभाव से जैन मन्दिरों में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा में हिन्दू देवताओं की तरह तीर्थङ्करों का भी आवाहन एवं विसर्जन किया जाने लगा। हिन्दुओं की पूजाविधि को भी मन्त्रों में कुछ शाब्दिक परिवर्तनों के साथ जैनों ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्पराओं में तप, ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर कर्मकाण्ड प्रमुख हो गया। इस पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम यह भी हुआ कि जहाँ हिन्दू परम्परा में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में राम और कृष्ण को शलाका पुरुष के रूप में मान्यता मिली। इस प्रकार दोनों धारायें एक दूसरे से समन्वित हुईं।
___आज मैं कहना चाहूँगा कि हमें इस पारस्परिक प्रभावशीलता को तटस्थ दृष्टि से स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहिए, ताकि धर्मों के बीच जो दूरियाँ पैदा कर दी गयी हैं, उन्हें समाप्त किया जा सके और उनकी निकटता को सम्यक् रूप से समझा जा सके।
दुर्भाग्य से इस देश में विदेशी तत्त्वों के द्वारा न केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच अपितु जैन, बौद्ध और सिक्खों - जो कि बृहद् भारतीय परम्परा के ही अंग हैं, के बीच भी खाइयाँ खोदने का कार्य किया जाता रहा है और सामान्य रूप से यह प्रसारित किया जाता रहा है कि जैन और बौद्ध धर्म न केवल स्वतन्त्र धर्म हैं, अपितु वे वैदिक हिन्दू परम्परा के विरोधी भी हैं। सामान्यतया जैन और बौद्ध धर्म को वैदिक धर्म के प्रति एक विद्रोह ( Revolt ) के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। यह सत्य है कि वैदिक और श्रमण परम्पराओं में कुछ मूलभूत प्रश्नों को लेकर मतभेद है। यह भी सत्य है कि जैन और बौद्ध परम्परा ने वैदिक परम्परा की उन विकृतियों को जो कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, जातिवाद और ब्राह्मण वर्ग के द्वारा निम्न वर्णों के धार्मिक शोषण के रूप में उभर रही थीं, खुलकर विरोध किया था, किन्तु हमें उसे विद्रोह के रूप में नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति के परिष्कार के रूप में ही समझना होगा। जैन और बौद्ध धर्मों ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों का परिशोधन कर उसे स्वस्थ बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया और चिकित्सक कभी भी शत्रु नहीं, मित्र ही होता है। दुर्भाग्य से पाश्चात्य चिन्तकों के प्रभाव से भारतीय चिन्तक और किसी सीमा तक कुछ जैन चिन्तक भी यह मानने
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लगे हैं कि जैन धर्म और वैदिक ( हिन्दू ) धर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा है, चाहे अपने मूल रूप में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति प्रवर्तक
और निवर्तक धर्म परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हो, किन्तु आज न तो हिन्दू परम्परा ही उस अर्थ में पूर्णतः वैदिक है और न ही जैन एवं बौद्ध परम्परा पूर्णतः श्रमण। आज चाहे हिन्दू धर्म हो, अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, ये सभी अपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वित रूप हैं। यह बात अलग है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई भी एक पक्ष प्रमुख हो। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहाँ जैन धर्म आज भी निवृत्ति प्रधान है वहाँ हिन्दू धर्म प्रवृत्ति प्रधान। फिर भी यह मानना उचित नहीं है कि जैन धर्म में प्रवृत्ति के एवं हिन्दू धर्म में निवृत्ति के तत्त्व नहीं हैं। वस्तुतः सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय में ही निर्मित हुई है।
इस समन्वय का प्रथम प्रयत्न हमें ईशावास्योपनिषद् में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। आज जहाँ उपनिषदों को प्राचीन श्रमण परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है, वहीं जैन और बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक परम्परा में समझने की आवश्यकता है। जिस प्रकार वासना और विवेक, श्रेय और प्रेय, परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्तित्व के ही अंग हैं उसी प्रकार निवृत्ति प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिप्रधान वैदिकधारा दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं। वस्तुतः कोई भी संस्कृति एकान्त निवृत्ति या एकान्त प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। जैन और बौद्ध परम्परायें भारतीय संस्कृति की वैसे ही अभिन्न अंग हैं, जैसे हिन्दू परम्परा। यदि औपनिषदिक धारा को, वैदिक धारा से भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता है, तो फिर जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं माना जा सकता। यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी आस्तिक हिन्दू धर्म-दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध धर्म को अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है। हिन्दू धर्म और दर्शन एक व्यापक परम्परा है या कहें कि विभिन्न विचार परम्पराओं का समूह है। उसमें ईश्वरवाद-अनीश्वरवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, प्रवृत्तिनिवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति पूजा जैसे धर्म के प्रारम्भिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयों तक सभी कुछ सन्निविष्ट हैं। जो लोग उसे एक धर्म सम्प्रदाय में सीमित कर देते हैं, वे उसे संकीर्ण बना देते हैं।
अत: जैन और बौद्ध धर्म को हिन्दू परम्परा से भिन्न नहीं माना जा सकता। जैन व बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पथ के अनुयायी हैं जिसका प्रवर्तन औपनिषदिक ऋषियों ने किया था। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने भारतीय समाज के दलित
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वर्ग के उत्थान तथा जन्मना जातिवाद, कर्मकाण्ड व पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस धर्म का प्रतिपादन किया जो जनसामान्य का धर्म था और जिसे कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। चाहे उन्होंने भारतीय समाज को पुरोहित वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त किया हो, फिर भी वे विदेशी नहीं हैं, इसी माटी की सन्तान हैं, वे शत-प्रतिशत भारतीय हैं। उनकी भूमिका एक शल्य चिकित्सक की भूमिका है, जो मित्र की भूमिका है, शत्रु की नहीं। जैन और बौद्ध औपनिषदिक धारा का ही एक विकास है और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है।
भारतीय धर्मों, विशेष रूप से औपनिषदिक, बौद्ध और जैन धर्मों की जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष आवश्यकता है, उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा - आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि हमारे दिशा निर्देशक सिद्ध हो सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इन ग्रन्थों के अध्ययन से भारतीय विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या विश्वास दूर हो जायेगा कि जैन धर्म, बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं। आचाराङ्ग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं जो अपने भाव, शब्द-योजना और भाषा-शैली की दृष्टि से औपनिषदिक सूत्रों के निकट हैं। आचाराङ्ग में आत्मा के स्वरूप के सन्दर्भ में जो विवरण प्रस्तुत किया गया है वह माण्डूक्योपनिषद् से यथावत मिलता है। आचाराङ्ग में श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्धियों के रूप में नहीं अपितु सहगामियों के रूप में ही मिलता है। चाहे आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते हैं, किन्तु वे ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का अनुगामी मानते हैं जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण वह है जो सदाचार का जीवन्त प्रतीक है। उनमें अनेक स्थलों पर श्रमणों और ब्राह्मणों (समणा-माहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ है।
इसी प्रकार सूत्रकृताङ्ग में यद्यपि तत्कालीन दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा है किन्तु उसके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक ऋषियों यथा - विदेहनमि, बाहुक, असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि का समादरपूर्वक उल्लेख हुआ है। सूत्रकृताङ्ग स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करता है कि यद्यपि इन ऋषियों के आचार नियम उसकी आचार परम्परा से भिन्न थे, फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष मानता है। वह उन्हें महापुरुष और तपोधना के रूप में उल्लिखित करता है और यह मानता है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम
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साध्य मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। सूत्रकृताङ्गकार की दृष्टि में ये ऋषिगण भिन्न आचारमार्ग का पालन करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के मान्य ऋषि थे। सूत्रकृताङ्ग में इन ऋषियों को सिद्धि प्राप्त कहना तथा उत्तराध्ययन में अन्य लिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा अत्यन्त उदार थी और यह मानती थी कि मुक्ति का अधिकार केवल उसके आचार नियमों का पालन करने वाले को ही नहीं है, अपितु भित्र आचार मार्ग का पालन करने वाला भी मुक्ति का अधिकारी हो सकता है।
इसी सन्दर्भ में यहाँ ऋषिभाषित ( इसिभासियाई ) का उल्लेख करना भी आवश्यक है, जो जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ (ई० पू० चौथी शती) है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय हुआ होगा जब जैन धर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ था। इस ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, अंगिरस, पाराशर, अरुण, नारायण, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप, मंखलिगोसाल, संजय (वेलठ्ठिपुत्त) आदि पैंतालिस ऋषियों का उल्लेख है और इन सभी को आर्हतऋषि, बुद्धऋषि एवं ब्राह्मणऋषि कहा गया है। ऋषिभाषित में इनके आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों का संकलन है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि औपनिषदिक ऋषियों की परम्परा और जैन परम्परा का उद्गम स्रोत एक ही है। यह ग्रन्थ न केवल जैन धर्म की धार्मिक उदारता का सूचक है, अपितु यह भी बताता है कि सभी भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का मूल स्रोत एक ही है। औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल स्रोत से निकली हुई धाराएँ हैं। जिस प्रकार जैन धर्म में ऋषिभाषित में विभिन्न परम्पराओं के उपदेश संकलित हैं, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा की थेरगाथा में भी विभिन्न परम्पराओं के जिन स्थविरों के उपदेश संकलित हैं, उनमें भी उनके औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण परम्परा के आचार्यों के उल्लेख हैं, जिनमें एक वर्धमान (महावीर) भी हैं। यह सब इस तथ्य का सूचक है कि भारतीय परम्परा प्राचीन काल से ही उदार और सहिष्णु रही है और उसकी प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता प्रवाहित होती रही है। आज जब हम साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से जकड़ कर परस्पर संघर्षों में उलझ गये हैं, इन ग्रन्थों का अध्ययन हमें एक नयी दृष्टि प्रदान कर सकता है। यदि भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन की इन धाराओं को एक दूसरे से अलग कर देखने का प्रयत्न किया जायेगा, तो हम उन्हें सम्यक् रूप से समझने में सफल नहीं हो सकेंगे। उत्तराध्ययन, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित और आचाराङ्ग को समझने के लिए औपनिषदिक साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। इसी प्रकार उपनिषदों और बौद्ध साहित्य को भी
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जैन परम्परा के अध्ययन के अभाव में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता है। आज साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर उठकर तटस्थ एवं तुलनात्मक रूप से सत्य का अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त मानव को मुक्ति दिला सकता है।
राक्षस और देवता
मोतीलाल सुराना, इन्दौर सुबह के समय जो गुरुजी ने शिष्य को पढ़ाया था, उस बाबत दोपहर को बाहर बैठकर गुरुजी व शिष्य आपस में बातचीत कर रहे थे। तभी एक व्यक्ति जो शिष्य से दीक्षित होने से पहले ही परिचित था, आया तथा खड़ाखड़ा शिष्य को डाँटने-डपटने लगा। बोला - तुझे शर्म नहीं आती। गुरुजी के हाथ-पाँव दबाना तो दूर बैठा-बैठा गप्पें हाँक रहा है। शिष्य कुछ न बोला तो वह और अधिक तेज आवाज में बोला - मुफ्त का माल खाता है तथा माँगकर कपड़े पहनता है। तुझे किस बात की फिकर। मेहनत करके कमाकर खावे तो पता चले कि आटे-दाल का भाव क्या है ? इस पर शिष्य कुछ न बोला तो वह व्यक्ति छोटी-मोटी गालियों का उपयोग करते हुए नई-नई बातें सुनाने लगा। इस पर शिष्य को क्रोध आ गया तथा वह भी तेज आवाज में सफाई देते हुए गड़े मुर्दे उखाड़ने लगा। यह सब सुनकर गुरुजी कमरे में चले गये। दो-चार बातें क्रोध की हो जाने पर जब शिष्य ने देखा कि गुरुजी कमरे में चले गये हैं तो वह उठकर उनके पास आ गया तथा भीतर चले आने का कारण पूछा तो गुरुजी बोले - जब तक तू क्षमा धारण कर उसकी बात सुन रहा था तब तक तुझमें देवता विराजमान थे। पर जब तू क्रोधित होकर जवाब सवाल करने लगा तो देवता चला गया और राक्षस आकर तेरे भीतर बैठ गया। फिर मैं राक्षस के पास कैसे बैठता? यह सुनकर शिष्य पश्चात्ताप करते हुए बोला - भविष्य में मैं कभी भी क्रोध नहीं करूंगा।
क्रोध राक्षस के समान है।
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श्रमण
TRAOBA
प्राचीन जैन आगमों में राजस्व व्यवस्था
डॉ० अनिल कुमार सिंह* राजस्व की विचारधारा को लगभग उतना ही प्राचीन कहा जा सकता है जितना प्राचीन स्वयं राज्य' का अस्तित्व है। भारत, मिस्र, भूटान आदि प्राचीन देशों में राजस्व के नियमों व नीतियों का प्रादुर्भाव हो गया था। प्राचीन सभ्यताओं की राजस्व प्रणालियाँ प्रमुखतः पराजित देशों से वसूल किये गये करों पर निर्भर करती थीं। इसके अलावा, अप्रत्यक्ष कर जैसे भूमि हस्तान्तरणों तथा व्यापारिक सौदों पर कर भी लगाए जाते थे। रोम साम्राज्य में उत्तराधिकारी कर तथा सामान्य बिक्री कर भी लगाया जाता था।
भारत में 'मनुस्मृति' तथा कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में करारोपण तथा राजकीय व्यय की व्यवस्था के बारे में सिद्धान्तों का विवरण मिलता है। ग्रीक युग की छोटी पुस्तक 'Athenian Revenues' जिसके लेखक जेनोफे थे, उल्लेखनीय है। प्लेटो तथा अरस्तू के लेखों में भी राजकोषीय विषयों पर टिप्पणियाँ प्राप्त होती हैं। रोम के इतिहासकारों के लेखों में भी रोमन राजकोषीय प्रणालियों का विश्लेषण तथा उनकी समालोचना मिलती है।
डाल्टन' के अनुसार “राजस्व सार्वजनिक अधिकारियों के आय तथा व्यय एवं इनके पारस्परिक समन्वय का अध्ययन है।" सामान्य रूप से हम कह सकते हैं कि राजस्व विभिन्न सरकारों की मौद्रिक आय-व्यय से सम्बन्धित सिद्धान्तों व समस्याओं का अध्ययन है।
__ मूलत: जैसा कि डाल्टन ने बताया है राजस्व को दो भागों में बाँटा जा सकता है : सार्वजनिक आय तथा सार्वजनिक व्यय। परन्तु अध्ययन में स्पष्टता लाने के दृष्टिकोण से राजस्व को पाँच विभागों में बाँटना अधिक उपयुक्त समझा जाता है - १. सार्वजनिक व्यय, २. सार्वजनिक आय, ३. सार्वजनिक ऋण, ४. वित्तीय प्रशासन, ५. राजकोषीय नीति।
प्रारम्भ में राज्य एक पुलिस राज्य के ही रूप में हुआ करते थे, जिनका प्रमुख कार्य आन्तरिक कानून व्यवस्था को बनाए रखना तथा बाहरी आक्रमणों से देश की रक्षा करना था। राज्य का अस्तित्व केवल सुरक्षा बनाए रखने के लिए था।
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इस प्रकार राज्य के कार्य अत्यन्त ही सीमित थे। इसी कारण प्राचीन काल में सार्वजनिक ऋण, वित्तीय प्रशासन एवं राजकोषीय नीति जैसी अवधारणाओं का अस्तित्व लगभग नहीं था। अतः प्राचीन जैन साहित्य में इनका उल्लेख नहीं मिलता।
. प्राचीन जैन साहित्य प्रमुख रूप से श्वेताम्बर परम्परा से सम्बन्धित रहा है। यह प्राकृत भाषा में आगमों, नियुक्तियों, भाष्यों और चूर्णियों के रूप में निबद्ध है। यह मुख्यतः उत्तरी एवं उत्तर पश्चिमी भारत से ही सम्बन्धित है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा के कुछ पुराण-ग्रंथों का रचना-क्षेत्र दक्षिण भारत रहा, पर वे तत्कालीन आर्थिक जीवन पर कोई विशेष प्रकाश नहीं डालते। इसका उल्लेख डॉ० मोतीचन्द ने “सार्थवाह' में भी किया है। अतः इस लेख का सम्बन्ध उत्तर भारत से ही अधिक
है।
जहाँ तक काल-निर्धारण का प्रश्न है प्राचीन जैन आगम साहित्य एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में देश और काल का स्पष्ट और निश्चित संकेत न होने से तथा प्रायः अतिशयोक्तिपूर्ण और कहीं-कहीं दोषपूर्ण वर्णन होने के कारण उनकी विषयवस्तु को ऐतिहासिक धरातल पर खरा नहीं माना जा सकता। फिर भी हरमन जैकोबी के विचार में जैन आगमों का रचनाकाल जो भी हो पर उनमें जिन तथ्यों का संग्रह है, वे प्राचीन परम्परा के हैं और प्राचीन परम्परा का काल ईस्वी पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से लेकर ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी के मध्य-काल तक माना जाता है।
राजकीय आय जैन आगम-ग्रंथ मुख्यतः आध्यात्मिक ग्रंथ थे। अतः इनमें राज्य की आय-वृद्धि के लिए लगाए गए करों, उनके निर्धारण और उनकी दर के सम्बन्ध में विशेष उल्लेख नहीं मिलता । यत्र-तत्र आधे प्रसंगों से ही कर-व्यवस्था का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। कर लगाते समय कर देने वाले की आर्थिक क्षमता का ध्यान रखा जाता था। विपाकसूत्र में प्रजा को कष्ट देकर अत्यधिक धन-संग्रह करने वाले राजा को पापी कहा गया है। आदिपुराण में उल्लेख है कि राजा द्वारा प्रजा को बिना कष्ट दिये कर ग्रहण करना चाहिए। नीतिवाक्यामृतम् के अनुसार भी प्रजा को पीड़ित करने वाले राजा का कोष नष्ट हो जाता है और राज्य की महान क्षति होती है क्योंकि भय के कारण या तो लोग व्यापार ही बन्द कर देते हैं या फिर छल-कपट का आश्रय लेते हैं। आपत्तिकाल में रिक्त कोष की पूर्ति हेतु सोमदेव सूरि ने राजा को ब्राह्मणों और वणिकों का ऐसा धन अधिग्रहीत कर लेने का परामर्श दिया है जो कि धर्मानुष्ठान, यज्ञ और कुटुम्ब-संरक्षण में उपयोगी न हो। इसके अतिरिक्त उन्होंने धनिकों, धर्माधिकारियों, मंत्रियों, पुरोहितों और अधीनस्थ राजाओं
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से धन लेने की सलाह भी दी है। कर के रूप में राजा को प्रदान किये जाने वाले द्रव्य को निशीथचूर्णि' में 'खोड़' कहा गया है। कर नकद और वस्तु दोनों रूपों में कर-अधिकारियों द्वारा ग्रहण किया जाता था।
ग्राम कर : बृहत्कल्पभाष्य और चूर्णियों में १८ प्रकार के ग्राम करों का उल्लेख है, जिनका विवरण डॉ० जगदीशचन्द्र जैन ने दिया है। ये हैं - गोकर, महिषकर, उष्ट्रकर, पशुकर, अजकर, तृणकर, भुसकर, पलालकर, अङ्गारकर, काष्ठकर, लाङ्गलकर, देहलीकर, जंघाकर, बलिवर्दकर, घटकर, कर्मकर, बुल्लकर और औतितकर । ये सभी कर कृषि और पशु सम्बन्धी थे। आवश्यकचूर्णि१२ में भी क्षेत्रकर और पशुकर का उल्लेख हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि कृषि-आय का कोई भी स्रोत करमुक्त नहीं था।
ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि जहाँ पर कर नहीं लगते१३ वह नगर है। पर अन्य बहुत से सन्दर्भो में नगरों से वाणिज्य-व्यापार सम्बन्धी कर लिये जाने का उल्लेख है, जिससे नगरों के कर-मुक्त होने की पुष्टि नहीं होती।" जैन ग्रन्थों में राजकीय आय का विस्तृत उल्लेख तो नहीं मिलता है, पर बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि आदि ग्रंथों में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि भूमिकर, वाणिज्यशुल्क, वाणिज्यपथ, दण्ड, उपहार और विजित राजाओं से प्राप्त धन राजकीय आय के साधन थे।
भूमिकर : आय का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत भूमिकर था, जो भूमि की उर्वरता पर निर्भर करता था। बृहत्कल्पभाष्य५ में उल्लेख है कि इक्ष्वाकुवंश के राजा १/१० और वृष्णि वंश के राजा १/६ भाग कर ग्रहण करते थे। व्यवहारभाष्य में भी उपज का १/४, १/६, १/१० राज-अंश कहा गया है। गौतमधर्मसूत्र में कहा गया है कि कृषक को उपज के अनुसार १/६, १/४, १/१० कर के रूप में देना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि भूमिकर उपज का राज्यांश था, जिसे 'भाग' कहा जाता था और जो सामान्य उपज का १/६ होता था। भूमि के नीचे से प्राप्त गुप्तधन राजकीय सम्पत्ति समझा जाता था।८
वाणिज्य-कर : राज्य को व्यापारियों द्वारा प्राप्त कर 'शुल्क' कहलाता था। शुल्क ग्रहण करने वाले आधिकारी को 'सुकिया' और शुल्क ग्रहण किये जाने वाले स्थान को 'सुवंवद्धणे' कहा जाता था।९ बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार वाणिज्य-कर वस्तु के क्रय-विक्रय की लागत, मार्ग-व्यय, यातायात-व्यय और व्यापारी के भरण-पोषण हेतु पर्याप्त धन को छोड़कर लगाया जाता था। निशीथचूर्णि बताता है कि पण्य पर मूल्य का १/२० चुंगी के रूप में लिया जाता था। गौतमधर्मसूत्र में भी विक्रय की जाने वाली वस्तुओं पर १/२० राजकीय कर
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माना गया है। ज्ञाताधर्मकथा२३ से ज्ञात होता है कि कभी-कभी राजा प्रसन्न होकर व्यापारियों को वाणिज्यकरों से मुक्त भी कर देते थे।
वर्तनीकर : यातायात की सुविधा के लिए सड़कों, घाटों और नावों की व्यवस्था की जाती थी, जिसके लिये राज्य, व्यापारियों और यात्रियों से कर लेता था। बृहत्कल्पभाष्य से ज्ञात होता है कि मार्गों पर 'वर्तनीकर' लिया जाता था। ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि नदी आदि पार करने के लिए भी शुल्क देना पड़ता था जिसे 'तरदेय' या 'तरपण' कहा जाता था। निशीथचूर्णि२५ से ज्ञात होता है कि एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते हुए व्यापारियों और यात्रियों को निर्धारित कर देकर पार-पत्र लेना आवश्यक था।
निःस्वामिक धन : उत्तराधिकारीविहीन स्वामी की सम्पत्ति को राज्य अधिग्रहीत कर लेता था। उत्तराध्ययन२६ तथा जातक कथाओं२७ में एक पुरोहित का उल्लेख आता है जिसके पत्नी तथा पुत्रों के साथ दीक्षित हो जाने पर राज्य द्वारा उसकी सम्पत्ति का अधिग्रहण कर लिया गया।
गृहकर : प्रत्येक गृह से गृहकर लिया जाता था। पिंडनियुक्ति२८ से ज्ञात होता है कि प्रत्येक गृह से दो 'द्रम' गृहकर लिया जाता था। बृहत्कल्पभाष्य२९ के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बड़े भवनों पर अधिक कर तथा छोटे पर कम कर निर्धारित थे, जबकि बहुत छोटे घर करमुक्त थे।
उपहार : राजा के राज्याभिषेक, पुत्रोत्पत्ति तथा विशेष उत्सवों के अवसर पर प्रजा तथा अधीनस्थ सामन्त राजा को भेंट देते थे। दूसरे देशों के व्यापारी भी व्यापार आरम्भ करने के पूर्व राजा को भेंट आदि देकर प्रसन्न करते थे।
विजित राजाओं से प्राप्त धन : राजकोष में वृद्धि का एक प्रमुख साधन युद्ध में पराजित राजाओं से प्राप्त धन भी था। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति से ज्ञात होता है कि भरत चक्रवर्ती को यवन तथा अरब आदि पराजित विदेशी और देशी राजाओं ने आभूषण और रत्न भेंट किये थे। पउमचरियं३२ में उल्लेख है कि राजकुमारी कल्याणमालिनी अपने बंदी पिता के सिंहासन और राज्य की सुरक्षा के बदले म्लेच्छ शासक को निश्चित धन कर के रूप में भेजती थी। आवश्यकचूर्णि३३ के अनुसार निर्धारित धन न दे पाने कारण कुछ राजाओं ने अपने सामन्तों पर आक्रमण कर दिया था।
अर्थ-दण्ड : राज्य के नियमों का उल्लंघन करने पर अपराध की गम्भीरता के आधार पर अर्थ-दण्ड भी लगता था। व्यवहारभाष्य से ज्ञात होता है कि किसी व्यक्ति पर प्रहार करने या उसे गिराकर घायल करने वाले को साढ़े तेरह रुपक दण्ड स्वरूप देना पड़ता था। ज्ञाताधर्मकथा५ में उल्लेख है कि मेघकुमार के
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जन्म के अवसर पर दस दिनों के लिये 'दण्ड-कर' बन्द कर दिये गये थे। नीतिवाक्यामृतम् के अनुसार राजा का अपनी प्रजा से दण्ड स्वरूप धन प्राप्त करने का उद्देश्य मात्र धन-संग्रह नहीं, अपितु प्रजा की रक्षा होता है।
बेगार : कर देने में असमर्थ लोगों को राजा के लिये बेगार करनी पड़ती थी। उत्तराध्ययन में उल्लेख है कि श्रमिक राजाज्ञा से बेगार करते थे, अपनी इच्छा से नहीं। बेगार लेना राजा का अधिकार था।३८ गौतमधर्मसूत्र में भी शिल्पियों द्वारा महीने में एक दिन राजा के लिये बेगार करने और राजा द्वारा उस दिन उन्हें भोजन देने का उल्लेख है।
कर-संग्रह : कर-संग्रह कठोरता से किया जाता था। निशीथचूर्णि" के एक प्रसंग में सोपारक नगर के राजा द्वारा व्यापारियों पर लगाये गये कर को न देने से क्रुद्ध राजा ने उन्हें अग्नि-प्रवेश का दण्ड दिया था। विपाकसूत्र, बृहत्कल्पभाष्य और जातककथा में भी अत्यन्त कठोरता से कर-संग्रह का उल्लेख है। इस कठोरता के कारण कुछ कर-अधिकारी उत्कोच लेने का भी प्रयास करते थे। ये अधिकारी झूठे और लोभी भी होते थे।
निर्धारित तिथि तक कर जमा न कर पाने की स्थिति में कभी-कभी कुछ समय की छूट भी दी जाती थी, जिसके समाप्त हो जाने पर करदाता दण्डित किया जाता था।३
कर-मुक्ति : प्रजा को कभी-कभी कर से मुक्त भी कर दिया जाता था। राजा सिद्धार्थ ने महावीर के जन्मोत्सव पर कुण्डग्राम को दस दिनों के लिये करमुक्त कर दिया था। राजा श्रेणिक द्वारा भी मेघकुमार के जन्म पर राजगिरि को दस दिनों के लिये सभी करों से मुक्त कर देने का उल्लेख है।५
करापवंचन : कुछ लोग करों से बचने के लिये अपनी आय छुपाने का भी प्रयत्न करते थे। राजप्रश्नीय से ज्ञात होता है कि कुछ व्यापारी राजकीय शुल्क से बचने के लिये राजमार्गों से यात्रा नहीं करते थे। उत्तराध्ययनचूर्णि में ऐसा उल्लेख है कि विदेशों से व्यापार कर लौटे अचल नामक व्यापारी ने करापवंचन का प्रयास किया, जिसके परिणामस्वरूप राजा ने उसके द्वारा अर्जित सोना-चाँदी तथा बहुमूल्य मोतियों को छीन लिया।
राजकीय व्यय राज्य के कोष का बहुत बड़ा भाग जनहित के कार्यों पर व्यय किया जाता था। कर लेने के बाद भी यदि राजा प्रजा की देख-भाल नहीं करता, तो वह कुनृप माना जाता था। सूत्रकृताङ्ग. के अनुसार उत्तम राजा पीड़ित प्राणियों का रक्षक
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होता है, प्रजा के कल्याण के लिए नैतिकता और मर्यादा की स्थापना करता है। वह सेतु, नहर, पुल तथा सड़क का निर्माण करवाता है, भूमि तथा कृषि की उचित व्यवस्था करता है। राज्य को चोरों, लुटेरों तथा उपद्रवियों से रहित करके दुर्भिक्ष और महामारी से रक्षा करता है।
शासन-व्यवस्था : शासन व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिये पूरा राज्य अनेक विभागों में विभक्त था, जहाँ विभिन्न पदाधिकारी एवं राजकर्मचारी नियुक्त थे। जैन साहित्य में शासन-व्यवस्था के लिये मुख्य युवराज, श्रेष्ठि, अमात्य, पुरोहित आदि सहायक पुरोषों के अतिरिक्त अन्य बहुत से राज्याधिकारियों का उल्लेख मिलता है।४९ व्यवहारभाष्य से ज्ञात होता है कि राजकीय आय का बहुत बड़ा भाग इन राज्य कर्मचारियों के वेतन पर व्यय होता था।
सैन्य-व्यवस्था : बाह्य आक्रमण से सुरक्षा एवं आन्तरिक शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए राजा विशाल सेना रखते थे, जिसके रख-रखाव पर राज्य का बहुत सा धन व्यय होता था। राजप्रश्नीयर से पता चलता है कि कैकयार्ध का राजा राज्य की आय का १/४ भाग सेना पर व्यय करता था। आन्तरिक शान्तिव्यवस्था के लिए न्याय-व्यवस्था का भी सुदृढ़ होना आवश्यक था। अतः राज्य के न्यायालयों में न्यायिक प्रक्रिया, कारावासों की व्यवस्था तथा न्यायाधीशों एवं अन्य दण्डाधिकारियों के वेतन एवं रख-रखाव पर भी राज्य का बहुत सा धन व्यय होता था।
__ अन्तःपुर-व्यवस्था : प्राचीन काल में विशेषकर ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में उत्तर भारत में राजतन्त्र पूर्णतया स्थापित हो चुके थे। इन राजाओं का जीवन बड़ा ऐश्वर्यशाली एवं विलासितापूर्ण था। उनके विशाल अन्तःपुर पर राज्य का बहुत धन व्यय होता था। राजप्रश्नीय२ से ज्ञात होता है कि कैकयार्ध का राजा प्रवेशी राजकीय आय का १/४ भाग अन्तःपुर के रख-रखाव पर व्यय करता था। निशीथचूर्णि३ में उल्लेख है कि हेमपुर के राजकुमार के अन्तःपुर में ५०० स्त्रियाँ थीं जिन पर बहुत धन व्यय होता रहा होगा।
जन-कल्याण : प्रजाहित को सर्वोपरि मानकर शासन करने वाला राजा उत्तम माना जाता था। ओघनियुक्ति से ज्ञात होता है कि दैवीय विपदा जैसे दुर्भिक्ष, अनावृष्टि और महामारी के समय प्रजा की सहायता की जाती थी। ऐसे समय में राज्य की ओर से प्रजा को अन्न वितरित किया जाता था। निशीथचर्णि५ से ज्ञात होता है कि सम्राट अशोक के प्रपौत्र सम्प्रति ने नगर के चारों द्वारों पर दानशालाएँ खुलवाई थीं, जहाँ निःशुल्क भोजन उपलब्ध था। राजप्रश्नीय.६ से ज्ञात होता है कि
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केशीश्रमण का अनुयायी बन जाने के बाद राजा प्रदेशी अपने ७००० गाँवों की आय का चौथाई भाग ब्राह्मणों और भिक्षओं को दान देने में व्यय करने लगा। अन्तकद्दशाङ्ग से ज्ञात होता है कि कभी-कभी यदि परिवार का भरण-पोषण करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाती थी, तब राज्य उन परिवारों के निर्वाह का दायित्व ले लेता था। राजा, प्रजा के मनोरञ्जन के लिए संगीत आदि का आयोजन भी करवाता था।८ श्रेणिक ने पुत्र जन्मोत्सव पर नगर में गायन, वादन तथा नृत्य का दस दिन तक चलने वाला आयोजन करवाया था। इन उल्लेखों से यह पता चलता है कि राज्य की आय का एक बड़ा भाग जनकल्याण पर व्यय किया जाता था।
इस प्रकार राज्य की आय तथा व्यय के उपरोक्त विवेचन से जैन आगमों में भाष्यकाल तथा चूर्णिकाल में राजस्व की उत्तम व्यवस्था का चित्र प्रस्तुत होता
सन्दर्भ १. डाल्टन : पब्लिक फाइनेन्स, पृ० ९ २. हेराल्ड ग्रोब्स : फाइनेंसिंग गवर्नमेंट, ५वाँ संस्करण, पृ० १ ३. हरमन जैकोबी : सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट, खण्ड २२, पृ० ३४ ४. विपाकसूत्र, १/२८ ५. आदिपुराण, १६/२५४ . ६. सोमदेवसूरि : नीतिवाक्यामृतम्, ८/११ ७. वही, २१/१४ ८. निशीथचूर्णि, भाग ४, गाथा ६२९५ ९. वही, भाग ४, गाथा ६२९६, ६४०८ १०. बृहत्कल्पभाष्य, भाग २, गाथा १०८८
उत्तराध्ययनचूर्णि, २/९७; निशीथचूर्णि, भाग ३, गाथा ४१२८ ११. जगदीशचन्द्र जैन : जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० ११२ १२. आवश्यकचूर्णि, भाग २, पृ० ४ २. बृहत्कल्पभाष्य, भाग २, गाथा १०८९, उत्तराध्ययनचूर्णि, २/१०७, निशीथ
चूर्णि ३/४१२८ १४. उत्तराध्ययन, १४/३७; पिण्डनियुक्ति, गाथा८७; निशीथचूर्णि, भाग ४,
गाथा ६५२१
बृहत्कल्पभाष्य, ५/५२५७ १६. व्यवहारभाष्य, १/१४
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१७. गौतमधर्मसूत्र, २/१/२४ १८. निशीथचूर्णि, भाग ३, गाथा ४३१६; भाग ४, गाथा ६५२२ १९. वही, भाग ४, गाथा ६५१९ २०. बृहत्कल्पभाष्य, भाग २, गाथा ९५२ २१. निशीथचूर्णि, भाग ४, गाथा ६५१९ २२. गौतमधर्मसूत्र, २/१/२६ २३. ज्ञाताधर्मकथा, ४/१३ २४. बृहत्कल्पभाष्य, भाग १, गाथा ७८९ २५. निशीथचूर्णि, भाग ३, गाथा ३३८६ २६. उत्तराध्ययन, १४/३७ २७. हत्थिपाल जातक, आनन्द कौसल्यायन, जातक कथा, ५/७४ २८. पिण्डनियुक्ति, गाथा ४७ २९. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ४, गाथा ४७७० ३०. ज्ञाताधर्मकथा, १४८१ ३१. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २/१३, ३/१८ ३२. विमलसूरि : पउमचरियं, ३४/३५ ३३. आवश्यकचूर्णि, भाग २, पृ० १९० ३४. व्यवहारभाष्यपीठिका, १/६ ३५. ज्ञाताधर्मकथा, १/७८ ३६. सोमदेवसूरि : नीतिवाक्यामृतम्, ९/३ ३७. उत्तराध्ययन, २७/१३ ३८. जिनसेन : आदिपुराण, १६/१६८ ३९. गौतमधर्मसूत्र, २/१/३१, २/१/३४ ४९. निशीथचूर्णि, भाग ४, गाथा ५१५६ ४१. वही, गाथा ६४१३ ४२. प्रश्नव्याकरण, २/३ ४३. निशीथचूर्णि, भाग ४, गाथा ६२९६ ४४. कल्पसूत्र, ९९ ४५. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, १/८१ ४६. राजप्रश्नीयसूत्र, ४८
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४७. उत्तराध्ययनचूर्णि, ४/१२० ४८. सूत्रकृताङ्ग, २/१/६४३ ४९. प्रश्नव्याकरण, ४/८; निशीथचूर्णि, भाग २, गाथा २५०२ ५०. व्यवहारभाष्य, गाथा २९ ५१. राजप्रश्नीयसूत्र, ४३ ५२. वही, ८३ ५३. निशीथचूर्णि, भाग ३, गाथा ३५७५ ५४. ओघनियुक्ति, पृ० २८ ५५. निशीथचूर्णि, भाग ४, गाथा ५७४७, ५७५६ ५६. राजप्रश्नीयसूत्र, ८३ ५७. अन्तकृद्दशाङ्ग, ५/१/७ ५८. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, १/८१
* वरिष्ठ प्रवक्ता, गणेशराय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
डोभी, जौनपुर
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श्रमण
शब्द साम्य : प्राकृत-अंग्रेजी
डॉ० सुरेन्द्र वर्मा प्राकृत भाषा संस्कृत का देशज रूप है। भारतीय सभी भाषाएँ बाद में प्राकृत से ही निकली हैं। यह बड़ी दिलचस्प बात है कि प्राकृत, भाषा के कुछ शब्द अपने अर्थ में हू-ब-हू अंग्रेजी शब्द ही लगते हैं -
हम सब केवल सब्जी ही नहीं खाते, सब्जियों का रसा भी पीते हैं। इसे झोल भी कहा गया है। इसी झोल के लिए अंग्रेजी शब्द 'सूप' है।आजकल 'सूप' लेना भोजनशिष्टाचार में चलन में आ गया है लेकिन आपको ताज्जुब होगा, प्राकृत भाषा में इसी झोल/रसे के लिए सूप' शब्द ही प्रयोग में आता था।*
देह के लिए प्राकृत में शब्द, बोदि' है। अंग्रेजी में इसे 'बॉडी' (बी ओ डी वाई) कहते हैं। है न चमत्कृत करने वाली समानता।
'मईअ' प्राकृत में मेरा या अपने के लिये इस्तेमाल होता है। अंग्रेजी में मेरे या अपने के लिये 'माई' (एम वाई) है। बस 'मईअ' का अन्तिम 'अ' 'म' में जुड़ गया और माई हो गया।
प्राकृत में फेंकने के लिए छोह' शब्द है। अंग्रेजी में इसी को 'थ्रो' (टी एच आर ओ डब्ल्यू ) कहते हैं।
बन्दर को प्राकृत में मंकणा' कहा गया है और (बन्दर की तरह ) कूद कर जाना 'मंकिय' है। अंग्रेजी में 'मंकी' सीधा बन्दर को ही कह दिया गया है।
प्राकृत में 'अवे' का अर्थ दूर हटने से है। अंग्रेजी में अवे' (एडब्ल्यू ए वाई) भी यही मायने देता है।
इसी तरह प्राकृत में मिश्रण करने को 'मिस्स' कहा गया है। अंग्रेजी में 'मिक्स' (एम आइ एक्स) कहते हैं।
प्राकृत में जानना या देखना ‘लक्ख' है। अंग्रेजी में 'लुक' (एल ओ ओ के)
खिलाड़ी जब कोई गलती कर बैठता है तो उसे 'आउट' कर दिया जाता है। वह निवृत्त हो जाता है। निवृत्त होने के अर्थ में ही प्राकृत भाषा में भी 'आउट्ट' शब्द ही प्रयुक्त किया गया है।
सूप' और 'बॉडी' शब्दों की अंग्रेजी में साम्यता के विषय में मेरा ध्यान सर्वप्रथम डॉ० सागरमल जैन ने दिलाया था। उनका आभार ।
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श्रमण
जैन - दर्शन में पुरुषार्थ-चतुष्टय
प्रो० सुरेन्द्र वर्मा
'पुरुषार्थ चतुष्टय' की अवधारणा हिन्दू मूल्य-दर्शन की आधारशिला है। इस अवधारणा का उल्लेख हमें जैन-दर्शन में भी मिलता है। किन्तु जैन-दर्शन में इसकी विस्तृत व्याख्या नहीं की गयी है। मोक्ष- चर्चा के चलते, पुरुषार्थ-चतुष्टय का उल्लेख मात्र हुआ है। उदाहरणार्थ ज्ञानार्णव में कहा गया है कि प्राचीन काल से ही महर्षियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – पुरुषार्थ के चार भेद माने हैं।' किन्तु इस स्वीकृति के बावजूद पहले तीन पुरुषार्थ नाश सहित और संसार के रोगों से दूषित बताए गए हैं। अतः ज्ञानी पुरुषों को केवल मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करने को कहा गया है । इसी प्रकार परमात्मप्रकाश में भी धर्म, अर्थ और काम इन सभी पुरुषार्थों 'मैं मोक्ष को ही 'उत्तम' माना गया है, क्योंकि अन्य किसी में 'परम सुख' नहीं है। वस्तुतः जैनदर्शन इस प्रकार केवल मोक्ष को ही पुरुषार्थ रूप में स्वीकार करता प्रतीत होता है। धर्म पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में है तथा अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि "भारतीय चिन्तन में जहाँ पुरुषार्थ-चतुष्टय प्रतिबिम्बित होता है, वहाँ जैन दर्शनदर्पण में पुरुषार्थ-द्वय ही (धर्म और मोक्ष) अवलोकित होता है।""
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लेकिन, यह मानना कि जैन दर्शन में केवल मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है और धर्म, मोक्ष मार्ग है तथा शेष दो तथाकथित पुरुषार्थों का इस दर्शन में कोई स्थान नहीं है - एक एकांगी विचार है और कोई भी जिनवचन एकान्त या निरपेक्ष नहीं है। एक आधुनिक व्याख्याकार के अनुसार, 'यद्यपि यह सही है कि मोक्ष या निर्वाण की उपलब्धि में जो अर्थ और काम बाधक हैं, वे जैन दृष्टि के अनुसार अनाचरणीय एवं हेय हैं। लेकिन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त रूप से हेय हैं... न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक मर्यादानुकूल काम का जैन विचारणा में समुचित स्थान है। "५
यदि हम ध्यान से देखें तो लगभग यही स्थिति हमें हिन्दू दर्शन में भी मिलती है। हिन्दू - दर्शन में भी अर्थ और काम निरपेक्ष मूल्य न होकर धर्मानुसार मर्यादित होकर ही मूल्यगत श्रेणी में आते हैं। इतना ही नहीं, जैन धर्माचार्यों ने भी
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काम और अर्थ को न केवल धर्मोन्मुखी बनाने पर बल दिया, बल्कि ठीक हिन्दू 'त्रिवर्ग' की धारणा के अनुरूप ही 'धर्म', 'अर्थ' और 'काम' के कुछ इस प्रकार के सेवन की अनुशंसा की कि वे परस्पर अविरोध में रहें।
फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि जैन मूल्यों में अर्थ और काम को कुल मिलाकर हेय दृष्टि से देखा गया है, और इन दोनों की आवश्यकता पर बहुत ही कम बल दिया गया है। हिन्दू दर्शन इन्हें निन्दनीय नहीं ठहराता बल्कि इनके उदात्तीकरण पर बल देता है, ताकि ये भी मोक्ष-मार्ग को प्रशस्त कर सकें। जैन दर्शन में 'अर्थ' और 'काम' की यदि कोई स्वीकृति है तो वह केवल मनुष्य की अपनी दुर्बलता को देखते हुए मानो मजबूरी में है। यदि मनुष्य अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर मोक्ष के लिए उद्यत हो जाता है तो उसके लिए यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है कि वह काम और अर्थ को मूल्यों के रूप में ग्रहण करे। मोक्ष की अपेक्षा से तो अन्ततः काम और अर्थ जैनदर्शन के अनुसार 'विमूल्य' ही हैं। किन्तु हिन्दू दर्शन में ऐसा नहीं है। हिन्दू दर्शन काम और अर्थ को भी उनके उदात्त स्वरूप में मोक्ष के लिए सहायक मानता है। वे विमूल्य कभी नहीं होते। वे साधन मूल्य की अपनी श्रेणी से कभी च्युत नहीं किये गए हैं। इसका कारण मुख्यतः यही है कि जहाँ एक ओर जैनदर्शन मूलतः निवृत्तिपरक है, वहीं हिन्दू दर्शन के निवृत्तिमार्ग में भी 'प्रवृत्ति को अंशतः स्वीकृति मिली हुई है। किन्तु जैन दर्शन में 'प्रवृत्ति के लिये यदि कोई स्थान है तो केवल संयम और तप की ओर प्रवृत्ति के लिए ही कोई गुंजाइश सम्भव है। एक जैन गाथा में बड़े आकर्षक ढंग से कहा गया है कि एक ओर निवृत्ति तो दूसरी ओर प्रवृत्ति का पालन करना चाहिए - असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति। हिन्दू दर्शन भी बेशक संयम पर बल देता है किन्तु वह शरीर की ओर से पूरी तरह विमुख हो जाने के लिए कभी नहीं कहता क्योंकि जब तक मनुष्य शरीरधारी है उसे अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर उसे स्वस्थ रखना ही होगा और इसके लिए अर्थ और काम दोनों ही मूल्य बने रहेंगे। वे कभी विमूल्य नहीं हो सकते।
पूर्णतः निवृत्तिपरक होने के कारण, जैन दर्शन में इस प्रकार केवल दो ही पुरुषार्थों पर बल दिया गया है - मोक्ष और धर्म। मोक्ष परम पुरुषार्थ है और धर्म मोक्ष का राज-मार्ग है। पुरुषार्थ का अर्थ
पुरुषार्थ से सामान्यतः दो अर्थ लगाए गए हैं - १. पुरुष का प्रयोजन और २. पौरुष अथवा पुरुष द्वारा किया गया प्रयत्न। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दर्शन में पुरुषार्थ के दूसरे अर्थ पर अधिक बल दिया गया है। पुरुषार्थ को परिभाषित करते
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जैन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय : २३
समय जैन संस्कृति में कहा गया है - "पौरुषं पुनरिह चेष्टितम् ।" तात्पर्य यह है कि मनुष्य यदि अपना प्रयोजन (जो मोक्ष है) प्राप्त करना चाहता तो उसे इसके लिए स्वयं प्रयत्न करना होगा। इसके लिए किसी भी प्रकार की दैवी सहायता उसे उपलब्ध नहीं है। जैन दर्शन ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करता है।
ईश्वरवादी दार्शनिक पद्धतियाँ प्राय: मानवारोपण के दोष से ग्रसित होती हैं। वे ईश्वर को मनुष्य के स्तर पर देव या अवतार के रूप में नीचे खींच लाती हैं और इस प्रकार ईश्वर मनुष्य का सहायक बन जाता है। जैन दर्शन, ठीक इसके विरुद्ध मनुष्य को ही, जब उसकी शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं, ईश्वर के रूप में देखता है। ईश्वर यहाँ अधिक से अधिक 'आत्मा' के लिए एक दूसरा शब्द है। यह वह 'आदर्श पुरुष' है जो मनुष्य का आदर्श है। इस आदर्श की प्राप्ति का एक ही मार्ग है कि इसे ठीक उसी तरह प्राप्त किया जाय जैसे अर्हतों, ऋषियों-मुनियों ने, जिनके उदाहरण हमारे सामने हैं, इसे प्राप्त किया था। जैन दर्शन के इस आदर्श में मनुष्य को अपने प्रति पूर्ण आस्था है। उसे पूर्ण विश्वास है कि वह स्वतः प्रयत्न से ईश्वर की कोटि तक पहुँच सकता है। जैन दर्शन ने इस प्रकार मोक्ष-प्राप्ति का पूरा उत्तरदायित्व स्वयं मनुष्य पर डाल दिया है। उसकी सहायता के लिए किसी भी दैवी रोक्ति या ईश्वर का यहाँ प्रावधान नहीं है।
जे० जैनी का मत है कि किसी भी अन्य धर्म की बजाय जैन धर्म मनुष्य को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता या स्वाधीनता प्रदान करता है। मनुष्य जो भी करता है और जो भी उसके कर्मों के फल हैं, इन दोनों के बीच कोई हस्तक्षेप करने वाला नहीं है। एक बार कर्म सम्पन्न हो जाने के बाद उन पर मनुष्य का कोई वश नहीं रहता। उसके फल उसे भुगतने ही पड़ते हैं। इस प्रकार हमारी स्वतन्त्रता और हमारे दायित्व का एक सह-सम्बन्ध है। हम जैसा चाहें कर सकते हैं। लेकिन एक बार हमारी इच्छानुसार जो भी हमने चुना है उस कर्म से और उसके फल से बचा नहीं जा सकता।
जैन दर्शन में पुरुषार्थ से आशय, इस प्रकार मलतः मानव-चेष्टा से है - जिसमें व्यक्ति को स्वतन्त्रता भी मिली हुई है और जिसका उत्तरदायित्व भी उसे निभाना है। व्यक्ति कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है किंतु फल भोगने का उत्तरदायित्व भी उसी का है। इसमें किसी अन्य व्यक्ति/देवता/ईश्वर का हस्तक्षेप नहीं है। मनुष्य चाहे तो ईश्वर की कोटि भले प्राप्त कर सकता है, यह मनुष्य की क्षमता के बाहर की वस्तु नहीं है। लेकिन ईश्वर से तात्पर्य यहाँ व्यक्ति का स्वयं अपना ही निजरूप है जो सभी ऐश्वर्यों से परिपूर्ण है। अपने निजरूप को प्राप्त करना ही, मनुष्य का प्रयोजन/आदर्श है।
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इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए, जैन दर्शन के अनुसार धीर पुरुष को क्षण-भर का प्रमाद नहीं करना चाहिए - 'धीरे मुहुत्तमवि णो पमादए। कुशल व्यक्ति वही है जो बिना प्रमाद के पुरुषार्थ में विश्वास करता है। कुशल को प्रमाद से भला क्या प्रयोजन ?
जैन दर्शन में इस प्रकार हम मानव प्रयत्न के लिए एक विशेष आग्रह पाते हैं। इसी कारण जैन साहित्य में हमें स्थान-स्थान पर प्रमाद की निन्दा और पुरुषार्थ की प्रशंसा भरपूर मिलती है। धर्म का स्वरूप
पुरुषार्थ-चतुष्टय में प्रथम मूल्य 'धर्म' है। धर्म से आशय यहाँ मुख्यतः नैतिक मूल्यों से है। जैन दर्शन में धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने वाले अनेक सूत्र और गाथाएँ हैं। वे जहाँ एक ओर धर्म के आकारगत स्वरूप पर प्रकाश डालती हैं वहीं वे दूसरी ओर धर्म की अन्तर्वस्तु को भी स्पष्ट करती हैं।
_नैतिक मूल्यों के एक वर्ग के रूप में धर्म को पुरुषार्थ पद्धति में प्रथम स्थान प्राप्त है। जिस प्रकार सभी मूल्यों का स्वरूप आदेशात्मक होता है, धर्म का आकारगत स्वरूप भी आदेशात्मक ही माना गया है। नैतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति सदैव ही आदेश के रूप में होती है। हम क्या करें या क्या न करें, नैतिक मूल्य इस सम्बन्ध में ऋणात्मक अथवा धनात्मक उपदेश देते हैं। हम सत्य बोलें, हिंसा न करें, ब्रह्मचर्य का पालन करें और चोरी न करें इत्यादि ऐसे ही उपदेशात्मक मूल्य हैं जो आज्ञाओं के रूप में प्रस्तुत किये गए हैं। ये सभी हमें एक विशेष प्रकार के आचरण के लिए प्रेरित करते हैं। अतः धर्म को 'प्रेरणास्वरूप' कहा गया है। धर्म नियोजक है, विहित है। वेद वाक्य अन्य लक्षणों के अतिरिक्त विहित होने के नाते ही धर्म हैं।
जैन दर्शन में भी धर्म के आदेशात्मक स्वरूप पर स्पष्ट आग्रह है। आचार्य महाप्रज्ञ, 'आज्ञायां मामको धर्मः' सूत्र द्वारा, अपने महाकाव्य सम्बोधि में, धर्म को पारिभाषित करते हैं। इस सूत्र का आगमिक स्रोत आयारो में देखा जा सकता है। आचाराङ्ग में स्पष्ट कहा गया है - 'आणाए मामगं धम्म १२, अर्थात् आज्ञा में ही धर्म का गूढ़ तत्त्व छिपा हुआ है। इसके रहस्य को जानने वाला ही उसको प्राप्त कर सकता है।१३
स्पष्ट ही धर्मादेशों में आदेश के बल के अनुसार भिन्नताएँ हो सकती हैं किन्त किसी भी नैतिक वाक्य की यह विशेषता है कि वह नियोजक (प्रेस्क्रिप्टिव) हो। उसका यह नियोजकत्व, स्पष्ट ही, उसे स्वयं नैतिक मूल्यों से ही प्राप्त होता है, किसी बाह्य कारक से नहीं। धर्म को इसीलिए 'आणाए मामगं धम्म', सूत्र द्वारा
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परिभाषित किया गया है।
__ धर्म की एक अन्य परिभाषा जो उसके स्वरूप को सुस्पष्ट करती है, हमें निम्नलिखित सूत्र में मिलती है -
“धम्मो वत्थुसहावो।।१४ अर्थात, धर्म वस्तु का स्वभाव है। सामान्यतः जब हम कहते हैं कि अग्नि का धर्म जलाना है, जल का धर्म शीतल करना है या वायु का धर्म बहना है तो यहाँ धर्म से हमारा तात्पर्य कथित वस्तुओं के स्वभाव से ही है। अत: मानव परिप्रेक्ष्य में पूछा जा सकता है कि मनुष्य का स्वभाव क्या है कि जिसे धर्म कहा जाए ? स्पष्ट ही मनुष्य का सार उसकी चेतना में है। जो मनुष्य जीवित नहीं है, वह जड़ है। शरीर निश्चित ही मनुष्य का एक पक्ष है किन्तु शरीर गौण है। जीवन/चेतना के अभाव में शरीर का कोई महत्त्व नहीं है। चेतन शरीर स्वतः मूल्यवान है और शरीर परतः मूल्यवान है। अतः कहा जा सकता है कि जो चेतना का स्वलक्षण होगा वही मनुष्य का वास्तविक धर्म होगा। हमें अपने धर्म को समझने के लिए 'चेतना' के स्वलक्षण-स्वभाव को जानना होगा।
चेतना क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान महावीर और गौतम के बीच हुए एक संवाद में मिलता है। गौतम पूछते हैं --- 'भगवन् ! आत्मा क्या है और आत्मा का अर्थ या साध्य क्या है ? महावीर उत्तर देते हैं - 'गौतम! आत्मा का स्वरूप 'समत्व' है और समत्व को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है। १५ ।
दूसरे शब्दों में समता या समभाव स्वभाव है और विषमता विभाव है। जो विभाव से स्वभाव की दिशा में हमें ले जाता है, वही धर्म है। धर्म विषमता से समता की ओर अधिगमन है। समता धर्म है, विषमता अधर्म है। समता का अर्थ है अपने मूल स्वभाव में विकृति न आने देना। सदैव स्व-भाव में स्थित रहना। आचार्य हेमचंद्र सूरि ने कहा है - आदीप आस्यौअ समत्व भावं।
आयारो में तो स्पष्ट ही कहा गया है - 'समियाए धम्मे'१६ अर्थात् धर्म समता में या समता है। समता और धर्म में कोई अन्तर नहीं है। जो समता है वह धर्म है और जो धर्म है, वही समता है। जिस प्रकार आत्मा ज्ञान है और ज्ञान आत्मा है (अप्पा णाणं, णाणं अप्पा), उसी तह समता और धर्म एकरूप हैं।"
प्रवचनसार में समता को धर्म के रूप में और अधिक मूर्तमान लिया गया है। यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि चारित्र्य ही धर्म है और धर्म निश्चित ही समता है।८ मोह-क्षोभ से रहित आत्मा की जो परिणति है, वही साम्य है। जो लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान से विचलित नहीं होता और
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इस द्वैत के प्रति समभाव रखता है, वही सम्यक् जीवन जीता है।
__इतना ही नहीं, समभाव की आवश्यकता व्यक्ति की द्विविध प्रकृति के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं है। सभी प्राणियों के प्रति भी समभाव आवश्यक है। कहा है, जो सभी त्रस और स्थावर प्राणियों पर समभाव रखता है वह समदृष्ट है और यह बात केवली भाषित है।२०
प्रश्न उठता है कि जब आत्मा का स्वभाव ही समत्व है तो मनुष्य को इसे प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर है कि मनुष्य केवल आत्मा ही नहीं है, वह शरीर भी है। वह जीव और अजीव दोनों का सम्मिश्रण है। वह स्वयं ही द्वैत है। इसलिए यह आवश्यक है कि वह अपने इस द्वैत से विरत होकर अपने स्व-भाव में स्थित हो। राग, आसक्ति, तृष्णा आदि भाव आत्म-भाव नहीं हो सकते। इनका सम्बन्ध अन्ततः शरीर से है। जहाँ राग है, आसक्ति है और तृष्णा है, वहाँ सुख-दुःख, जय-पराजय, मान-अपमान भी है। मनुष्य को इन्हीं कषायों से ऊपर उठना है तभी वह 'सम' पर आ सकता है। आत्मा की समस्थिति प्राप्त करना ही मनुष्य का उद्देश्य है, उसका परम प्रयोजन है। यह स्थिति कहीं बाहर नहीं है, आत्मा के ऊपर प्रक्षेपित नहीं है, किसी और ने उस पर लादी नहीं है। यह उसी की अपनी सत्यनिष्ठ स्थिति है। इस स्थिति में ही आत्मा शान्त रह सकती है। वे सारी बातें जो आत्मा को, मनुष्य को अशान्त करती हैं, उसे द्वन्द्व में अवस्थित करती हैं, उसे तनावग्रस्त करती हैं - आत्मा के अपने भाव नहीं हैं, वे विभाव हैं। आत्मा का क्या स्वभाव है और क्या विभाव है, इसे निर्धारित करने का एक ही मापदण्ड है। जिससे हम तनावग्रस्त होते हैं, विक्षोभित होते हैं, विचलित होते हैं, वही विभाव है। जो शान्ति प्रदान करता है वह स्वभाव है। समभाव स्पष्ट ही शान्तिदायक है क्योंकि इसमें रहते आत्मा अपने स्वरूप को प्राप्त करती है। वह जो वीतराग है, अनासक्त है, तृष्णारहित है, वह अपना निजी स्वरूप प्राप्त करता है, सम-भाव अर्जित करता है। धर्म का यही आदेश है। यही उसकी आज्ञा है कि व्यक्ति अपनी आत्मा में अवस्थित हो और सभी द्वन्द्वों से सुख-दुःख, काम-क्रोध, मानापमान, निन्दा-प्रशंसा से वीतराग हो। यही धर्म है और यही धर्मादेश है। जिसने धर्म के इस गूढ़ रहस्य को जान लिया है, वही उसे प्राप्त भी कर सकता है।
धर्म जहाँ एक ओर वस्तु के स्व-भाव की ओर संकेत करता है, वहीं वह दूसरी ओर मनुष्य के कर्तव्य की ओर भी स्वतः इंगित करता है। यदि मनुष्य का स्वरूप आत्मा है और आत्मा का स्वभाव समभाव है तो स्पष्ट ही उस समभाव को प्राप्त कर लेना ही मनुष्य का कर्तव्य भी हो जाता है। इस कर्तव्य को कैसे निभाया
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जाए ? जैनधर्म में अपने कर्तव्य का भली-भाँति निर्वाह करने के लिए कि जिससे सम-आचरण सुनिश्चित हो सके दस निष्ठाओं का निर्धारण किया गया है। स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की ४७८वीं गाथा में से एक सूत्र, 'धम्मो वत्थुसहावो' का सन्दर्भ हम पहले ही दे आये हैं। गाथा की पूरी प्रथम पंक्ति इस प्रकार है -
धम्मो वत्थुसहावो, खमादि भावो य दस विहो धम्मो।
अर्थात् धर्म से आशय जहाँ वस्तु के स्वभाव से है, वहीं क्षमा आदि दस भाव भी धर्म हैं। क्षमा आदि ये दस भाव क्या हैं ? उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिञ्चन्य तथा उत्तम ब्रह्मचर्य -- ये दस धर्म गिनाए गये हैं। ये सभी दस धर्म वस्तुतः वे कर्तव्य हैं जिनके निर्वाह से मनुष्य अपने स्व-भाव में स्थित हो सकता
क्षमा मूलतः अक्रोध है। क्रोध भावनात्मक रूप से मनुष्य की एक विचलित अवस्था है। इस विचलन से स्वयं को बचाकर ही व्यक्ति शान्ति प्राप्त कर सकता है। जो क्रोध से तप्त नहीं होता, वही निर्मल क्षमा भाव रखता है।२२ क्षमा में मैत्री भाव भी निहित है। जो सभी प्राणियों से मैत्री रखता है और किसी से वैर नहीं करता, वही क्षमा भी कर सकता है।२३ ।।
चित्त में मृदुता और व्यवहार में नम्र वृत्ति का होना मार्दव धर्म है। वस्तुओं की नश्वरता का विचार करके ही व्यक्ति अपने अभिमान और गर्व को समाप्त कर सकता है। कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रुत और शील का तनिक भी गौरव न करना ही मार्दव धर्म है।
__ कुटिलता का परित्याग और सहज आचरण ही आर्जव है। अपने दोषों को छिपाए बिना कुटिल विचारों, कुटिल कार्यों और कुटिल वचनों से बचना आर्जव धर्म है।२५
शौच से तात्पर्य वस्तुत: अलोभ से है। जिसमें किसी वस्तु के लिए लिप्सा नहीं है, वही सच्चा शौच कर्म का पालन करता है। कहा गया है कि जो समसन्तोष रूपी जल से लोभ-रूपी मल को धो देता है और भोजन तक की लिप्सा जिसमें नहीं रहती, वह विमल शौच का पालन कर पाता है।६
दूसरों को सन्ताप पहुँचाने वाले वचनों का त्याग करके जो स्व पर हितकारी वचन बोलता है, वह सत्य धर्म का पालन करता है। निःसन्देह यथार्थ वचन बोलना ही सत्य है किन्तु साथ ही सत्य वचन हितकारी भी होना ही चाहिए।
मन, वचन और काय का नियमन करना, अर्थात् विचार, वाणी, गति और
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स्थिति में सावधानी बरतना संयम है।
इंद्रिय-विषयों तथा कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्मा को संस्कारित कर अपने अंतःकरण को विकसित करता है वह तप करता
है।२८
इसी प्रकार त्याग है। त्यागी वह कहलाता है जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक (स्वेच्छा से) भोगों का त्याग करता है।२९
किसी भी वस्तु में ममत्व भाव न रखना ही आकिञ्चन्य है। जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार काम-भोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उसमें लिप्त नहीं होता वही अकिंचन ब्राह्मण (सत्-पुरुष) कहलाता है।"
__इसी प्रकार देहासक्ति से जो युक्त हैं, अर्थात् जो दूसरे के शरीर से तृप्ति करने से पूर्णतः विमुख हैं (विमुक्त परदेहतृप्ते) और स्त्रियों के सभी अंगों को देखते हुए भी जो अपने मन में दुर्भाव नहीं लाते और विकार पैदा नहीं होने देते, वे वस्तुतः ब्रह्मचर्य-भाव को ही धारण करते हैं।३१ ।
उपरोक्त सभी दस धर्म मनुष्य के कर्तव्यों की ओर संकेत करते हैं कि उसे क्या करना चाहिए। उसे अपने स्वभाव में स्थित होने के लिए दूसरों को क्षमा कर देना चाहिए, विनम्र होना चाहिए, कुटिलता से बचना चाहिए, किसी के प्रति भी ममत्व नहीं रखना चाहिए इत्यादि। मनुष्य के ये सभी साधारण कर्तव्य हैं। इन कर्तव्यों में, यदि हम ध्यान से देखें, तो कुछ कर्तव्य स्वयं से सम्बन्धित हैं, तथा कुछ अन्य समाज से। मार्दव, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, और ब्रह्मचर्य मूलत: वैयक्तिक गुण हैं। इसी प्रकार क्षमा, आर्जव, सत्य आदि सामाजिक हैं। क्योंकि व्यक्ति से समाज के बीच में कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं हो सकती इसलिए इन सद्गुणों को भी वैयक्तिक और सामाजिक की स्पष्ट कोटियों में नहीं रखा जा सकता। वैयक्तिक गुणों में भी समाज को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता और जो सामाजिक सद्गुण हैं, उन्हें बरतने वाला तो आखिर व्यक्ति है ही।
जैन दर्शन में दस सामान्य धर्मों के अतिरिक्त कुछ विशेष-धर्म भी हैं जो मुनियों और सामान्य जन के लिए अलग-अलग निर्धारित किये गए हैं। जैन-साधना में धर्म के दो रूप माने गये हैं - एक, श्रुत धर्म (तत्त्वज्ञान) और दो, चारित्र धर्म (नैतिक सद्गुण)।३२ श्रुत धर्म का अर्थ है - जीवादि तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान और श्रद्धा। चारित्र धर्म का अर्थ है - संयम और तप। गृहस्थ और श्रमण दोनों ही
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साधकों के लिए श्रुत धर्म तो समान है, यदि कोई अन्तर है तो वह चारित्र-धर्म में ही है, जिसके परिपालन में भिन्नता देखी जा सकती है।
चारित्र धर्म दो प्रकार का बताया गया है।३३ एक अनगार और दूसरा आगार धर्म। अनगार-धर्म श्रमण-धर्म या मुनिधर्म है जबकि आगार-धर्म गृहस्थ या उपासक धर्म है। 'आगार' शब्द 'गुरु' या 'आवास' के अर्थ में प्रयुक्त होता है जिसका लाक्षणिक अर्थ है - पारिवारिक जीवन। अत: जिस धर्म का परिपालन पारिवारिक जीवन में रहकर किया जाय उसे आगार-धर्म कहा जाता है। पुनः 'आगार' शब्द का अर्थ जैन परम्परा में छूट, सुविधा या अपवाद के लिए भी लगाया गया है। इस आधार पर आगार धर्म का अर्थ होगा - साधना का वह विशिष्ट स्वरूप जिसमें साधक को साधना की दृष्टि से विशेष सुविधा उपलब्ध हो। जैन विचारणा में गृहस्थ-धर्म को देशविरति चारित्र और श्रमण धर्म को सर्वविरति चारित्र, अथवा क्रमश: विकल चारित्र और सकल चारित्र भी कहा गया है। जिस साधना में अहिंसादि व्रतों की साधना पूर्णरूपेण हो वह सर्व-विरति चारित्र कहलाता है। गृहस्थ अपने पारिवारिक जीवन के कारण अहिंसा, सत्यादि व्रतों की पूर्ण साधना नहीं कर पाता है, अत: उसकी साधना को देश चारित्र, अंश चारित्र या विकल-चारित्र भी कहते हैं।
इस सम्बन्ध में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। एक तो यह कि यद्यपि जैन धर्म में मुनि-धर्म और गृहस्थ-धर्म में भेद अवश्य किया गया है किन्तु यह भेद गुणात्मक न होकर केवल मात्रिक है। एक गृहस्थ अपने परिवार में रहता है और पारिवारिक दायित्वों से मुक्त नहीं होता, इसलिए उसे केवल धर्माचरण में कुछ छूट मात्र मिली हुई है। अहिंसा, सत्य-व्रत आदि का पालन तो वस्तुतः उसे भी करना ही है तभी वह साधना पथ पर आगे बढ़ सकता है। उसके लिए सद्गुणों की कोई अलग से गणना नहीं हुई है। जब यह कहा जाता है कि अणुव्रतों और महाव्रतों में अन्तर है तो यह अन्तर केवल उनके पालन करने की मात्रा में है न कि व्रतों में अन्तर्वस्तु का अन्तर है।
दूसरी बात यह है कि मुनि-धर्म और गृहस्थ-धर्म यद्यपि दो विशेष प्रकार के लोगों के लिए निर्धारित धर्म हैं किन्तु इन्हें इस अर्थ में विशेष-धर्म नहीं मानना चाहिए कि जिस अर्थ में हिन्दू दर्शन में वर्णाश्रम विशेष-धर्म माने गये हैं। जैन दर्शन गृहस्थों की किसी वर्ण-व्यवस्था में विश्वास नहीं करता और इसलिए प्रत्येक वर्ण के व्यक्तियों के लिए उसमें कर्तव्यों का अलग-अलग प्रावधान भी नहीं है। सभी गृहस्थों को अणुव्रतों का पालन करना है, वह फिर हिन्दुओं के हिसाब से किसी भी वर्ण का क्यों न हो। इसी प्रकार जैन धर्म में आश्रम-व्यवस्था का भी कड़ाई से
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पालन आवश्यक नहीं माना गया है। यहाँ किसी भी व्यक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के बिना वानप्रस्थ या संन्यास धारण नहीं कर सकता। वस्तुतः यहाँ जितनी ही शीघ्रता से व्यक्ति मोक्ष के लिए अपने को तैयार कर लेता है, उतनी ही जल्दी वह श्रमण-धर्म धारण कर सकता है।
धर्म का निरुक्त अर्थ धारण करवाने से है। धरतीति धर्मः, जो धारण करावे, पहुँचावे उसे धर्म कहते हैं। धर्म, पूछा जा सकता है -- कहाँ पहुँचाता है, क्या धारण कराता है ? धर्म जीवों को संसार के दुःखों से निकाल कर उन्हें उत्तमसुख धारण कराता है। संसार दुःखतः सत्त्वान यो धरत्युत्तमे सुखे।४ यहाँ उत्तम सुख से तात्पर्य मोक्ष-सुख से है क्योंकि मोक्ष प्राप्त होने पर ही जीव जन्म-मरण के दुःखों से बच सकता है। मोक्ष-प्राप्ति के अभाव में स्वर्गादिक सुखों को भी आपेक्षिक सुख कहा जाता है, परन्तु मुमुक्ष का लक्ष्य उस ओर नहीं होता। उसका लक्ष्य तो मोक्ष-सुख की ओर ही रहता है।३५
धर्म इस प्रकार अन्ततः मोक्ष-प्राप्ति का साधन है। यही उसकी अर्थ-क्रिया है। किन्तु वे गृहस्थ जिनका तात्कालिक लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति नहीं है वे भी यदि धर्म का सेवन करते हैं और उन्हें ऐसा करना ही चाहिए तो उनका गार्हस्थ कम नहीं होगा अपितु बढ़ेगा ही। दुःख में निश्चित ही कमी आएगी।२६ गृहस्थों हेतु इसीलिए अणुव्रत रूप में धर्म-पालन व्यवस्था जैन दर्शन में की गई है। धर्म की तो किसी न किसी रूप में इस प्रकार सदा ही आवश्यकता है।
वस्तुतः धर्म की तो इन्द्रिय-सुख के लिए भी आवश्यकता है। सम्पूर्ण इन्द्रियों के इष्ट विषय सम्बन्धी जो सुख हैं, उन सबको धर्म वृक्षों के ही फल समझना चाहिए। अतः धर्म की रक्षा करते हुए, विषय फल भोगों को भोगना ही उचित है।३७ धर्म की अर्थ क्रिया - उसका अपना कार्य - कभी घातक नहीं हो सकता। कहीं प्रयत्क्ष तो कहीं परोक्ष रूप से धर्म तो साधक ही होता है। अतः ऐसा सोचना कि विषय-सुखों में धर्म-धारण से बाधा आ पड़ेगी और इसलिए धर्म से विमुख हो जाना चाहिए, गलत होगा। धर्म से तो सदैव ही सुख की उत्पत्ति होती है।३८ सुख-सम्पत्ति आदि विभव की प्राप्ति धर्म द्वारा ही हुई है। इसलिए धर्मरूप प्रधान कारण की रक्षा करते हुए ही भोग भोगने चाहिए, न कि धर्म का ध्वंस करके। किसान को जो धान्य मिलता है वह बीज बोने से ही मिलता है। इसीलिए वह बीज को आगे के लिए भी संभालकर रखता है जिससे कि एक बार उत्पन्न हुआ धान्य भोग लेने पर भविष्य में भी उसकी उपज होती रहे। इसी प्रकार धर्म है। धर्म से ही हम भविष्य में भी सुख के लिए आश्वस्त हो सकते हैं अन्यथा स्वच्छन्द विषय-भोग तो आत्मघाती ही होते हैं।
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धर्म सेवन इस प्रकार सदैव ही सभी लोगों के लिए उपकारार्थ है, 'जीवलोकोपकार्थं धर्मः'। वस्तुतः धर्म के समान अन्य कोई पुरुषार्थ (अर्थ या काम) समस्त प्रकार से अभ्युदय का साधक नहीं है। यदि परम पुरुषार्थ, मोक्ष, प्रार्थनीय है तो भी धर्म का ही सेवन करना होगा।
संक्षेप में, धर्म जैसा कि हिन्दू-दर्शन में कहा गया है, अभ्युदय और निःश्रेयस, दोनों की ही सिद्धि कराता है। उसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है और यदि हम उसकी रक्षा करते हैं तो वह भी हमारी रक्षा करता है – धर्मो रक्षति रक्षितः। ठीक वैसे ही कि जैसे यदि किसान अपने बीजों की रक्षा करता है तो वे ही बीज उसे भविष्य में भरपूर फसल देते हैं। धर्म न केवल विषय-भोगों में निहित दुःख को कम करता है, वरन् निःश्रेयस, परम पुरुषार्थ - मोक्ष - को भी प्राप्त कराने का राजमार्ग है।
जैन आचार्यों ने धर्म की व्याख्या अनेक प्रकार से की है। जैसा कि हम उल्लेख कर ही आए हैं कि कभी इसे "वत्थुसहावो धम्मो" कहा गया है तो कभी इसे “खमादिभावो य दसविहो धम्मो" कहा गया है। कभी “चारित्रं खलु धम्मो" कह कर इसे पारिभाषित किया गया है तो कभी "जीवाणं रक्खणं धम्मो" कह कर इसके अहिंसा पक्ष पर बल दिया गया है। यदि हम ध्यान से देखें तो धर्म की ये सभी परिभाषाएँ “वत्थुसहावो धम्मो", इस परिभाषा के विस्तार के ही विभिन्न रूप हैं। अन्ततः क्षमा आदि सारे धर्म आत्मा के ही तो स्वभाव हैं। एक स्वभाव के कथन में अन्य स्वभावों का कथन स्वतः ही सम्मिलित हो जाता है। पुनः, इस स्वभाव की प्राप्ति में सहायक तत्त्व भी उपचार रूप से धर्म ही माने जाने चाहिए। अर्थ और काम
सामान्यत: यह समझा जाता है कि निवृत्ति प्रधान जैन दर्शन में मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है। धर्म-पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में ही है। अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं है। लेकिन यह विचार एकांगी ही माना जाएगा। जैन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त रूप से हेय हैं।" भद्रबाहु ने अपनी दशवैकालिकनियुक्ति में स्पष्ट घोषणा की है कि धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य विचारक परस्पर विरोधी मानते हों किन्तु जिन-वाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने पर परस्पर असपल (अविरोधी) हैं। यही बात बाद में आचार्य हेमचंद्र भी कहते हैं कि गृहस्थ उपासक धर्म और काम पुरुषार्थों का इस प्रकार सेवन करे कि कोई किसी का बाधक न हो।" अर्थ और काम के सम्बन्ध में वस्तुतः यही दृष्टि हिन्दू
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दर्शन में भी अपनायी गयी है और इस प्रकार हम दोनों दृष्टिकोणों में साररूप कोई भेद नहीं पाते। किन्तु मूलतः निवृत्तिपरक होने के कारण जैन-दर्शन में विषय का निरूपण अलग ढंग से हुआ है जो कुछ इस प्रकार का आभास देता है कि मानो अर्थ
और काम को मूल्य-व्यवस्था से पूरी तरह निरस्त कर दिया गया हो। वस्तुतः जिस अर्थ और काम को जैन दर्शन में निरस्त किया गया है, वह अमर्यादित अर्थ और काम है जिसे पुरुषार्थ-चतुष्टय में मूल्य माना ही नहीं गया है। अर्थ और काम पुरुषार्थ-चतुष्टय में मूल्य का रूप तभी धारण करते हैं जब वह धर्म द्वारा मर्यादित होकर मोक्षोन्मुख होते हैं। जैन दर्शन के एक आधुनिक व्याख्याकार अमरमुनि का भी यही मत है। उनके अनुसार अर्थ जब धर्म की छाया में आ जाता है तभी वह धर्म की ही तरह दिव्य हो जाता है। लक्ष्मी, जो अर्थ का प्रतीक है, देवी है, राक्षसी नहीं। अर्थ को देवत्व धर्म प्रदान करता है। धर्म दृष्टि देता है कि अर्थ कहाँ से आना चाहिए, उसका किस प्रकार उपयोग होना चाहिए और आगे भी कैसा रहना चाहिए। धर्म अर्थ के आने की दिशा निर्धारित करता है और आगे की गति का भी निर्देश करता है।
यही बात काम (भोग) पर भी लागू होती है। काम भी देव है। काम-देव असुर नहीं है। न जैनों ने कहा, न बौद्धों ने और न ही वैदिक आचार्यों ने। सबने ही देव कहा उसे। राक्षस किसी ने नहीं कहा। देव का मतलब दिव्य होता है। इसका अर्थ यह है कि काम शरीर की क्षुद्र वासना ही नहीं है। शरीर के जितने भी भोग हैं वे काम में आ जाते है। अर्थ का उपयोग भी काम ही है। यह भोग दिव्य कब बनेगा? अमर मुनि कहते हैं कि धर्म का प्रकाश अर्थ के माध्यम से सीधे काम तक जाना चाहिए, तभी वह दिव्य होगा। अथवा कहें, तभी काम मूल्यवत्ता प्राप्त कर सकेगा। दूध, पानी इत्यादि यदि साफ नहीं होता तो हम उसे छानते हैं, उसी प्रकार अर्थ को भी छानना होगा और यह छानना धर्म ही करेगा। यदि अर्थ छाना नहीं गया, उसका ठीक-ठाक उपयोग नहीं किया गया तो वह अर्थ, अर्थ न रहकर अनर्थ हो जाएगा।
अर्थ के छानने का क्या आशय है ? दान। अर्थ के पीछे यदि दान की भावना है तभी व्यक्ति अर्थ पचा सकता है। कहा भी है कि अगर तू पचा पाता है तो सौ हाथों से कमा और सौ हाथों से समेट, इकट्ठा कर, लेकिन उसे हजार हाथों से लुटाने की, बरसाने की हिम्मत भी रख।
अर्थ की तरह काम को भी छानना होगा। काम को छानने के लिए जो छनना है वह है, अनासक्ति। काम यदि आसक्ति से भरा हुआ है तो वह क्षुद्र है, हीन है, किन्तु यदि वह आसक्तिरहित है तो दिव्य है। जिस काम में आसक्ति की गन्दगी
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है, वह सड़कर बर्बाद हो जाता है । अर्थ और काम धर्म के प्रकाश से ही मोक्षोन्मुख होते हैं।
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संक्षेप में कहा जा सकता है कि जैन दर्शन में भी अर्थ और काम को विमूल्य नहीं माना गया है, यदि वे धर्मानुकूल हैं। धर्म, 'अर्थ और काम' दोनों को ही मूल्यवत्ता प्रदान करता है। वह अमर्यादित अर्थ जिसमें दान के लिए, अपरिग्रह के लिए कोई स्थान नहीं है, और अमर्यादित काम जो आसक्तियुक्त है निश्चय ही मूल्य नहीं माने जा सकते।
अर्थ का स्वरूप
जैन दर्शन में 'अर्थ' की कहीं भी कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी गई है। मोटे तौर पर अर्थ से आशय यहाँ परिग्रह से लिया गया है और कुल मिलाकर परिग्रह का या तो पूर्ण निषेध किया गया है ( मुनिधर्म ), अथवा उसे मर्यादित किया गया है ( गृहस्थ - धर्म ) । यदि हम इस बात पर विचार करें कि किन वस्तुओं के परिग्रह का निषेध अथवा मर्यादा बताई गयी है तो हमें स्पष्ट ही 'अर्थ' का मतलब समझ में आ सकता है। अलग-अलग गाथाएँ / श्लोकों में अलग-अलग प्रकरण के अनुसार वस्तुओं के अपरिग्रह के लिए अथवा सीमित परिग्रह करने के लिए उपदेश हैं। तत्त्वार्थसूत्र में १. खेती बाड़ी और निवास हेतु जमीन, २. चाँदी - सोना, ३ . धन (रुपया-पैसा) और पशुधन तथा अनाज, ४. नौकर-चाकर और कर्मचारी, इत्यादि तथा ५ बर्तन - भाँडे, वस्त्रादि की मात्रा को निश्चित करने को कहा गया है।" इससे स्पष्ट है कि अर्थ के अन्तर्गत ये पाँचों वस्तुएँ आ जाती हैं । सूत्रकृताङ्ग में धन-सम्पत्ति और सहोदर भाई-बहिनों के त्याग की बात कही गयी है। इससे प्रतीत होता है कि नाते-रिश्तेदार भी अर्थ - रूप ही माने गए हैं जो सम्पत्ति की भाँति ही मनुष्य की रक्षा करने में समर्थ समझे जाते हैं किन्तु वस्तुतः ऐसा है नहीं । वे भी रक्षा करने में अन्ततः असमर्थ ही सिद्ध होते हैं, अतः उनके त्याग में भी मनुष्य का कल्याण ही है । सूत्रकृताङ्ग की ही एक अन्य गाथा सम्पत्ति और पशुओं के साथसाथ ज्ञानियों को भी धन अथवा अर्थ में सम्मिलित करती है क्योंकि वे भी त्राण और शरण देने वाले समझे गए हैं।
इन सब उद्धरणों से स्पष्ट है कि जिसे भी हम अपना रक्षक और पोषक समझते हैं, अथवा वे सब जो त्राण या शरण देने वाले समझे गए हैं, 'अर्थ' के अन्तर्गत आ जाते हैं। इनकी निम्नलिखित वर्गों में गणना की जा सकती है
१. क्षेत्र - वास्तु, हिरण्य- सुवर्ण, धन-धान्य और कुप्य आदि वस्तुएँ। २. दास - दासी, सहोदर भाई-बहिन, नाते-रिश्तेदार आदि ।
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३. ज्ञानी, विद्वान् पुरुष जिन्हें हम अपना रक्षक और शरणदाता समझते हैं।
स्पष्ट ही अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल धन-सम्पत्ति से ही नहीं है बल्कि उन सभी जीवित प्राणियों से भी है जिन्हें हम अपना हितैषी या रक्षक मानते हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि कामसूत्र में भी अर्थ के अन्तर्गत न केवल भूमि, चाँदी-सोना, पशुधन, धन-धान्य और भांडोपस्कर का अर्जन सम्मिलित किया गया है बल्कि विद्यार्जन और मित्र-लाभ को भी यदि भौतिक लाभ और लौकिक कल्याण के लिए उनका इस्तेमाल किया जाता है, तो अर्थ की कोटि में ही रखा गया है।५० परिग्रह-अपरिग्रह
जैसा कि हम ऊपर संकेत दे आए हैं कि अर्थ अपने आपमें न मूल्य है और न ही विमूल्य। यदि वह धर्मानुसार अर्जित, वितरित और उपभोगित है तो वह मूल्यवान हो जाता है और यदि वह अमर्यादित है तो वह विमुल्य बन जाता है। ऐसे महत्त्वहीन अर्थ को त्यागना एवं उससे पूर्ण निवृत्ति पा लेना ही श्रेयस्कर है। जैनदर्शन में जब अर्थ को अनर्थ कहा गया है तो तात्पर्य अमर्यादित अर्थ से ही है। इसका परिग्रह, मनुष्य भ्रमवश समझता है कि उसकी रक्षा कर सकेगा। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि धन-सम्पत्ति और सहोदर भाई-बहन इत्यादि कोई भी व्यक्ति किसी की भी रक्षा करने में असमर्थ है। यदि व्यक्ति यह जान सके और अपने जीवन की क्षण-भंगुरता को समझ सके तभी वह कर्म-बन्धन से मुक्त हो सकता है।५२
वस्तुतः अज्ञानी जीव ही धन, पशु और ज्ञानी पुरुषों को अपना शरणदाता या रक्षक समझते हैं, कि ये मेरे हैं और मैं उनका हूँ। परन्तु ये सब, वस्तुतः, न तो त्राणरूप हैं और न ही शरणरूप।५३
जैनदर्शन इस प्रकार किसी भी प्रकार के अर्थ के परिग्रह को गलत समझता है क्योंकि यह सोचना कि अर्थ हमारी रक्षा करेगा मात्र एक भूल है। वस्तुतः परिग्रह ही ( स्वयं, अर्थ नहीं ) अनर्थों का मूल है। इसी से इच्छाएँ और कामनाएँ जन्म लेती हैं।५
परिग्रह को 'मूच्छी' कहा गया है।६ मूर्छा सम्मोहन है, आसक्ति है। आन्तरिक या बाह्य, भावों या वस्तुओं में बंध जाना है, उनमें संलग्न हो जाना है और इस प्रकार विवेक-शून्य हो जाना है। अर्थ से जब हमारा इस प्रकार का परिग्रह हो जाता है तो अर्थ विमूल्य बन जाता है, अनर्थ हो जाता है। इस प्रकार के परिग्रह से अपने आपको बचाना ही पुरुषार्थ है, मूल्यवान है। एक अपरिग्रही वस्तुतः वह है जो अर्थ के प्रति मूर्छा नहीं रखता, उससे कोई लगाव नहीं रखता और उसके संग्रह को इसलिए अनावश्यक समझता है।
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अर्थ के प्रति मूर्छा न रखना और इसलिए उसके संग्रह से बचे रहना, यही अपरिग्रह है, यही धर्म है। यदि अर्थ के प्रति कोई लगाव नहीं होगा तो उसका दान भी सम्भव हो सकेगा और दान करने से व्यक्ति उसके संग्रह से भी बच सकेगा। इसीलिए कहा गया है कि इस संसार में जितने मनुष्य अपरिग्रही हैं वे इसी अर्थ में अपरिग्रही हैं कि वे न तो वस्तुओं के प्रति आसक्त होते हैं और न ही उनका संग्रह करते हैं।५७
पुनः परिग्रह दो प्रकार का होता है। एक, बाह्य ( वस्तुओं के प्रति ) और दूसरा, आभ्यन्तर परिग्रह। दस प्रकार की वस्तुएँ बाह्य हैं जिनके प्रति व्यक्ति का परिग्रह (आसक्ति, लगाव) हो सकता है, वे हैं - खेत, मकान, धन-धान्य, वस्त्र, भाण्ड, दास-दासी, पशु, यान (वाहन), शय्या और आसन। इसी प्रकार चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रह हैं, वे हैं - रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, इत्यादि। उन सभी के परिग्रह से यदि मनुष्य मुक्त हो जाता है तो वह शान्ति पाकर प्रसन्नचित्त हो सकता है और यह मुक्ति-सुख ऐसा होगा जो चक्रवर्ती राजा-महाराजाओं को भी नसीब नहीं है।
परिग्रह का सामान्य अर्थ संग्रह से है। यदि संग्रह का यह सामान्य अर्थ ही लिया जाय तो अर्थ का पूर्ण-अपरिग्रह लगभग असम्भव है। मनुष्य आखिर एक देह धारी प्राणी है और देहधारी की अपनी कुछ आवश्यकताएँ होती हैं जिनकी पूर्ति अर्थ द्वारा ही की जा सकती है, और फिर मोक्ष हेतु धर्म साधने के लिए भी तो शरीर की आवश्यकता है। अतः शरीर और उसकी आवश्यकताओं को हम पूर्णतः निरस्त नहीं कर सकते। मोक्ष का साधन ज्ञान और तप है और तप का साधन देह है। देह के लिए आहार आवश्यक है।५८ अतः थोड़ा बहुत अर्थ-संग्रह और अर्थ-उपार्जन भी जरूरी है। जैन-दर्शन में इसलिए गृहस्थ के लिए यह निर्देश है कि वह स्वयं अपने पुरुषार्थ से ही सम्पत्ति का अर्जन करे। पुरुषार्थ से यहाँ तात्पर्य स्वप्रयत्न से है। मनुष्य को केवल स्वप्रयत्न से उपार्जित सम्पत्ति को भोगने का ही अधिकार है। गौतमकुलक में कहा गया है कि पिता के द्वारा उपार्जित लक्ष्मी निश्चय ही पुत्र के लिए होती है और दूसरों की लक्ष्मी पर-स्त्री के समान है। दोनों का ही भोग वर्जित है। अतः स्वयं अपने पुरुषार्थ से धन का उपार्जन करके ही उसका भोग धर्मानुसार कहा जा सकता है। प्रश्न यह है कि व्यक्ति को भोग करने का भी आखिर कितना अधिकार है ? यह प्रश्न हमें सीधे काम की व्याख्या की ओर अग्रसर करता है। काम का स्वरूप
जैन दर्शन में मनुष्य-जीवन में काम के महत्त्व को कभी अनदेखा नहीं किया गया। आगमिक साहित्य स्पष्टत: कहता है कि पुरुष निश्चित रूप से काम
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कामी है।६० मनुष्य की कामनाएँ विशाल हैं, अनन्त हैं। इतना ही नहीं वे दुराग्रही और हठी हैं - 'गुरु से कामा।'६१ उनका अतिक्रमण करना सहज नहीं है। इसीलिए कामना को 'गुरु' कहा गया है और फिर, किसी भी कामना की पूर्ण सन्तुष्टि नहीं हो पाती, क्योंकि यह पुरुष अनेक चित्त वाला है। एक कामना सन्तुष्ट हो नहीं पाती कि मन दूसरे की ओर, दूसरे विषय की ओर आकृष्ट हो जाता है। कोई अगर यह सोचता है कि शयन से नींद पर, भोजन से भूख पर अथवा लाभ से कामनाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है तो निश्चित ही वह भ्रम में है।६२ मनुष्य मानो चलनी भरना चाहता है जो कभी भर ही नहीं सकती।६३ ।
___पुरुषार्थ चतुष्टय में काम साध्य है और अर्थ साधन। काम की आसक्ति ही मनुष्य को अर्थसंग्रह के लिए प्रेरित करती है और अर्थ-संग्रह से कामनाएँ पैदा होती हैं।६५ यह एक दुष्चक्र है।
जो बात अर्थ के लिए सही है, काम के सन्दर्भ में भी वही खरी उतरती है। अर्थ अपने आपमें न मूल्य है, न विमूल्य। उसका उपयोग ही उसे मूल्य या विमूल्य बनाता है। जो अर्थ का परिग्रह करता है और पदार्थों के प्रति आसक्ति रखता है, वह अर्थ को विमूल्य कर देता है। इसी प्रकार जो कामभोग के प्रति ममत्व रखता है, वह काम को विकृत करता है, उसे विषम बनाता है।६६ अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम काम को विकृत न होने दें और इस प्रकार उसे मूल्यवान बनाएँ।
ऐसा नहीं है कि विषय-भोगों (काम) में कोई सुख नहीं है। यदि सुख न होता तो मनुष्य उसकी ओर आकृष्ट ही क्यों होता? किन्तु काम की अपनी सीमाएँ और समस्याएँ हैं, वे इस प्रकार हैं -
१. सभी विषय भोग जो सुख प्रदान करते हैं, उनका सुख क्षणिक है और वे दीर्घकाल तक दुःख देने वाले हैं।६७
२. शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त व्यक्ति आत्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता क्योंकि ये सभी विषय इन्द्रियों से सम्बन्धित हैं। इन्द्रियाँ शरीर का अंग हैं। वे आत्मा में अनुपस्थित हैं। शुद्ध आत्मा में तो वर्ण, रस आदि तथा स्त्री, पुरुष आदि पर्याय और संस्थान, संहनन होते नहीं हैं,६८ फिर इनमें आसक्ति रखकर भला व्यक्ति आत्मलाभ कैसे कर सकता है ?
३. विषय भोग द्वारा प्राप्त शारीरिक सुख, जिसे हम वस्तुतः सुख समझते हैं, सुख होता ही नहीं। इसकी तुलना खुजली के रोगी से की जा सकती है। खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुःख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य दुःख को सुख मानता है।६९ ।।
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४. जो मनुष्य शरीर में आसक्त हैं वे विषयों की ओर खिंचे चले जाते हैं और इस प्रकार बार-बार दुःख उठाते हैं। काम-भोगों के ये कटु परिणाम हैं। इन्हें भ्रान्ति जान लेना चाहिए।७०
५. इन्द्रिय-विषय व्यक्ति को चारों ओर से घेर लेते हैं। जैसे एक आवर्त (भंवर) में फँसा व्यक्ति निकल नहीं सकता वैसे ही विषयों में घिरा व्यक्ति स्वयं को असहाय पाता है। इसीलिए कहा गया है कि जो विषय है, वह आवर्त है और जो आवर्त है, वह विषय है। विषय और आवर्त का एकत्व प्रतिपादन कर यह निर्दिष्ट किया गया है कि साधक को यदि विषयों का ग्रहण करना ही पड़े तो मूर्छा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मूर्छा से ग्रस्त व्यक्ति इच्छा के अधीन होकर विषय लोलुप हो जाता है और फिर विषयों से छुटकारा लगभग असम्भव हो जाता है।
६. कामनाओं का अतिक्रमण सहज नहीं है। वे विशाल हैं, दुराग्रही और हठीली हैं। इसलिए अज्ञानी पुरुष उनकी पूर्ति के लिए क्रूर से क्रूर कर्म करने को उद्यत हो जाते हैं। क्रूर कर्म करते हुए वे सुख की बजाय दुःख का सृजन करते हैं
और इस प्रकार 'विपर्यास' को प्राप्त होते हैं। सुख का अर्थी इस तरह दुःख को प्राप्त होता है।७२ सुखवाद की यही विडम्बना है। सुख की तलाश अपने आप में दुःखद है। इसी को पाश्चात्य नीतिशास्त्र में 'पैराडॉक्स ऑव हेडोनिज्म' कहा गया है।
काम की उपर्युक्त सीमाओं को देखते हुए मनुष्य को सही निर्णय लेना आवश्यक है। वस्तुतः जैसा कि कहा जा चुका है कि भोग अपने आप में न अच्छा है न बुरा है, न समत्व जाग्रत करने वाला है और न ही विषम है। काम-भोग में विकृतियाँ या विषमताएँ आती हैं। वे काम के प्रति व्यक्ति के ममत्व, आसक्ति के कारण आती हैं। यह लिप्तता ही काम को विषम बनाती है। अतः आवश्यकता इस बात की इतनी नहीं है कि काम से व्यक्ति पूर्णतः विरत हो जाए या उसे निरस्त कर दे। जब तक व्यक्ति के पास शरीर है, ऐसा किया भी नहीं जा सकता। किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि वह -
(क) अपने काम का वृत्त कम करे। कामनाओं को असीमित न होने दे, बल्कि उनकी सीमा निर्धारित करता जाए और धीरे-धीरे इस सीमा को, काम के दायरे को, संकुचित करता जाए।
(ख) काम के प्रति आसक्ति न रखकर एक निःसंग, निष्काम-भाव विकसित करे ? विषय भोगों की विकृतियों से इसी प्रकार बचा जा सकता है। सत्पुरुष इसीलिए काम आदि विषय-भोगों का सेवन सम्यक्त्व भाव से करते हैं न कि उनमें लिप्त होकर। जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से विकारों और विषयों में लिप्त नहीं
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होते और वे जो भले ही तिलक आदि लगाकर मुनि का वेश धारण कर लें, यदि काम के प्रति अपनी आसक्ति नहीं छोड़ पाते तो उन्हें काम से आवर्त ही समझा जाएगा। कुछ लोग तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करते (अर्थात् विषयों में लिप्त नहीं होते) और कुछ सेवन न करते हुए भी विषयों का सेवन करते हैं (अर्थात्, उनसे अपने रागात्मक लगाव को नहीं छोड़ पाते)। इन दोनों में स्पष्ट ही प्रथम प्रकार के लोग ही सच्चे सत्पुरुष हैं जो कर्म तो करते हैं किन्तु उसमें (उसके फल में/उसके कर्तृत्व में) अपना अधिकार नहीं मानते। यह ठीक वैसे ही है जैसे अतिथि रूप में आया कोई पुरुष विवाहादि कार्य में लगा रहने पर भी उस कार्य का स्वामी न होने से कर्ता नहीं होता। मोक्ष का स्वरूप
अन्य भारतीय दर्शनों की भांति ही जैन-दर्शन का अभीष्ट भी ज्ञान प्राप्त करना मात्र नहीं है। मोक्ष जैन-दर्शन का केन्द्र बिन्दु है और मोक्ष से आशय दुःख से आत्यन्तिक निवृत्ति और चरम सुख प्राप्त करना है। इसीलिए जैन दर्शन में मोक्ष को पुरुषार्थ में सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है और क्योंकि इस मोक्ष की प्राप्ति केवल धर्म-मार्ग से ही सम्भव है इसलिए धर्म भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं माना गया है। धर्म, यद्यपि मोक्ष की अपेक्षा से, केवल एक साधन मूल्य है किन्तु साधन-मूल्य होने के नाते वह मोक्ष-मार्ग भी है। अतः उसकी मूल्यवत्ता मोक्ष से कतई कमतर नहीं है।
जैन दर्शन में 'मार्ग' और 'मार्ग-फल इन दो अवधारणाओं में अन्तर किया गया है। 'मार्ग मोक्ष का उपाय है। उसका फल 'मोक्ष' या 'निर्वाण' है। किन्तु उपाय या मार्ग आखिर है क्या ? गाथा के अनुसार यह निश्चित ही 'सम्यक्त्व' है। जो व्यक्ति सम्यक् मार्ग पर चलता है, वही अन्ततः मोक्ष प्राप्त करता है। इस मार्ग के अनुसरण के फलस्वरूप ही निर्वाण सम्भव हो सकता है। जैन दर्शन में समत्व को धर्म कहा गया है। जो धर्म है, वही समत्व है। अतः सिद्ध हुआ -
मार्ग = समत्व = धर्म धर्म और मोक्ष एक दूसरे से साधन-साध्य रूप में सम्पृक्त हैं। एक मार्ग है दूसरा मार्ग-फल है। एक उपाय है, दूसरा गन्तव्य है। गन्तव्य (मोक्ष) वह प्रयोजन है जिस तक केवल मार्ग (धर्म) द्वारा ही पहुंचा जा सकता है।
मोक्ष केवल वे ही प्राप्त कर सकते हैं जो धर्म-मार्ग पर चलते हैं, उन्हें महर्षि कहा गया है। उन्हें महावीर, अर्हत्, वीतराग आदि नामों से भी सम्बोधित किया गया है। मोक्ष के लिए भी जैन साहित्य में एकाधिक नाम मिलते हैं -- १. निर्वाण, २. अबाध, ३. सिद्धि, ४. लोकाग्र, ५. क्षेम, ६. शिव और ७. अनाबाध
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इत्यादि मोक्ष के ही समानार्थक है, भले ही उनके अर्थ-छटाओं में थोड़ा बहुत अन्तर क्यों न हो ?
निर्वाण शब्द का प्रयोग अधिकतर बौद्ध-दर्शन में हुआ है। उसका अर्थ बुझा देने से है। निर्वाण वह अवस्था है जहाँ दुःखों और कष्टों की अग्नि शान्त कर दी गई है। जैन-दर्शन में भी निर्वाण इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अबाध से तात्पर्य बन्धनरहित होने से है। यह आत्मा की वह अवस्था है जिसमें आत्मा जन्म-मरण के चक्र से पूर्णतः मुक्त हो जाती है और इस प्रकार अपने सांसारिक बन्धनों से छुटकारा पा जाती है। सिद्धि, आत्मसिद्धि या आत्मलाभ है। यह आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि है। आत्मा का स्वभाव जैन दर्शन के अनुसार 'समत्व' है। समत्व का आध्यात्मिक अर्थ आत्मा का अपने आपमें अवस्थित होना है। आत्मा जब अपने आपमें सभी कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर अवस्थित होती है, तभी वह सिद्धि प्राप्त करती है। सिद्धि इस प्रकार आत्मा की सिद्धावस्था है। जैन दर्शन का एकमात्र मूल्य आत्मा की अपनी पहचान प्राप्त करना है। यह सर्च फॉर आइडेंटिटी है। इसी खोज की परिणति सिद्धि है। लोकाग्र से अर्थ, जैन दर्शन के अनुसार, ऊर्ध्वलोक के अग्रभाग से है जहाँ आत्माएँ सिद्धि के उपरान्त 'सिद्धशिला' के नाम से विश्रुत स्थान पर स्थित रहती हैं। जैन दर्शन में कई लोकों' की परिकल्पना की गई है और आत्मा को ऊर्ध्वगामी माना गया है। आत्मा जब कर्मों के बन्धन से पूर्णतः मुक्त हो जाती है तो वह ऊर्ध्वगमन करती है। यह ऊर्ध्वगमन ऊर्ध्वलोक के अग्रभाग तक ही सम्भव होता है क्योंकि इसके आगे धर्मास्तिकाय (गति का नियम) का अभाव है। अतः मोक्ष को लोकाग्र भी कहा गया है। क्षेम से आशय कल्याणकारी या हितकर से है। मनुष्य का हित या कल्याण इसी में है कि वह मोक्ष-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करे। क्षेमावस्था एक ऐसी स्थिति है जो सभी उपद्रवों से मुक्त है। मोक्ष को अनाबाध भी कहा गया है। यहाँ कोई बाधा नहीं है। यह बाधा-रहित, अबाधित है। यह वह अवस्था है जहाँ आत्मा पूर्ण स्वतन्त्र है, अनाबाध है। अन्तत: स्वयं मोक्ष शब्द वस्तुतः कर्म-बन्धनों से मुक्ति की ओर संकेत करता है। आत्मा जब तक कर्मबन्धनों से मुक्त नहीं हो जाती, मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती। मोक्ष आत्मा की पूर्ण मुक्तावस्था है।
जैन दर्शन में मोक्ष का स्वरूप वस्तुतः आत्मा का अपना स्वरूप है। यहाँ कल्पना की गई है कि आत्मा ऊर्ध्वगामी है - "उडढं पक्कमई दिसं", वह सदा ऊर्ध्व दिशा की ओर ही प्रस्थान करती है। दुर्भाग्य से, आसक्ति के कारण, कर्म-कण उससे संलग्न हो गये हैं और इस प्रकार आत्मा के भारी हो जाने से वह अधोगति को प्राप्त है। किन्तु कर्म-बन्धन से जैसे-जैसे वह मुक्त होती जाती है, वह
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ऊर्ध्वगामी होती जाती है और पूर्ण-मुक्ति होने पर मोक्ष पा जाती है।
जैन दर्शन में मोक्ष को दो रूपों में वर्णित किया गया है - नकारात्मक और स्वीकारात्मक। जिस प्रकार उपनिषदों में नेति-नेति' सूत्र द्वारा आत्मा के बारे में वस्तुओं और विषयों को इंगित करते हुए कथन किये गए हैं कि आत्मा यह नहीं है, यह नहीं है, इत्यादि, उसी तरह जैन दर्शन में भी आत्मा/मोक्ष के स्वरूप का हमें प्रायः नकारात्मक वर्णन ही मिलता है। आगमिक साहित्य में कहा गया है कि वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न ही स्पर्श है।
कहा गया है कि वहाँ से सब स्वर लौट जाते हैं। वचन द्वारा उसे प्रतिपाद्य नहीं किया जा सकता। उसका वर्णन असम्भव है क्योंकि वहाँ शब्दों की प्रवृत्ति नहीं है, वहाँ तर्क-वितर्क के लिए भी कोई स्थान नहीं है। वह बुद्धि से परे है। मति द्वारा ग्राह्य नहीं है। वह अकेला, ओज और प्रकाश से पूर्ण शरीर में अप्रतिष्ठित होने के कारण, अशरीरी है। वह शरीर न होकर आत्मा है, ज्ञाता है।..
पुनः वह निराकार है। न बड़ा है, न छोटा है, न वृत्त है, न त्रिकोण है और न ही चतुष्कोण है। वह परिमण्डलाकार भी नहीं है। उसका कोई रंग नहीं है। वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पीत है और न ही शुक्ल है। वह गन्धहीन है। वह न सुगन्ध है और न ही दुर्गन्ध है। वह रसरहित है। न तिक्त है, न कटु है, न कषाय है, न अम्ल है और न ही मधुर है। वह स्पर्श से परे है। न कड़ा है, न मुलायम है, न भारी है, न हल्का है, न ठंडा है, न गरम, न चिकना है और न ही रूखा है। वह अशरीरी, अजन्मा और असंग है। वह लिंगातीत है। न पुरुष है, न स्त्री है और न ही नपुंसक है।८२ वह अनुपम, अतीत और सभी पदों से परे है।८३ _ इतना ही नहीं, मोक्षावस्था एक ऐसी अवस्था है जहाँ न दुःख है, न सुख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न मरण है, न जन्म है। जहाँ न इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न विस्मय है, न निद्रा है, न तृष्णा है, न भूख है, जहाँ न कर्म है, न नोकर्म (शरीर) है। न चिन्ता है, न किसी भी प्रकार का ध्यान है।
मोक्ष/आत्मा के उपर्युक्त नकारात्मक वर्णन से जैन दर्शन में यह रेखांकित किया गया है कि मोक्ष का वास्तविक विवरण, इन्द्रियानुभव से परे होने के कारण, शब्दों में सम्भव नहीं है। साथ ही मनुष्य की संवेगात्मक अनुभूतियाँ (जैसे, दु:खसुख इत्यादि) की कोटि में भी इसे नहीं रखा जा सकता। वस्तुतः मोक्षानुभूति शारीरिक-भौतिक अनुभवों से परे हैं, अनुभवातीत है।
प्रश्न उठता है, फिर उसे कैसे, किस प्रकार, समझा-समझाया जा सकता है ? जैन दर्शन मोक्ष को अनुभवातीत और शब्दातीत कहकर चुप नहीं बैठ जाता
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बल्कि उसका भावात्मक (पॉज़िटिव) विवरण भी प्रस्तुत करता है। बेशक, मोक्ष इन्द्रियानुभूति नहीं है, लेकिन यह एक अशरीरी आध्यात्मिक अनभूति तो है ही, जिसको पूरी सावधानी बरतते हुए, भाषा में प्रस्तुत तो, समझाने की दृष्टि से, करना ही होगा और इस प्रस्तुतीकरण में जैन दर्शन हिन्दू दर्शन की अपेक्षा कहीं अधिक समृद्ध है। हिन्दू दर्शन में तो आत्मा को अनिर्वचनीय कहकर उसके सम्बन्ध में कोई निश्चित बात नहीं कही गयी, किन्तु जैन दर्शन में मोक्ष के सम्बन्ध में निश्चित तौर पर काफी कुछ कहा गया है। उदाहरण के लिए एक गाथा के अनुसार, मोक्षावस्था एक ऐसी अवस्था है जहाँ केवल ज्ञान, केवल दर्शन, केवल सुख, केवल वीर्य, अमूर्तता, अस्तित्व और सप्रदेशत्व के गुण होते हैं।
केवलज्ञान से तात्पर्य यहाँ उस ज्ञान से है जो इन्द्रिय आदि से निरपेक्ष तथा सर्वग्राही आत्मज्ञान है। यह एकान्त रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान है। यह लोक और अलोक को सर्वतः परिपूर्ण रूप से जानता है। भूत, भविष्य और वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे केवल ज्ञान नहीं जानता।६ इसी प्रकार केवलसुख केवल ज्ञानवत् इन्द्रियादि से निरपेक्ष अनन्तसुख या निराकुल आनन्द है। केवलदर्शन भी केवलज्ञान के समान ही सर्वग्राही दर्शन है। केवलवीर्य जानने-देखने आदि की अनन्त शक्ति है और यह भी इन्द्रिय आदि से निरपेक्ष और सर्वग्राही है। अमर्तता से अर्थ है कि मोक्ष/आत्मा स्वभावत: इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। वह नित्य है, साथ ही आन्तरिक रागादि भावों से मुक्त है।८ अस्तित्व तो आत्मा का बेशक है। मोक्षावस्था में भी उसका अस्तित्व बना रहता है। लेकिन यह शरीरी-भौतिक अस्तित्व न होकर बिना किसी विशेषण के (मात्र) अस्तित्व है। इसके अतिरिक्त मुक्त-जीवों का निवास मुक्ताकाश में होता है। इसी को आत्मा का सप्रदेशत्व गुण कहा गया है।
मुक्त-आत्मा के उपर्युक्त सभी गुण, यदि हम ध्यान से देखें, तो शरीरनिरपेक्ष हैं। स्पष्ट ही आत्मा का स्वभाव शारीरिक-भौतिक न होकर आध्यात्मिक है।
क्या मोक्षावस्था केवल दुःखाभाव है अथवा भावात्मक रूप से सुख-भाव है ? यह प्रश्न दार्शनिकों को काफी परेशान करता रहा है। हिन्दू दर्शन में सुख और आनन्द में अन्तर करके मोक्षावस्था को आनन्दमय माना गया। इसका कारण मुख्यतः यह था कि सुख सदैव दुःख की अपेक्षा से ही सुख है। इसी प्रकार दुःख भी सुख की अपेक्षा से ही सम्भव है। सुख-दुःख एक दूसरे से अपृथक हैं और दोनों ही इन्द्रियानुभूति के विषय हैं। आनन्द आत्मा का विषय नहीं है। आत्मा स्वयं आनन्दस्वरूप है। जैन दर्शन आनन्द और सुख में इस तरह का कोई भेद नहीं करता लेकिन वह सुख में एक गुणात्मक अन्तर अवश्य करता है। एक प्रकार का सुख इन्द्रियानुभविक सुख है जो निःसन्देह दुःख-सापेक्ष है और इसीलिए क्षणिक है किन्तु एक
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सुख ऐसा भी सम्भव है जो दुःख सापेक्ष न हो। जो वस्तुतः अनन्त और अतीन्द्रिय हो। गाथा के अनुसार कर्ममल से विमुक्त जीव ऊपर लोकान्त तक जाता है और वहाँ वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में अतीन्द्रिय अनन्त सुख भोगता है। मोक्षावस्था इस प्रकार केवल दुःखाभाव ही नहीं है। वह अतीन्द्रिय और अनन्त सुख की अवस्था
संक्षेप में कहा जा सकता है कि जैन-दर्शन में मोक्ष का अर्थ केवल नकारात्मक रूप से ही नहीं समझा गया है। बेशक मोक्ष कर्म-बन्धनों से, जन्म मरण के चक्र से, दुःख से मुक्ति है। यह इस प्रकार एक दुःखाभाव की स्थिति है किन्तु साथ ही यह अनन्त सुख की एक नित्य स्थिति भी है। आत्मा इस स्थिति में अमूर्त होते हुए भी अस्तित्ववान है, वैयक्तिकता से परे सर्वज्ञ है। मुक्ताकाश में स्थित वह केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य, केवलसुख के गुणों से परिपूर्ण है।
सन्दर्भ १. धर्मश्चार्थश्चकामश्च मोक्षश्चेति महर्षिभिः ।
पुरुषार्थोऽयमुद्दिष्टश्चतुर्भेदः पुरातनैः ।। ज्ञानार्णव, ३/४ शुभचन्द्र, परमश्रुत
प्रभावक मण्डल, अगास, १९७८ २. वही, ३/३. ४.५ ३. परमात्मप्रकाश, योगिन्दुदेव, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास, वि० सं०
२०२९, २.३ ४. देखें, आनन्द प्रकाश त्रिपाठी का आलेख, "जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में पुरुषार्थ
चतुष्टय", तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं, खंड २०, अंक १-२, पृ० ४२ ५. देखें, प्रो० सागरमल जैन का आलेख, "मूल्य और मूल्य-बोध की सापेक्षता
का सिद्धान्त", श्रमण, वाराणसी, जनवरी-मार्च १९९२, पृ० १०-११ ६. देखें, योगशास्त्र (आचार्य हेमचन्द्र), पृ० १-५२ ७. असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं
अथवा 'असंयमानिवृत्तिं च, संयमे च प्रवर्तनम्। समणसुत्तं, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी, १९८९, श्लोक १२९ आयारो, संपा० मुनि नथमल, जैनविश्वभारती, लाडनूं, वि० सं० २०३१ में भी (२. २७, पृ० ७६) यही बात कही गई है - 'अरइं आउट्टे से मेहावी' अर्थात् जो अरति का निवर्तन करता है, वह मेधावी होता है। 'अरति' से यहाँ तात्पर्य स्पष्ट ही उद्वेगों से है। देखें, हिरियना, एम० : आउटलाइन्स ऑव इण्डियन फिलॉसफी, लंदन, पृ० १७०
८.
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जैन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय : ४३
९. वहीं, पृ० १७१ १०. आयारो, पृ० ८८ (२. ९५) ११. देखें, मीमांसासूत्र (१. १) जिसमें धर्म की परिभाषा, 'चोदनालक्षणोऽर्थो
धर्मः' दी गई है। इसका तात्पर्य यही है कि धर्म का अर्थ उसके प्रेरणा देने के
लक्षण में निहित है। १२. आयारो, पृ० २३८ (६. २. ४८) १३. देखें, समणी स्थितप्रज्ञा का निबन्ध, 'संबोधि के आगमिक स्रोत', तुलसी
प्रज्ञा, पूर्णांक ९०, पृ० १३५ ।। १४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, स्वामी कार्तिकेय, संपा० ए० एन० उपाध्ये, परमश्रुत
प्रभावक मण्डल, अगास, वि० सं० २०३४, गाथा ४७८ १५. भगवतीसूत्र, १/९ १६. आयारो, पृ० २७४ (८. ३१) १७. देखें, उदयचंद जैन का निबन्ध, समता, अक्टूबर ९३ में, पृ० ३७ १८. चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो सगो त्ति णिट्ठिो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ।।
समणसुत्तं, गाथा २७४ १९. लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा।
समो निंदापसंसासु तहा माणावमाणओ ॥ उत्तराध्ययनसूत्र, २०. ३७ २०. जो समो सव्वभूदेसु तसेसु थावरे सुपं ।
तस्य समाहयं होई इह केवलि भासियं ।। समणसुत्तं, गाथा ४२६ २१. उत्तमखममद्दवज्जव सच्चसउच्चं च संजमं चेव ।
तवचागमकिंचण्हं, बम्ह इदि दसविहो धम्मो ।। समणसुत्तं, गाथा ८४ उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि धर्मः। तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वाति, विवेचक सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, संशोधित संस्करण, १९९३, १.७ । यहाँ पर ध्यातव्य है हिन्दू दर्शन में भी याज्ञवल्क्यस्मृति में नौ तथा मनुस्मृति में दस सामान्य धर्मों या धर्म-लक्षणों का उल्लेख हुआ है। मनु के अनुसार वे निम्रलिखित हैं - धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, घी, विद्या,
सत्य, अक्रोध। २२. समणसुत्तं, ८५ २३. वही, ८६ २४. वही, ८८
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२५. वही, ९१ २६. वही, १०० २७. वही, ९२ २८. वही, १०२ २९. वही, १०४ ३०. वही, १०९ ३१. वही, १११-११२ ३२. स्थानाङ्गसूत्र, २. १ ३३. वही, २. १५ ३४. स्वामी समन्तभद्र, रत्नकरण्डक श्रावकाचार, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट,
वाराणसी, १९७२, १. २ ३५. देखें, पं० पन्नालाल 'बसंत' द्वारा सम्पादित रत्नकरण्डक श्रावकाचार,
वाराणसी, ७२, पृ० ६ ३६. सुखितस्य दुःखितस्य च संसारे धर्म एव तवकार्यः ।
सुखितस्य तदभिवृद्ध्यै दुःखभुजस्तदपघातपं ।। आत्मानुशासन, १८ ३७. वही, १९ ३८. वही, २० ३९. वही, २१ ४०. ज्ञानार्णव, १०. ८-९ ४१. वही, १०. १६ ४२. यतोऽभ्युदय-निःश्रेयस सिद्धि स धर्मः। वैशेषिक सूत्र, १. १. २ ४३. पन्नालाल 'बसंत' (सं०) रत्नकरण्डक श्रावकाचार, पृ० ७-८ ४४. देखें प्रो० सागरमल जैन का आलेख, "मूल्य और मूल्यबोध की सापेक्षता का
सिद्धान्त", श्रमण, जनवरी-मार्च, अंक १-३ ४५. दशवैकालिक नियुक्ति, २६२-२६४ ४६. 'अन्योन्या प्रतिबंधेन त्रिवर्गमति साधयन्'। योगशास्त्र, १. ५२ ४७. देखें, उपाध्याय अमर मुनि का लेख - 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष', श्री
अमर भारती, जून १९९५, वीरायतन, राजगिरि ४८. क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्य प्रमाणातिक्रमाः।।
तत्त्वार्थसूत्र, ७. २४ ४९. वित्तं सोयरिया च। सूत्रकृताङ्ग, १. १.५ ५०. कामसूत्र ९, परिशीलन, वाचस्पति गैरोला, संवर्तिका प्रकाशन, इलाहाबाद,
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जैन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय :
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१९६७ ५१. मरणसमाधि, ६०३ ५२. वित्तं सोयरिया चेव सव्वमेतं न ताणए ।
संखाए जीवियं चेव कम्मणाउतिउट्टति ॥ सूत्रकृताङ्ग, १. १. ५ ५३. वित्तं पसवो य णाइयो तं बाले सरणं ति मण्णति ।
एते मम तेसिं वा अहं, नो ताणं सरणं व विज्जइ ।। समणसुत्तं, ५०९ ५४. 'संग एव मतः सूत्रे नि:शेषानर्थ मंदिरं', ज्ञानार्णव, १६. १३ ५५. 'संगात्कामस्ततः', वही, १६. १३ ५६. 'मूपिरिग्रहः', तत्त्वार्थ-सूत्र, ७. १२ ५७. देखें आयारो ५. ३९ की व्याख्या, पृ० १८४ ५८. वही, ९ ५९. मोक्खपसाहणहेतुं णाणादी तप्पसहणे देहो ।
देहट्ठा आहारो तेण तु कालो अणुण्णातो ।। निशीथभाष्य, ४७. ९१ ६०. आयारो - कामकामी खलु पुरिसे। २. १२३ ६१. वही, ५. २, पृ० १७६ ६२. न शयानो जेयनिद्रां, न भुंजानो जयेत् क्षुधाम् ।
न काममानः कामानां, लाभनेह प्रशाम्यति ॥ आयारो, टिप्पणी १५, पृ० १४७ ६३. 'अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरइत्तए।' आयारो ३. ४२ ६४. “कामेसु, गिद्धा णिचयं करेंति"। आयारो, ३. ३१ ६५. 'संगात्कामस्ततः'। ज्ञानार्णव, १६. १२ ६६. न कामभोगा समयं उवेंति, न याति भोगा विगई उति ।
जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ ।। समणसुत्तं, २३० ६७. खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा, अणिगामसुक्खा"।
समणसुत्तं, ४६ ६८. वही, १८३ ६९. वही, ४९ ७०. 'आयारो, ५. ११-१३ ७१. “जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे।" वही, १. ९३ ७२. वही, ५. ६ तथा २. १५१ ७३. समणसुत्तं, २२७ ७४. वही, २२९ ७५. वही, १९२
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७६. जैन दर्शन में धर्म को कई तरह से परिभाषित किया गया है। कहा गया है कि
वास्तव में चारित्र ही धर्म है और यह धर्म समत्व है। समत्व, मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का निर्मल परिणाम है। इतना ही नहीं, समता, माध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और स्वभाव-आराधना - ये सभी शब्द
एकार्थक हैं। वही, २७४-२७५ ७७. वही, ६२१ ७८. आयारो, ५. १४० ७९. वही, ५. १२३-१२६ ८०. वही, ५. १२७-१३१ ८१. वही, ५. १३२-१३४ ८२. वही, ५. १३५ ८३. वही, ५. १३७-१३९ ८४. समणसुत्तं, ६१७-६१९ ८५. वही, ६२० ८६. वही, ६८४ ८७. वही, पृ० २६६ (पारिभाषिक शब्दकोश) ८८. वही, ५९५ ८९. वही, ६१४
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श्रमण
वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान
ध्यान एक दिव्य साधना है। भारतीय संस्कृति के मनीषी चाहे वे वैदिक परम्परा के हों अथवा श्रमण परम्परा के, सबने ध्यान-साधना के क्षेत्र में पर्याप्त ऊहापोह की है। दोनों ही परम्परा में ध्यान को एक अनुष्ठान (कर्मकाण्ड) न मानकर आन्तरिक साधना माना गया है, जिसकी सहायता से मनुष्य के व्याकुल हृदय, अस्थिर चित्त या उद्विग्र मन को शान्त करने का प्रयत्न किया जाता है। यह माना गया है कि मोक्ष मुक्ति, कैवल्य, विशुद्धि जैसे सर्वोच्च आध्यात्मिक मूल्य को ध्याना
भ्यास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। आज के वैज्ञानिक युग में तकनीकी विकास के द्वारा प्राप्त गतिशीलता ने मानव की चित्तवृत्ति को जो अस्थिरता दी है, और जिसके कारण वह तनावग्रस्त होता जा रहा है उस वृत्ति को स्थिरता और सन्तुलन देने का काम भी ध्यान कर सकता है।
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डॉ० रज्जन कुमार
ध्यान का स्वरूप
मानव का परम पुरुषार्थ सच्चे सुख और शान्ति को प्राप्त करना है। परम शान्ति द्वन्द्व के मिटने से ही प्राप्त होती है और राग-द्वेषरूप कामना के विसर्जन होने पर ही द्वन्द्व मिटते हैं। राग-द्वेष, कामनादि द्वन्द्व मनुष्य की विभिन्न वृत्तियों के परिचायक माने गये हैं। मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ इन्हीं के कारण समत्व भाव में नहीं रह पाती हैं और वह अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से विचलित होता रहता है। जब व्यक्ति आत्म-दर्शन या स्वदर्शन की साधना करता है, अपने भीतर के दोषों को झाँककर देखता है और उन दोषों के परिमार्जन की विधि पर विचार करता है, तब वह प्रगति पथ पर आगे बढ़ता है। अपने भीतर के दोष को देखना एवं चिन्तन-मनन करना एवं उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करना ही ध्यान है । यही आध्यात्मिक साधना है, क्योंकि इस साधना का प्रमुख लक्ष्य है अपने अन्तर को प्रकाशित करना और इस प्रकाश के आलोक से अपने अन्तर में छिपी हुई वासनाओं को निर्मूल कर सुप्त पड़े हुए, सिद्धत्व के बीज को विकसित करना। इस बीज को विकसित करने की साधना ध्यान है।
मानव जीवन आकांक्षाओं और इच्छाओं से उत्पन्न समस्याओं का
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महासागर है। इन समस्या-सागरों के कारण ही व्यक्ति अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है और वृत्तियों के विभिन्न रूपों से प्रभावित होता रहता है, समस्याओं का निदान नहीं कर पाने के कारण विक्षिप्त होकर नाना प्रकार के दुःखों से पीड़ित होता रहता है। ध्यान के अभ्यास से व्यक्ति समस्याओं के मूल कारण को खोजने का प्रयत्न करता है। इससे चित्त धीरे-धीरे शान्त व निर्मल होता है, बुद्धि और विवेक जागृत होते हैं, जिससे वह किसी भी बात को गहराई से एवं स्पष्टता से पकड़ने लगता है। अतः ध्यानी के समक्ष जब भी कोई समस्या उपस्थित होती है तो उसका चित्त तुरन्त समस्या के वास्तविक कारण तक पहुँच जाता है और वास्तविक मूल कारण के प्राप्त हो जाने पर समस्या का निवारण सुगम हो जाता है। यह अवस्था कम से कम विक्षेपों के कारण ही सम्भव है। यही कारण है कि महर्षि पतञ्जलि' ने साधकों को वृत्तियों अथवा विकल्पों से मुक्त होने का निर्देश दिया है, क्योंकि विकल्परहित अवस्था ही ध्यान साधना का लक्ष्य है।
आत्मा को पूर्वकृत कर्मों से उत्पन्न संस्कारों से मुक्त करने के लिए चित्त को विशुद्ध किया जाता है। पूर्वकृत कर्मों या संस्कारों के कारण व्यक्ति प्रमादी बन जाता है, निरन्तर इसी दिशा में चिन्तन करता रहता है कि कैसे उसे भौतिक सुखसाधन के सारे उपक्रम प्राप्त हो जाएँ। एक साधन की उपलब्धि होने पर दूसरे के लिए प्रयत्न प्रारम्भ कर देता है। किन्तु इस तरह उसके प्रयत्न अनन्तकाल तक चलते रहें तब भी उसकी आकांक्षाओं या इच्छाओं की पूर्ति सम्भव नहीं है। एक इच्छा या विकल्प उपस्थित हुआ उसका अभी समाधान भी नहीं हुआ कि दूसरा विकल्प उठ खड़ा हुआ। कभी-कभी परस्पर विरोधी विकल्पों या इच्छाओं से व्यक्ति के मन में संघर्ष का ऐसा वातावरण उपस्थित हो जाता है कि मनुष्य स्वयं से भागने लगता है, यह एक अत्यन्त दुःखद स्थिति है। ध्यान की साधना से व्यक्ति अप्रमत्त चेता हो जाता है। सांसारिक उपलब्धियों की नश्वरता को जानकर उनके प्रति उसका लगाव कम होने लगता है। व्यक्ति की विवेक शक्ति जग जाती है। वह नियंत्रित एवं संयमित जीवन जीने में विश्वास करने लग जाता है। उसका मन विकल्पों के द्वन्द्व में भटकना बन्द कर देता है। उसकी यह अवस्था ध्यान की साधना के लिए उपयुक्त भूमिका प्रस्तुत कर देती है, क्योंकि वह अपने मन को एक विचारबिन्दु पर स्थिर कर सकता है। जब किसी व्यक्ति का मन किसी एक वस्तु पर केन्द्रित हो जाता है तो वह ध्यान कहलाता है। आचार्य उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मन के चिन्तन का एक ही वस्तु पर अवस्थान या केन्द्रित करना ध्यान है। मानव मन बहुत अधिकं चंचल है। वह कभी भी एक स्थान पर नहीं टिक
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वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान : ४९
पाता है। मानव-मन की यह चंचलता ही मनुष्य के दुःखों का कारण बनती है। व्यक्ति सदैव यही विचार करता रहता है कि सारी दुनियाँ उसी के चारों तरफ आकर्षित हो, सभी उसी के मनोनुकूल आचरण करें। सभी परिस्थितियाँ उसके मन के अनुसार घटित हों। लेकिन यह सम्भव नहीं हो पाता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति इस दिशा में और अधिक प्रयत्न करना प्रारम्भ कर देता है। उसके उस प्रयत्न के परिणाम उसकी तृष्णा को निरन्तर बढ़ाते रहते हैं, जो उसके दुःख का कारण बनते हैं। ध्यान की साधना से व्यक्ति अपनी इस भूल को समझता है। वह यह विचार करता है कि जब मैं स्वयं ऐसा चाहता हूँ, मेरा स्वयं का मन ऐसा चाहता है, तो दूसरा ऐसा क्यों नहीं चाहेगा। जैसे ही उसके मन में यह भाव जगता है, वह तृष्णारूपी विकल्पों के मिथ्यात्व से अवगत हो जाता है। अब उसके मन में एक ही बात कौंधती है, वह है स्वयं को सुधारने की। जब वह इस अवस्था में आ जाता है तो उसके मन में चलने वाली बहुमुखी चिन्तन की धारा एक ओर प्रवाहित होने लगती है। इस कारण व्यक्ति अनेक चित्तता से दूर हटकर एक चित्त में स्थित हो जाता है और यही ध्यान है। बौद्ध-परम्परा में ध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि किसी विषय पर चित्त को स्थिर कर चिन्तन करना ही ध्यान है।'
भारतीय संस्कृति में ध्यान ऐसी साधना है जो व्यक्ति के अन्तर का शोधन करती है। इसके अभ्यास से व्यक्ति वृत्तियों, विकल्पों से मुक्त होकर एक-चित्तता की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति अपने क्षुद्र स्वार्थों और राग-द्वेष की प्रवृत्ति को कम करके समाज में एक सुव्यवस्था की नींव डाल सकता है। उसकी यह प्रवृत्ति उसे तो सुख और शान्ति का वातावरण उपलब्ध कराती ही है साथ ही साथ समाज के सभी प्राणियों को भी इस दिशा में विकास करने का अवसर प्रदान कराती है। ध्यान से व्यक्ति विनम्र हो जाता है, उसमें स्वार्थ, अभिमान एवं दीनता का धीरे-धीरे अभाव होता जाता है और मैत्री, स्वाभिमान, सहृदयता झलकने लगती है। ध्यान की नियमित साधना चिन्तन और व्यवहार की दूरी सदा के लिए समाप्त कर देती है। आज आचरण एवं आस्था के बीच जो खाई बन गई है उसका सही निदान ध्यान है। ध्यान एवं वैदिक परम्परा
वैदिक वाङ्मय में वेद और उपनिषद् अति प्राचीन हैं। इनमें योग, ध्यान, साधना, विषयक विचार स्थान-स्थान पर मिलते हैं। वैदिक-परम्परा में ध्यानविषयक साधना का उल्लेख योग के अन्तर्गत माना जाता है, क्योंकि योग प्रणाली ही सर्वाधिक प्रचलित प्रणाली थी। योग-साधना मंत्रयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि अपने विविध रूपों में प्रचलित रही हैं। वैदिक
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वाङ्मय में वेदों को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। यजुर्वेद में योग के सम्बन्ध में कहा गया है कि मोक्ष की इच्छा रखने वाले हम (योगी) लोग शुद्ध मन (शुद्धान्तःकरण) से योगफल के द्वारा प्रकाशमय आनन्दस्वरूप अनन्त ऐश्वर्य में स्थित होते हैं। यहाँ योग साधना योगी की आध्यात्मिक वृत्ति का परिणाम है। योगीजन योगाभ्यास के द्वारा मुक्ति या मोक्ष-पथ पर अग्रसर होते हैं और परमसुख को प्राप्त करते हैं। यह योग अथवा ध्यान साधना का आध्यात्मिक स्वरूप माना जा सकता है। बाद में औपनिषदिक साहित्य में ध्यान पर विस्तृत चिन्तन हुआ और योग का आत्मपरक अथवा अध्यात्मपरक विवेचन भी किया गया। इसे आत्म-ज्योति, ब्रह्म-स्वरूप, आत्म-दर्शन को प्राप्त कराने वाला कारक माना गया। विष्णु-पुराण में कहा गया है कि आत्म-ज्योति के दर्शन के लिए साधना की आवश्यकता होती है। जब साधना समाधि की ओर अग्रसर होती है तब ध्यान अनिवार्य हो जाता है। समाधि की प्राप्ति में ध्यान प्रमुख है। ध्यान की अनुभूति से ही आत्म-स्वरूप प्रगट होता है और ध्यान साधना इन्द्रियों की बाह्य प्रवृत्तियों से नहीं होती वरन् अन्तर्मुखी वृत्ति से होती है। अन्तर्मुखी वृत्ति व्यक्ति को रागादि प्रवृत्तियों से मुक्त करती है, फलतः साधक भावरहित होकर अपने साधना पथ पर आगे बढ़ता जाता है और अन्त में ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। कठोपनिषद् में कहा गया है कि योग-विद्या का पालन करके ही नचिकेता रागादि से अलिप्त होकर तथा मृत्यु के भय से रहित होकर ब्रह्म को प्राप्त हुआ।
उपनिषद्-युग में आत्म-सत्ता की ध्वनि अधिक गुंजरित रही। आत्मा ज्ञेय है, कर्म-बन्धनों के तोड़ने का कार्य ज्ञान करता है, जन्म-मृत्यु चक्र, संकल्पविकल्पों को क्षीण करना मनुष्य का ध्येय बना जाता है। लेकिन सम्पूर्ण त्रैकालिक ज्ञान की प्राप्ति ध्यान करने से होती है। ध्यान से प्राप्त फलश्रुति शारीरिक स्वस्थता का प्रथम सोपान है। क्योंकि स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन रहता है। ध्यान से शरीर निरोग रहता है। वह हलका, विकार, वासनाओं से अनासक्त, सौरभयुक्त, प्रकाशवान् हो जाता है। मन की मलिनता दूर होने लगती है। व्यक्ति मधुर वाणी का प्रयोग करने लगता है और मधुरता की अनुभूति भी करता है। ध्यान की साधना से मनुष्य की स्मृति का विकास होता है। यह व्यक्ति में शुभवृत्तियों को जगाती है जिससे साधक आसक्ति, कामना, क्रोध जैसी दुष्प्रवृत्तियों से अपने को बचाकर रखता है। गीता में कहा गया है – विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है, सम्मोह से स्मृति भ्रमित हो जाती है और स्मृति-भ्रम से बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धिहीन व्यक्ति को सभी तरह के
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वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान : ५१
अनर्थों की जड़ माना गया है। अतः बुद्धि एवं संयम की रक्षा के लिए व्यक्ति को ध्यान की साधना अवश्य करनी चाहिए।
वैदिक-परम्परा में योग-विषयक अवधारणा का विकास और विस्तार दार्शनिक युग में अधिक हुआ। इस युग में योग अथवा ध्यान मात्र अध्यात्म विद्या न रहकर एक व्यावहारिक सिद्धान्त के रूप में जाना जाने लगा। योग सम्बन्धी अवधारणा को बहुप्रचारित करने का प्रमुख श्रेय महर्षि पतञ्जलि को जाता है। इन्होंने इसे सिद्धान्त के साथ-साथ मानव जीवन के व्यावहारिक उपयोग की एक विधा बना दिया। उन्होंने चित्त और वृत्ति के अन्तर को स्पष्ट किया और चित्तवृत्तिनिरोध को ध्येय सिद्ध किया। चित्त में असंख्य वृत्तियों का उदय होता रहता है। जब तक व्यक्ति इन वृत्तियों का निरोध या शमन नहीं करता है तब तक वह अपने स्वस्वरूप में स्थित नहीं हो पाता है। जैसे ही इन वृत्तियों का निरोध होता है वह अपने स्व-स्वरूप में स्थित हो जाता है। उन्होंने योगशास्त्र में क्रियायोग (अष्टाङ्ग योग) का मार्ग स्पष्ट किया। क्रियायोग के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान का समावेश किया। स्वधर्म पालन हेतु शारीरिक-मानसिक कष्टों को सहर्ष स्वीकार करना, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य बोध कराने वाले साहित्य का पठन-पाठन एवं स्वयं को ईश्वर के अधीन समर्पित कर देना योग के क्रियापक्ष का व्यावहारिक मार्गनिर्देश है।
पातञ्जल-योग-दर्शन में अष्टाङ्ग योग का वही स्थान है जो शरीर में आत्मा का। इसके बिना पातञ्जल-योग-दर्शन की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती है। पतञ्जलि का सम्पूर्ण दर्शन इसी अष्टाङ्ग योग में निहित है। उसके बहिरंग और अन्तरंग ये दो भेद किए गए हैं। अन्तरंग योग में धारणा, ध्यान और समाधि का समावेश है। जबकि बहिरंग के अन्तर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं ईश्वरप्रणिधान को स्थान दिया गया है। इन बहिरंग और अन्तरंग साधनों को अपनाकर साधक क्लेशों को सर्वथा नाश करके समस्त प्रकार की चित्तवृत्तियों से मुक्त हो सकता है। इसके लिए साधक को वैराग्यवृत्ति एवं अभ्यास का आश्रय लेना पड़ता है। क्योंकि वैराग्य के कारण साधक के मन में संयमवृत्ति-उत्पन्न होती है। फलस्वस्थप उसका मन संसार में भ्रमण नहीं करता है तथा अभ्यास से आध्यात्मिक प्रवृत्ति विकसित होती है और साधक अन्तरंग में प्रवेश करता है। कहा भी गया है मन को अनेक बार स्थिर करना अभ्यास है और सांसारिक माया-मोह के विषयों में प्रवृत्त न होना वैराग्य है।
योग-साधना में ध्याता जब रमण करता है, तब मन की समस्त प्रक्रिया उपशमित होने लगती है। अभ्यास और वैराग्य से मन शान्त और उपशान्त हो जाता
है। विषयों से विरक्ति होने लगती है और निर्विषयों में प्रवृत्ति हो जाती है। वस्तुतः
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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६
ध्यान का यही परम ध्येय है। महर्षि कपिल ध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जब व्यक्ति का मन निर्विषयों में प्रवृत्त हो जाय, तो वही ध्यान है। मन को निर्विषयों में प्रवृत्त कराने में ध्यान का बहुत अधिक योगदान माना गया है। क्योंकि साधक के मन में अनन्त काल से पड़ी हुई स्थूल वृत्तियों को जब तक सूक्ष्म नहीं किया जायगा तब तक निर्बीज समाधि की प्राप्ति सम्भव नहीं है। ध्यान की साधना से स्थूल वृत्तियों को सूक्ष्म बनाया जाता है, तब उनका नाश किया जाता है । १४ जब ये वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं तब निर्बीज समाधि जो कि साधना का परम ध्येय है प्राप्त कर लिया जाता है।
५२ :
ध्यान एवं जैन- परम्परा
जैन धर्मदर्शन की साधना का केन्द्रबिन्दु है आत्मा । आत्मतत्त्व की अनुभूति आत्मज्ञान व आत्मलीनता, यही इस साधना का मूलभूत लक्ष्य रहा है। इस लक्ष्य की ओर गतिमान होने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति शरीर व मन से अपना तादात्म्य न्यून करते हुए अन्ततः आत्मा में ही प्रतिष्ठित हो जाए। इसके लिए ध्यान की साधना परमावश्यक है क्योंकि यही ध्यान मनुष्य को कर्मावरण से मुक्त करता है और कर्मावरण से मुक्त हुए बिना आत्मा में प्रतिष्ठित हो पाना सम्भव नहीं है। भगवान् महावीर परम तपस्वी थे। अपनी कठोर ध्यान साधना के बल पर ही उन्होंने ग्रन्थियों का भेदन किया, वीतरागता की अवस्था को प्राप्त कर कैवल्य ज्ञान से मुक्त हुए। जैन साधना पद्धति में ध्यान को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है । द्रव्य संग्रह में इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि नियमपूर्वक ध्यान से मुनि निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकार के मोक्ष मार्ग को पाता है। इसलिए एकाग्रचित्त से ध्यान करना चाहिए। ध्यान के द्वारा आत्मा की अनुभूति हो सकती है। १५ अतः ध्यान आत्मानुभूति में सहायक हो सकता है बशर्ते इसकी निरन्तर एवं नियमपूर्वक साधना की जाए।
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आत्मानुभूति के लिए चारित्रशुद्धि आवश्यक है और चारित्रशुद्धि के लिए संयम अनिवार्य है। इन दोनों की प्राप्ति ध्यानाभ्यास के द्वारा सम्भव है । राग-द्वेष, विषयासक्ति मनुष्य को अपने पथ से स्खलित कराते हैं। लेकिन ध्यान-साधना में त साधक इष्ट-अनिष्ट विषयों के राग-द्वेष और मोह से रहित हो जाता है, इसलिए उसके जहाँ नवीन कर्मों के आगमन का निरोध है वहाँ उस ध्यान से उद्दीप्त तप के प्रभाव से पूर्व संचित कर्मों का भी क्षय होता है। तात्पर्य यह है कि संवर और निर्जरारूपी कर्मक्षय की प्रक्रिया ध्यान-साधना के कारण प्रवाहमान रहती है। इस प्रकार साधक मोक्षरूपी मार्ग पर निरन्तर बढ़ता जाता है और अन्त में इसे प्राप्त भी कर लेता है। ध्यान की साधना से साधक ऐसा क्यों कर लेता है इस सम्बन्ध में
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आचार्य उमास्वाति का कहना है कि मन को अन्य विषयों से हटाकर किसी एक ही वस्तु में नियन्त्रित करना ध्यान है ।" मन की चंचलता ही व्यक्ति को अपने उद्देश्य से भटकाती रहती है। जब उसकी चंचलता को समाप्त कर उसे उसके उद्देश्य की तरफ मोड़ने का प्रयास किया जाता है तो यह विकल्पों से रहित होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेना चाहता है। जहाँ तक, जैन साधना के लक्ष्य की बात है तो वह आत्मानुभूति ही है।
प्रायः चिन्तन करने की विधि को ध्यान करना समझ लिया जाता है, परन्तु ध्यान और चिन्तन में अन्तर है। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं, बल्कि चिन्तन का एकाग्रीकरण करना माना है। आवश्यक नियुक्ति में चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना या उसका निरोध करना ही ध्यान माना गया है । १७ वस्तुतः चिन्तन की प्रक्रिया में मन किसी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता है, जबकि ध्यान की प्रक्रिया में मन की बहुमुखी चिन्तनधारा को एक ही दिशा में प्रवाहित होने दिया जाता है। इस कारण साधक अनेकचित्तता से मुक्त होकर एक चित्त में स्थिर होता है । तत्त्वानुशासन में कहा भी गया है कि चित्त को विषय विशेष पर केन्द्रित कर लेना ही ध्यान है।" एक चित्त में स्थिर रहने वाला व्यक्ति कर्मों का अल्प संग्रह करता है, बाद में जब वह सुस्थिर चित्त वाला बन जाता है तो कर्मों का क्षय करने लगता है। कर्मों का क्षय करने से वह मलिन वृत्तियों को क्रमशः नाश करते जाता है और अन्ततः आत्मानुभूति की अवस्था में पहुँच जाता है। योगसार प्राभृत में आचार्य अमितगति ध्यान के लक्षण पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं आत्मस्वरूप का प्ररूपक रत्नत्रयमय ध्यान किसी एक ही वस्तु में चित्त को स्थिर करने वाले साधु को होता है, जो उसके कर्मों को क्षय करता है। १९
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जैन परम्परा में ध्यान की प्रकृति के अनुसार इसके दो भेद किए गए हैं - (क) प्रशस्त ध्यान और (ख) अप्रशस्त ध्यान । जो शुभ परिणामों के लिए तथा वस्तु के यथार्थ स्वरूप- चिन्तन से उत्पन्न होता है वह प्रशस्त ध्यान कहलाता है। यह ध्यान पुण्यरूप आशय के वश से तथा शुभलेश्या के आलम्बन से उत्पन्न होता है। अशुभ परिणामों की पूर्ति हेतु, मोह- मिथ्यात्वकषाय और तत्त्वों के अयथार्थ रूप विभ्रम से उत्पन्न ध्यान अप्रशस्त की कोटि में आता है। प्रशस्त ध्यान मोक्ष प्राप्ति में सहायक माना जाता है। इसकी साधना से मनुष्य आत्मानुभूति के रहस्य को प्राप्त कर सकता है। यह मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली कषायिक वृत्ति को नष्ट करती है और व्यक्ति को राग-द्वेष रूपी मिथ्यात्व के बन्धन से मुक्त करती है। यही ध्यान का उत्स माना गया है । भगवती आराधना की विजयोदया टीका में ध्यान के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है "राग-द्वेष तथा मिथ्यात्व से रहित
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होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है वही ध्यान है । इसीलिए मुमुक्षु अवस्था की प्राप्ति हेतु साधकों के लिए प्रशस्त ध्यान की साधना का विधान किया गया है।
प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ध्यानों के दो-दो उपविभाग किये गए हैं। प्रशस्त के दो उपभेद - धर्मध्यान और शुक्लध्यान तथा अप्रशस्त के दो उपभेद - - आर्त और रौद्रध्यान के रूप में स्वीकृत हैं।२२ आर्त्तध्यान दुःख के निमित्त से होता है जबकि रौद्रध्यान कटिल भावों के चिन्तन से प्रारम्भ होता है। ये दोनों ही भाव राग-द्वेष को बढ़ाने वाले माने गए हैं। अतः इन्हें ध्यान की श्रेणी में न रखकर कुध्यान के अन्तर्गत स्थान दिया गया है, क्योंकि ध्यान की साधना राग-द्वेष से मुक्ति पाने के लिए की जाती है। अतः मोक्षाभिलाषी साधक को इन दोनों ध्यानों से विरत रहना चाहिए। प्रशस्त की साधना करने वाला साधक सांसारिक विषय वासनाओं से अपने आपको मुक्त रखता है, क्योंकि इस ध्यान की साधना के लिए जो आलम्बन ग्रहण किया जाता है, उसका स्वरूप ही ऐसा होता है कि वे व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाली दूषित वृत्तियों को नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। उदाहरणस्वरूप - धर्मध्यान श्रुत, चारित्र एवं धर्म से युक्त ध्यान है२३ जबकि शुक्लध्यान निष्क्रिय, इन्द्रियातीत और ध्यान की धारणा से रहित अवस्था है। वस्तुतः ध्यान की साधना का प्रयोजन ही यही है कि साधक समस्त प्रकार की वृत्तियों से मुक्त होकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूपी मार्ग का आश्रय ले, जो उसे मोक्ष या निर्वाण प्राप्त करा सके। यह अवस्था आगमोक्त विधि से वचन, काय और चित्त निरोध के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है, क्योंकि यही ध्यान है। इस अवस्था की प्राप्ति धर्म एवं शुक्ल ध्यान की साधना के द्वारा सम्भव है। ध्यान एवं बौद्ध परम्परा
बौद्ध परम्परा में ध्यान का एक व्यवस्थित स्वरूप मिलता है। इसकी सहायता से व्यक्ति अपने चित्त को शुद्ध करता है तथा कुशल धर्म को बढ़ाता है। विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि बौद्ध ध्यान - साधना, वैदिक एवं जैन-परम्परा की तरह कठोर नहीं है, परन्तु वह यह स्वीकार करती है कि महात्मा बुद्ध एक महान् साधक थे। उनका जीवन कठिनतम साधनाओं के अभ्यास का ज्वलन्त उदाहरण है जिसका साक्षी बौद्ध साहित्य में वर्णित बुद्ध की तपश्चर्या का विवरण है। यद्यपि भगवान् बुद्ध स्वयं महान् साधक थे, परन्तु वे कठोर और उग्र साधना अर्थात् देहदण्डन की प्रक्रिया को निर्वाण-प्राप्ति में उपयोगी नहीं मानते थे। इसके पीछे उनकी यह धारणा थी कि मनुष्य अज्ञानमूलक देह-दण्डन की अपेक्षा ज्ञान-युक्त ध्यानसाधना के अभ्यास से ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है जो अपेक्षाकृत कम कठोर
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और उग्र होती है । बौद्ध ध्यान साधना के सम्बन्ध में डॉ० राधाकृष्णन का यह कथन द्रष्टव्य है “यद्यपि बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या की आलोचना की, फिर भी यह आश्चर्यजनक है कि बौद्ध श्रमणों का अनुशासन किसी भी ब्राह्मण ग्रन्थ में वर्णित अनुशासन (तपश्चर्या) से कम कठोर नहीं है। यद्यपि बुद्ध सैद्धान्तिक दृष्टि से तपश्चर्या के अभाव में भी निर्वाण की उपलब्धि सम्भव मानते हैं, तथापि व्यवहार में तप उनके अनुसार आवश्यक प्रतीत होता है । " २६ डॉ० राधाकृष्णन का यह कथन बौद्ध साधना पद्धति में ध्यान के महत्त्व का परिचायक है।
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जहाँ तक बौद्ध साधना के दिग्दर्शन का प्रश्न है तो यह शील, समाधि और प्रज्ञा इन त्रिविध साधना पद्धतियों के रूप में जाना जाता है। इन्हीं त्रिविध साधना मार्ग में सम्पूर्ण बौद्ध साधना को समाहित माना गया है। शील, ध्यानाभ्यास का आधार है क्योंकि शील में प्रतिष्ठित होने पर ही समाधि की भावना सम्भव है । २७ इसकी महत्ता को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि शील में प्रतिष्ठा के बिना कुलपुत्रों का बौद्ध शासन में प्रवेश नहीं हो सकता है। २८ बौद्ध शासन में प्रविष्ट होने के लिए शील का आचरण परमावश्यक है, क्योंकि उसके बिना समाधि की प्राप्ति सम्भव नहीं है और समाधि कुशलचित्त की एकाग्रता है। २९ काम एवं अकुशल धर्मों का परित्याग किए बिना ध्यान अथवा समाधि को सिद्ध नहीं किया जा सकता है। काम के परित्याग से काम-विवेक एवं अकुशल के परित्याग से चित्त - विवेक की उत्पत्ति होती है। इस कारण से हम अपनी तृष्णा एवं क्लेश को समझ पाते हैं। हम यह जान लेते हैं कि समस्त अनर्थों की जड़ यही तृष्णा एवं क्लेश है। हम जितना अधिक अपनी तृष्णा और क्लेशों के पीछे भागेंगे वह उतनी ही अधिक तीव्रता से अपने संहारक रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होती रहेगी। यह दूसरी बात है कि हम तृष्णा के संहारक रूप को नहीं समझ पाते हैं, फलतः हम निरन्तर उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और सांसारिक दुःख सागर में डूबते-उतराते रहते हैं।
साधक अपनी तृष्णा और क्लेश से मुक्त होने पर समाधि की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। इसके लिए काम - विवेक एवं चित्त-विवेक आवश्यक है। काम - विब्रेक की सहायता से तृष्णा को तथा चित्त-विवेक से अकुशल कर्म के त्याग की प्रवृत्ति का विकास होता है। यह अकुशल परित्याग क्लेश को नष्ट करता है। जब व्यक्ति की तृष्णा एवं क्लेश नष्ट हो जाते हैं तो व्यक्ति अपने चपल - भाव एवं अविद्या का विनाश करता है। व्यक्ति के चपल भाव एवं अविद्या का मूल कारण उसकी राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति को माना गया है। अकुशल परित्याग की सहायता से व्यक्ति राग-द्वेष को अल्पतम कर लेता है और मोह की अवस्था से विरत होकर जीवन जीना प्रारम्भ करता है। मोहविरत व्यक्ति अपने चपल - भाव को संयमपूर्वक कम
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करता जाता है, एकाग्रचित्त से कुशल कर्मों का आश्रय लेकर समाधि भाव को प्राप्त करता है। पञ्चस्कन्धों (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान) का क्षण-क्षण उत्पादन एवं विनाश होता रहता है। उत्पादन और विनाश की यह प्रक्रिया मनुष्य के दुःख का मूल कारण है। यही क्लेश को उत्पन्न करते हैं और ये क्लेश दूषित सन्तति परम्परा के जनक माने गए हैं। इस दूषित सन्तति परम्परा के अवगुणों को जानना एवं उनसे बचने के उपायों का चिन्तन करना ही प्रज्ञा है, यही विपश्यना है। इसे जान लेने पर साधक यह समझ लेता है कि यह सास्रव धर्म दुःख है। वह क्लेशरूप सन्तति परम्परा के दोषों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। इस अवस्था में वह निरन्तर सम्यक् ज्ञान का अभ्यास करता है और अन्ततः अर्हत् पद को प्राप्त कर लेता है। अर्हत् पद ही बौद्ध परम्परा में परम ध्येय है और वस्तुतः ध्यान साधना का यही पूर्ण आध्यात्मिक लक्ष्य माना जा सकता है।
बौद्ध परम्परा में समाधि, विमुक्ति, शमथ, भावना, विशुद्धि, विपश्यना, अधिचित्त, योग, कम्मट्ठाण, प्रधान, निमित्त, आरम्भ लक्खण जैसे शब्द ध्यान के लिये प्रयुक्त किये गए हैं। यहाँ हम पाते हैं कि समाधि और ध्यान दोनों ही पर्यायवाची शब्द हैं, यह सत्य भी लगता है । लेकिन बौद्ध परम्परा में दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध होते हुए भी इनमें सूक्ष्म अन्तर पाया जाता है। विद्वानों की मान्यता है कि ध्यान का परिक्षेत्र समाधि की अपेक्षा कुछ अधिक विस्तृत है। कारण समाधि जहाँ मात्र कुशल कर्मों से सम्बद्ध है, वहीं ध्यान कुशल एवं अकुशल दोनों प्रकार के भावों को ग्रहण करता है।३२ क्षेत्र विस्तार के इस अन्तर के बाद भी इन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अर्हत् पद की प्राप्ति के लिए कुशल और अकुशल कर्मों के विभेद को जानकर कर्म परम्परा से मुक्त हुआ जाता है। इन दोनों प्रकार के कर्मों के स्वरूप को समझने के लिए तथा इनसे मुक्त होने के लिए ध्यान एवं समाधि दोनों का अभ्यास आवश्यक माना गया है।
बौद्ध-परम्परा में ध्यान के मूलतः दो भेद हैं.२ - (क) आरम्भ उपनिज्झाण और (ख) लक्खण उपनिज्झाण। आरम्भ-उपनिज्झाण आलम्बन पर चिन्तन करने वाला ध्यान है, जबकि लक्खण उपनिज्झाण में लक्षणों पर चिन्तन किया जाता है। आरम्भ उपनिज्झाण आठ प्रकार का है - चार रूपावचर और चार अरूपावचर। ये सभी लौकिक ध्यान के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं, जिसके मार्ग को शमथयान कहते हैं। लक्खण उपनिज्झाण लोकोत्तर ध्यान है और उसका मार्ग विपश्यनायान के रूप में जाना जाता है। प्रथम आठ ध्यानों से अभ्यास करके साधक कर्म-संस्कारों को निर्जरित करता है, राग-द्वेष को क्षीण करता है फिर भी अति गहरे कर्म-संस्कार के बीज नष्ट नहीं हो पाते हैं। ये कभी भी उभर सकते हैं और साधक
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को उसके साधना मार्ग से गिरा सकते हैं। अतः इनका समूल नाश होना आवश्यक है और उसके लिए लोकोत्तर ध्यान का अभ्यास आवश्यक है। क्योंकि इनका समूल रूप से विनाश इसी की साधना से सम्भव है। जब साधक के सम्पूर्ण कर्म-संस्कार नष्ट हो जाते हैं, राग-द्वेष की सम्पूर्ण वृत्ति समाप्त हो जाती है तब वह निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। बौद्ध मान्यता में निर्वाण की अवस्था को दुःखों के अत्यन्त निरोध की अवस्था माना गया है। इस निर्वाण के लिए प्रज्ञा में प्रतिष्ठित होना आवश्यक है और प्रजा में प्रतिष्ठित होने के लिए समाधि, सम्यक् समाधि का परिपुष्ट होना अनिवार्य है। इनकी परिपुष्टि हेतु शील सम्पन्न होना आवश्यक है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध परम्परा में ध्यान साधना क्रम-बद्ध, व्यवस्थित एवं संयोजित है । साधक निरन्तर स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति करता है
और अन्त में लोकोत्तर ध्यान में पहुँच जाता है, निर्वाण का साक्षात्कार कर लेता है। तथागत द्वारा प्रवर्तित यह कथन ध्यान की पराकाष्ठा को चित्रित करता है जो अनुकरणीय एवं द्रष्टव्य है।
अतः यह कहा जा सकता है कि वैदिक, जैन और बौद्ध इन तीनों परम्पराओं में ध्यान के सन्दर्भ में समुचित चिन्तन मिलता है। तीनों ने ही एक स्वर से इसकी महत्ता को स्वीकार किया है तथा इसे निर्वाण, मोक्ष, कैवल्य प्राप्ति का एक सबल साधन माना है। यद्यपि इन तीनों परम्पराओं की आध्यात्मिक चिन्तनधारा में तीन तत्त्वों को महत्त्वपूर्ण माना गया है फिर भी ध्यान को एक विशिष्ट स्थान दिया गया है। जहाँ वैदिक परम्परा में कर्म, ज्ञान एवं भक्ति की त्रिपुटी पर बल दिया गया है, वहीं जैनों ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, एवं सम्यग्चारित्र को प्रमुखता दी है एवं बौद्धों ने इस हेतु शील, समाधि एवं प्रज्ञा को महत्त्व दिया है। वस्तुतः ये तीनों तत्त्व ही मोक्ष-प्राप्ति के साधन माने गए, लेकिन इन त्रिविध साधना मार्ग में वही साधक सफल हो पाता है जो ध्यान की सम्यक् साधना करता है।
सन्दर्भ १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। योगसूत्र (पतञ्जलि कृत), टीका हरिकृष्णदास
गोयनका, गीताप्रेस, गोरखपुर, द्वितीय संस्करण, संवत् २०११, १/२ २. एकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानम्। तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं० सुखलाल संघवी,
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६, ९/२७ ३. समन्तपासादिका, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, १९६४, खण्ड १, पृ०
१४५-१४६ ४. युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सते। स्वाय शक्त्या।।
यजुर्वेद, दयानंद संस्थान, नई दिल्ली, ३४/४४
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५. तस्यैव कल्पनाहीनस्वरूपं ग्रहणं हि यत् ।
मनसाध्याननिष्पाद्यं समाधि: सोऽभिधीयते ।। विष्णु पुराण, ६/७/९२, अनु०
श्री मुनिलाल गुप्त, गीताप्रेस, गोरखपुर, संवत् २०२४ ६. न तत्र चक्षुर्गच्छति। केनोपनिषद्, अष्टादश उपनिषद्, वैदिक संशोधन मंडल
पूना, १९५८, १/३ ७. मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽयं लब्ध्वा विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम् ।
ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमृय्युं रन्योऽप्येवं यो विदधात्ममेव ।। कठोपनिषद्, सच्चिदानंद सरस्वती, अध्यात्म प्रकाशन कार्यालय, नरसीपुर
(मैसूर), २/३/१८ ८. हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लप्तो... ...। श्वेताश्वतर उपनिषद, उद्धृत अष्टादश
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गीता, श्री विद्यानंद ग्रंथमाला, काशी, २/६२-६३ १०. तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्। पातञ्जल योगदर्शन – गोयनका, १/३ ११. अभ्यास-वैराग्याभ्यां तन्निरोधः। वही, १/१९ १२. अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। गीता, ६/३५ १३. ध्याने निर्विषयं मनः। सांख्यदर्शन, संपा० पं० जनार्दन शास्त्री पाण्डेय,
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केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, १९२९, ८१ १८. एकाग्र-चिन्ता-रोधो यः परिस्पनदेन वर्जितः।
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अनन्यगत-चित्तस्य विद्यत्ते कर्म-संक्षयम् ॥ योगसारप्राभृत, वीतराग सत्
साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, भावनगर, संवत् २०३४, ६/७ २०. ...ध्यानमप्रशस्त-प्रशस्तभेदेन द्विविधं। चारित्रसार, उद्धृत जैनेन्द्र सिद्धान्त
कोश, भाग २, पृ० ४९५, १६७/२
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वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान : ५९
२२.
२१. रागद्वेषमिथ्यात्वासंश्लिष्टज्ञानं ध्यानमित्युच्यते। भगवती-आराधना, विजयोदया
टीका, अनु० पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, जैन संरक्षक संघ, शोलापुर, १९७८, २१, पृ० ४४ चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा अट्टेझाणे, रोद्दझाणे, धम्मेझाणे, सुक्केझाणे। स्थानाङ्गसूत्र, प्रधान संपा० मुनि श्री मधुकर, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान), १९८१, २१, पृ० ४४
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सभा, सारनाथ (बनारस), १९४३, पृ० १०४-१११ ३४. ते झायिनो साततिका निच्चं दलद्ह पखकमा ।
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* प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
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श्रमण
धूमावली-प्रकरणम्
अनुवाद की : साध्वी अतुलप्रभा
आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित विपुल साहित्य में बहुत कुछ ऐसा भी है जो वर्तमान में उपलब्ध नहीं है किन्तु उनका यह अनुपलब्ध साहित्य पूर्ण रूप से नष्ट हो गया यह कहना समुचित नहीं होगा। अभी अनेक ग्रंथ-भण्डारों का सर्वेक्षण नहीं हो पाया है और यह सम्भावनाएँ बनी हुई हैं कि इन ग्रंथ-भण्डारों के सर्वेक्षण से उनका कुछ अनुपलब्ध साहित्य उपलब्ध हो जाए। हरिभद्र का धूमावली प्रकरण भी एक ऐसा ही ग्रंथ है जो अभी तक अज्ञात ही था। आचार्य हरिभद्र ने जिनभवन निर्माण, जिनमूर्ति प्रतिष्ठा और जिनमूर्ति पूजा के सम्बन्ध में भी अनेक ग्रंथों यथा -
अष्टकों, षोडशकों, विंशिकाओं और पंचाशकों में विवरण प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत धूमावली-प्रकरण भी जिनपूजा से सम्बन्धित है। इसमें जिन प्रतिमाओं की कृति धूप को समर्पित करते हुए यह कहा गया है कि यह धूप मेरा समुद्धार करे। ग्रन्थ के अन्त में भवविरह का होना इस तथ्य का प्रमाण है कि यह याकिनीसून आचार्य हरिभद्र की ही रचना है, क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं के अन्त में पहचान के लिए भवविरह शब्द का प्रयोग किया है। ज्ञातव्य है कि हरिभद्र का एक नाम 'भवविरह स्वामी भी हो गया था क्योंकि वे अपने भक्तों को आशीर्वाद के रूप में 'भवविरह प्राप्त हो' ऐसा कहते थे। प्रस्तुत रचना के अंत में भी भवविरह शब्द का प्रयोग है। इससे माना जा सकता है कि यह रचना आचार्य हरिभद्र की ही है। प्रस्तुत कृति के प्रारम्भ में अर्हन्तों, सिद्धों और मुनियों को समर्पित 'यह धूप मेरा समुद्धार करे' यह भावना व्यक्त की गयी है। इसके साथ ही इसमें त्रिलोक में स्थित शाश्वत जिन प्रतिमाओं का उल्लेख हुआ है। कृति की विशेषता यह है कि इसमें आचार्य, उपाध्याय, साधु, तपस्वी एवं सेवा-भावी व्यक्तियों को भी धूप समर्पण करते हुए यही कहा गया है कि 'यह धूप मेरा समुद्धार करें। अर्हन्त एवं सिद्ध के अतिरिक्त इन्हें भी धूप समर्पित करने का तात्पर्य यही है कि इन्हें भी पूजनीय माना गया है। कृति के अन्त में आचार्य ने भावसुगन्धरूप परमधूप के द्वारा अभिसंस्तुत तीर्थङ्कर और सिद्ध-प्रमुखों से भवविरह अर्थात् मुक्ति प्रदान करने की कामना की।
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धूमावली प्रकरण : ६१
असुरिंदसुरिंदाणं विज्जाहरियसुराणं मुणियपरमत्थवित्थर - विगिट्ठविविहतवसोसियंगाणं । सिद्धिवहुनिब्भरुक्कंठियाण जोगीसराणं च ।। २ ।। जे पुज्जा भगवंतो तित्थयरा रागदोसतमरहिया । विणयपणएण तेसिं समुद्धओ मे इमो धूओ ॥ ३ ॥
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असुरिंदसुरिंदाणं = असुरेन्द्र सुरेन्द्र को; किन्नरगंधव्वचंदसूराणं = किन्नर, गंधर्व, चन्द्र, सूर्य को; विज्जाहरियसुराणं = विद्याधर देव को; सजोगसिद्धाण सयोगी केवली; सिद्धाणं सिद्ध भगवन्तों को; मुणियपरमत्थवित्थर = विस्तृत परमार्थ के ज्ञाता; विगिट्ठ विकृष्ट, उत्कृष्ट, विविहतव विविध तप; सोसियंगाणं शोषित अंगों वाले; च = और सिद्धिवहु सिद्ध वधु; निब्भरु = भरपूर; उक्कंठियाण = उत्कंठित हृदय वाले; जोगीसराणं = योगीश्वरों को; जे पुज्जा भगवंतो तित्थयरा जो पूज्य तीर्थङ्कर भगवंत हैं; रागदोसतमरहिया राग-द्वेष रूपी अंधकार से रहित; तेसिं = उनको; विणयपणएण = विनययुक्त होकर नमस्कार करता हूँ; इमो समुद्धुओ मे धूओ = यह धूप मेरा उद्धार करे ।
'धूमावली' - प्रकरणम्
किन्नरगंधव्वचंदसूराणं । सजोगसिद्धाण सिद्धाणं ।। १ ।।
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अनुवाद : असुरेन्द्र, सुरेन्द्र, किन्नर, गंधर्व, चन्द्र, सूर्य, विद्याधर देव सयोगी केवली तथा सिद्ध भगवंतों को इसी प्रकार विस्तृत परमार्थ के ज्ञाता, उत्कृष्ट विविध तपों से शोषित अंगों वाले, सिद्धि रूपी वधु को प्राप्त करने में भक्ति से भरपूर उत्कंठित हृदय वाले मुनि योगीश्वरों को तथा रागद्वेषरूपी अन्धकार से रहित जो पूज्य तीर्थङ्कर भगवंत हैं, उनको मैं विनययुक्त होकर नमस्कार करता हूँ। यह धूप मेरा समुद्धार करे ।। १-३ ।।
तित्थंकरपडिमाणं कंचणमणिरयणविद्दुममयाणं । तिहुअणविभूसगाणं सासय- सुरवरकयाणं च ॥ ४ ॥ चमरबलिप्पमुहाणं भवणवईणं विचित्तभवणेसु । जाओ य अहोलोए जिणिंदचंदाण पडिमाओ ।। ५ ।। जाओ य तिरियलोए किन्नरकिंपुरिसभूमिनयरेसु । गंधव्वमहोरगजक्खभूय तह (य) रक्खसाणं च ।। ६ ।। जाओ य दीवपव्वय - विज्जाहरपवरसिद्धभवणेसु । चंदसूरगहरिक्ख-तारगाणं
तह
विमा ।। ७ ।।
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६२ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६
तित्थंकरपडिमाणं = तीर्थङ्कर प्रतिमाओं को; कंचणमणिरयणविद्दुममयाणं = कंचनमय, मणिमय, रत्नमय, मूंगामय; सुरवरकयाणं = श्रेष्ठ देवों द्वारा रचित (कृत); तिहुअणविभूसगाणं = तीन लोक में विभूषित; सासय = शाश्वत; विचित्तभवणेसु = विचित्र भवनों में; चमरबलिप्पमुहाणं = चमरेन्द्रबलि प्रमुख; भवणवईणं = भवनपति देव को; जाओ = जानना; य = और; अहोलोए = अधोलोक में; जिणिंदचंदाण पडिमाओ = चन्द्र के समान कान्तिमय जिनेन्द्र प्रतिमाओं को, जाओ य तिरियलोए = तिर्यक् लोक में जो भी; किन्नरकिंपुरिसभूमिनयरेसु = किन्नर किंपुरुष भूमिनगरों में; गंधव्वमहोरगजक्खभूय = गंधर्व, महोरग, यक्ष, भूत; तह = तथा; रक्खाणं च = राक्षसों को; जाओ य = और जानना; दीवपव्वय = दीप पर्वत; विज्जाहरपवर = विद्याधर पर्वत के सिद्धभवणेसु = श्रेष्ठ सिद्ध भवनों में; तह = तथा; चंदसरगहरिक्खतारगाणं = चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारों के विमाणेसु = विमानों में।
अनुवाद : ऊर्ध्वलोक में श्रेष्ठ देवताओं द्वारा निर्मित तीन लोक में विभूषित कंचनमय, मणिमय, रत्नमय, मूंगामय शाश्वत जिनप्रतिमाओं को, अधोलोक में चमरेन्द्रबलिप्रमुख भवनपति देवों के विचित्र भवनों में स्थित चन्द्र के समान कान्तिमय जिनेन्द्र प्रतिमाओं को तिर्यग्लोक में किन्नर, किंपुरुष, गंधर्व, महोरग, यक्ष, भूत, राक्षस आदि व्यन्तर देवों के भूमिगत नगरों में और इसी प्रकार द्वीप, पर्वत एवं विद्याधरों के श्रेष्ठ सिद्ध-भवनों में तथा चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारों के विमानों में जो भी जिनप्रतिमाएँ हैं - उन्हें समर्पित यह धूप मेरा समुद्धार करे ।। ४-७ ।।
जाओ य उड्डलोए सोहम्मीसाणवरविमाणेसु । जाओ मणोहरसणंकुमारमाहिंदकप्पेसु ।। ८ ।। जाओ य बंभलोए-लंतयसुक्के तहा सहस्सारे । आणयपाणयआरण-अच्चुयकप्पेसु जाओ य ।। ९ ।। जाओ गेविज्जेसुं जाओ वरजियवेजयंतेसु । तह य जयंतपराजि (यविमा) णसव्वट्ठसिद्धेसु ।। १० ।।
जाओ य उड्डलोए = यावत् ऊर्ध्वलोक में; सोहम्मीसाणवरविमाणेसु = सौधर्म, ईशान श्रेष्ठ विमानों में; जाओ = जाना; मनोहर = सुन्दर; सणंकुमारमाहिंदकप्पेसु = सनत्कुमार माहेन्द्र कल्पों में; जाओ य = यावत्; बंभलोए-लंतयसुक्के = ब्रह्मदेवलोक, लातंक देवलोक, महाशुक्रदेवलोक; तहा = तथा; सहस्सारे = सहस्रदेवलोक; आणयपाणयआरण = आनत देवलोक, प्रानत देवलोक; अच्चुयकप्पेसु = अच्युत देवलोक के कल्पों में; जाओ य = यावतः जाओ = यावतः गेविज्जेसुं = ग्रैवेयकों में; जाओ = जानना; वरविजयवेजयंतेसु = श्रेष्ठ विजय
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धूमावली-प्रकरण : ६३
वैजयंत में; तह = तथा; जयंतपराजिय = जयंत, अपराजित; विमाणसव्वट्ठसिद्धेसु = सर्वार्थसिद्ध विमानों में।
अनुवाद : ऊर्ध्वलोक में सौधर्म देवलोक, ईशान देवलोक, सनत्कुमार देवलोक, माहेन्द्र देवलोक के सुन्दर श्रेष्ठ कल्पों में तथा ब्रह्मलोक, लातंक देवलोक, महाशुक्र देवलोक, सहस्र देवलोक, आनत देवलोक, प्रानत देवलोक, अच्युत देवलोक के कल्पों में नव ग्रैवेयकों में तथा श्रेष्ठ विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्ध नामक पाँच अनुत्तर विमानों में जो भी जिन प्रतिमाएँ हैं उन्हें समर्पित यह धूप मेरा समुद्धार करे ।। ८-१० ॥
सिद्धाण य सियघणकम्म-बंधमुक्काण परमनाणीणं ।
आयरिया (ण तहेव य पं) चविहायारनिरयाणं ।। ११ ।। तह य उवज्झायाणं, साहूणं झाणजोगनिरयाणं । तवसो(सु)सियसरीराणं सिद्धिवहूसंगमपराणं ।। १२ ।। सुयदेवया वि पंकय-पुत्थ(य) मणिरयणभूसियकराए । वेयावच्चगराणं य समुद्धओ मे इमो धूओ ।। १३ ।।
सिद्धाण = सिद्ध; सियघणकम्मबंधमुक्काण = समस्त घनघाती कर्मों के बन्धन से मुक्त; परमनाणीणं = केवलज्ञानी को तहेव = उसी तरह; पंचविहायारनिरयाणं = पंचविध आचार के पालन में निरत; आयरिय = आचार्य भगवंतों को, तह य = तथा और; उवज्झायाणं = उपाध्याय भगवंतों को; साहूणं = साधु भगवंतों को; झाणजोगनिरयाणं = ध्यान एवं योग में निरत; तवसो सुसियसरीराणं = तप से शोषित शरीर वाले; सिद्धिवहूसंगमपराणं = सिद्धवधु को प्राप्त करने में उद्यमशील है, सुयदेवया वि = श्रुतदेवता भी; पंकय = पंकज; पुत्थम = पुस्तक; मणिरयण भूसिय कराए = मणिरत्नों से भूषित हाथ; वेयावच्चगराणं = सेवा शुश्रूषा करने वाले वैयावृत्य देव भी; मे इमो धूओ = यह धूप मेरा; समुद्धओ = समुद्धार करे।
अनुवाद : समस्त घनघाती कर्मों के बन्धन से मुक्त केवलज्ञानी भगवंतों को, उसी तरह पंचविध आचार के पालन में निरत (तत्पर) आचार्यों को तथा उपाध्यायों को, ध्यान और योग में जो सदैव तल्लीन (निरत) हैं, तप से जिनका शरीर सूख गया है तथा सिद्ध-वधु को प्राप्त करने में जो सदा उद्यमशील हैं ऐसे साधुओं को मणिरत्नों से विभूषित कोमल कमलों पर स्थित पुस्तक युक्त श्रुतदेवता को एवं जिनशासन की सेवा में निरत शासन देवता को समर्पित यह धूप मेरा समुद्धार करे ।। ११-१३ ॥
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६४
:
श्रमण / जनवरी-मार्च/१९९६
एवं अभित्या मो (मे) भावसुगंधेण परमधूवेण । तित्थयरसिद्ध मुहा सव्वे वि कुणन्तु भवविरहं ।। १४ ।।
एवं अभित्थुया = इस प्रकार स्तुति; मो = मेरे द्वारा; भाव सुगंधेण = भाव सुगंध से; परमधूवेण = परम धूप से; तित्थयरसिद्धपमुहा सव्वे वि = तीर्थङ्कर सिद्ध प्रमुख सभी; मे = मुझे; भवविरहं = भव से विरत; कुणन्तु = करे ।
अनुवाद : इस प्रकार मेरे द्वारा तीर्थङ्कर, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु प्रमुख सभी देवी-देवताओं को भावरूपी सुगंधित धूप से की गई यह स्तुति मुझे भव (संसार) से मुक्त करे ।। १४ ।।
(१) जानवर
मारता है
जानवर को
पेट की खातिर ।
आदमी
मारता है
जानवर को
जीभ की खातिर ।
तीन कवितायें
( ३ )
पेड़ से
तोड़ लिये
(२)
खेल समझकर चींटी एक
मसल दिया है तुमने; निष्करुणा से
जीवन एक मिटा दिया है तुमने ।
गुड़हल के फूल
उन्होंने;
मुस्काते
और हर्षात
सुन्दर जीवन
कर दिये समाप्त
उन्होंने ।
डॉ० रमेश कुमार त्रिपाठी आचार्य एवं अध्यक्ष, दर्शनशास्त्र-विभाग,
महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी
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श्रमण
पुस्तक समीक्षा पुस्तक : शब्द-शब्द विद्या का सागर, लेखक : दिगम्बर जैनाचार्य १०८ श्री विद्यासागरजी महाराज, मुद्रक : इण्डियन आर्ट प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ : ४०३, आकार : डिमाई (हार्ड बाउण्ड), मूल्य : चिन्तन-मन।
दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की बुद्धि और मन जहाँ एक ओर तप और दार्शनिकता से ओत-प्रोत है, वहीं उनका हृदय एक सहज कवि-हृदय है। वे जब भी अवसर मिलता है अपने आध्यात्मिक विचारों और अनुभूतियों को काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं।
"शब्द-शब्द विद्या का सागर" में आचार्य श्री की पूर्व प्रकाशित तीन काव्य रचनाओं का संकलन किया गया है। ये हैं - 'नर्मदा के नरम कंकर', 'डूबो मत लगाओ डुबकी' और 'तोता क्यों रोता। पहली और तीसरी कृतियाँ अजमेर से क्रमशः वर्ष १९८० और १९८८ में सर्वप्रथम प्रकाशित हुई थीं और दूसरी कृति का प्रकाशन जबलपुर से १९८४ में हुआ था । अब ये तीनों कृतियाँ एक ही जिल्द में शब्द-शब्द विद्या का सागर में संगृहीत कर दी गई हैं और इसे आचार्य श्री की परम शिष्या दृढ़मति माता जी ने १९१५ में दिल्ली से मुद्रित कराया है।
आचार्य श्री की सभी कविताएँ उनकी साधना और आध्यात्मिक अनुभूतियों को वाणी प्रदान करती हैं और उन्हें इसी रूप में ग्रहण भी किया जाना चाहिए। वे जहाँ एक ओर जीवन की गहनतम सच्चाइयों को चित्रित करती हैं, वहीं दूसरी ओर उनके दर्शन और विचारों को भी उद्घाटित करती हैं।
आचार्य श्री एक तपस्वी हैं और एक प्रतिबद्ध तपस्वी के अतिरिक्त भला और कौन मन के विचलन को समझ सकता है ? इसीलिए तो वे कह पाते हैं कि
'मन को छोड़ो । बिना मतलब / उसे / मत मारो ...
मन का शोषण / उल्टा तनाव उत्पन्न करता है
किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि शोषण की बजाय मन का अनावश्यक पोषण किया जाए। पोषण से तो प्रमाद होता है और उससे -
बुझता है आत्मा का / शिवपथ सहायक ! अतः वे निर्देश देते हैं कि
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वीणा का तार इतना मत कसो । कि / टूट जाए संगीत संवेदना की धार / छूट जाय !
यह 'नर्मदा के नरम कंकर' में से केवल एक उदाहरण है जिसमें आचार्य श्री ने वह आध्यात्मिक ज्ञान दिया है जिसे हम सब अपने व्यवहार में अमल में ला सकते
हैं।
___ 'डूबो मत लगाओ डुबकी' के अन्तर्गत संगृहीत कविताओं में इसी शीर्षक से एक स्वतन्त्र कविता भी है। इसमें आचार्य श्री ने जीवन और मृत्यु के भेद को 'डुबकी लगाने' और 'डूबने' के बीच जो अन्तर है, उसे स्पष्ट किया है। अनेक कविताओं में उन्होंने इसी प्रकार के न जाने कितने दार्शनिक विचारों को काव्यकणों में पिरोया है। 'भीगे पंख' शीर्षक कविता में उन्होंने रागादि से उत्पन्न मनुष्य की विवशता को जो उसके आध्यात्मिक स्वतन्त्रता के लिए बाधक होती है, भीगे पंख वाली एक मक्षिका की तरह प्रस्तुत किया है। यह मक्षिका भीगे पंख होने से
उड़ने की इच्छा रखती है । पर उड़ ना पाती है धरती के ऊपर उठ न पाती । यह सत्य है कि रागादि की चिकनाहट । और पर का संपर्क परतंत्रता का प्रारूप है
'तोता क्यों रोता' शीर्षक में भी इसी प्रकार अनेकानेक विचार-कण अनुभूतियों में पगे हैं और काव्यात्मक भाषा में रचे-बसे हैं। इसमें एक कविता अपने काव्यात्मक सौष्ठव के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है – 'नरम में न रम' -
अरे मन / तू रमना ही चाहता है । श्रमण में रम चरम चमन में रम / सदा सदा के लिए / परम नमन में रम । न रम नरम में / न...रम ! न...रम !
- प्रो० सुरेन्द्र वर्मा
पुस्तक : चेतना के गहराव, लेखक : दिगम्बर जैनाचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज, मुद्रक : इण्डियन आर्ट प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ : ९४ ,आकार : क्राउन, प्रथम संस्करण : १९९५, मूल्य : चिन्तन-मनन।
चेतना के गहराव' में सन्त कवि आचार्य श्री विद्यानंद जी की लगभग ८० कविताएँ संगृहीत हैं। इन्हें पाँच खण्डों में प्रस्तुत किया गया है। ये हैं – 'प्रकृति की गोद में' (१४ कविताएँ), 'लहराती लहरें' (६ कविताएँ), 'चेतना के गहराव में' (२७ कविताएँ), 'चेहरे पर आलेख' (१५ कविताएँ) और 'जीने की विधा' (१५ कविताएँ)।
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पुस्तक समीक्षा : ६७
खण्ड, 'प्रकृति की गोद में' मुख्यतः प्रकृति और मनुष्य के बीच रिश्तों को परिभाषित करती कविताएँ हैं । 'छुअन में कहा गया है -
प्रकृति प्रमदा / प्रेम वश / पुरुष से लिपटी । हरिताभ हँस पड़ी / प्रणय कली / महकी गंध भरी / खुल खिल पड़ी रक्ताभ लस रही। किंतु / पुरुष सचेत है... इसी प्रकार ‘सो जाने दो' कविता में वे कहते हैं - ओरी / ललित लीलावती / चलित शीलावती / भ्रमित चेतना जब से तेरा / क्रीड़ास्थल / बाहर से भीतर आ बना है। तब से पुरुष की पीड़ा / और घनीभूत हुई है... अब पुरुष को । सानंद अनंत काल तक / सो जाने दो !
'लहराती लहरें खण्ड में संगृहीत काव्य लहरियाँ भी मुनि के मानस से उठकर आध्यात्मिक ऊँचाइयाँ स्पर्श करती हैं। यहाँ भी पुरुष और प्रकृति के गहन रिश्ते की ही गवेषणा की गई है -
प्रकृति को मत पकड़ो / पर परखो उसे ये तो क्षणिकाएँ हैं | पकड़ में नहीं आती भ्रम-विभ्रम की जनिकाएँ हैं तुम पुरुष हो, पुरुषार्थ करो...
'चेतना के गहराव' खण्ड के अन्तर्गत पाठक के लिए संकेत है कि वह उस आध्यात्मिक गहराई को, जो उसे भटकने से मुक्त कर सकती है, समझे और जाने। पुरुष से आग्रह किया गया है कि
चेतन हो तुम / पहचान करो... समता को नित / अनुपान करो ! ('पता तू बता')
समता क्या है ? मुनि भी कहते हैं, यह तामस का विलोम है। इसीलिए वे कामना करते हैं कि 'अंग अंग में, रग रग में, विश्व का तामस आ भर जाय, किन्तु विलोम भाव से ! ता... म...स- स... म... ता!
वे कविताएँ ही क्या जो पढ़ने वाले के चेहरे पर अपना आरेख अंकित न कर पाएँ ! चेहरे के आलेख' खण्ड में ऐसी ही कविताएँ हैं। उनमें जहाँ आध्यात्मिक प्रकाश है, वहीं व्यंग्य का हलका पुट भी है । 'धर्मयुग' शीर्षक कविता में वे कहते हैं कि 'यह युग, अप्रत्याशित, आगे बढ़ चुका है बहुत दूर; और धर्म... बहुत दूर पीछे रह चुका है। अन्यथा, पत्रिका का नाम - 'धर्मयुग' क्यों पड़ा है ?
इसी प्रकार जीवन की सर्वोत्तम विधा को परिभाषित करते हुए, आचार्य श्री कहते हैं -
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प्रतिकूलता का / प्रतिकार नहीं करना / यह कायरता नहीं है । पुरुषार्थ हीनता नहीं है । अपितु पुरुष का परम - पुरुषार्थ इसी पथ पर... (पृष्ठ ७६)
. - प्रो० सुरेन्द्र वर्मा पुस्तक : मुक्तक शतक, लेखक : दिगम्बर जैनाचार्य १०८ श्री विद्यासागरजी महाराज, मुद्रक : इण्डियन आर्ट प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ : ३८, आकार : डिमाई, प्रथम संस्करण : १९९५, मूल्य : चिन्तन-मनन।
'मुक्तक शतक' में दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के चार-चार पंक्तियों के १०० मुक्तक संगृहीत हैं । इनमें जैन-दर्शन को एक काव्यात्मक पद्धति से अभिव्यक्ति दी गई है । 'शिव-सदन' तक पहुँचने के लिए 'शिव-पथ' बताया गया है जो स्पष्ट ही निवृत्ति-मार्ग ही है। इसी निवृत्ति मार्ग का पालन करते हुए, व्यक्ति 'शिव-सुख' प्राप्त कर सकता है। मुनि श्री कहते हैं -
सुख दुःख में समान मुख रहे, तब मिले शिव सुख अन्यथा बस दुस्सह दुःख ऊर्ध्व, अधो, पार्श्व, सन्मुख !
मुक्तक शतक के मुक्तक दर्शन और आध्यात्मिकता से परिपूर्ण हैं। इन्हें धार्मिक वृत्ति के लोग रुचि से पढ़ेंगे और मनन करेंगे ।
आचार्य श्री विद्यानंद के उपर्युक्त तीनों ही काव्य संग्रहों का प्रकाशन और मुद्रण सुरुचिपूर्ण ही नहीं बल्कि सभी दृष्टियों से उत्तम उत्पाद है। चिकने आवरण और पुष्ट-पीले कागज पर मुद्रित ये कृतियाँ संग्रहणीय हैं । सभी पुस्तकें इण्डियन आर्ट प्रेस में छपी हैं और उनकी शिष्या दृढ़मति माताजी के आशीर्वाद से प्रकाशित हुई हैं।
-प्रो० सुरेन्द्र वर्मा पुस्तक : सचित्र-सिद्धसरस्वती सिन्धु, सम्पादक : मुनि कुलचन्द्रविजय, प्रकाशक : श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन मन्दिर, रान्देर रोड, श्वेताम्बर मूर्ति तथा जैन श्रीसंघ, अड़ाजण पाटिया, सूरत - १ (गुजरात), पृष्ठ : १४१, मूल्य : ६५ रुपये, प्रकाशन वर्ष : १९९४।
इस पुस्तक में वाग्देवी सरस्वती की ६८ स्तुतियों का भव्य संकलन किया गया है। यह तीन विभागों में विभक्त है - प्रथम भाग में जैन कवियों की द्वितीय भाग में जैनेतर कवियों की तथा तृतीय में गुजराती कवियों की स्तुतियों का संग्रह है।
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पुस्तक समीक्षा : ६९
अधिकांश स्तुतियाँ संस्कृत भाषा में उपनिबद्ध हैं। प्रारम्भ के दो स्तोत्रों की भाषा प्राकृत है तथा चालीस स्तोत्र संस्कृत भाषा में तथा अन्तिम २४ स्तोत्र गुजराती में हैं। स्तोत्रकारों में मुख्यरूप से सिरिपउमसूरि, चिरन्तनाचार्य, बप्पभट्टिसूरि, मुनिसुन्दरसूरि, साध्वी शिवार्या, जिनप्रभसूरि, मलयकीर्ति, मुक्तिविमलगणि, सुमतिसागरमुनि, धर्मसंघसूरि, मुनिरत्नवर्धन, दानविजयमुनि, कवि कालिदास तथा अनेक अज्ञातनामा कवि हैं।
स्तोत्रकाव्य संस्कृत वाङ्मय का मधुरतम नवनीत है। सभी स्तोत्रों में भक्तकवियों ने सहज गुणालंकार मण्डित छन्दोमयी सुललित भाषा में भक्तिरस की धारा प्रवाहित की है। संस्कृत के प्रायः सभी कवियों ने अपने महाकाव्यों में भी स्तुति के कोई न कोई प्रसंग खोज कर देवस्तुतियाँ की हैं। यह उनकी आस्तिक्य बुद्धि का ही उत्तम विलास है । स्तुतिकाव्यों के पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है मानों स्तुतिकारों के समक्ष अलंकारशास्त्र हाथ जोड़े खड़ा रहता है। सभी स्तुतियाँ शब्दालंकारों की छटा से परिपूर्ण हैं। उन्तीसवाँ स्तोत्र ( सरस्वतीशतनामस्तव) 'स' वर्ण के अनुप्रास से अलंकृत है। सरस्वती के सभी १०० नाम 'स' या 'श' वर्ण से प्रारम्भ होते हैं। इसी प्रकार कहीं यमक अलंकार, कहीं वृत्त्यनुप्रास तथा कहीं अन्त्यानुप्रास रस का उपकारक बनकर रसिक जनों को भावविह्वल कर देने वाला है। अनेक स्तोत्र बीजमन्त्रगर्भित होने के कारण तन्त्रविद्या के विद्वानों के लिए उपयोगी हैं। संकलनकर्ता ने सरस्वतीविषयक लगभग सभी स्तोत्रों का इसमें संग्रह किया है। अनेक स्तोत्र पाण्डुलिपियों से प्रथम बार प्रकाश में आए हैं। सम्पादक का परिश्रम, रुचि और मनोयोग श्लाघनीय है।
पुस्तक का एक अन्य आकर्षण भी है। इसमें सरस्वती की अनेक दुर्लभ प्रतिमाओं के चित्र भी दिये गए हैं, जिनकी संख्या लगभग ५२ है । मूर्तिकलाविद् पुरातत्त्ववेत्ताओं के लिए महत्त्वपूर्ण है।
पुस्तक काव्यरसिक, तान्त्रिक, पुरातत्त्वविद् श्रीविद्याप्रेमी तथा श्रुतदेवी के भक्तजनों, विद्वानों के लिए उपयोगी है, संग्रहणीय है।
पुस्तक की साज-सज्जा उत्तम है यद्यपि कुछ मुद्रण दोष रह गये हैं । कतिपय प्रमादजन्य अशुद्धियाँ भी दिखायी देती हैं, जो इस प्रकार हैं
पृष्ठ सं० २७ पृष्ठ सं० २७ - पृष्ठ सं० ५७ पृष्ठ सं०५८
शक्तिरष्टबीजानिराकृतिः )
पृष्ठ सं० ६५
पृष्ठ सं० ६५
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समीरितं (समीरितम्) चतुर्थकं । । (चतुर्थकम् । । )
धीषणा ( धिषणा)
क्लींकारहृदयाशक्तिः रष्टबीजानिराकृतिः (क्लींकारहृदया
ॐ यस्य श्री सरस्वती (ॐ अस्य श्रीसर० )
मार्कण्डेयाश्वलायना ऋषिः (मार्कण्डेयाश्वलायना ऋषी)
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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६
पृष्ठ सं० ६८ पृष्ठ सं० ६९
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वाग्परिम्लिष्टपंक: (वाक्परिम्लिष्टपङ्कः)
हृज्जाड्यं विलयं यांति (हृज्जाड्यं विलयं याति )
• प्रो० सुरेश चन्द्र पाण्डे
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ग्रन्थ : परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी, ग्रन्थकार : डॉ० के० आर० चन्द्र, प्रकाशन : प्राकृत जैन विद्या विकास फण्ड, अहमदाबाद, १९९५, आकार : डिमाई, मूल्य : ५० रुपये, पृष्ठ : १५२ ।
इस ग्रन्थ में प्राकृत भाषा के व्याकरण सम्बन्धी नियमों का ऊहापोहपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। लेखक ने सभी प्राकृत व्याकरण ग्रन्थों का तथा प्राकृत व्याकरण पर भाषावैज्ञानिक दृष्टि से शोध करने वाले भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन कर व्याकरण के नियमों की वैदुष्यपूर्ण मीमांसा की है । ग्रन्थ में
1
१५ अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के विषय में विवेचन किया गया है । द्वितीय अध्याय में मध्यवर्ती 'त' के 'द' में परिवर्तन की प्रवृत्ति का ऐतिहासिक क्रम से प्रतिपादन है। इसी प्रकार तृतीय अध्याय में मध्यवर्ती 'प' का 'व' होना, चतुर्थ में मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यञ्जनों का लोप, पञ्चम में मध्यवर्ती उद्वृत्त स्वर के स्थान में 'य' श्रुति की यथार्थता, षष्ठ में 'ङ्' और 'ञ्' का अनुस्वार में परिवर्तन, सप्तम में नकार का कार में परिणत होना, अष्टम में मध्यवर्ती नकार की स्थिति, नवम में 'ज्ञ' का 'न' या 'ण' में परिवर्तन, दशम में ण्य, न, न्य, र्ण का 'न' या 'ण्ण' होना, एकादश में सप्तमी एकवचन के 'स्मिं' प्रत्यय पर विवेचन, द्वादश में कुछ अन्य विभक्ति प्रत्यय, त्रयोदश में 'ळ' व्यञ्जन पर विचार, चतुर्दश तथा पञ्चदश अध्यायों में अर्धमागधी के स्वरूप पर विचार - इन विविध विषयों का प्रतिपादन किया गया है।
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विद्वान् लेखक ने प्राकृत व्याकरण की उन सभी सूक्ष्म समस्याओं पर गम्भीरता से विवेचना की है जो प्रायः प्राकृत भाषा प्रेमियों के समक्ष उपस्थित रहती हैं। सभी विषयों का विशद प्रतिपादन लेखक के गम्भीर एवं व्यापक अध्ययन तथा विस्तृत अनुभव का परिचायक है। समस्याओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझ कर उनके निराकरण का प्रयास किया गया है। अनेक मौलिक तथ्यों को उजागर किया गया है। लेखक की भाषा वैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि और नवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा समग्र ग्रन्थ में प्रतिबिम्बित है।
पुस्तक के प्रारम्भ में ही लेखक ने प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र के प्रकृतिः संस्कृतम् पर विचार करते हुए कहा है कि हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्रयुक्त 'प्रकृति' शब्द का अर्थ यही होता है कि प्राकृत भाषा को समझने के लिए संस्कृत का आश्रय लिया जाता रहा है। उसे आधार मानकर समझाया जा रहा है, इससे
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पुस्तक समीक्षा : ७१ अलग ऐसा अर्थ नहीं कि संस्कृत प्राकृत की जननी है या उसमें से उसकी उत्पत्ति हुई है। लेखक का यह मन्तव्य मौलिक नहीं है क्योंकि पहले शब्दानुशासन के व्याख्याकार ज्ञानमुनि भी अपनी भूमिका ( पृ० ख, ग, दिल्ली, १९७४) में यही बात कह चुके हैं।
लेखक ने एक स्थान पर कहा है - "इह में से इध हुआ हो यह भी सही नहीं है। मूल तो इध ही था, उसमें से ही संस्कृत में इह बना है ।" इस मान्यता को प्रमाणित करने के लिये कोई पुष्ट तर्क नहीं दिया गया।
पुस्तक के “ङ् और ज् व्यञ्जन का अनुस्वार में परिवर्तन" शीर्षक छठें अध्याय में लेखक ने उक्त दो व्यञ्जनों के सम्बन्ध में विविध वैयाकरणों की मान्यताओं का महत्त्वपूर्ण विवेचन किया है। उन्होंने पृष्ठ ३८ में ञ् ङ् के अनुस्वारीकरण के प्रसंग में हेमचन्द्र की एक विसंगति की ओर ध्यान आकृष्ट कराया है। लेखक का कहना है कि हेमचन्द्र ने 'अथ प्राकृतम्' सूत्र की वृत्ति में 'ङ् ञौ स्ववर्ग्य संयुक्तौ भवत एव' कहा है तथा 'ङ् ञ् णमो व्यञ्जने' सूत्र में उनके अनुस्वार हो जाने की बात कही है, अर्थात् जब ङ् ञ् व्यञ्जन का अनुस्वार हो जाना कहा गया तो उनका व्यञ्जन रूप में प्रयुक्त होना क्यों
कहा गया।
वस्तुतः यहाँ विसंगति नहीं है, क्योंकि हेमचन्द्र के मन्तव्य को टीकाकर समीचीन रूप में समझा देते हैं। वे कहते हैं - " यद्यपि प्राकृतवर्णसमाम्नाये ङ् ञ् इत्येतयोः वर्णयोः प्रतिषेधः कृतोऽस्ति परन्तु यदीमौ वर्णौ स्ववर्ग्यसंयुक्तौ स्याताम् तर्हि अनयोः प्रयोगो यथायथं भवति" । अर्थात् प्राकृत भाषा में ङ् और ज् का स्ववर्गीय व्यञ्जन से संयोग से भिन्न स्थल में स्वतन्त्र रूप से प्रयोग नहीं होता जब भी वे देखे जाते
हैं स्ववर्ग्यसंयुक्तरूप में ही देखे जाते हैं। जैसे पराङ्मुख का परंमुहो ही बनेगा
परङ्हो नहीं बनेगा।
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पुस्तक के ग्यारहवें अध्याय में सप्तमी विभक्ति के प्रत्ययों पर किया गया समीक्षात्मक तथा तुलनात्मक विवेचन भाषाशास्त्रीय विद्वानों के लिये परम उपयोगी है, इन प्रत्ययों के भाषिक विकासक्रम का प्रतिपादन मनोग्राही, विद्वत्तापूर्ण तथा परिश्रमसाध्य है। लेखक की सूक्ष्म विश्लेषण बुद्धि का प्रसाद है। लेखक ने 'म्मि' प्रत्यय की उत्पत्ति 'म्ह' से मानी है और लेखकों, पाठकों तथा लिपिकों के प्रमाद से स और म के बीच भ्रम हो जाने से 'म्सि' का 'म्मि' या 'सि' या 'मि' में परिवर्तन हो गया होगा, लेखक की यह उद्भावना सर्वथा समीचीन प्रतीत होती है।
चतुर्दश अध्याय में लेखक ने एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट कराया है, वह यह कि आगम ग्रन्थों की अर्धमागधी में प्राचीन तथा उत्तरवर्ती दोनों ही प्रकार के पाठ मिलते हैं। • जैसे भगिणी, भइणी, एगदा, एगया, पादाणि,
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पायाणि इत्यादि। कभी-कभी एक ही पद्य में द्विविध पाठान्तर मिलते हैं। इस प्रकार की विसंगति का मूल कारण पाठक और लेखक ही रहे हैं। इस सन्दर्भ में लेखक का निवेदन है कि प्राचीन पाठ को मूल पाठ मानकर उसे प्राथमिकता दी जाय जिससे मूल प्राचीन अर्धमागधी का संरक्षण हो सके। लेखक का यह निवेदन समस्त आगम अध्येताओं के लिये तथा विशेषरूप से पाठालोचकों के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और परम उपयोगी है। इसी प्रकार मध्यवर्ती व्यञ्जनों के लोप के विषय में भी लेखक का निष्कर्ष ध्यातव्य है, सराहनीय है।
पुस्तक को समग्र रूप से पढ़कर यही धारणा बनती है कि यह प्राकृत के अध्ययन के क्षेत्र में नई दिशा का उन्मीलन करने वाली है। ग्रन्थ लेखक की नितान्त शोधवृत्ति तथा भाषावैज्ञानिक दृष्टि का परिचायक है। प्राकृतभाषा में रुचि रखने वालों के लिये तथा विशेषरूप से आगमों पर शोध करने वाले विद्वज्जनों के लिये अवश्य पठनीय है, संग्रहणीय है। ऐसा विश्वास होता है इसे पढ़कर उनकी अनेक भ्रान्त धारणाओं का निराकरण होगा।
- प्रो० सुरेश चन्द्र पाण्डे पुस्तक : द्रव्य संग्रह, लेखक : आचार्य श्री नेमिचंद्र, हिन्दी पद्यानुवाद : आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज, संकलनकर्ता : परिमल किशोर भाई खंधार, प्रकाशक : श्रीमती समताबहेन खंधार चेरिटेबल ट्रस्ट, अहमदाबाद, प्रथम संस्करण : १९९४, पृष्ठ : ७६, मूल्य : स्वाध्याय, आकार : डिमाई पेपरबैक।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत द्रव्यसंग्रह एक अनूठी प्राकृत काव्य रचना है। इसमें गाथाकार ने मात्र एक-एक गाथा में विराट अर्थ सँजोकर गागर में सागर भरने का प्रयास किया है। प्रथम गाथा में जिनेश्वर वृषभदेव का मंगलगान करने के उपरान्त गाथा २-१४ तक जीव के विभिन्न पक्ष-नव अधिकार, उपयोग, अमूर्तत्व, कर्तृत्त्व, भोक्तृत्त्व, स्वदेह परिणाम, जीवों के भेद, सिद्धत्व और ऊर्ध्वगमन को एक गाथा में विश्लेषित कर स्पष्टतः अभिव्यक्त किया गया है। इसी प्रकार विभिन्न अजीव द्रव्यों -पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल की भी उसी क्रम में गाथा १५-२६ में व्याख्या की गई है। आगे सप्त पदार्थों का अंकन गाथा २७ से ३७ तथा मोक्ष के कारण या उपाय की दृष्टि से रत्नत्रय का परिचय भी बड़ा सूक्ष्म है। ध्यान की विशेष उपलब्धि के लिए ध्यान का विश्लेषण और परमेष्ठी वन्दन भी उपादेय है, जो गाथा ४७ से ५७ में समाहित है।
आचार्य श्री विद्यासागरजी ने भी उसी क्रम से एक-एक गाथा को एक-एक पद्य द्वारा बड़े ही सरस और सूक्ष्म ढंग से हिन्दी में अनुवाद कर पुस्तक को जन-जन
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संवेद्य बना दिया है। अतएव पुस्तक संग्रहणीय है। पुस्तक का मुद्रण कार्य निर्दोष एवं सुन्दर है। पुस्तक का बाह्य आवरण भी आकर्षक है।
- डॉ० ब्रजनारायण शर्मा पुस्तक : आत्म समीक्षण, रचयिता : आचार्य नानेश, सम्पादक : शान्तिचन्द्र मेहता, प्रकाशक : श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, समता भवन, बीकानेर, (राज.), पृष्ठ : ४६३, मूल्य: ६० रुपये मात्र।
प्रस्तुत रचना ग्यारह अध्यायों में विभक्त है। पहला अध्याय है - आत्मसमीक्षण जिसका प्रारम्भ अन्तर्यात्रा से होता है। आत्मा आन्तरिक तत्त्व है इसलिये इसकी यात्रा बाहर से न की जा सकती है और न देखी जा सकती है। यह यात्रा आत्मरमण की स्थिति होती है जो बिना आत्म-चेतना की जागरुकता के सम्भव नहीं होती है। इसलिए दूसरे अध्याय में अपनी चेतना का आह्वान किया गया है। अध्याय तीन में चेतना की प्रबुद्धतम एवं जागृति पर प्रकाश डाला गया है। आत्म-जागृति का अर्थ है सम्यक्त्व भाव। अध्याय चार में बताया गया है कि जो आत्मा को जानता है वह सत्य को जानता है। सत्य भगवान होता है। महात्मा गाँधी ने कहा है कि सत्य ईश्वर है और उस सत्येश्वर को अहिंसा के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। यद्यपि सत्य को ईश्वर के रूप में स्वीकार करना गाँधी मत के समान है, किन्तु जैन चिन्तन से कुछ अलग ज्ञात होता है, क्योंकि उसमें अहिंसा को ही साध्य रूप में स्वीकार करके सत्य आदि को साधन के रूप में माना गया है। अध्याय पाँच में कर्म सिद्धान्त विश्लेषित है। अध्याय छः में आत्मशुद्धि, भावशुद्धि, समदर्शिता आदि के विवेचन हैं। अध्याय सात में ज्ञेय, हेय तथा उपादेय को स्पष्ट किया गया है, क्योंकि इनके बोध होने से ही स्वाभाविक गुणों का विकास होता है, मानव का सही रूप में निर्माण होता है। अध्याय आठ से ज्ञात होता है कि विनय धर्म का मूल है । अध्याय नौ में रत्नत्रय की साधना पर बल दिया गया है, क्योंकि ये तो जैन धर्म-दर्शन के आधार स्तम्भ हैं। अध्याय दस में 'मैं' के विविध रूपों को प्रकाशित किया गया है। 'मैं' आत्मबोध करता है, अपने स्वरूप को जानता है। 'मैं' रत्नत्रय को धारण करके मुनि बनता है। 'मैं' ज्ञान की साधना करके उपाध्याय कहा जाता है। 'मैं' अनुशासन करने के कारण आचार्य होता है। मैं जब वीतराग को अपनाता है तो वह अरिहन्त कहा जाता है; जब 'मैं' शुद्ध बुद्ध हो जाता है तब उसे सिद्ध कहते हैं; 'मैं' अनश्वर ओऽम् है । आत्मतत्व के विकास के विविध सारों का विश्लेषण इस रचना की विशेषता है। अभ्यास-ग्यारह में समता को महत्त्व दिया गया है, क्योंकि मानव जीवन में विजयी बनने के लिए समता ही मूल मंत्र है, किन्तु समता को सिर्फ दार्शनिक या सैद्धान्तिक रूप तक ही सीमित रखना अपने को 'विजय' से दूर रखना है। इसलिए इसे व्यवहार में लाकर सबका कल्याण और साथ ही अपना
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कल्याण भी सम्भव है। अध्यायों के अन्त में आचार्य श्री ने अपना संकल्प प्रस्तुत करके धर्म, आचार और समाज के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की है जो उनकी लोकहितकारिणी दृष्टि का परिचय देती है।
विश्वास है इस पुस्तक से सन्त, विद्वान् एवं सामान्यजन भी लाभान्वित होंगे। पुस्तक की छपाई साफ और सुन्दर है तथा बाह्य रूप आकर्षक है। इस रचना के लिए लेखक, सम्पादक अन्य सम्बन्धित लोग बधाई के पात्र हैं।
- डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा पुस्तक : ज्ञान का विद्या-सागर, भेंटकर्ता : श्रीमती रमा जैन, पुरानागंज, सिकंदराबाद, बुलंदशहर (उ० प्र०), प्रकाशन वर्ष : १९८३ ई०, पृष्ठ : ३९२, मूल्य : सदुपयोग।
ज्ञान का विद्या-सागर नामक पुस्तक में आचार्य विद्यासागर जी की रचनाएँ संकलित हैं। विद्यासागरजी आचार्य ज्ञानसागरजी के सुशिष्य हैं। सम्भवतः इसीलिए पुस्तक का नामकरण इस रूप में हुआ है, किन्तु श्री विद्यासागर जी का नाम तो रचयिता के रूप में आना चाहिए था। यदि नामकरण में कोई अन्य उद्देश्य छिपा है तो वह पाठकों के लिए और दुरूह है। पुस्तक अध्यायगत नहीं बल्कि विषयगत विभाजित है जिसमें स्तुति, शतक आदि हैं। गुरु की महानता को बताते हुए कहा गया है कि शिष्य अन्धा बहरा के समान होता है, अज्ञ होता है उसे वे आँख और कान से युक्त बना देते हैं, विज्ञ बना देते हैं। इसका मतलब यह है कि गुरु शिष्य को ज्ञान का स्रोत प्रदान करने से उसे ज्ञानी बना देते हैं। मंगलाचरण में सम्यक्त्व तथा कर्म की चर्चा है, जहाँ कहा गया है कि कर्म के उदय से पाप आता है तो सम्यक्त्व से उसे दूर करना चाहिए अन्यथा सम्यक्त्व से क्या लाभ? यदि पाप दूर नहीं होगा तो मुक्ति ललना कभी वरने को तैयार नहीं होगी। मुक्ति जो एक आध्यात्मिक विषय है, के महत्त्व को सामान्य भाषा में समझाकर कवि ने अपनी दार्शनिक एवं साहित्यिक दोनों ही सूझबूझ का परिचय दिया है। भावनाशतक में कहा गया है कि संसार सागर जो असार है, अपार है तथा खरा भी है उसे पार कराने वाला धर्म के सिवा और कोई नहीं है। ज्ञानोदय में दुःख-सुख अशुभ-शुभ में समभाव रखने वाले शुचितम चेतन को प्रणम्य कहा गया है। जो बुद्धिमान है उसके लिए प्रमाद करना योग्य नहीं है। रयणमंजूषा तो आचार्य समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकश्रावकाचार का पद्यानुवाद है। अतः इसका तो कहना ही क्या ? नामानुसार इसमें श्रावकों के सभी आचार विवेचित हैं। निजामृतपान में निश्चयनय और व्यवहारनय की उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है। विशुद्ध नय के आश्रय में ही स्वानुभूति होती है जो निर्मल और पूर्व प्रकाशित होती है। गुणोदय में आत्मानुशासन का विवेचन करते हुए कहा गया है कि सुख एवं दुःख दोनों ही स्थितियों में धर्म की आवश्यकता होती है। राग-द्वेष प्रवृत्ति
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पुस्तक समीक्षा : ७५
है तथा उसका निग्रह करना निवृत्ति। समन्तभद्र की भद्रता में समन्तभद्र की महानता वर्णित है । द्रव्य संग्रह में जीव के लक्षण, योग, परमेष्ठी आदि का वर्णन है । समणसुत्तं का हिन्दी पद्यानुवाद सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि समत्व को जैन गीता कहा गया है और इसका संकलन विभिन्न सम्प्रदायगत भेदभावों को छोड़कर किया गया है। यह संकलन जैन एवं जैनेतर सभी पाठकों के लिए हितकारी है। इस प्रकार यह संकलन 'ज्ञान का विद्यासागर' दार्शनिक, धार्मिक एवं नैतिक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इसकी भाषा सरल और सुरुचिपूर्ण है। अतः इसके संकलनकर्ता साधुवादाह हैं।
-डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा पुस्तक : दर्शन-वंदन-सामाजिक विधि, सम्पादक : गणिवर्य महोदय सागर, प्रकाशक : श्री अचल गच्छ जैन संघ, अहमदाबाद, प्रथम संस्करण : १९९५, पृष्ठ : ७७, आकार : डिमाई, मूल्य : १० रुपये।
श्री अचल जैन संघ, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित 'दर्शन-वंदन-सामाजिक विधि', जैन दैनिक आचार पर लिखी एक उत्कृष्ट रचना है। पुस्तक तीन भागों में विभाजित है। प्रथम भाग में गुरुवंदन' विधि सूत्र का वर्णन है जिसमें इच्छामि खमासमण सूत्र, श्री इच्छकार सूत्र और श्री अब्भुट्ठियो सूत्र का समावेश है । 'चैत्यवंदन विधि सूत्र' नामक द्वितीय भाग में स्तुति, चैत्यवंदन सूत्र, श्री जं किं ची सूत्र, श्री नमोत्थुणं सूत्र आदि ग्यारह सूत्रों एवं श्री स्तुति का समावेश किया गया है। तीसरा भाग सामायिक सूत्र का है जिसमें पंचिन्द्रिय सूत्र, इरियावदिय सूत्र, श्री तस्सउत्तरी सूत्र, श्री अनत्थ सूत्र आदि ग्यारह सूत्रों को समाहित किया गया है। इसके अतिरिक्त नवकार महामन्त्र, चौबीस तीर्थंकरों के नाम एवं लांछन वर्णन आदि पुस्तक में चार चाँद लगा देते हैं। दैनिक आचार की दृष्टि से श्रावक एवं श्रमण दोनों के लिए यह कृति अत्यन्त उपयोगी है। पुस्तक की साज-सज्जा अच्छी एवं कृति संग्रहणीय है।
- डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय
Book : Miracles of Mahāmantra Navakāra, Author : Ganivarya Mahodaya Sagar, Published by Kastur Prakashan Trust, Worli, Bombay, First Edition : 1995, Pages : 351, Price : Rs. 50.00.
This book is an English version of the title 'Jene Haiye Sri Navakāra tene karse śūna sansara' presented by the same author, which has been very popular in the readers. This book, apart from the introduction of Navakāra Mantra contains some stories and instances of Miracles of Mahamantra Navakāra. Indeed for English readers this book will be very useful as it tells about the nature and importance of
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the Navakāra, which is undoubtedly, a great inspiration for the people who has determined to cross the worldly ocean and attain salvation. Navakāra is the very essence of the Jaina order. It is said that just one letter of the Mantra destroyes the sin equalling the seven seas and the whole Mantra annihilates all the sins. Navakāra inspires the people in every walk of life.
The book is fine in the printing and binding and worth collection. Dr. S. P. Pandey
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Book Rangouda Patil of Village Bedkihal Life and Sanlekhana, Author : T. R. Patil, Publisher : Sanmati Prakashan, Bahubali, Kolhapura, First Edition: 1995 Pages 45, Price: Rs. 40.00 This is a small but interesting and enlightening book written on practical aspects of Sanlekhanā. The book provides sufficient information about the personality of Ramgouda Patil, the father of the author. It contains the objective and first hand detailed account of the events during the critical period of Sanlekhana. The book will be very useful for the students of Sociology, Social Anthropology and Social History as well as the people interested in knowing the practical aspects of Sanlekhana.
Dr. S. P. Pandey
पुस्तक / उपन्यास : अनाश्रिता, लेखक : ऐलक सम्यक्त्व सागर, प्रकाशक : अनुदिश प्रकाशन, १४६, परवारान, झाँसी, पृष्ठ: ८९, मूल्य : १५ रुपए, प्रथम संस्करण : नवम्बर १९९५, आकार : डिमाई ।
अनाश्रिता उपन्यास ऐलक सम्यक्त्व सागर की एक ऐसी रचना है जिसमें एक ओर नारी के पातिव्रत धर्म की गाथा का गुणगान किया गया है, वहीं दूसरी तरफ मनुष्य के वासनात्मक आवेग का चित्रण करते हुए 'सत्य की विजय होती है', इस कहावत को भी सिद्ध किया गया है। मनोरमा वैजन्त नगर के प्रसिद्ध श्रेष्ठी महींदत्त की पुत्रवधू और सुखानन्द की धर्मपत्नी है। यही इस उपन्यास की नायिका है और सती धर्म के प्रतीक के रूप में सभी तरह की कठिनाइयों का सामना साहसपूर्वक करती है। दूसरी तरफ वैजन्त के सम्राट विजयसेन के पुत्र राजकुमार कामसेन, हंसद्वीप के सम्राट जुझार सिंह की पत्नी मदन- मंजरी और बल्लभपुर के राजकुमार गन्धर्वसेन के वासनारूपी चरित्र पर प्रकाश डालते हुए उसके दुःखद अंत का वर्णन भी इसमें मिलता है। उसमें मुख्य रूप से मानव मन में उत्पन्न होने वाली कमजोरियों और मनुष्य की दृढ़ता का चित्रण
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पुस्तक समीक्षा : ७७
किया गया है। इस रूप में यह एक सन्देशपरक ग्रन्थ हो सकता है, जिसके अध्ययन से सामान्य जन कामरूपी वासना की बुराइयों से बचने का प्रयास कर सकता है। मुद्रण सुन्दर है और साजसज्जा आकर्षक है। पुस्तक पठनीय है।
-डॉ० रज्जन कुमार पुस्तक : सागर बूंद समाय, संकलन / संपादक : मुनि समता सागर, प्राप्ति-स्थान : कैलाशचन्द निर्मलचन्द सर्राफ, महावीर मार्ग, सतना, आकार : डिमाई, पृष्ठ : १६७, मूल्य : १० रुपये मात्र।
भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक ऋषि-मुनि हुए हैं जो अपने मनोबल, तपोबल, योगबल एवं चरित्रबल से महान हुए हैं । सम्प्रति इसी कड़ी में जैन परम्परा में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज भी हैं। किन्तु उनकी विशेषता यह है कि वे आत्मसाधना के साथ-साथ जन-जन में आध्यात्मिक मूल्यों एवं सद्गुणों की प्रतिष्ठा के लिए भी प्रयत्नशील हैं। उन्होंने समाज को उद्बोधित करने के लिए जो अमृत वचन कहे उन्हीं विचार-सूत्रों के संकलन के रूप में 'सागर बूंद समाय' नामक इस पुस्तक का आविर्भाव हुआ। पुस्तक विषयक्रम की दृष्टि से संस्तुति, स्वाध्याय, साधना, धर्म, संस्कृति और सत्य-शिव-सुन्दर ऐसे पाँच खण्डों में विभाजित है। इसमें जीवन के उच्च मूल्यों का सम्यक् रूप से किस प्रकार का आचरण कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है और अपने जन्म-जन्मान्तरों के पापों को किस प्रकार प्रक्षालित किया जा सकता है, इस बात को अत्यन्त सरल व सुबोध शब्दों में समझाया गया है। आचार्य श्री के विचार जहाँ व्यक्ति के उत्थान की प्रेरणा देते हैं वहीं समाज एवं जीवन के प्रति कर्तव्य बोध भी जगाते हैं। उनके अमृत वचनों के संकलनकर्ता एवं सम्पादक विद्वत्प्रवर मुनि श्री समतासागर जी महाराज हैं जो स्वयं एक विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न मुनि हैं। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक है, मुद्रण कार्य निर्दोष है एवं पुस्तक संग्रहणीय है।
- डॉ. जयकृष्ण त्रिपाठी पुस्तक : तेरी महिमा मेरे गीत, लेखक : ऐलक उदार सागर, गद्यानुवाद : पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, पं० हीरालाल कौशल, प्रकाशक : महिला मंडल एवं अहिंसा महिला मंडल, झाँसी, प्रथम संस्करण : १९९५, पृ० १०८, मूल्य : १५ रुपये, आकार : डिमाई पेपरबैक।
प्रस्तुत पुस्तक पं० भागचन्द्र जी कृत 'महावीराष्टकंस्तोत्रम्' आचार्य श्री कुमुदचन्द्र विरचित 'कल्याणमंदिर स्तोत्रम्', श्री मानतुंगाचार्य विरचित 'भक्तामर स्तोत्रम्' का संग्रह है । इस संग्रह ग्रंथ का पद्यानुवाद एवं गद्यानुवाद पं० पन्नालाल साहित्याचार्य व पं० हीरालाल कौशल ने अत्यन्त सरल एवं सरस भाषा में किया है।
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सामान्य रूप से संस्कृत भाषा में लिखे श्लोकों का अर्थ लगा पाना संस्कृत न जानने वालों के लिए कष्टदायी होता है। अतएव उनके हित को ध्यान में रखकर ही विद्वानों ने इसका हिन्दी अनुवाद किया है। जिस प्रकार सागर को पार करने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति को नौका का आश्रय लेना पड़ता है उसी प्रकार भवसागर से पार उतरने के अभिलाषी व्यक्ति को भक्ति रूपी नौका का आश्रय लेना पड़ता है। 'तेरी महिमा मेरे गीत' नामक पुस्तक का विविधत पाठ ही मानो वह (भक्तिरूपी) नौका है जो मायाजाल में फँसे व्यक्तियों को भवसागर से पार करा सकती है।
पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक एवं मुद्रण कार्य निर्दोष है। पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है।
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डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी
पुस्तक : वीरन विहरमान जिन स्तवन, लेखक : श्रीमद् देवचन्द्र जी उपाध्याय, विवेचिका: साध्वी दिव्यदर्शनाश्री, सम्पादक : पुखराज भण्डारी, प्रकाशक : श्री जैन श्वेताम्बर श्राविका संघ, बागरा, जिला : जालोर (राजस्थान), प्रथम संस्करण : १९९४, आकार : डिमाई, मूल्य : साठ रुपये मात्र ।
सत्रहवीं अठारहवीं शताब्दी के आध्यात्मिक जैन कवियों में आनन्दघन और यशोविजय के पश्चात् यदि किसी का क्रम आता है तो वे श्रीमद् देवचन्द्र हैं । जिस प्रकार आनन्दघन जी ने वर्तमान अवसर्पिणी काल के भरतक्षेत्र के चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति में स्तवन लिखे उसी तरह श्रीमद् देवचन्द्र जी ने महाविदेह क्षेत्र के बीस विहरमान जिन के स्तवन लिखे । उनके स्तवनों में एक विशिष्ट प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूति समाहित है। जैन परम्परा में भक्ति के ऐसे उच्चकोटि के स्तवन विरल ही हैं। श्रीमद् देवचन्द्र ने उसमें भक्ति के साथ-साथ अध्यात्म, अनुभूति और आत्मदर्शन का अद्भुत मिश्रण किया है । साध्वी श्रीदिव्यदर्शनाश्री जी ने स्तवनों के हार्द का जिस सरस ढंग से विश्लेषण किया है वह जन-जन को श्रीमद् देवचन्द्र के इन स्तवनों का रसपान कराने में सहायक होगा। कृति का मुद्रण निर्दोष और साज-सज्जा आकर्षक है। कृति के अन्त में परिशिष्ट के रूप में गुणस्थान, सप्तनय, पञ्चअनुष्ठान, अष्टयोग दृष्टियों आदि का जो भी विवेचन है, वह कृति के महत्त्व को और बढ़ा देता है । कृति पठनीय एवं संग्रहणीय
है।
डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी
पुस्तक : चेतना का विकास, लेखक : मुनि श्री चन्द्रप्रभ सागर, सम्पादन : श्रीमती लता भंडारी मीरा, प्रकाशक : श्री जितयशा फाउण्डेशन, सी, एस्प्लनेड रो ईस्ट, कलकत्ता - ६९, प्रथम संस्करण : जनवरी १९९४, मूल्य : बारह रुपये मात्र, आकार : डिमाई |
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पुस्तक समीक्षा :
चेतना, ध्यान एवं आचार-विचार से सम्बन्धित पुस्तकों का प्रकाशन प्रायः समय-समय पर होता रहता है किन्तु मुनि श्री चन्द्रप्रभ सागर द्वारा रचित चेतना का विकास नामक पुस्तक में प्रश्नोत्तरीत्या अनुभूत एवं सैद्धान्तिक उभयविध रूप से उदाहरण प्रस्तुत कर जटिल प्रश्नों का सहज रूप में समाधान प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक के पाँच विभाग हैं, जो इस प्रकार हैं -अमृत की अभीप्सा, मनुष्य का अन्तरंग, चेतना का ऊर्ध्वारोहण, परमात्मा, चेतना की पराकाष्ठा और चलें सागर के पार । उक्त पाँच विभागों में मुनि ने अपनी सशक्त लेखन शक्ति से जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है। पुस्तक की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें अधिकांश उदाहरण व्यावहारिक जगत् से ही लिये गए हैं जिससे जनसामान्य को कठिन से कठिन प्रश्नों का उत्तर सरलता से समझ में आ सकता है। अतएव पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है। मुद्रण कार्य निर्दोष है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक है।
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पुस्तक : नागफनी द्वारे द्वारे, लेखक : ऐलक सम्यक्त्व सागर, प्रकाशक : आलोक जैन, झाँसी, पृष्ठ : ६१, प्रथम संस्करण : १९९५, आकार : डिमाई पेपर बैक, मूल्य : ग्यारह रुपये ।
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- डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी
मुनियों एवं आचार्यों का जीवन आचार से परिपूर्ण होता है। वे जिस आचार का उपदेश देते हैं वही सदाचार कहा जाता है । ऐलक श्री सम्यक्त्व सागर जी महाराज ने समाज में व्याप्त बुराइयों की ओर संकेत करते हुए करगुवां वर्षावास में जो उपदेश दिये उन्हीं उपदेशों का संकलन करके इस 'नागफनी द्वारे द्वारे' पुस्तक का आविर्भाव हुआ है। इस वर्षावास में ऐलक श्री ने समाज में व्याप्त बुराइयों के उन्मूलन हेतु विभिन्न कहानियों का आश्रय लेकर जनजागरण का अभियान चलाया। उनके उपदेशों से असंख्य लोग लाभान्वित हुए । उनके उपदेशों को सुनने से वंचित हुए लोगों के लिये यह पुस्तक निश्चित रूप से लाभदायी होगी ।
पुस्तक का मुद्रण कार्य निर्दोष एवं साज-सज्जा आकर्षक है। मायारूपी भवसागर के भँवर में फँसे व्यक्तियों के लिए यह पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक एवं मुद्रण कार्य निर्दोष है।
- डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी
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श्रमण
जैन जगत्
स्व० आचार्य श्री जयमल जी महाराज की २८८वीं जयन्ती समारोह सम्पन्न
इन्दौर, ३ - १० सितम्बर, १९९५ : स्व० आचार्य श्री जयमलजी महाराज की २८८वीं जयन्ती के अवसर पर श्री वर्धमान श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ के तत्त्वावधान में तीन से दस सितम्बर तक स्थानीय परसरामपुरिया विद्यालय, जवाहरमार्ग, राजमोहल्ला, इन्दौर में विविध कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। दिनांक दस सितम्बर को आयोजित विराट कार्यक्रम की अध्यक्षता पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मंत्री श्री भूपेन्द्रनाथ जैन ने की। इस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में मध्यप्रदेश शासन के नियोजन मंत्री श्री नरेन्द्र नाहटा तथा पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक प्रो० सागरमल जैन विशिष्ट अतिथि के रूप में आमन्त्रित थे। इस अवसर पर बड़ी संख्या में जैन समाज के प्रभावशाली व्यक्ति उपस्थित थे।
सर्वधर्म समभाव और भगवान् बुद्ध
वाराणसी, १६ सितम्बर, १९९५ : श्रमण विद्या संकाय, सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय द्वारा पं० जगन्नाथ उपाध्याय की स्मृति में सर्वधर्म समभाव और भगवान् बुद्ध नामक विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक प्रो० सागरमल जैन ने अत्यन्त सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत किया। इस संगोष्ठी में बौद्ध धर्म-दर्शन के विशिष्ट विद्वान् प्रो० रामशंकर त्रिपाठी, विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो० वी० वेंकटाचलम् ने इस संगोष्ठी की अध्यक्षता की। इसमें बड़ी संख्या में विश्वविद्यालय के अध्यापक और शोधछात्र उपस्थित थे। सर्वधर्म सम्मेलन सम्पन्न
भोपाल, ४ नवम्बर, १९९५ : परस्पर प्रेम, भाई-चारा, सद्भाव, मनुष्यत्व और समत्व का नाम ही धर्म है। दुर्भाग्य की बात है कि आज हम भारत के मूलतत्त्व को समझने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। जिससे समाज में शान्ति, समरसता और बन्धुत्व की भावना का विकास न हो, उसे धर्म नहीं कहा जा सकता, ये विचार 'महात्मा गाँधी - एक सौ पच्चीसवाँ जन्म वर्ष समारोह समिति के तत्त्वावधान में
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आयोजित सर्वधर्म सम्मेलन के तीसरे दिन विभिन्न धर्मों के मानने वाले विभिन्न वक्ताओं ने व्यक्त किये। 'जैन धर्म में सर्वधर्म समभाव : गाँधी दृष्टि' विषय पर बोलते हुए पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक प्रो० सागरमल जैन ने कहा कि आज हम धर्म के विषय में बहुत अधिक बातें करते हैं, परन्तु हमें उसके मूलतत्त्व के विषय में जानकारी बहुत कम है। जो आत्मा को परमात्मा से जोड़े, समता की भावना विकसित करे और सद्भावना की स्थापना करे, उसे ही धर्म कहा जा सकता है। महात्मा गाँधी ने इन्हीं तत्वों का अनुशीलन करते हुए सर्वधर्म समभाव का मंत्र दिया था। गाँधी जी ने अपना पूरा जीवन समता और मानवता के लिए अर्पित कर दिया था। डॉ० जैन ने कहा कि सम्यक् दर्शन, सम्यक दृष्टि और सम्यक् ज्ञान जैनधर्म के आधारभूत तत्त्व हैं। उन्होंने सलाह दी कि आज आवश्यकता है धर्म की समीक्षा विवेक से कर धर्म के मूल स्वरूप को समझने की। इसके अतिरिक्त ईसाई धर्म पर डॉ० टोटनो ने तथा हिन्दू धर्म पर अलीगढ़ विश्वविद्यालय के शोधछात्र मौलाना शमसी तेहरानी ने अपने विचार व्यक्त किये।
प्रो० कमल चन्द्र सोगानी सम्मानित जयपुर, १८ नवम्बर, १९९५ : दर्शनशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० 'कमलचन्द सोगाणी को जयपुर नगर निगम द्वारा आयोजित जयपुर समारोह ९५ में श्रमण संस्कृति के क्षेत्र में उनकी उल्लेखनीय लोक सेवा के लिए दि० १८ नवम्बर ९५, को एक भव्य समारोह में सम्मानित किया गया। डॉ० सोगानी ने दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीर जी की प्रबन्धकारिणी कमेटी के सदस्य बनने के पश्चात् क्षेत्र कमेटी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान तथा उसके अन्तर्गत अपभ्रंश साहित्य अकादमी की स्थापना कर श्रमण संस्कृति के क्षेत्र में लोक सेवा कार्यों को करना प्रारम्भ किया एवं आज भी उसके विकास में सतत रूप से सन्नद्ध हैं। मानव शान्ति शोध संस्थान का विशाल निःशुल्क चिकित्सा
शिविर के साथ ही शुभारम्भ १० दिसम्बर, १९९५ को उदयपुर में मानव शान्ति शोध-संस्थान का विशाल निःशुल्क चिकित्सा शिविर के साथ ही उद्घाटन सम्पन्न हुआ। संस्थान एवं शिविर का उद्घाटन मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ० बी० भण्डारी ने किया एवं समारोह की अध्यक्षता प्रमुख व्यवसायी एवं समाजसेवी श्री कन्हैयालाल जी मेहता
की। अतिथियों ने संस्थान के शुभारम्भ को एक ऐतिहासिक एवं दूरदर्शी कदम मनाते हुए इसे बुलन्दियों की ऊंचाई पर देखने की शुभाकांक्षा व्यक्त की।
. दरोली गाँव में उक्त शिविर में बाल रोग, स्त्री रोग, सामान्य चिकित्सा, टी० बी० आदि के ३६२ रोगियों को उपचार एवं २५०००.०० रुपए मूल्य की दवाओं का
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निःशुल्क वितरण किया गया। इसी समय संस्थान एवं समता युवा संघ के सौजन्य से ५०० व्यक्तियों को वस्त्र वितरित किये गये। शिविर में उदयपुर एवं दरोली के गणमान्य व्यक्तियों, समता युवा संघ के सदस्यों के साथ चिकित्सकों में सर्वश्री डॉ० बी० भण्डारी, डॉ० बी० एल० असावा, डॉ० बी० आर० चौधरी, डॉ० ए० एस० धाकड़, डॉ. विनित सिंघल, डॉ. विमला धाकड़, कमाण्डर श्री हिम्मत सिंह जी मेहता एवं यशोदा सोलंकी उपस्थित थे।
समारोह के प्रारम्भ में संस्थान के अध्यक्ष श्री कनक मेहता ने आगन्तुक अतिथियों का स्वागत किया। मंत्री श्री दिनेश कंठालिया ने संस्थान का परिचय एवं उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आचार्य नानेश के सुशिष्य पं० रत्न श्री शान्तिमुनि जी म. सा. के उदयपुर वर्षावास के प्रवचनों से प्रेरित होकर हमने इस गांस्थान का शुभारम्भ किया है। हम सब सम्प्रदायवाद से ऊपर उठकर मानव सेवा एवं मह वीर वाणी का प्रचार प्रसार कर सकें, यही भावना इसमें निहित है। . समारोह का संचालन संस्थान के उपाध्यक्ष श्रीसवाई लाल जी बया ने किया ।
-सुभाष कोठार जैन इण्टरनेशनल द्वारा आयोजित छठाँ विश्व जैन सम्मेलन सम्पन्न
___ अहिंसा इण्टरनेशनल, नई दिल्ली द्वारा आयोजित छठौं विश्व जैन सम्मेलन दिनांक २४ दिसम्बर १९९५ से २६ दिसम्बर १९९५ के बीच फिक्की प्रेक्षागृह, बारह खम्भा रोड, नई दिल्ली में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में देश-विदेश के अनेक विद्वानों एवं महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों ने भाग लिया। सम्पूर्ण सम्मेलन पाँच सत्रों में सम्पन्न हुआ। 'इक्कीसवीं सदी में जैन' नामक प्रथम सत्र की सत्राध्यक्षा थीं, अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्या अध्ययन केन्द्र, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद की निदेशक प्रो० मधु सेन। धर्म, अहिंसा, शान्ति और साहित्य नामक द्वितीय सत्र के सत्राध्यक्ष रहे - जैन धर्म दर्शन के बहुश्रुत विद्वान् प्रो० सागरमल जैन, निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। प्रो० जैन की अध्यक्षता में डॉ. प्रेमसुमन जैन, डॉ० भागचन्द जैन, डॉ. गोपीलाल अमर आदि विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये। 'परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास में स्त्रियों के अवदान' नामक तृतीय सत्र की सत्राध्यक्षा थीं - श्रीमती विद्याबेन शाह, अध्यक्षा – केन्द्रीय समाज कल्याण परिषद। पोषण । शाकाहार, वातावरण और प्रचारतन्त्र नामक चौथे सत्र की सत्राध्यक्षता श्री भरतभाई शाह; अहमदाबाद ने की। अन्तिम समापन समारोह के मुख्य अतिथि श्री मदनलाल खुराना थे। इस प्रकार यह सम्मेलन आयोजन एवं विषयवस्तु की दृष्टि से पूर्ण सफल रहा।
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श्री ताराचंद जैन बख्शी अभिनन्दन समारोह सम्पन्न
प्रख्यात समाजसेवी श्री ताराचन्द जैन बख्शी का उनके ७५ वर्ष पूर्ण होने पर विगत दिनों जयपुर में अमृत-महोत्सव एवं अभिनन्दन समारोह का आयोजन किया गया। इस अवसर पर विभिन्न संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने श्री बख्शी को माल्यार्पण किया, साथ ही उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए उनके दीर्घायु होने की कामना की। समारोह की एक अन्य विशेषता यह थी कि इसमें शाकाहार-प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया था।
जैन दर्शन और कबीर मेरठ, १८ दिसम्बर, १९९५ : जैन स्थानक, जैन नगर मेरठ में परम विदुषी पूजनीया महासती डॉ. मंजुश्री जी म०, महासती अक्षयश्री 'आरना' आदि ठाणा ६ के सानिध्य में एवं एस० एस० जैन सभा, मेरठ के तत्वावधान में १८ दिसम्बर १९९५ के दिन, मेरठ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो० के० सी० पाण्डेय जी की अध्यक्षता में 'जैन दर्शन और कबीर' विषय पर एक विद्वत्-गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी के विषय का प्रतिपादन करते हुए डॉ० विष्णुशरण 'इन्दु' ने कहा कि कबीर का रूढ़िवाद एवं उनका मिथ्या मान्यताओं के प्रति विरोध का स्वर जैन दर्शन से मिलता है। नानक चन्द कॉलेज के डॉ० धन प्रकाश मिश्र ने श्रावक व श्रावकाचार के महत्त्व को बहुत ही विद्वत्तापूर्ण ढंग से प्रतिपादित किया। इसी कॉलेज के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ० रामेश्वर दयाल अग्रवाल ने भक्ति के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भगवान् की भक्ति के बिना भगवत्कृपा नहीं मिल सकती। भक्ति पर महावीर व कबीर ने बहुत बल दिया था। अपने अध्यक्षीय भाषण में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो० के० सी० पाण्डेय ने घोषणा की कि इसी वर्ष से एम० ए० के पाठ्यक्रम में शाकाहार एवं पर्यावरण विषय का पाठ्यक्रम लागू किया जाएगा तथा एम० ए० संस्कृत विभाग के प्रश्नपत्रों से जैन प्राकृत के जिस पाठ्यक्रम का समापन हो गया है, उसकी पुनः स्थापना के प्रस्ताव पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाएगा। इस गोष्ठी में अनेक विद्वानों, बुद्धजीवियों पत्रकारों सहित बड़ी संख्या में महिलाएं भी उपस्थित थीं।
अक्षय तृतीया की पारणा दिल्ली में , जैनधर्म दिवाकर आचार्य सम्राट १००८ श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज आदि संत पानीपत हरियाणा का ऐतिहासिक चातुर्मास सम्पन्न कर हरियाणा और उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों को पावन कर रहे हैं। २४ जनवरी ९६ को भिवानी (हरियाणा) में ४ वैरागन बहनों को आचार्य सम्राट ने दीक्षा प्रदान की। वर्तमान में आचार्य सम्राट
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उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों को पावन कर रहे हैं । यहाँ से आचार्य श्री का विहार दिल्ली की ओर होने की सम्भावना है। आचार्य सम्राट् के पावन सान्निध्य में वर्षी तप करने वाले भाई-बहनों से विनम्र निवेदन है कि वे पारणे के लिए दिल्ली अवश्य पहुँचें और आचार्य श्री के पावन सान्निध्य में पारणा करने का सौभाग्य प्राप्त करें। विशेष जानकारी श्री आर० डी० जैन, उपाध्यक्ष जैन कॉन्फ्रेन्स, से निम्न पते पर प्राप्त की जा सकती है
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श्री आर० डी० जैन, सी-१३, विवेक विहार, दिल्ली ९५
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पुरस्कार हेतु कृतियाँ आमंत्रित
अखिल भारतीय दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद द्वारा वर्ष १९९५ ई० के पुरस्कारों के लिए प्रविष्टियाँ दिनांक १५ फरवरी १९९६ तक आमंत्रित हैं। प्रत्येक पुरस्कार की राशि २५००.०० रुपए है, किन्तु इनके बढ़ने की सम्भावना है। यह पुरस्कार जैन साहित्य के मौलिक सृजन को विकसित करने हेतु किसी विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत पी-एच० डी० अथवा डी० लिट्० उपाधि हेतु, सम्पादन, पत्रकारिता आदि के क्षेत्र में श्रेष्ठ अवदान तथा उत्कृष्ट धार्मिक प्रवचनों एवं धर्मप्रभावना आदि के लिए दिया जाएगा। पुरस्कारों हेतु मुद्रित ग्रन्थ की तीन प्रतियाँ, टंकित या हस्तलिखित ग्रन्थ की एक प्रति १५ फरवरी १९९६ तक डॉ० जयकुमार जैन, महामंत्री अ० भा० दि० जैन शास्त्रिपरिषद, २६१/३ पटेलनगर, नई मण्डी, मुजफ्फरनगर २५१ ००१ (उ० प्र०) के पते पर पहुँच जाना चाहिए। प्राप्त कृतियाँ शास्त्रिपरिषद की सम्पत्ति होंगी, किन्तु टंकित या हस्तलिखित प्रति डाकव्यय प्राप्त होने पर पुरस्कार हेतु स्वीकृत न होने की दशा में लौटाई जा सकती है।
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पं० महेन्द्र कुमार जैन स्मृतिग्रन्थ का प्रकाशन
स्व० पं० महेन्द्र कुमार जैन के पूर्व प्रकाशित महत्त्वपूर्ण लेखों का ६०० पृष्ठों का एक संकलन पं० महेन्द्र कुमार जैन स्मृतिग्रन्थ के नाम से शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का अग्रिम मूल्य २०१.०० रुपया निर्धारित किया गया है। इस सम्बन्ध में स्मृतिग्रन्थ प्रकाशन समिति, कबीर भवन, हाउसिंग बोर्ड, दमोह से सम्पर्क किया जा सकता है।
महामहिम राष्ट्रपति द्वारा महो० ललितप्रभ सागर जी के ग्रन्थ का विमोचन
जोधपुर, २ फरवरी । महामहिम राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा के करकमलों से महोपाध्याय ललितप्रभ सागर जी द्वारा सम्पादित 'विश्व प्रसिद्ध जैन तीर्थ :
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श्रद्धा एवं कला' ग्रन्थ का महावीर शिक्षण संस्थान द्वारा आयोजित 'बालचन्द सुगन कवर चौरड़िया विद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर लोकार्पण किया गया।
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महामहिम राष्ट्रपति जी ग्रन्थ का विमोचन कर श्री ललितप्रभजी को प्रदान करते हुए ।
महामहिम राष्ट्रपति ने जैन धर्म के इस अनूठे और भव्यतम ग्रन्थ को देखकर प्रसन्नता जाहिर की और जन-समुदाय ने करतल ध्वनि से ग्रन्थ-विमोचन पर अपनी खुशियाँ अभिव्यक्त की। महामहिम राष्ट्रपति जी ने अपनी हस्ताक्षरित प्रति महोपाध्यायश्री को प्रदान की।
'विश्व प्रसिद्ध जैन तीर्थ : श्रद्धा एवं कला' वास्तव में एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें जैन मन्दिरों में उत्कीर्ण भारतीय शिल्प को उसकी बारीकी के साथ प्रस्तुत किया गया है। देलवाड़ा, राणकपुर, जैसलमेर, पालीताना आदि तीर्थों में शिल्पकारों ने जिस बारीकी से पाषाणों पर नक्काशी की है, प्रस्तुत ग्रन्थ में उनका खूबसूरत रंगीन छायांकन है।
विद्यालय के उद्घाटन समारोह में सन्तप्रवर्तक श्री रूपमुनि जी म. सा. एवं गणिवर श्री महिमाप्रभ सागर जी म० सा० का विशेष सानिध्य रहा। श्री रूपमुनि जी म० 'रजत' की प्रेरणा से जोधपुर में एक नया अपोलो हॉस्पिटल बनाने की घोषणा की गयी। श्री डी० आर० मेहता को 'मरुधर केसरी विश्व अहिंसा पुरस्कार' से अलंकृत किया
गया।
ग्रन्थ प्रकाशन समिति के अध्यक्ष एवं श्री नाकोड़ा तीर्थ के चेयरमैन श्री पारसमल भंसाली एवं प्रकाशक श्री जितयशा फाउण्डेशन के सचिव श्री प्रकाशचंद दफ्तरी ने राजस्थान के राज्यपाल श्री बलिराम भगत, शिक्षामन्त्री श्री गुलाबचंद कटारिया, ब्रिटेन के उच्चायुक्त श्री लक्ष्मीमल सिंघवी, सेबी के अध्यक्ष श्री डी० आर० मेहता,
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महाराजा गजसिंह, काँग्रेस ( ई ) के उपनेता श्री नाथूराम मिर्धा एवं ओसवालसिंह सभा के अध्यक्ष श्री घेवरचंद कानूंगो को ग्रन्थ की प्रति भेंट की।
__महावीर शिक्षण संस्थान के सचिव श्री कैलाश भंसाली ने आभार व्यक्त किया। जैनाचार्य श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म० राष्ट्र सन्त शिरोमणि ।
पद से विभूषित मुम्बई। समग्र जैन समाज की समन्वय, एकता, सेवा की भावना से समर्पित संस्था भारत जैन महामण्डल का ऐतिहासिक ४८वाँ अधिवेशन २१ जनवरी ९६, को बम्बई के आजाद मैदान में सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम में गच्छाधिपति आचार्य इन्द्रदिन सूरीश्वरजी महाराज, आचार्य विमलभद्रसूरिजी, आचार्य जगतचन्दसूरिजी, विमल गच्छाधिपति श्री प्रद्युम्नविमलजी म०, गणिवर्य पन्यास श्री रविन्द्रविजयजी म०, जैनधर्म दिवाकर श्री नरेन्द्रविजयजी म०, पन्यास लोकेन्द्रविजयजी म०, ज्योतिसम्राट ऋषभचन्द्र विजयजी म०, साध्वी चंदनाजी म०, अक्षय ज्योतिजी, साध्वी कनकप्रभाजी म०, जैन संत सोमकीर्तिजी म० आदि जैनाचार्यों के सानिध्य एवं श्री किशोरचन्द्र एम० वर्धन की अध्यक्षता तथा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी, महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री गोपीनाथ मुण्डे, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष किरीट सोमय्या, विधायक राज० के० पुरोहित, मंगलप्रभात लोढ़ा, मोहन रायचुरा, पूर्व सांसद श्रीमती जयवन्ति बहन मेहता, पूर्व अध्यक्ष रमेश चन्द्र जैन, विश्व अहिंसा संघ के अध्यक्ष मुल्खराज जैन, नई दिल्ली, महाराष्ट्र के शिक्षा मंत्री दत्ता राणे, वेदप्रकाश गोयल, जैन सोशल ग्रुप के संस्थापक सी० एन० संघवी, स्वागताध्यक्ष डॉ० आर सी० भंसाली तथा समग्र जैन समाज के देश भर से आये प्रतिनिधियों की उपस्थिति में मण्डल द्वारा गच्छाधिपति आचार्य श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म० को राष्ट्र संत शिरोमणि पद से विभूषित कर अभिनन्दन किया गया।
कार्यक्रम का शुभारम्भ पार्श्व गायक मनहर उधास के संगीत एवं भजन से प्रारम्भ हुआ तथा उपस्थित जैनाचार्यों, साधु, साध्वीजी म० के मंगल प्रवचन हुए। विशेष अतिथि के रूप में समाजसेवी श्री भरत एस० साह श्री मोफतलाल मुणोत के आतिथ्य में कार्यक्रम में आये अतिथियों का अभिनन्दन कर उन्हें मोमेण्टो प्रदान किया गया। निवृत्तमान अध्यक्ष श्री रमेशचन्द्र जैन, कार्याध्यक्ष सुभाष रूनवाल, महामन्त्री शान्ति प्रसाद जैन ने मण्डल की गतिविधियों और समस्याओं पर विचार व्यक्त किया। इस अवसर पर रतलाम, म०प्र० से प्रकाशित सा. दिवाकर दीप्ति समाचार पत्र के बहुरंगी विशेषांक का विमोचन मुख्य अतिथि लालकृष्ण आडवाणी एवं मण्डल अध्यक्ष श्री किशोर वर्धन ने किया। इसी प्रकार जैन एकता संदेश विशेषांक का विमोचन उपमख्य मंत्री गोपीनाथ मुण्डे ने किया।
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अध्यक्ष पद ग्रहण करने के पश्चात् श्री किशोरचन्द्र एम० वर्धन ने कहा, "मैं अपने पद के अनुरूप असाम्प्रदायिक दृष्टि से जैन समाज की सेवा, समन्वय-संगठन के सूत्र में संजोकर प्राणी मात्र के प्रति उदार दृष्टि, व्यापक चिन्तन एवं निःस्वार्थ भावना से करने का प्रयत्न करूंगा।"
मुख्य अतिथि श्री लालकृष्ण आडवाणी ने कहा, "आज देश में राष्टीय चरित्र का संकट है। मुझे खुशी है कि मैं जैन समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों के इस संगठन के अधिवेशन में भाग लेकर विभिन्न ऋषियों-मुनियों एवं साध्वीजी महा० के आशीर्वाद का भागी बना। जैन समाज ने तपस्या और अहिंसा को प्रमुखता से माना है।"
उपमुख्यमंत्री गोपीनाथ मुण्डे ने कहा कि “हमारी भाजपा शिवसेना सरकार ने अभी मुम्बई के ऐतिहासिक श्री शान्तिनाथ जैन मन्दिर के निर्माण की बाधा को अध्यादेश के माध्यम से दूरकर निर्माण कार्य हेतु मजबूती प्रदान की। हम मन्दिर निर्माण में विश्वास रखते हैं तोड़ने में नहीं। जैन भवन हेतु भी महाराष्ट्र सरकार से मण्डल को निःशुल्क जमीन दिलवाने का पूरा प्रयास करूंगा।"
इस अवसर पर मण्डल के सर्वाधिक सदस्य बनाने वाले श्री के० सी० जैन, मुन्नालाल मालू एवं २११ उपवास करने वाले बन्धु का अभिनन्दन किया गया। जैनधर्म दिवाकर नरेन्द्र विजयजी महा० ने कहा, “समाज की एकता के लिए स्वच्छ मन से निःस्वार्थ प्रवृत्तिपूर्वक प्रयत्न करें।" सौ वर्ष के इतिहास में प्रथम बार समग्र जैन समाज द्वारा किसी आचार्य को राष्ट्र सन्त शिरोमणि पद से विभूषित किया गया है। स्वामी अखिलेश महा० (बिहार) ने वर्तमान समय में देश, समाज एवं धर्म में फैल रहे प्रदूषण के प्रति चिन्ता व्यक्त की।
अधिवेशन को सफल बनाने में समाजसेवी विधायक राज के० पुरोहित, राजेन्द्र जैन, प्रशान्त झवेरी, मोतीलाल बाफना, रतलाम, सुनील जैन, पाठक, मुकादम, आदि मण्डल के पदाधिकारियों का सक्रिय सहयोग मिला। इस अवसर पर खुले अधिवेशन में सर्वानुमति से संवत्सरी एकीकरण और जैन एकता सम्बन्धी प्रस्ताव पास किया गया। कार्यक्रम का संचालन साहित्यकार शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद एवं आभार प्रदर्शन मण्डल के मन्त्री श्री एस० पी० जैन ने किया। अर्हत् वचन पुरस्कार, वर्ष-७ (१९९५)
विज्ञप्ति विगत वर्ष की भाँति वर्ष-७ (१९९५) में प्रकाशित अर्हत् वचन के ४ अंकों में प्रकाशित समस्त आलेखों के मूल्यांकन हेतु एक त्रिसदस्यीय निर्णायक मण्डल का गठन निम्रवत किया गया था -
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१. डॉ० गोकुल चन्द्र जैन, प्राध्यापक एवं अध्यक्ष विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी। २. डॉ० आर० एल० पाटनी, प्राचार्य महाविद्यालय, इन्दौर |
३. डॉ० अशोक कुमार जैन, रीडर वनस्पति अध्ययनशाला, जीवाजी
विश्वविद्यालय, ग्वालियर ।
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प्राकृत एवं जैनागम
प० म० ब० गुजराती वाणिज्य
निर्णायकों द्वारा प्रदत्त प्राप्तांकों के आधार पर निम्नांकित आलेखों को क्रमशः प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पुरस्कार हेतु चुना गया है। ज्ञातव्य है कि पूज्य मुनिराजों / आर्यिकाओं, अर्हत् वचन सम्पादक मण्डल के सदस्यों, विगत ५ वर्षों में इस पुरस्कार से सम्मानित लेखकों एवं कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के कार्यालयीय सहयोगियों तथा गृहस्थ जीवन त्याग चुके श्रावकों द्वारा लिखित लेख प्रतियोगिता में सम्मिलित नहीं हैं।
देवकुमार सिंह कासलीवाल
अध्यक्ष : कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
पुरस्कृत लेख के लेखकों को क्रमशः ५००१.००, ३००१.००, २००१.०० की नगद राशि, प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिह्न, शाल एवं श्रीफल भेंट कर आगामी जैन विद्या संगोष्ठी (१२ - १३ मार्च, ९६ ) के अवसर पर सम्मानित किया जायेगा। प्रथम पुरस्कार -
आचार्य राजकुमार जैन, निबन्धक एवं सचिव, भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद, ई/ ६, स्वामी रामतीर्थ नगर, नई दिल्ली, 'श्रुत परम्परा में आयुर्वेद', वर्ष-७, अंक-३, जुलाई ९५, पृष्ठ ७ - १५ । द्वितीय पुरस्कार - डॉ० अजित कुमार जैन, प्राध्यापक रसायन शास्त्र, एस० एस० एल० जैन कॉलेज, विदिशा (म० प्र०), 'पौद्गलिक स्कन्धों का वैज्ञानिक विश्लेषण', वर्ष-७, अंक-४, अक्टूबर ९५, पृष्ठ ९ - २३ । तृतीय पुरस्कार - Prof. A. Sundara, Director, Karnataka University Post Graduate Center, Sholapur Road, Bijapur - 586103, "Some Aspects of Jaina Art in Karnataka : Architecture & Sculpture", Vol.-7, Issue-2 April- 95, pp. 67-82. डॉ० अनुपम जैन सचिव : कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार - ९५
विज्ञप्ति
दि० जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट के अन्तर्गत स्थापित कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्वारा १९९२ में कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार की स्थापना की गई थी। इस पुरस्कार के अन्तर्गत निर्धारित विषय पर निश्चित समयावधि में लिखी श्रेष्ठ पुस्तक के
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लेखक को २५,०००.०० रु० नगद, प्रशस्ति पत्र, शाल एवं श्रीफल भेंट कर सम्मानित किया जाता है।
१९९३ का पुरस्कार संहितासूरि पं० नाथूलालजी शास्त्री, इन्दौर को उनकी कृति प्रतिष्ठा प्रदीप पर एवं १९९४ का पुरस्कार प्रो० लक्ष्मीचन्द्र जैन, जबलपुर को उनकी कृति The Tao of Jaina Sciences पर प्रदान किया जा चुका है।
१९९५ का पुरस्कार जैन इतिहास एवं पुरातत्व पर १९९० - १९९५ की अवधि में प्रकाशित अथवा अप्रकाशित मौलिक एकल कृति पर देना घोषित किया गया । ३०. ६. ९५ तक प्राप्त ९ प्रविष्टियों का मूल्यांकन एक त्रिसदस्यीय निर्णायक मंडल द्वारा किया गया। निर्णायक मंडल निम्नवत् है
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१. प्रो० ए० ए० अब्बासी, कुलपति - दे० अ० वि० वि०, इन्दौर |
२. प्रो० सी० के० तिवारी, प्राचार्य - होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर।
देवकुमार सिंह कासलीवाल
अध्यक्ष
३. डॉ० एन० पी० जैन, पूर्व राजदूत भारत, ई ५०, साकेत, इन्दौर।
निर्णायक मण्डल के निर्णयानुसार प्रो० भागचन्द जैन 'भास्कर' अध्यक्ष पाली प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर को उनकी कृति जैन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व (अप्रकाशित) पर प्रदान करने का निर्णय किया गया।
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पुरस्कार समर्पण समारोह परम पूज्य, गणिनी आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के मंगल सान्निध्य में १२ - १३ मार्च, ९६ के मध्य आयोजित किया जाना है।
डॉ० अनुपम जैन सचिव
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श्रमण
Vidyapeeth in the Eyes of Distinguished Visitors who visited the Vidyapeeth during ( 1st Jan. 1995 to 31 Dec. 1995 )
Kenneth J. Jisk
Professor
University of New York, New York, U. S. A.
Upon my first step into the ground of the Jaina Vidyapeeth, accompanied by Dr. A. K. Narayan, I was impressed and pleased with the beauty and order of the grounds. They begged me to come in and make myself feel at home. The staff and Director were most helpful and interested in my work on Ayurveda, especially in the Jaina context. I definitely plan to visit the Vidyapeeth in the future when I will have more time to spend and deeper study as soon as possible. I much appreciate the welcome I received and the help that was given.
सीताराम केसरी
कल्याण मंत्री, भारत सरकार
चन्द्रजीत यादव
सांसद
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में आकर देखने का अवसर मिला । परम प्रसन्नता के साथ इसकी सराहना करता हूँ ।
Wang Shuying, Ge Wijing
Chinese Academy of Social Sciences
Beijing, China
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यह संस्थान राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों पर शोध भी कर रहा है और गम्भीर चर्चाएं भी कराता है। इसका योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विश्वास है कि भविष्य में इसका योगदान बढ़ता ही जायेगा ।
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I am very happy to visit this institute. The excellent collec
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Opinions of the Visitors Who Visited the Vidyapeeth : ९१
tion of the books in the library is very useful, particularly for me. I hope the friendship of India and China will go longer.
प्रो० शेर सिंह पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री, भारत सरकार
पार्श्वनाथ विद्यापीठ देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और संस्थान के निदेशक से थोड़ी चर्चा हुई। निदेशक महोदय ने अपने प्रकाशनों का ब्योरा दिया तथा कुछ साहित्य भी। मैं आशा करता हूँ कि शोध का महत्त्वपूर्ण कार्य यह संस्थान कर रहा है। उसका आदर करते हुए भारत सरकार इसे विश्वद्यिालय का दर्जा देकर प्रोत्साहित करेगी।
ओमप्रकाश अम्बाल जैन ( महानिदेशक )
१७-४-९५ ___एवं उषा अग्रवाल ( निदेशिका, प्रोग्राम ) भारतीय संरक्षण संस्थान, लखनऊ
इस संस्थान में आकर और यहाँ का कार्य देखकर अति प्रसन्नता हुई। यहाँ के निदेशक तथा कार्यकर्ता बधाई के पात्र हैं। बहुत अच्छा काम हुआ है और जैन साहित्य, जैन कला और जैन धर्म की बहुत बड़ी सेवा हो रही है। काम बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार के संस्थान देश में कम ही हैं और इसलिए भी इसका अधिक महत्त्व है। आशा है और अच्छा और उपयोगी काम होगा। मेरी शुभकामनाएँ संस्थान के साथ हैं।
Pia. Kelohonker, Venla Varis
19th April 1995 Hameenlina College of Health Professions Finland
Thank you very much for a short talk on basic ideas of Jainism. We will try to order our mind and not be angry for things that is past.
Hira Lal
27 April 1995 New Delhi
I am happy to have spent a couple of days at the Institute and meet Prof. Sagarmal Jain and other members of the faculty. I
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९२ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६
have acquainted myself with the broad features of the work done at the Institute and its structure. I have very hope it will become a major university of Jaina studies.
Kisher Mento
9th July, 1995 Leawood, Kansas, U. S. A.
It was a pleasure visiting the Vidyapeeth. I had read about it in Jaina study circular. We are really thankful to Dr. Surendra Verma and Dr. Ashok Kumar Singh for showing us around the Institute after hours. I now can talk about the Institute to my other Jaina and Hindu friends and enforce them to visit here.
Please keep up your excellent work as usual.
Cihustian Buisek
26-9-95 Austrian Broadcasting Corporation Department of Religions Argentiniekstr - 30 A A. 1170 Vienna, Austria
I found that all the Professors, Teachers and Students of the Jaina Institute not only preach to be co-operative but in fact they are in the best of all ways. The information and techniques of Jaina religion I received here, deeply impressed me and of high relevance to our time. I will make every effort to convey them to my countrymen. I will leave Varanasi with a good conviction that there are people who live to their faith.
With many thanks for your kind help and all the best wishes.
Reeta Manson
9-11-95 Director of International Education Pites, U. S. A
Thanks a lot for your worm hospitality and kind introduction to your Institute and to the students, sisters and staff. It was very fascinating to visit this institute.
s , states , 7497915 ta, sitapea ta, 28-88-84 जगदीश कुमार जैन, सुभाषचन्द्र, राकेश कुमार जैन दिल्ली
इस संस्थान को देखने का सौभाग्य मिला जो कि हमारे लिए बहत ही
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Opinions of the Visitors who visited the Vidyapeeth
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प्रसन्नता की बात है, भगवान् श्री जी से यही प्रार्थना है कि ऐसे संस्थान देश के कोने-कोने में स्थापित हों जो कि भगवान् महावीर की तरह मानव जाति के आत्मोन्नति में सार्थक बन सकें।
Prof. Jagadish Dua Department of Psychology University of New England Armidale, Australia
Very pleased to see that your institute is studying, ( investigating ) the appreciations of Indian Philosophies to human problems.
Best Wishes
D. M. Pestanji Indian Institute of Management Ahmedabad - 380 015
It was a fascinating experience. May be more researches on modern scientific lines, specially with clinical orientations added to the curricula. I wish all the success.
Christina Ceoerborg Sveag, 3d 65222 Karistad, Sweden
We would like to thank every body for their help and hospitality. Especially Prof. Sagarmal Jain for his advise and literature. We also find the institute very beautiful and peaceful.
Thank You.
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श्रमण
'श्रमण' पाठकों की नज़र में
- श्रमण का अक्टूबर-दिसम्बर, १९९५ का अंक मिला। धन्यवाद। पहले के अंकों से इसमें जो संशोधन (शीर्षक आदि के बारे में) किया गया है वह अति प्रशंसनीय है।
-के० आर० चन्द्र भूतपूर्व अध्यक्ष, प्राकृत विभाग
गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद श्रमण का अंक मिला। इसके पूर्व भी तीन अंक प्राप्त हुए हैं। तदर्थ धन्यवाद। शोध-पत्रिकाओं में 'श्रमण' अग्रगण्य है। नववर्ष की शुभकामनाएँ।
- भागचन्द जैन आचार्य नागपुर विश्वद्यिालय, नागपुर (महाराष्ट्र) 'श्रमण', वर्ष ४६, अंक १०-१२ मिला। उत्कृष्ट लेखों के संकलन हेतु आपके प्रयास के लिए बधाई। मुझे सर्वदा देवर्धिगणि का लोकोत्तर आत्म निन्हव 'ज्ञानाय, दानाय च रक्षणाय' याद आता है और तथोक्त आधुनिक शोधकों की 'अनुप्रासस्यलोभेनभूपः कूपे निपाततः' वृत्ति, क्योंकि वे बहुधा मौलिकता के लिए 'विवादाय' में रस लेते हैं और 'स्थितस्य गतिः' मूल पर विचारणीया को भूलकर मुल पर भी आघात होने देते हैं, जब कि यह अवसर्पिणी है, का ध्यान 'आज्ञापाय विचयी' सहज करता है।
- खुशालचन्द गोरावाला
वाराणसी
सम्पादक 'श्रमण',
___ 'श्रमण', अक्टूबर-दिसम्बर, ९५ का अंक प्राप्त हुआ। पत्रिका में मेरे द्वारा सम्पादित, अनुवादित और लिखित पुस्तकों की समीक्षा तथा चम्पालाल साँड स्मृति साहित्य पुरस्कार से मुझे पुरस्कृत किये जाने के जो समाचार प्रकाशित हुये हैं, उससे मुझे प्रमोद हुआ है। इस हेतु आभार।
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पाठकों की नज़र में : ९५
'श्रमण' पत्रिका का हर अंक समय पर प्राप्त करने और पढ़ने की हमेशा उत्कण्ठा बनी रहती है। जैन धर्म और दर्शन के क्षेत्र में जिस असाम्प्रदायिक दृष्टि और उत्कृष्ट शोधपूर्ण आलेखों के साथ यह पत्रिका प्रकाशित होती है वह प्रशंसनीय
है।
पूर्णतः सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से नियमित प्रकाशित यह पत्रिका भले ही बहुरंगी पृष्ठों से सुसज्जित न हो, किन्तु जैन जगत् के समाचारों, शोध लेखों आदि का जो सतत प्रकाशन इसमें हो रहा है, उसके लिए प्रधान सम्पादक प्रो० सागरमल जैन अन्य सम्पादकों डॉ० अशोक कुमार सिंह, डॉ० शिवप्रसाद तथा डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय हार्दिक बधाई के पात्र हैं।
प्रो० सागरमल जैन के निर्देशन में उच्चस्तरीय विद्वानों के सम्पादकत्व एवं श्री बी० एन० जैन ( मन्त्री, पार्श्वनाथ विद्यापीठ) की सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से प्रकाशित 'श्रमण' पत्रिका जैन जगत् में आज भी सर्वोत्कृष्ट पत्रिकाओं में से एक है और विश्वास है भविष्य में भी इसका उच्च स्तर बना रहेगा। इसका प्रत्येक अंक जैनविद्या प्रेमियों के लिए संग्रहणीय अंक बने, ऐसी अभिलाषा एवं मंगलकामना करता हूँ।
Thank you very much for my complimentary copy of your revered research quarterly (Oct.-Dec. 1995). It is indeed, very kind of you to give largest-coverage to this insignificant scrub's long awaited article Sri Hanumāna in Padma purāna. I feel enthrilled, God bless
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- डॉ॰ सुरेश सिसोदिया शोध अधिकारी आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
our dear - 'ŚRAMANA' and long live our Jaina Religion.
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Truly speaking, it was a jungle to roam about and only your discerning staff could manage to wade through various jaded arguments, a host of tedious Samskṛta quotations. A very honest composing & proof-reading have added excellent charm to the whole gamut of theme.
Thanking You.
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Surendra Kumar Garga Lecturer in English Muzaffar Nagar
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कविता
तत्त्व की आज मैंने सुनी बाँसुरी
तत्त्व की आज मैंने सुनी बाँसुरी । तो विषय भोग माया तजी आसुरी ।। देह पुलकित हुई गीत सम्यक्त्व सुन । गूंजती कर्ण में ज्ञान आसावरी ॥ १ ॥ तत्त्व की आज मैंने
ये अनन्तानुबन्धी सहज उड़ गयी । देख कुमता पिशाचिन अरे कुढ़ गई। मेरी सुमता सखी मुझसे ही जुड़ गई। हाथ जोड़े खड़ी है, बना आंजुरी ।। ३ । तत्त्व की आज मैंने
इन कषायों के बादल बिखर सब गये। निज स्वभावों के पर्वत निखर अब गये || मोह मिथ्यात्व के गिर शिखर अब गये। ज्ञान की खिल गई इक इक पंखुरी ।। २ ।। तत्त्व की आज मैंने
मैं तो परिपूर्ण हूँ सुख का भंडार हूँ । मैं चिदानन्द, चैतन्य, अविकार हूँ ।। बल अतुल का धनी सौख्य आगार हूँ। मेरी आतम स्वयं ज्ञान की निर्झरी ।। ५ ॥ तत्त्व की आज मैंने सुनी बाँसुरी
राजमल पवैया*
मैंने जाना है आतम का सच्चा धरम | मैं हरूँगा विभावों से आठों करम ।। परभावों से हटने की खाई कसम। मेरा यह भव है निश्चित ही अब आखिरी ।। ४ ।। तत्त्व की आज मैंने
*****..........
*
* 44, इब्राहिमपुरा, भोपाल (म० प्र०)
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ŚRAMANA
Third Monthly Research Journal of Pārsvanātha Vi
Volume 1-3]
[ January - March, 1996
General Editor Prof. Sagarmal Jain
Editors Dr. Ashok Kumar Singh Dr. Shriprakash Pandey
For Publishing Articles, News, Advertisement and Membership, Contact
General Editor
śramaņa Pārsvanātha Vidyāpitha 1. T. I. Road, Karaundi
P. O. : B. H. U., Varanasi - 221 005
Phone-311462 Fax-0542-311462
Annual Subscription For Instituitions : Rs. 60.00 For Individual : Rs. 50.00 Single Issue : Rs. 15.00
Life Membership For Institutions : Rs. 1000.00 For Individual : Rs. 500.00
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ŚRAMANA
English Section Articles of this Volume
Pages
99-114
1. Yapaniya Sect : An Introduction
Prof. S. M. Jain Trans. : Dr. Ashok Kumar Singh
115-119
2. Jain Archaeology and Epigraphy
Prof. K. D. Bajpai
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श्रमण
Premi
Yāpaniya Sect : An Introduction
Prof. Sagarmal Jain
Trans. : Dr. Ashok Kumar Singh In Jainism, two sects namely Svetāmbara and Digambara are known but in past, there also flourished one other prominent sect Yāpanīya. This sect had a long and continued existence, spreading as it did over a period of 11 hundred years from c. fifth century A. D. to 15th century. This sect, significantly, contributed, by founding temples, producing a number of literary works in Jaina Saurasenī. Till 50 years ago Jaina community as well as scholars were totally in dark about this sect. Thanks to researches, since then, which brought to light some epigraphs and texts, pertaining to Yāpanīya Sangh. Yet todate, no literature worth the name, on this sect, except a few articles and monographs has been brought out. Prof. A. N. Upadhye and Pt. Nathuram
i paved the way for future researches by their articles. But there has been no commendable follow up to their effort except the work of Kusum Patoria - Yāpanīya Aur Unakā Sāhitya.? I came across this work, when I was going through the proofs of the first chapter of my work entitled “Jainadharma Kā Yāpaniya Sampradāya”. I made full use of her work in my final writing of other chapters at various places, though our conculsions vary about the different facets of Yāpanîya sect.
The knowledge of this sect because of its being capable of bridging the differences between Svetāmbaras and Digambaras, may be beneficial in integrating the Jaina community. However, it is surprising that nearly 600 years ago, having survived for more than one thousand years, it went into oblivion and virtually became part of history, with no followers left. Only shrines, images and literature left by it, are its memoirs. In the forthcoming discussion, my object is to present a systematic account, corroborated by evidences, of this prominent sect, inheriting compromising tendency, to draw the attention and to generate interest among scholars towards this sect. Meaning of the Word Yāpaniya
Owing to variations in dialects and pronunciations, various
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१०० : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६
forms of the terms Yāpaniya became prevalant such as Yāpanīya, Jāpaniya, Yāpaní, Āpaniya, Yāpuliya, Āpuliya, Jāpuliya, Jāvuliya, Jáviliya, Jāväliya, Jāvăligeya etc. The term, almost simultaneously, occurred in Jaina canonical and Pāli Tripitakas, exclusively for greeting, that enquires about the well being of a person -how is Yāpaniya ( life )? In Vyākhyāprajñapti, a Jaina canon, its Prākrta form is mentioned as Javanijja. Therein, a Brāhmin Somila, greeted Lord Mahāvīra by inquiring as to how was his Yãpaniya, health and travel. In the context of preceding dialogue, two types of Yapaniyas, namely — sense-organs and quasi-sense organs, occurred in Bhagavati and Jñātādharmakathā.* Elaborating the former ( sense-organ Yāpaniya), Lord Mahāvīra remarked that his ear etc. five sense-organs are free from disease and are in his control. Similarly, regarding the latter, he claimed that his anger, pride, deceit and greed have been eliminated. Thus in Vyākhyāprajñapti, the term stands for controlled and sub-sided state of the cravings of sense organs and mind. In point of fact, it denotes the physical as well
well being of a person. 'Kim javanijja' here means how is your mood, that is, Yāpaniya indicates mood or mental state. Thus, this word was used in Jaina canons for enquiring physical and mental well being or happiness of a person.
Liberally speaking, it connotes similar meaning in Buddhist literature also. At the arrival of Buddha at the native place ( village ) of Bhrgu, he asked, O Monk ! How is your kşamābhāva ? How is your Yāpanīya? Have you any difficulty in receiving alms ? To this Buddha replied that his kşamābhāva and Yāpaniya were well and he had no difficulty in receiving food etc. Here also, the word Yapaniya expressed the same sense of physical well-being of the person. Thus, generally ‘Kacci Yāpaniya'in Buddhist literature means enquiring about the well being of one's livelyhood.
We find that the word Yapaniya denotes slightly different meaning in Pali and Prākrta literature. Unlike general livelyhood in Pāli, it denotes, in Jaina literature, the tendency of control over sense-organs, and tranquility of mind. Explaining Yāpaniya as that of sense-organs and quasi-sense organs, both Bhagavati and Jñätādharmakathā, explicitly mention that one whose sense-organs are sound as well as control
e mind is not agitated with passions and is peaceful, his Yāpanīya is well. Inspite of the term being used in the sense of control over sense-organs and mind, its derivative or original meaning is journey
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Yāpaniya Sect: An Introduction
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of life. By asking about one's Yāpaniya, his journey of life was inquired ? Buddhists used the term in literary sense, but Jainas conferred spiritual meaning to it. In Bhagavati-sūtra and Jñātādharmakathā, Mahāvīra associated this journey with one's rightness of knowledge, faith and conduct, while Yāpaniya with one's control over one's mind and sense-organs. In this way the term assumed a new meaning in Nirgrantha tradition.
Prof. A. N. Upadhye held that the term Javanijja, as figured in Jñātādharmakathā, stood for Yamanīya, derived from root ‘Yam'(in the sense of control) and not for Yāpaniya. He compared it with Thavanijje, the Prākặta form of Sthăpaniya. To him the correct Samskrta form of Javanijja'is not Yāpaniya and Javanijja'monks were those, leading a self controlled and restrained life, i. e., of Yama-Yāma and in this context, Yama-Yamamay be compared with caujjama or cāturyāma religion, that is the religion of four-fold self control of Pārsvanātha.?
But it is difficult to agree with Prof. Upadhye's version -- Javanijjais Yamaniya. Had he gone through this reference of Vinayapitaka wherein the term Yāpaniya is found in the sense ofinquiring one's well being of his life-journey, he would have certainly refrained from this observation. In case, Javanijja meant Yāmanīya in that era, the term Yamanīya would have certainly occurred in Pāli literature, in place of Yăpaniya. Hence, original word is Yāpaniya and not Yāmaniya. Nevertheless, in spiritual sense, the term suggested controlled or restrained state of mind or sense-organs.
In addition to the above explanations, the scholars have putforth other explanations also. Muni Kalyāņavijaya differing with the above explanations, writes, “The meaning of Yāpanīya as 'leading life' as maintained by some scholars, is not justified. Rather it is due to the term ‘Javanijje'occurring in their salutation to their teacher (guru) that they were called 'Yăpaniya'.”Jaina monks, while saluting their elders recited thus -
"Icchami Khamāsamanoi vandium Jāvanijjae nisihiäe, Anujānaha Me mi Uggaham Nisihi”, that is, I wish, O venerable, to salute (you) with the might and main and deter my attention from other activities, allow me to come.
On account of the frequent occurrence of the term Jāvanijja, i.e., 'Yăpaniya'occurred in salutation axiom, they became famous among people as Yāpaniya. It sounds not unusual, as yatis of Māravāda also
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assumed Matthena (by head ) nomenclature in the analogous manner. They used to salute, ai the time of receiving or departing, by saying ‘Matthaena Vandāmi'. As aresult they were conferred on the title ‘Matthena'by people. That is what exactly happend in the case of Yāpaniyas.S
In my opinion, the account of Muni Kalyāņavijaya, pertaining to the nomenclature of Yăpanīya is appropriate, but his opposition to the meaning of the term as life journey or leading life is not correct.
According to Prof. Tailang, the word Yapaniya may mean those who are to go away, i.e., mendicants who are going about and not stationary. Probably, when the tendency of caitya-vāsa ( dwelling in temple) that is to reside in erected monastries within temples, held firm root among monks, those opposed to 'caitya-vāsa'kept travelling, hence were called Yăpanīya. But there is difficulty in accepting this explanation, as it lacked any authentic evidence to support it. The only factor, in the favour of Prof. Tailang is that the concept of caitya-vāsa also developed certainly at the same time, i.e., 4th or 5th century A.D. as that of Yāpaniya.
Prof. M. A. Dhaky opined that the word Yāpanīya stems from Yāvanika. His assertion is based on the possibility of some Yavanas converting as Jaina monks at Mathurā during the realm of Sakas and Kuşāņas, and their tradition being called Yāvanika. In the due course, Yāpaniya replaced Yāvanika. Despite the fact that the intrusion of Śakas and Hūņas in India, coincided the development of Yāpaniyatradition at Mathurā, as their centre, yet to derive Yāpaniya from Yāvanika is grammatically not convincing.
In Samskrta as well as in Hindi dictionaries, 'to renounce or to exclude' is given as the meaning of word Yāpanā.". According to Apte, the word Yāpya also means expelled or rejected. On this account, Yāpaniyaalso meant degraded or expelled. Most probably, this class of monks, was considered disregarded, debarred or abandoned, hence called Yāpaniya.
Virtually, in Ancient Jaina canons and Pāli Tripițakas, the word Yāpaniya stood for life-journey 'How is your Yapaniya' meant how one's life journey or well being was going on. Therefore, those monks, inclined to easy way oflife in comparison to Digambara monks, were called Yapaniyaby the Digambaras of Southern India in utter disdain, while the Svetāmbaras in Northern India, owing to their sectarian
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Yāpaniya Sect : An Introduction
: P03
prejudices called them Botikas, i. e. corrupt or expelled.
Thus, I have attempted to present an account of the different possible explanations of term Yapanīya, but it is difficult to arrive at the exact explanation as well as ground, which is the most convincing one, in designating the sect as Yāpaniya. Yāpaniya Boţika
Upto the 8th century A. D., the term Boţika was used for Yăpanīyas.13 Probably, Haribhadra, for the first time used the term Yāpaniya, in svetāmbara tradition, yet the explicit mention that Yāpanīyas and Boţikas were identical, is missing. Often Ācārya Haribhadra explained these two terms separately but nowhere indicated that the two were synonym, though the evidences in Svetāmbara tradition, clearly hint that they refer to the same tradition. We must also be aware that Svetămbara ācāryas were misled in their assumption that Boţikas were Digambaras.
This fact has been established emphatically by Padmabhūşana Pt. Dalsukha Malvania in his article “Kyā Boţika Digambara Hain" ? His article appeard in "Aspects of Jainology, Vol. III", Pt. Bechardas Doshi Commemoration Volume, P. V. Research Institute, Varanasi, 1987. Herein he writes, “In the elaborate description of Višeşāvaśyaka Bhāşya, the points of controversy are clothes and utensils, negation of women liberation is missing there. In Digambara tradition clothes and utensils along with women liberation have been prohibited.”
Till, Jinabhadra's period, Botikas were not considered to be Digambaras. The account, pertaining to Botikas in published edition of Āvaśyaka-cürņi, has been bracketed as “The Origin of Digambara' but the editor, appears to be misled here. There is no reference to women liberation in the context of Botikas in Cūrni. So the two must be discriminated from each other. It is also remarkable that Hemacandra commenting on the gāthā 2609 of Viseșāvaśyaka Bhäsya in which the description of Boţikas has been concluded, the commentator has advised to see the commentary of 36th chapter of Uttarādhyayana for women liberation. According to Pt. Malvania this is also due to their wrong identification of Digambaras with Botikas. It is clear from the above discussion that Boţikas were not Digambaras and in addition, two other conclusions also may be drawn. The first, that the sect referred to in
Svetämbara texts as Botikas is not a Digambara onerather it is known as
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Yāpanīya. Secondly, Digambara sect, prohibiting women-liberation was unknown to Svetāmbara ācāryas before 7th century A. D.15
According to the Boţika, Jinakalpa was not extinct, while Svetāmbaras believed that it was extinct. Botikas regarded clothes as possession and advocated nakedness for monks. The episode of Śivabhūti, granting permission to wear clothes to his sister Uttárā, a Jaina nun, indicated that nuns of this sect had clothes. The question of (Acelaka) nakedness and possessing clothes( Sacelaka) of monks, was the main point of difference between the sects. They have no dispute as to the question of women liberation and intake of gross food by Kevali. In other words, till then these questions have not arisen. In Višeşāvasyaka Bhäşya they ( Boţikas ) have been depicted as adopting the Ācārārga etc. canons.16 The Botikas unlike Digambaras neither prohibited women-liberation nor regarded Jaina canons as wholly extinct. They maintained that the references of clothes, utensiles, occurred among canons, are exceptions. In short, Boţikas differed from Digambaras, who prohibited women liberation, intake of gross food by omniscients ( Kevali) and considered Acāranga etc. canons as extinct.
Botikas and Yāpanīyas, with regard to the above postulates have conform views. On the basis of available literature, regarded as those of Yāpanīyas, it is clear that Yāpanīya monks, emphasising nakedness of monks, advocated women-liberation, liberation to heretics and intake of gross food by omniscients. They also owned Ācārāriga, Uttarādhyayana, Daśavaikālika, Kalpa Vyavahāra, Maranavibhakti, Pratyākhyāna, etc. The idea of almost total extinct of canons, on the line of Digambaras, was alien to Yāpanīyas. Hundreds of Gāthās (verses) and extracts from Ardhamāgadhi Jaina canons occurred in texts and canonical commentaries such as Niryukti, produced in the Yāpaniya tradition. The point, I want to prove is that all the evidences tend to establish that Boţikas and Yāpanīyas are identical sect. In short Yāpanữya and Boţika, accepting Acārāriga, Uttarādhyayana etc. canons as extant and believing in women-liberation, are suggestive of the same tradition, hence Boţika, occurred in Svetāmbara literature, is the synonym of Yapaniya. Interpretation of the term Boţika
Boţika is Samsksta rendering of Prāksta Bodiya. Sāntyācārya, in his commentary on Uttarādhyayana, explains the term Boţika as -
"Boţikāscāsau Căritravikalatayā Mundamātratvena”7 called Boţikas
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Yapaniya Sect: An Introduction : १०५
because being infirm conduct they are only shaven headed. But this explanation failed to throw any light on Botika, rather, indicated their conduct only.
In my opinion the Prakṛta term would have been Vadiya, instead of Bodiya, its Samskṛta form being Vatika i. e. one residing in enclousers or gardens. It is evident from Śivabhuti episode, occurred in Viseṣāvasyaka Bhāṣya that Botikas were nude mendicants and they scarcely entered the village or town for begging alms etc. They, as a rule, dwelled in the enclosures or gardens in outskirts of town.18
In all probability, their nomenclature would have been Vadiya or Badiya and in due course Väḍiya became Bodiya. Vesavāḍiya (Vaisyavātikā), Uduvadiya (Rtuvātikā) etc." Ganas figured in Kalpasutra. As Svetapata (Samskṛta) transformed into Präkṛta as Setapata> Seapada Seaado, in the same way Vatika ( Samskṛta) changed as Vadiya > Badiya > Bodiya. Today also, in Malavä region garden is called bāḍī. There is a term boḍā in Mālavi and Gujarātī dialect, meaning shaven headed. In the light of this, it can be inferred that Botikas also with plucked hair, were called Bodiya. However, the preceding description of transformation of word are my own and scholars and linguistics are expected to throw light on the above discussion.
Prof. M. A. Dhaky offers a different explanation of the term Botika. He pointed out that 'botaum' is current in Gujarati for corrupt or defiled.20 Probably, this term of regional dialect would have retained its old meaning. It seems, due to sectarian bias, Švetambaras called them Bodiya, in the sense of corrupt or defiled, because Śvetāmbaras used several disdainful words, viz., Mithyādṛsti, Prabhütatara Visaṁvādi, Sarvavisam vādi and Sarvāpalāpī for Botikas." In Bhojapuri and Avadhi dialect the term Borana or Budānā is current for drowning. Its suggestive meaning may be degraded or deteriorated.
篝
In this regard, the explanation of Prof. Dhaky is more appropriate as it proves the word Yapaniya and Botika as synonym. To put it more clearly, Yapaniya means disdained or expelled and Botika means corrupt or degraded, thus both are naturally synonyms. But the fact that they were branded Botikas or Yapaniyas, owing to sectarian bias, should not be overlooked. They were called Bodiya (Boțika -corrupt ) and Yapaniya (disregarded or expelled), respectively by Svetambara and Digambaras. The term Botika occurred exclusively in the canonical com
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mentaries of Śvetāmbara tradition. In the course of time, as the word
Yāpaniyaread in commendable sense also, it was adopted by Yāpaniyas for themselves. They got inscribed themselves as Yāpanīyas in inscriptions etc. But it is startling that the term “Yāpaniya' is not traceable, in only work ascribed to them, at all. Perhaps Digambaras after adopting Yāpanīya works, intentionally and deliberately omitted the term Yăpaniya, from these texts. Orgin of Yāpaniya Sect
To comprehend the question of the date of origin of Yāpanīya sect, to present a brief account of the history of the division of the sects in the order of Mahāvīra, is in order. The earliest references pertaining to this division figure in Sthavirāvalis ( hagiological lists ), Kalpasūtrał and Nandi-sūtra. Sthavirāvalis give information about the division of Mahāvira's order into Gana, Gaņas into branches, branches into Kulas and Kula into Sambhogas, but therein the facts regarding the division of Sangha or confedration into different sects such as Svetāmbara, Digambara, Yāpāniya etc. is missing. Out of these two Kalpasūtra, Sthavirāvali, dated earlier is annexed twice. The last annexture being effected in Vira Nirvāna S. 980, that is, during 5th century of Christian era. Nandi-sūtra Sthavirāvali also is dated to this s period. Lineage of descipils of Sthūlabhadra, onward differ in both Sthavirāvalis. The Sthavirāvalis of Kalpa-sūtra and Nandi-sūtra deal with Ganadharas and Vācakas respectively.24 List of Ganadharas threw light on the administrative lineage of Sangha while that of latter informs about tradition of Upadhyāyas or Vidyāgurus ( teachers ).
These Sthavirăvalis, contain the name of only illustrious ācāryas, hence can not be considered as making a complete and exhaustive list of Jaina ācāryas. The time and date of these ācāryas, figured in the list of these Sthavirāvalis extended upto a span of 1000 years, i. e., from the beginning of 5th century B. C. to 5th century A. D. The last ācārya mentioned is Devardhi Gani Kșamāśramana. The absence of reference to the division of sects is striking. On this bàsis, one can conclude that prior to 5th century A. D., the division of Sangha into Digambara, Svetămbara and Yāpanīya as such, has not taken place.
In Sthănānga and Avaśyaka-niryuktas, seven Nihnavas namely: Jāmāli, Tișyagupta, Āsādha, Aśvamitra, Ganga, Rohagupta and Gosthāmāhila figure. The first two, Jāmāli and Tişyagupta were
contemporary of Mahāvīra while the remaining five, dated ( that is
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fol
after his emancipation ) between 214 to 584 V. N. S. The origin of *Trairāśikamata' ( Theory of three categories : Jiva, Ajiva, Nojiva ), by Rohagupta, is also mentioned in Kalpa-sūtra Sthavirāvali. Nihnavas have uniform conduct and dresses but different doctrinal or philosophical postulates as far as main stream is concerned. Botikas, mistaken as Digambaras, but virtually Yāpanīyas, are not included among seven Nihnavas. This sect, occurred for the first time in Avaśyaka Mülabhāsyz (Verses 145-148). These gāthās are compiled after Niryuktigāthā 783 in Āvaśyaka-Niryukti's commentary of Haribhadra. Thus, it may be inferred
erred that prior to Avaśyaka Mülabhāsya, no other Svetāmbara text has any reference to the traditions of Botika, Yāpanīya and Digambara traditions.
The most striking fact is that Digambara tradition, opposed to women-liberation and intake of gross-food by omniscients, is no where mentioned in any work of Svetāmbara tradition, composed before 8th century V.S. Epigraphical evidences, pertaining to the Yāpanīya tradition, on the contrary, belong to 5th century A. D. or onwards, hence its origin is certainly prior to that.
The Gaņas, sākhās, Kulas and Sambhogas referred to in Jaina inscriptions of Mathurā, dated Ist and Ilnd century, are quite in conformity with those in Kalpasūtra Sthavirāvali.27 Digambara literature on the other hand has no clue at all about these Ganas, Šakhās and Kulas. In all the idols and votive slabs ( Āyāgapattas ) wherein the inscription have been craved, the Tirtharikaras have been delineated naked. However, in the inscriptions of corresponding period, the episode of transfer of embryo of Mahāvīra, as depicted in Ācārânga, Srutaskandha IInd and Kalpa-sutra,28 has also been drawn. The resemblance of Ganas, Kulas, Sākhās and Sambhogas of inscriptions with those found in Kalpa-sutra Sthavirāvali, indicates that donors of these inscriptions and idols belong to Digambara tradition.29
The depiction in the ancient sculptures of Mathurā, of a monk, holding a piece of cloth in his hand alongwith wollen blanket, to cover his nudity, and begging bowls in that of Aihole, proves beyond doubt that it is not a Digambara one. But the Jaina sculpture of Mathurā may not also be ascribed to Yāpanïya sect, having positively, a later origin. The name of Ajjakanha (Aryakrsna), has been inscribed on this sculpture. According to Pt. Kailashchandra Shastri 30, the teacher of Sivabhūti, the founder of Yāpaniya sect, it belonged to Ardhasphālaka sect. How
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ever, Pt. Nathuram Premi} categorically denied the existence of any such sect. This epigraph, according to him, belonged to pre-division period of Sargha. In fact, in opposition to the holding of piece of cloth by Aryakrsna, Yāpaniyas or Boţikas attempted to take recourse to Acelaka tradition. In the course of time, hostility to the changes in Jaina Sangha, led to the origin of Yāpanīya or Botikas as schism
Both literary and epigraphic evidences confirm that though Mahāvīras religious order was divided into ganas etc. yet not clearly into Svetāmbara, Digambara and Yăpanīya sects as such, upto thirdfourth century. Therefore, Jaina sects: namely, Svetămbara, Digambara and Yāpanīya might have originated during 4th-5th century A.D., even though, the roots of dissension have striked deeply, prior to this date.
However, the term Bodiya, for the first time figured in Avaśyaka Mülabhāsya?, according to which the tradition of Boţikas originated in Rathavīrapur, in a garden in 609 V. N. S. by Sivabhūti, a desciple of Ajjakanha. The date of composition of Āvaśyaka Mūlabhāșya is, between Āvaśyaka Niryukti and Višeşāvaśyaka Bhāşya. Referring to the events of 584 V. N. S., i. e., Ist century A. D., Āvašyaka Niryukti" was naturally composed at a latter date. Višeșāvaśyaka Bhāşya?4 is generally ascribed to the closing of 6th century A. D. Thus, the Botika or Yapaniya came into existence between Ist and 6th century A. D. and the date of the dispute about clothes mentioned in Āvašyaka Mūlabhāsya as V. N. S. 609, may be taken to be true. Here we must be aware of the fact that actual division did not take place at the time of Sivabhūti, i. e., V. N. S. 609, but certainly at a later date, at the time of Kodinna and Kottavīra, as Āvasyaka Mūlabhāsya mentions.35
Except Darśanasāra of Devasena36 ( 942 A. D. or 999 V. S.), no other work of Digambara tradition, deals with this division of Jaina religious order. According to it, Svetămbara sect, originated 136 years after Vikrama's demise at Valabhi of Saurastra. It also informed that Yāpanīya Sangha was founded by Svetāmbara monk Śrīkalaśa in Vikram Samvat 205, in Kalyāna.Darśanasāra is posterior to Avašyaka Mülabhāsya, hence, its facts should be scrutinised carefully. However, both Avasvaka Mülabhāsva and Darśanasāra mention V. S. 136 (V. N. S. 606 ) and V. S. 139 ( V. N. S. 609 ) respectively, as dates of the division of the Sarigha.Both corroborating each other, it can not be ruled out entirely, as unauthentic. But it indicates only that the disputation in
Jaina Sarigha, started by the beginning of the second century. Darśanasāra
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relates the origin of Yāpanīya sect, to a period, 70 years later than the Sarigha division. According to Āvaśyaka Mõlabhāşya also, this tradition came into existence through Kauţinya and Kottavīra, the desciples of Sivabhūti. It is possible that these two were not the direct desciples of Sivabhūti, but were in his lineage. Therefore, it may be easily propounded that the Botika sect mentioned in Mūlabhāșya, developed as an independent sect, approximately during third-fourth century A. D. But, the point of time, when they were given name as Yapaniya, remains to be ascertained. We find that the term Yāpaniya occurred for the first time in the inscription of king Mrgesa Verman of Southern India, of 5th century A. D. But we had authentic evidences that prior to Sth centruy A. D. this sect had struck its roots deeply in Northern India. It is in the Lalitavistara of Ācārya Haribhadra ( first half of the 8th century A. D. ) that the term Yāpaniya occurred for the first time in Northern India. Prior to it, neither in epigraphs nor in literary works of Northern India, this word was traceable. In fact, in the early centuries, Śvetāmbaras called them Boţikas, but how they addressed themselves, is not known. We can only gesticulate through the clues received in this regard, but can not say anything with certainty.
Though Gaņas etc. figured in Sthānānga, Kalpa-sütra, etc. as well as in inscriptions of Mathurā, may be regarded as descendants of Svetāmbara and Yāpanīya, yet it is difficult to pinpoint the salient mark, adopted by Yāpaniyas, as their individual identity. The analysis of some stray references, found in the inscriptions of Pabhosā, Vidiśā and Pahādapura, pertaining to ganas etc. is expected to throw some light on the matter. Coming to the identity of Kāśyapīya Arhatas, depicted in Pabhosā inscription"0, we find that there is a reference to Kaśyapiya Sākhã in Kalpa-sútra Sthavirāvalī. It is certain, desciples of a religious ācārya of Kāśyapa clan would have been called Kāśyapīya Arhat. There may be three possibilities with regard to nomenclature Kāśyapiya Anhạt :
1. The lineage of Lord Mahāvīra might be called with this name, as he belonged to Kāśyapa clan ( gotra).
2. Also the lineage of Godāsa, desciple of Ācārya Bhadrabāhu might have designated itself as “Kāsyapīya Arhat'. He is mentioned as belonging to Kaśyapa clan in Kalpa-sūtra Sthavirāvali.
3. Kalpa-sūtra also states Kāśyapikā sākhā, as a branch of
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Mänava Gaṇa, emanating from Rṣigupta of Vasistha clan, the desciple of Suhasti. However, the founder of Kasyapikā branch is still unknown. But it is sure that he belonged to Kasyapa clan.
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As three äcāryas -Aryabhadra, Aryanakṣatra and Aryarakṣa (probably Aryarakṣita), posterior to Ārya Śivabhūti and Arya Kṛṣṇa, between whom the dispute about nudity or using of clothes and utensils, occurred, have been listed as Kāśyapagotriyain Kalpa-sūtra Sthavirāvalī, hence their lineage would have known as Kāśyapiya Arhat.
On the basis of its script, Pabhosă inscription is considered as that of Sunga age, that is, of about Ist century B. C. On the basis of the date of Pabhosa inscription, it is clear that Yapanīyas, may not be called as Kasyapiya Arhat, because the date of their origin is later than this inscription.
In Udaigiri Inscription ( Gupta Sam. 106, V. S. 406 ) of Vidiśā,42 the ācārya consecrating the idol of Lord Parsvanatha, is depicted as the disciple of Acarya Gośarmā of Aryakula and Bhadrānvaya. This Bhadranvaya may be taken to be the previous name of Yapaniya tradition. In Kalpa-sūtra Sthavirāvalī, Āryabhadra figures after Arya Śivabhūti and Aryakṛṣṇa, the two who had a dialogue regarding dress and utensils. In my opinion, Aryakula and Bhadranvaya were related to this Aryabhadra. Perhaps Aryabhadra of Kasyapa clan, was a leading adherent of Arya Śivabhuti, hence this tradition called itself as Aryakula and Bhadranvaya. This acela tradition of Northern India, known as Botika or Yapaniya had considerable influence from Mathura to Sanchi. Thus, evidently, Yapanīya, tradition in the beginning was known as Aryakula and Bhadrānvaya.
Another idol, of the age of the great king (Mahārājādhirāja) Rāmagupta of Vidiśā, bore the name of Acarya Sarpasena (Nāgasena) Kṣamana, the disciple of Celü Kṣamana and the grand disciple of Arya Candra Kṣamana Śramana ( Khamana-Samana), the hand bowled ( panipatrikā) monk, i. e., receiving in and eating food from their folded palms. The titles hand-bowled, and Kṣamana Śramana separated these acaryas from Śvetambara and Digambara tradition, respectively. As regards the latter title, it has been alien to Digambara tradition. But Śvetämbara ācāryas, positively, bore this title, at least from 4th-5th century A. D., is evident from the instance of Devardhigani Kṣamāśramana, traditionally the last compiler of the Jaina canons. Accord
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ing to Kalpa-sūtra Sthavirāvalī, other anterior Śvetāmbara acāryas also bore this title. In all probability the Boţika or Yāpanīya schism descending through this Northern Indian tradition, would have adopted this title Kșamāśramana. Late Prof. U. P. Shah also held these Vidiśā inscriptions to be Yāpanīya. He wrote, “Aryacandra, infact, was non-clothed (Acelaka ) and perhaps was related to the Yāpanīya sect. Prof. Shah identified Sarpasena of this inscription with Nāgasena. But Aryanāga, figured in Kalpa-sūtra Sthavirāvali in the lineage of Aryakrsna and Sivabhūti as posterior to Aryabhadra, Aryanakṣatra and Aryaraksa, can in no way be indentified with Sarpasena of Vidiśā inscriptions because lineage of this ( Sarpasena ) teacher has no direct linkage with that figured in Kalpa-sūtra. Nevertheless we can inter from the foregoing discussion that Aryakula, Bhadrānvaya and Sarpasena were related with Yāpanīya tradition.
Pahārapura ( Bengal ) inscription refers to Pañcastūpānvaya of Kāśi. Epigraphic evidences as well as architects notice that dome ( Stüpa ) worship was prevalent in Jaina-tradition at Mathurā. It is a fact that division between white cloth ( Sacela ) and non-clothed (Acela) monks in Jaina tradition, materialised in Northern India, near Mathurā. Therefore, probably, after division at Mathurā, non-clothed (Acela ) branch which arrived Vidiśā and Sāñci via Gwalior and Deogarh, became known as Āryakula and Bhadrānvaya and similarly, the branch which reached from Mathurā, to Bengal via Kāśī introduced itself as Pañcastūpānvayā. Perhaps, in the beginning Yäpanīya tradition named itself as Aryakula, Bhadrānvaya and Pañcastūpānvaya in North India, addressed as Boţikas by Svetāmbara's denigrately, and they assumed this nomenclature Yāpanīya in Northern India.
References 1. (a) Indian Antiquary, Swati Publications, Delhi, 1984, Vol. VII,
p. 34.
(b) H. Luders, Epigraphica Indica, Archaeological Survey of India, New Delhi, 1979, Vol. IV, pp. 338-339, p. 349. (c) Nathuram Premi, Jaina Hitaisi, XII, pp. 250-275. (d) A. N. Upadhye, Journal of the University of Bombay, 1956, VI, p. 224 ff. (e) Nathuram Premi, Jaina Sāhitya Aur Itihāsa, Bombay, Ed. IInd, 1956, p. 56f, 1551, 521f.
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(f)P. B. Desai, Jainism in South India, Sholapur, 1957, pp. 163166. (g) A. N. Upadhye, Jaina Sampradāya ke Yāpaniya Sangha Para Kucha Aur Prakāśa - Anekanta, No. 28, Kirana ( Issue ) 1, 1975,
pp. 244-253. 2. Dr. Kusum Patoria, Yāpaniya Aur Unakā Sāhitya, Vira Seva
Mandira Trust Prakashana, Naria, Varanasi, Ist. Ed., 1988. 3. A. N. Upadhye, Anekānta, 1975, p. 246. 4. Jatta te Bhante ? Jāvanijjar ( te Bhante ?) avvabaham ( te Bhante)
Phasuyaviharam (te Bhante) ? Somila! jatta vi me, Jāvanijjani pi me, avvabham pi me, phasuyaviharam pi me. Bhagavati, Ed. Ācārya Mahāprajña, Jaina Vishva Bharati, Ladnun, Ist Edition, 1974, Sataka 18/206. Kim te Bhante! Jāvanijjam. Somila! Jāvanijje divihe paņņatte, tam jahā indiyajāvanijje yajñoindiya jāvanijje yan se kim te indiyajāvanijje ? Indiyajāvanijje-jam me soindiya cakkhindiya hammadiya jibbhindiya phasimdiyaim niruvahayaim vase vattamti, settam indiyajāvanijje ! No-indiyajāvanijje jam me koha-māna-māyā lobha vocchinna no diremt, setam noindiyajāvanijje setam jāvanijjā. Bhagavati, Ladnun, 18/208-210. Āyasmantam Bhaguni bhagava etadavoca-kassi, Bhikkhu, khamaniyani kacci Yāpaniyani kacci pindakena na kilamasi ti? khamaniyam, bhagava Yāpaniyam, bhagava, na caham bhante pinda akena kilamāmi...it. Mahavaggo (Ed.) Bhikkhu J. Kashyap, Pali Publication Board, Bihar, Govt. (Nalanda-Devanagari-Pali Series, First Edition, 1956,
10-4-16) 7. A. N. Upadhye, Anekānta, 1975, p. 246. 8. Pattāvaliparāgasarigraha, Muni Kalyanavijaya Gani, K. V. Shastra
sangraha Samiti, Jalore, First Edition, 1966, p. 91. 9. A. N. Upadhye, Anekānta (1975), p. 246. 10. On the Basis of Dialogue with Prof. M. A. Dhaky. 11. (a) Bșhat Hindi Kosa, Jnanamandala Ltd., Varanasi, 1952, p. 1068. (b) Samskrta-Hindi Koša, Apte, M. L. B. D. Delhi, First Edition,
1948, p. 834.
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12. Ibid, p. 834. 13. Chavvāsasayāiṁ navuttarāim taiyā siddhiṁ gayassa Vīrassa
to Bodiyāņa ditthi Rahavīrapure Samuppaņņā. (45) Rahavīrapuram nayaram divagamujjāne Ajjakanhe ya Sivabhūissuvahimmi ya pucchā therāņa kahaņā ya. ( 46 ) Avaśyaka Niryukti, B. K. Kothari Religious Trust, Bombay, Rep.
Ed. IInd, 1981, pp. 215-216. 14. "Strigrahaņam tāsāmapi tadbhāva iva samsārakṣayo bhavati iti
jñāpanārtha vacaḥ yathoktam Yapaniya tantre". Lalitavistara, Haribhadra, R. K. Kesarimala Svetambara Sanstha,
Ratlam, pp. 57-58. 15. Uttaradhyayana, Sāntyācārya sīkā. 16. Višeşāvasyaka-Bhāşya ( two parts ), Jinabhadra Gani, Agamodya
Samiti, Bombay, First Edition, 1927, V. 3054. 17. Uttarădhyayana, śāntyācārya Țīkā, D. L. J. P. Fujd ( S. No. 33). 18. Āvasyaka Niryukti, Hāribhadrīya Vịtti, Bombay (Rep. Ed. Ilnd),
p. 423. 19. (a) Therehimto Bhaddajasehisto Bhāraddayagottehimto ettha
ņam uļuvādiyagane nāmaṁ game niggae. Kalpasūtra, Prakrit Bharati Academy, Jaipur, Ist Ed., Para 213. (b) Therehimto ņam kāmiddhihimto kundalisagottehisto etthaņaṁ vesavāļiyagane nāmari gane niggaye.
Kalpasūtra ( Jaipur ), Para 124. 20. Vide Bodum, Hindi-Gujrati Kosa, Ahmedabad, 1961, p. 348. 21. Prof. Dhaky, Dialogue. 22. Kalpa-sūtra Sthavirāvali, Jaipur, Para 207-224. 23. Nandi-sūtra, Ed. Madhukar Muni, Byavara, S. No. 12, Ed. 1982,
W. 25-50. 24. Patļāvali-parāga-sangraha, Kalyāṇavijāya, Jalore, See Ist chapter. 25. ( a ) Sthānārga, Ed. Madhukar Muni, Byavara, S. No. 7, 1981,
Thana 7, Para 140-142, pp. 753-754.
(b) Āvaśyaka Niryukti, Hāribhadrīyavrtti, Bombay, V. 779-783. 26. Avašyaka Mūlabhāșya, See Avaśyaka Niryukti, Havorth Bombay,
pp. 145-148.
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27. Paṭṭāvalī-parāga-sangraha, Muni Kalyāṇavijaya, Jalore, pp. 34-35. 28. Jaina Stūpas and Other Antiquities of India, V. A. Smith, Indological Book House, Delhi, 1969, Plate No. 10, 15, 17, pp. 24-25. 29. Ibid, pp. 24-25.
30. Jaina Sahitya Kā Itihāsa ( Pūrvapīṭhikā), Pt. Kailashaçandra Shastri, G. P. Varni Text S. No. 11, Varanasi, 1962, p. 385
31. (a) Ibid, p. 381.
(b) Jaina Hitaisi, Part 13, Issue 9-10.
32. Avasyaka Mūlabhāṣya, V. 945-948.
33. Avasyaka Niryukti, Haribhadriya Vṛtti, V. 779-783. 34. Jaina Sahitya Kā Itihāsa ( Pūrvapīṭhikā), p. 372.
35. Ibid, p. 372.
36. Ibid, p.
372.
37. Ibid, p. 372.
38. Avasyaka Mūlabhāṣya, V. 145-148.
39. Jaina Śilālekha Sangraha, Part 2, No. 102-103.
40. Ibid, No. 6-7.
41. Kalpa-sūtra ( Jaipur), Para 215.
42. Acārya Bhadrānvaya Bhūṣaṇasya Siśyo Hayasa Varyyakubjodgatasya, Acārya Gosarma, Jaina Šilalekha Sangraha, Rep. IInd, p.
57.
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श्रमण
Jain Archaeology and Epigraphy*
Prof. K. D. Bajpai**
The archaeological and historical studies during the last 150 years have brought to light the importance of Jaina architecture, sculpture, painting and epigraphs. These studies have in a large measure, corroborated the evidences known from the literary and other sources. The significance of the variegated Jaina source material for the study of Indian History & Culture, is now widely acknowledged.
The stone Age tools and the pre-historic rock paintings, have been discoverd in different regions of the country. Painted rock shelters are largely known from the valleys of rivers Betwa, Narmada and Chambal. They have thrown interesting light on the archaic culture of India. Some of the rock paintings represent the earliest activity in the field of pictorial art in the country. Several representation of symbols were adopted from the archaic rock paintings by the artists of the historical times. Indian art of the historical period bears several of these symbols.
The relices of the Harappan culture and various chaleothic cultures in other parts of the contry have clearly indicated that both the plastic and pictorial art developed during the protohistoric times.
The history of Indian art from the Maurya period onwards represents a harmonious blend of the religious and secular trends Religion undoubtedly began to play a leading role in almost all the spheres of life and thought. The field of fine arts could not remain an exception.
From the beginning of the 2nd century B. C., Bhakti movement made a mark in the socio-religious life of the country. It is discernible not only in the Vedic-Purāņic religion, but also in Jainism and Buddhism. It was largely responsible for a brisk activity in art and * A paper presented by the author at the occassion of the Golden Jubilee of the
Pārsvanatha Vidyapitha, in the First Conference of All India Association of Prākrta and Jaina Studies.
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literature during the Sunga-Sātavāhana period. In the Saka-Kuşāņa age, more impetus was given to sculpture and architecture. Even foreign rulers, the Kuşăņas and the Ksatrapas, were influenced by the new devotional trends in Indian society. They patronized Indian art to such an extent that a large number of temples, Stūpas, Vihāras and statues were made in several parts of the country. The relics of these found at Mathurā, Kaušāmbi, Vidiśā Ahichatra, Bharahuta, Sāñchi, Amarāvati and other places bear testimony to this.
During the Guptā period, the plastic, pictorial and performing arts had an all round growth, both in the north and south India. Activities in these fields continued during the early medieval period.
The contribution of Jainism to Indian philosophical and material culture is considerable indeed. The inscriptional and literary evidence proves the existence of Jaina stupas and of Tirtharikara images before the Christian era. The Hāthigumpha inscription and other sites have thrown light on this.
The Jaina works, like Kalpasūtra, Rāyapaseniya, Argavijjā, Niśitha and several others, furnish valuable accounts pertaining to art of sculpture, architecture, painting, music and dramaturgy. When we study this literature along with the art form extant in several parts of the country (e. g. Mathurā, Vidiśā, Kaušāmbi, Ahichatra, Rājāgrha and other art centres ) we find that several of the art forms tally very well with their descriptions in scriptures. The Jaina literature on iconography and architecture is sumptuous and is extremely valuable for the study of artistic development in different parts of the country.
The Jaina inscriptions are extremly valuable for the study of Indain art. They contain a good number of technical terms which are otherwise unknown to us. In the inscriptions of the Saka-Kuşāna period from interesting terms like Ayāgapatta, Thüpa torana, Kubha, Mandavikā Sīlädevī, Grāmadevi, Pratimăsarvatobhadrikā have been found. Words such as Puşkariņi, Arāma, Vihāra, Punyaśālā, etc. also occur in Jaina inscriptions. On the pedestal of the Jaina image of goddess Sarasvati dated in the Saka year 54 (i. e. 132 A. D.) the inscription states that the imgae was installed in a dance-hall. This and other records furnish an interesting evidence to the popularity of the performing arts during the Kuşāņa period. The presiding diety of these arts was Sarasvati. In the inscriptions the donor is mentioned as Gopa,
a lohika-Kāruka ( i.e. and artists who was by profession an ironsmith).
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Artists working on gold, precious and semi-precious stones are also mentioned in several early inscriptions as maņikāras and hiranyakāras.
On the famous Mathurā Ayāgapatta ( No. Q. 2), referring to the courtesan Lavaņaśobhikā and her daughter, there is a miniature representation of a complete Jaina stūpa of the early. Śaka-Kuşāņa period. It has a decorated toranadvāra and vedikās around.
The Sarvatobhadra Tirtharkara statues from Mathurā, Kaušāmbī and several other sites represent on a single stone-slab the four main Jaina deities, viz., Ādinātha, Neminātha, Pārsvanātha and Mahāvīra. These Tīrtharikaras are shown either in the Padmāsana or in the Khadgăsana. The term Pratimāsarvatobhadrikā for the first time occurs in the Mathurā Jaina inscriptions of the Kuşāņa period. It was a new iconographic form, which was later on adopted in the VedicPuranic and the Buddhist pantheons.
Examples of Jaina stūpas, temples, monasteries and statues, of various forms, are known in different parts of the country. They furnish a glaring testimony to the development of various art-forms. The canonical injunctions of the Jaina lierature and the loacal faiths and social traits were adequately adhered to by the artists, who created various art-forms. From the very early times Jainism gave a fillip to the aesthetic norms in art. The compositions and decorative patterns adopted in the Jaina art of the Saka-Kuşāņa and the Gupta period are remarkable for their simplicity and grace. The construction of Vedikas around the Jaina stūpas during the period Ist to 3rd centuries A. D. reached a high water mark in the history of Indian art. The human figures, popular stories and a plethora of nature carved on the railing pillars of Mathurā represent a degree of excellence unsurpassed in the entire range of Indian plastic art. This art of abiding beauty had an everlasting impact on the later plastic art of India and the contiguous regions of the north-west. The ivory art of Beram in Afghanistan and the art of the extensive Udyāna-Gandhāra regions prove this.
A blending of the aesthetic excellence with the iconic norms became a feature of the Jaina concept in regard to fine arts. This continued to develop in the country up to the late medievaltimes. As in other fields so also in the field of fine arts, the Jaina principle of Sila was adhered to along with the traits of beauty and utility. It was due to
certain essential restraints that the Jaina art did not suffer from the
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११८ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६
extrme sensuous characteristics which are seen in a section of early medieval Brahmanical and Buddhist Art.
After the fifth century A. D. Jainism established several centres in North India where Jaina religion, philosophy, literature, sculpture and architecture had a continuous growth up to the 13th century A. D. This was possible due to the congenial political atmosphere, economic stability and the broad-based Jaina philosophy on truth, non-violence and mutual co-existence. Eeven after the Muslim occupation Jianism continued to flourish in the north in various forms.
The regions of western U. P., Madhya Pradesh, Rajasthan and Gujarat contributed considerably to sculptural art and iconography during the early medieval period (7th to 13th century A.D.). this can be corroborated by a large number monuments and art relics preserved in these areas.
The iconographic froms of quite a large number of deities and semidivine figures in the Jaina pantheon had already been thoroughly worked out by them, both in the Digambara and in the Svetāmbara sects. Apart from the statues of the twenty-four Tirtharikaras, those of the sixteen Vidyā-devis, twenty-four Sāsana-devas (both Yaksas and Yakṣis ), the Kșetrapālas, eight Mātrikās, ten Dikpālas and nine Grahas were made in the prescribed forms. Some of the medieval Jaina texts mention sixty-four Yoginís, eighty-four Siddhas and fiftytwo Viras, who had assumed the forms of popular divinities. The theological complex of the Jaina religion had gained ground in several parts of the country. The profuse development of temples and images gave an impetus to this complex during the late medieval period.
The business-community of the medieval period was largely Jaina. A peaceful atmosphere for an undisturbed progress of trade and commerce was essential. Hence the Jainas strove hard to help the rulers of their respective regions in maintaining a congenial atmosphere and, as far as possible, strived to avoid warring tendencies.
Even in the earlier period, several Jaina sacred places, the siddhakşetras and atiśaya-kşetras, had assumed considerable importance. In central India a number of them were located on hillocks or on the banks of rivers and lakes, some with pleasant natural surroundings. Druing this period places like Sonāgiri, Dronagiri, Naiāgiri, Pāvāgiri, etc. became famous. At these and other sites in Malwa, Gwalior and Bundelkhand temples were crected and statues of various types made.
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Jaina Archaeology and Epigraphy : 388
The sculptural art of the medieval period is marked by a profusion and a peculiar liking for the colossus. Carving of huge stone images of Tīrtharikaras became a fashion. The rise of the Gommata cult was largely responsible for this, notable example at Śravanabelagolā perhaps providing the inspiration. At Gwalior, Ahār, Bānpur, Barhaţā, Deogarha, Bahuriband and several other places in central India huge image were carved. In Rajasthan and Gujarat, several Jaina centres were developed during this period.
Besides the Tírtharikara images, a large number of statues of Sasana-devas, Nāgās, Nava-grahas, Kşetrapălas, Gandharvas, Kinnaras, etc. are still preserved. To the number of the early goddesses ( Sarasvati, Ambikā, Padmavati & Cakreśvari ), numerous other Devis were added. Depiction of the Jaina Purānic stories and of folk-life in general was also favourite with the contemporary artists. Natural scenes are met with here and there some of them representing regional geographical features.
The Jaina business communities contributed considerably to the economic stability of the country. Their carvans passed through plains, forests and hills. The Sārthavāhas took care to study problems of the various classes of people whome they met during their travels. They tried to ameliorate the difficulties of the common people. At their halting places they built up shrines, wells, markets, etc. for public use. The relics of buildings found at several isolated sites represent the work of the Jaina business communities in different parts of the country, the inscriptional and numismatic evidence confirms this.
Ladies played significant roles in the progress of learning and development of socio-religious order. Names of a large number of such lady-donors are preserved in ancient and medieval inscriptions.
** Retd. Tagore Professor, University of Sagar (M.P.)
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OBITUARY
Johari Malji Parekh, a great Jaina scholar who dedicated his whole life for the development of Jaina literature passed away suddenly on 5th February, 1996. He was an institution by himself devoting every bit of his time to religious piety and learning. A Gold Medalist Chartered Accountant by profession, he renounced his position and comforts and adopted austere life. He devoted nearly thirty years of his life fruitfully to the cause of Jaina community, especially, preservation of Jaina literature. He established a modest institute Sevamandir at Ravati (Jodhpur) and continued his crusade for restoring the Jaina studies in their proper place on the academic scenario. He was associated with almost all the Jaina organisations / institutions and was equally honoured by all the sects. He appealed to the entire Jaina community to come forward and contribute for preserving its rich spiritual heritage.
An outstanding contribution of Johari Malji was the publication of catalogues of manuscripts contained in the Jaina Bhandaras of Jaisalmer and Jodhpur.
Apart from his unparalleled dedication to the Jaina literature as well as Jaina education he was a great Sadhaka himself, who lived an extremely plain and simple life. The Jaina community will suffer an irreparable loss by the sad demise of this living legend of self control. He will be remembered not only by the Jaina community but by the entire society.
Parshvanath Vidyapeeth mourns the death of this great ; its personal loss. May his soul rest in peace.
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