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वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान : ५५
और उग्र होती है । बौद्ध ध्यान साधना के सम्बन्ध में डॉ० राधाकृष्णन का यह कथन द्रष्टव्य है “यद्यपि बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या की आलोचना की, फिर भी यह आश्चर्यजनक है कि बौद्ध श्रमणों का अनुशासन किसी भी ब्राह्मण ग्रन्थ में वर्णित अनुशासन (तपश्चर्या) से कम कठोर नहीं है। यद्यपि बुद्ध सैद्धान्तिक दृष्टि से तपश्चर्या के अभाव में भी निर्वाण की उपलब्धि सम्भव मानते हैं, तथापि व्यवहार में तप उनके अनुसार आवश्यक प्रतीत होता है । " २६ डॉ० राधाकृष्णन का यह कथन बौद्ध साधना पद्धति में ध्यान के महत्त्व का परिचायक है।
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जहाँ तक बौद्ध साधना के दिग्दर्शन का प्रश्न है तो यह शील, समाधि और प्रज्ञा इन त्रिविध साधना पद्धतियों के रूप में जाना जाता है। इन्हीं त्रिविध साधना मार्ग में सम्पूर्ण बौद्ध साधना को समाहित माना गया है। शील, ध्यानाभ्यास का आधार है क्योंकि शील में प्रतिष्ठित होने पर ही समाधि की भावना सम्भव है । २७ इसकी महत्ता को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि शील में प्रतिष्ठा के बिना कुलपुत्रों का बौद्ध शासन में प्रवेश नहीं हो सकता है। २८ बौद्ध शासन में प्रविष्ट होने के लिए शील का आचरण परमावश्यक है, क्योंकि उसके बिना समाधि की प्राप्ति सम्भव नहीं है और समाधि कुशलचित्त की एकाग्रता है। २९ काम एवं अकुशल धर्मों का परित्याग किए बिना ध्यान अथवा समाधि को सिद्ध नहीं किया जा सकता है। काम के परित्याग से काम-विवेक एवं अकुशल के परित्याग से चित्त - विवेक की उत्पत्ति होती है। इस कारण से हम अपनी तृष्णा एवं क्लेश को समझ पाते हैं। हम यह जान लेते हैं कि समस्त अनर्थों की जड़ यही तृष्णा एवं क्लेश है। हम जितना अधिक अपनी तृष्णा और क्लेशों के पीछे भागेंगे वह उतनी ही अधिक तीव्रता से अपने संहारक रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होती रहेगी। यह दूसरी बात है कि हम तृष्णा के संहारक रूप को नहीं समझ पाते हैं, फलतः हम निरन्तर उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और सांसारिक दुःख सागर में डूबते-उतराते रहते हैं।
साधक अपनी तृष्णा और क्लेश से मुक्त होने पर समाधि की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। इसके लिए काम - विवेक एवं चित्त-विवेक आवश्यक है। काम - विब्रेक की सहायता से तृष्णा को तथा चित्त-विवेक से अकुशल कर्म के त्याग की प्रवृत्ति का विकास होता है। यह अकुशल परित्याग क्लेश को नष्ट करता है। जब व्यक्ति की तृष्णा एवं क्लेश नष्ट हो जाते हैं तो व्यक्ति अपने चपल - भाव एवं अविद्या का विनाश करता है। व्यक्ति के चपल भाव एवं अविद्या का मूल कारण उसकी राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति को माना गया है। अकुशल परित्याग की सहायता से व्यक्ति राग-द्वेष को अल्पतम कर लेता है और मोह की अवस्था से विरत होकर जीवन जीना प्रारम्भ करता है। मोहविरत व्यक्ति अपने चपल - भाव को संयमपूर्वक कम
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