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५४ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६
होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है वही ध्यान है । इसीलिए मुमुक्षु अवस्था की प्राप्ति हेतु साधकों के लिए प्रशस्त ध्यान की साधना का विधान किया गया है।
प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ध्यानों के दो-दो उपविभाग किये गए हैं। प्रशस्त के दो उपभेद - धर्मध्यान और शुक्लध्यान तथा अप्रशस्त के दो उपभेद - - आर्त और रौद्रध्यान के रूप में स्वीकृत हैं।२२ आर्त्तध्यान दुःख के निमित्त से होता है जबकि रौद्रध्यान कटिल भावों के चिन्तन से प्रारम्भ होता है। ये दोनों ही भाव राग-द्वेष को बढ़ाने वाले माने गए हैं। अतः इन्हें ध्यान की श्रेणी में न रखकर कुध्यान के अन्तर्गत स्थान दिया गया है, क्योंकि ध्यान की साधना राग-द्वेष से मुक्ति पाने के लिए की जाती है। अतः मोक्षाभिलाषी साधक को इन दोनों ध्यानों से विरत रहना चाहिए। प्रशस्त की साधना करने वाला साधक सांसारिक विषय वासनाओं से अपने आपको मुक्त रखता है, क्योंकि इस ध्यान की साधना के लिए जो आलम्बन ग्रहण किया जाता है, उसका स्वरूप ही ऐसा होता है कि वे व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाली दूषित वृत्तियों को नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। उदाहरणस्वरूप - धर्मध्यान श्रुत, चारित्र एवं धर्म से युक्त ध्यान है२३ जबकि शुक्लध्यान निष्क्रिय, इन्द्रियातीत और ध्यान की धारणा से रहित अवस्था है। वस्तुतः ध्यान की साधना का प्रयोजन ही यही है कि साधक समस्त प्रकार की वृत्तियों से मुक्त होकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूपी मार्ग का आश्रय ले, जो उसे मोक्ष या निर्वाण प्राप्त करा सके। यह अवस्था आगमोक्त विधि से वचन, काय और चित्त निरोध के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है, क्योंकि यही ध्यान है। इस अवस्था की प्राप्ति धर्म एवं शुक्ल ध्यान की साधना के द्वारा सम्भव है। ध्यान एवं बौद्ध परम्परा
बौद्ध परम्परा में ध्यान का एक व्यवस्थित स्वरूप मिलता है। इसकी सहायता से व्यक्ति अपने चित्त को शुद्ध करता है तथा कुशल धर्म को बढ़ाता है। विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि बौद्ध ध्यान - साधना, वैदिक एवं जैन-परम्परा की तरह कठोर नहीं है, परन्तु वह यह स्वीकार करती है कि महात्मा बुद्ध एक महान् साधक थे। उनका जीवन कठिनतम साधनाओं के अभ्यास का ज्वलन्त उदाहरण है जिसका साक्षी बौद्ध साहित्य में वर्णित बुद्ध की तपश्चर्या का विवरण है। यद्यपि भगवान् बुद्ध स्वयं महान् साधक थे, परन्तु वे कठोर और उग्र साधना अर्थात् देहदण्डन की प्रक्रिया को निर्वाण-प्राप्ति में उपयोगी नहीं मानते थे। इसके पीछे उनकी यह धारणा थी कि मनुष्य अज्ञानमूलक देह-दण्डन की अपेक्षा ज्ञान-युक्त ध्यानसाधना के अभ्यास से ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है जो अपेक्षाकृत कम कठोर
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