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________________ वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान : ५३ आचार्य उमास्वाति का कहना है कि मन को अन्य विषयों से हटाकर किसी एक ही वस्तु में नियन्त्रित करना ध्यान है ।" मन की चंचलता ही व्यक्ति को अपने उद्देश्य से भटकाती रहती है। जब उसकी चंचलता को समाप्त कर उसे उसके उद्देश्य की तरफ मोड़ने का प्रयास किया जाता है तो यह विकल्पों से रहित होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेना चाहता है। जहाँ तक, जैन साधना के लक्ष्य की बात है तो वह आत्मानुभूति ही है। प्रायः चिन्तन करने की विधि को ध्यान करना समझ लिया जाता है, परन्तु ध्यान और चिन्तन में अन्तर है। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं, बल्कि चिन्तन का एकाग्रीकरण करना माना है। आवश्यक नियुक्ति में चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना या उसका निरोध करना ही ध्यान माना गया है । १७ वस्तुतः चिन्तन की प्रक्रिया में मन किसी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता है, जबकि ध्यान की प्रक्रिया में मन की बहुमुखी चिन्तनधारा को एक ही दिशा में प्रवाहित होने दिया जाता है। इस कारण साधक अनेकचित्तता से मुक्त होकर एक चित्त में स्थिर होता है । तत्त्वानुशासन में कहा भी गया है कि चित्त को विषय विशेष पर केन्द्रित कर लेना ही ध्यान है।" एक चित्त में स्थिर रहने वाला व्यक्ति कर्मों का अल्प संग्रह करता है, बाद में जब वह सुस्थिर चित्त वाला बन जाता है तो कर्मों का क्षय करने लगता है। कर्मों का क्षय करने से वह मलिन वृत्तियों को क्रमशः नाश करते जाता है और अन्ततः आत्मानुभूति की अवस्था में पहुँच जाता है। योगसार प्राभृत में आचार्य अमितगति ध्यान के लक्षण पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं आत्मस्वरूप का प्ररूपक रत्नत्रयमय ध्यान किसी एक ही वस्तु में चित्त को स्थिर करने वाले साधु को होता है, जो उसके कर्मों को क्षय करता है। १९ - ० जैन परम्परा में ध्यान की प्रकृति के अनुसार इसके दो भेद किए गए हैं - (क) प्रशस्त ध्यान और (ख) अप्रशस्त ध्यान । जो शुभ परिणामों के लिए तथा वस्तु के यथार्थ स्वरूप- चिन्तन से उत्पन्न होता है वह प्रशस्त ध्यान कहलाता है। यह ध्यान पुण्यरूप आशय के वश से तथा शुभलेश्या के आलम्बन से उत्पन्न होता है। अशुभ परिणामों की पूर्ति हेतु, मोह- मिथ्यात्वकषाय और तत्त्वों के अयथार्थ रूप विभ्रम से उत्पन्न ध्यान अप्रशस्त की कोटि में आता है। प्रशस्त ध्यान मोक्ष प्राप्ति में सहायक माना जाता है। इसकी साधना से मनुष्य आत्मानुभूति के रहस्य को प्राप्त कर सकता है। यह मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली कषायिक वृत्ति को नष्ट करती है और व्यक्ति को राग-द्वेष रूपी मिथ्यात्व के बन्धन से मुक्त करती है। यही ध्यान का उत्स माना गया है । भगवती आराधना की विजयोदया टीका में ध्यान के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है "राग-द्वेष तथा मिथ्यात्व से रहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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