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________________ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ ध्यान का यही परम ध्येय है। महर्षि कपिल ध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जब व्यक्ति का मन निर्विषयों में प्रवृत्त हो जाय, तो वही ध्यान है। मन को निर्विषयों में प्रवृत्त कराने में ध्यान का बहुत अधिक योगदान माना गया है। क्योंकि साधक के मन में अनन्त काल से पड़ी हुई स्थूल वृत्तियों को जब तक सूक्ष्म नहीं किया जायगा तब तक निर्बीज समाधि की प्राप्ति सम्भव नहीं है। ध्यान की साधना से स्थूल वृत्तियों को सूक्ष्म बनाया जाता है, तब उनका नाश किया जाता है । १४ जब ये वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं तब निर्बीज समाधि जो कि साधना का परम ध्येय है प्राप्त कर लिया जाता है। ५२ : ध्यान एवं जैन- परम्परा जैन धर्मदर्शन की साधना का केन्द्रबिन्दु है आत्मा । आत्मतत्त्व की अनुभूति आत्मज्ञान व आत्मलीनता, यही इस साधना का मूलभूत लक्ष्य रहा है। इस लक्ष्य की ओर गतिमान होने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति शरीर व मन से अपना तादात्म्य न्यून करते हुए अन्ततः आत्मा में ही प्रतिष्ठित हो जाए। इसके लिए ध्यान की साधना परमावश्यक है क्योंकि यही ध्यान मनुष्य को कर्मावरण से मुक्त करता है और कर्मावरण से मुक्त हुए बिना आत्मा में प्रतिष्ठित हो पाना सम्भव नहीं है। भगवान् महावीर परम तपस्वी थे। अपनी कठोर ध्यान साधना के बल पर ही उन्होंने ग्रन्थियों का भेदन किया, वीतरागता की अवस्था को प्राप्त कर कैवल्य ज्ञान से मुक्त हुए। जैन साधना पद्धति में ध्यान को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है । द्रव्य संग्रह में इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि नियमपूर्वक ध्यान से मुनि निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकार के मोक्ष मार्ग को पाता है। इसलिए एकाग्रचित्त से ध्यान करना चाहिए। ध्यान के द्वारा आत्मा की अनुभूति हो सकती है। १५ अतः ध्यान आत्मानुभूति में सहायक हो सकता है बशर्ते इसकी निरन्तर एवं नियमपूर्वक साधना की जाए। - आत्मानुभूति के लिए चारित्रशुद्धि आवश्यक है और चारित्रशुद्धि के लिए संयम अनिवार्य है। इन दोनों की प्राप्ति ध्यानाभ्यास के द्वारा सम्भव है । राग-द्वेष, विषयासक्ति मनुष्य को अपने पथ से स्खलित कराते हैं। लेकिन ध्यान-साधना में त साधक इष्ट-अनिष्ट विषयों के राग-द्वेष और मोह से रहित हो जाता है, इसलिए उसके जहाँ नवीन कर्मों के आगमन का निरोध है वहाँ उस ध्यान से उद्दीप्त तप के प्रभाव से पूर्व संचित कर्मों का भी क्षय होता है। तात्पर्य यह है कि संवर और निर्जरारूपी कर्मक्षय की प्रक्रिया ध्यान-साधना के कारण प्रवाहमान रहती है। इस प्रकार साधक मोक्षरूपी मार्ग पर निरन्तर बढ़ता जाता है और अन्त में इसे प्राप्त भी कर लेता है। ध्यान की साधना से साधक ऐसा क्यों कर लेता है इस सम्बन्ध में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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