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________________ ५६ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ करता जाता है, एकाग्रचित्त से कुशल कर्मों का आश्रय लेकर समाधि भाव को प्राप्त करता है। पञ्चस्कन्धों (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान) का क्षण-क्षण उत्पादन एवं विनाश होता रहता है। उत्पादन और विनाश की यह प्रक्रिया मनुष्य के दुःख का मूल कारण है। यही क्लेश को उत्पन्न करते हैं और ये क्लेश दूषित सन्तति परम्परा के जनक माने गए हैं। इस दूषित सन्तति परम्परा के अवगुणों को जानना एवं उनसे बचने के उपायों का चिन्तन करना ही प्रज्ञा है, यही विपश्यना है। इसे जान लेने पर साधक यह समझ लेता है कि यह सास्रव धर्म दुःख है। वह क्लेशरूप सन्तति परम्परा के दोषों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। इस अवस्था में वह निरन्तर सम्यक् ज्ञान का अभ्यास करता है और अन्ततः अर्हत् पद को प्राप्त कर लेता है। अर्हत् पद ही बौद्ध परम्परा में परम ध्येय है और वस्तुतः ध्यान साधना का यही पूर्ण आध्यात्मिक लक्ष्य माना जा सकता है। बौद्ध परम्परा में समाधि, विमुक्ति, शमथ, भावना, विशुद्धि, विपश्यना, अधिचित्त, योग, कम्मट्ठाण, प्रधान, निमित्त, आरम्भ लक्खण जैसे शब्द ध्यान के लिये प्रयुक्त किये गए हैं। यहाँ हम पाते हैं कि समाधि और ध्यान दोनों ही पर्यायवाची शब्द हैं, यह सत्य भी लगता है । लेकिन बौद्ध परम्परा में दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध होते हुए भी इनमें सूक्ष्म अन्तर पाया जाता है। विद्वानों की मान्यता है कि ध्यान का परिक्षेत्र समाधि की अपेक्षा कुछ अधिक विस्तृत है। कारण समाधि जहाँ मात्र कुशल कर्मों से सम्बद्ध है, वहीं ध्यान कुशल एवं अकुशल दोनों प्रकार के भावों को ग्रहण करता है।३२ क्षेत्र विस्तार के इस अन्तर के बाद भी इन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अर्हत् पद की प्राप्ति के लिए कुशल और अकुशल कर्मों के विभेद को जानकर कर्म परम्परा से मुक्त हुआ जाता है। इन दोनों प्रकार के कर्मों के स्वरूप को समझने के लिए तथा इनसे मुक्त होने के लिए ध्यान एवं समाधि दोनों का अभ्यास आवश्यक माना गया है। बौद्ध-परम्परा में ध्यान के मूलतः दो भेद हैं.२ - (क) आरम्भ उपनिज्झाण और (ख) लक्खण उपनिज्झाण। आरम्भ-उपनिज्झाण आलम्बन पर चिन्तन करने वाला ध्यान है, जबकि लक्खण उपनिज्झाण में लक्षणों पर चिन्तन किया जाता है। आरम्भ उपनिज्झाण आठ प्रकार का है - चार रूपावचर और चार अरूपावचर। ये सभी लौकिक ध्यान के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं, जिसके मार्ग को शमथयान कहते हैं। लक्खण उपनिज्झाण लोकोत्तर ध्यान है और उसका मार्ग विपश्यनायान के रूप में जाना जाता है। प्रथम आठ ध्यानों से अभ्यास करके साधक कर्म-संस्कारों को निर्जरित करता है, राग-द्वेष को क्षीण करता है फिर भी अति गहरे कर्म-संस्कार के बीज नष्ट नहीं हो पाते हैं। ये कभी भी उभर सकते हैं और साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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