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________________ वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान : ५७ को उसके साधना मार्ग से गिरा सकते हैं। अतः इनका समूल नाश होना आवश्यक है और उसके लिए लोकोत्तर ध्यान का अभ्यास आवश्यक है। क्योंकि इनका समूल रूप से विनाश इसी की साधना से सम्भव है। जब साधक के सम्पूर्ण कर्म-संस्कार नष्ट हो जाते हैं, राग-द्वेष की सम्पूर्ण वृत्ति समाप्त हो जाती है तब वह निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। बौद्ध मान्यता में निर्वाण की अवस्था को दुःखों के अत्यन्त निरोध की अवस्था माना गया है। इस निर्वाण के लिए प्रज्ञा में प्रतिष्ठित होना आवश्यक है और प्रजा में प्रतिष्ठित होने के लिए समाधि, सम्यक् समाधि का परिपुष्ट होना अनिवार्य है। इनकी परिपुष्टि हेतु शील सम्पन्न होना आवश्यक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध परम्परा में ध्यान साधना क्रम-बद्ध, व्यवस्थित एवं संयोजित है । साधक निरन्तर स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति करता है और अन्त में लोकोत्तर ध्यान में पहुँच जाता है, निर्वाण का साक्षात्कार कर लेता है। तथागत द्वारा प्रवर्तित यह कथन ध्यान की पराकाष्ठा को चित्रित करता है जो अनुकरणीय एवं द्रष्टव्य है। अतः यह कहा जा सकता है कि वैदिक, जैन और बौद्ध इन तीनों परम्पराओं में ध्यान के सन्दर्भ में समुचित चिन्तन मिलता है। तीनों ने ही एक स्वर से इसकी महत्ता को स्वीकार किया है तथा इसे निर्वाण, मोक्ष, कैवल्य प्राप्ति का एक सबल साधन माना है। यद्यपि इन तीनों परम्पराओं की आध्यात्मिक चिन्तनधारा में तीन तत्त्वों को महत्त्वपूर्ण माना गया है फिर भी ध्यान को एक विशिष्ट स्थान दिया गया है। जहाँ वैदिक परम्परा में कर्म, ज्ञान एवं भक्ति की त्रिपुटी पर बल दिया गया है, वहीं जैनों ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, एवं सम्यग्चारित्र को प्रमुखता दी है एवं बौद्धों ने इस हेतु शील, समाधि एवं प्रज्ञा को महत्त्व दिया है। वस्तुतः ये तीनों तत्त्व ही मोक्ष-प्राप्ति के साधन माने गए, लेकिन इन त्रिविध साधना मार्ग में वही साधक सफल हो पाता है जो ध्यान की सम्यक् साधना करता है। सन्दर्भ १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। योगसूत्र (पतञ्जलि कृत), टीका हरिकृष्णदास गोयनका, गीताप्रेस, गोरखपुर, द्वितीय संस्करण, संवत् २०११, १/२ २. एकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानम्। तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं० सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६, ९/२७ ३. समन्तपासादिका, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, १९६४, खण्ड १, पृ० १४५-१४६ ४. युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सते। स्वाय शक्त्या।। यजुर्वेद, दयानंद संस्थान, नई दिल्ली, ३४/४४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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