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________________ ३२ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ दर्शन में भी अपनायी गयी है और इस प्रकार हम दोनों दृष्टिकोणों में साररूप कोई भेद नहीं पाते। किन्तु मूलतः निवृत्तिपरक होने के कारण जैन-दर्शन में विषय का निरूपण अलग ढंग से हुआ है जो कुछ इस प्रकार का आभास देता है कि मानो अर्थ और काम को मूल्य-व्यवस्था से पूरी तरह निरस्त कर दिया गया हो। वस्तुतः जिस अर्थ और काम को जैन दर्शन में निरस्त किया गया है, वह अमर्यादित अर्थ और काम है जिसे पुरुषार्थ-चतुष्टय में मूल्य माना ही नहीं गया है। अर्थ और काम पुरुषार्थ-चतुष्टय में मूल्य का रूप तभी धारण करते हैं जब वह धर्म द्वारा मर्यादित होकर मोक्षोन्मुख होते हैं। जैन दर्शन के एक आधुनिक व्याख्याकार अमरमुनि का भी यही मत है। उनके अनुसार अर्थ जब धर्म की छाया में आ जाता है तभी वह धर्म की ही तरह दिव्य हो जाता है। लक्ष्मी, जो अर्थ का प्रतीक है, देवी है, राक्षसी नहीं। अर्थ को देवत्व धर्म प्रदान करता है। धर्म दृष्टि देता है कि अर्थ कहाँ से आना चाहिए, उसका किस प्रकार उपयोग होना चाहिए और आगे भी कैसा रहना चाहिए। धर्म अर्थ के आने की दिशा निर्धारित करता है और आगे की गति का भी निर्देश करता है। यही बात काम (भोग) पर भी लागू होती है। काम भी देव है। काम-देव असुर नहीं है। न जैनों ने कहा, न बौद्धों ने और न ही वैदिक आचार्यों ने। सबने ही देव कहा उसे। राक्षस किसी ने नहीं कहा। देव का मतलब दिव्य होता है। इसका अर्थ यह है कि काम शरीर की क्षुद्र वासना ही नहीं है। शरीर के जितने भी भोग हैं वे काम में आ जाते है। अर्थ का उपयोग भी काम ही है। यह भोग दिव्य कब बनेगा? अमर मुनि कहते हैं कि धर्म का प्रकाश अर्थ के माध्यम से सीधे काम तक जाना चाहिए, तभी वह दिव्य होगा। अथवा कहें, तभी काम मूल्यवत्ता प्राप्त कर सकेगा। दूध, पानी इत्यादि यदि साफ नहीं होता तो हम उसे छानते हैं, उसी प्रकार अर्थ को भी छानना होगा और यह छानना धर्म ही करेगा। यदि अर्थ छाना नहीं गया, उसका ठीक-ठाक उपयोग नहीं किया गया तो वह अर्थ, अर्थ न रहकर अनर्थ हो जाएगा। अर्थ के छानने का क्या आशय है ? दान। अर्थ के पीछे यदि दान की भावना है तभी व्यक्ति अर्थ पचा सकता है। कहा भी है कि अगर तू पचा पाता है तो सौ हाथों से कमा और सौ हाथों से समेट, इकट्ठा कर, लेकिन उसे हजार हाथों से लुटाने की, बरसाने की हिम्मत भी रख। अर्थ की तरह काम को भी छानना होगा। काम को छानने के लिए जो छनना है वह है, अनासक्ति। काम यदि आसक्ति से भरा हुआ है तो वह क्षुद्र है, हीन है, किन्तु यदि वह आसक्तिरहित है तो दिव्य है। जिस काम में आसक्ति की गन्दगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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