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________________ जैन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय : ३१ धर्म सेवन इस प्रकार सदैव ही सभी लोगों के लिए उपकारार्थ है, 'जीवलोकोपकार्थं धर्मः'। वस्तुतः धर्म के समान अन्य कोई पुरुषार्थ (अर्थ या काम) समस्त प्रकार से अभ्युदय का साधक नहीं है। यदि परम पुरुषार्थ, मोक्ष, प्रार्थनीय है तो भी धर्म का ही सेवन करना होगा। संक्षेप में, धर्म जैसा कि हिन्दू-दर्शन में कहा गया है, अभ्युदय और निःश्रेयस, दोनों की ही सिद्धि कराता है। उसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है और यदि हम उसकी रक्षा करते हैं तो वह भी हमारी रक्षा करता है – धर्मो रक्षति रक्षितः। ठीक वैसे ही कि जैसे यदि किसान अपने बीजों की रक्षा करता है तो वे ही बीज उसे भविष्य में भरपूर फसल देते हैं। धर्म न केवल विषय-भोगों में निहित दुःख को कम करता है, वरन् निःश्रेयस, परम पुरुषार्थ - मोक्ष - को भी प्राप्त कराने का राजमार्ग है। जैन आचार्यों ने धर्म की व्याख्या अनेक प्रकार से की है। जैसा कि हम उल्लेख कर ही आए हैं कि कभी इसे "वत्थुसहावो धम्मो" कहा गया है तो कभी इसे “खमादिभावो य दसविहो धम्मो" कहा गया है। कभी “चारित्रं खलु धम्मो" कह कर इसे पारिभाषित किया गया है तो कभी "जीवाणं रक्खणं धम्मो" कह कर इसके अहिंसा पक्ष पर बल दिया गया है। यदि हम ध्यान से देखें तो धर्म की ये सभी परिभाषाएँ “वत्थुसहावो धम्मो", इस परिभाषा के विस्तार के ही विभिन्न रूप हैं। अन्ततः क्षमा आदि सारे धर्म आत्मा के ही तो स्वभाव हैं। एक स्वभाव के कथन में अन्य स्वभावों का कथन स्वतः ही सम्मिलित हो जाता है। पुनः, इस स्वभाव की प्राप्ति में सहायक तत्त्व भी उपचार रूप से धर्म ही माने जाने चाहिए। अर्थ और काम सामान्यत: यह समझा जाता है कि निवृत्ति प्रधान जैन दर्शन में मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है। धर्म-पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में ही है। अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं है। लेकिन यह विचार एकांगी ही माना जाएगा। जैन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त रूप से हेय हैं।" भद्रबाहु ने अपनी दशवैकालिकनियुक्ति में स्पष्ट घोषणा की है कि धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य विचारक परस्पर विरोधी मानते हों किन्तु जिन-वाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने पर परस्पर असपल (अविरोधी) हैं। यही बात बाद में आचार्य हेमचंद्र भी कहते हैं कि गृहस्थ उपासक धर्म और काम पुरुषार्थों का इस प्रकार सेवन करे कि कोई किसी का बाधक न हो।" अर्थ और काम के सम्बन्ध में वस्तुतः यही दृष्टि हिन्दू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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