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________________ ३० : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ पालन आवश्यक नहीं माना गया है। यहाँ किसी भी व्यक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के बिना वानप्रस्थ या संन्यास धारण नहीं कर सकता। वस्तुतः यहाँ जितनी ही शीघ्रता से व्यक्ति मोक्ष के लिए अपने को तैयार कर लेता है, उतनी ही जल्दी वह श्रमण-धर्म धारण कर सकता है। धर्म का निरुक्त अर्थ धारण करवाने से है। धरतीति धर्मः, जो धारण करावे, पहुँचावे उसे धर्म कहते हैं। धर्म, पूछा जा सकता है -- कहाँ पहुँचाता है, क्या धारण कराता है ? धर्म जीवों को संसार के दुःखों से निकाल कर उन्हें उत्तमसुख धारण कराता है। संसार दुःखतः सत्त्वान यो धरत्युत्तमे सुखे।४ यहाँ उत्तम सुख से तात्पर्य मोक्ष-सुख से है क्योंकि मोक्ष प्राप्त होने पर ही जीव जन्म-मरण के दुःखों से बच सकता है। मोक्ष-प्राप्ति के अभाव में स्वर्गादिक सुखों को भी आपेक्षिक सुख कहा जाता है, परन्तु मुमुक्ष का लक्ष्य उस ओर नहीं होता। उसका लक्ष्य तो मोक्ष-सुख की ओर ही रहता है।३५ धर्म इस प्रकार अन्ततः मोक्ष-प्राप्ति का साधन है। यही उसकी अर्थ-क्रिया है। किन्तु वे गृहस्थ जिनका तात्कालिक लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति नहीं है वे भी यदि धर्म का सेवन करते हैं और उन्हें ऐसा करना ही चाहिए तो उनका गार्हस्थ कम नहीं होगा अपितु बढ़ेगा ही। दुःख में निश्चित ही कमी आएगी।२६ गृहस्थों हेतु इसीलिए अणुव्रत रूप में धर्म-पालन व्यवस्था जैन दर्शन में की गई है। धर्म की तो किसी न किसी रूप में इस प्रकार सदा ही आवश्यकता है। वस्तुतः धर्म की तो इन्द्रिय-सुख के लिए भी आवश्यकता है। सम्पूर्ण इन्द्रियों के इष्ट विषय सम्बन्धी जो सुख हैं, उन सबको धर्म वृक्षों के ही फल समझना चाहिए। अतः धर्म की रक्षा करते हुए, विषय फल भोगों को भोगना ही उचित है।३७ धर्म की अर्थ क्रिया - उसका अपना कार्य - कभी घातक नहीं हो सकता। कहीं प्रयत्क्ष तो कहीं परोक्ष रूप से धर्म तो साधक ही होता है। अतः ऐसा सोचना कि विषय-सुखों में धर्म-धारण से बाधा आ पड़ेगी और इसलिए धर्म से विमुख हो जाना चाहिए, गलत होगा। धर्म से तो सदैव ही सुख की उत्पत्ति होती है।३८ सुख-सम्पत्ति आदि विभव की प्राप्ति धर्म द्वारा ही हुई है। इसलिए धर्मरूप प्रधान कारण की रक्षा करते हुए ही भोग भोगने चाहिए, न कि धर्म का ध्वंस करके। किसान को जो धान्य मिलता है वह बीज बोने से ही मिलता है। इसीलिए वह बीज को आगे के लिए भी संभालकर रखता है जिससे कि एक बार उत्पन्न हुआ धान्य भोग लेने पर भविष्य में भी उसकी उपज होती रहे। इसी प्रकार धर्म है। धर्म से ही हम भविष्य में भी सुख के लिए आश्वस्त हो सकते हैं अन्यथा स्वच्छन्द विषय-भोग तो आत्मघाती ही होते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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