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________________ जैन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय : २९ साधकों के लिए श्रुत धर्म तो समान है, यदि कोई अन्तर है तो वह चारित्र-धर्म में ही है, जिसके परिपालन में भिन्नता देखी जा सकती है। चारित्र धर्म दो प्रकार का बताया गया है।३३ एक अनगार और दूसरा आगार धर्म। अनगार-धर्म श्रमण-धर्म या मुनिधर्म है जबकि आगार-धर्म गृहस्थ या उपासक धर्म है। 'आगार' शब्द 'गुरु' या 'आवास' के अर्थ में प्रयुक्त होता है जिसका लाक्षणिक अर्थ है - पारिवारिक जीवन। अत: जिस धर्म का परिपालन पारिवारिक जीवन में रहकर किया जाय उसे आगार-धर्म कहा जाता है। पुनः 'आगार' शब्द का अर्थ जैन परम्परा में छूट, सुविधा या अपवाद के लिए भी लगाया गया है। इस आधार पर आगार धर्म का अर्थ होगा - साधना का वह विशिष्ट स्वरूप जिसमें साधक को साधना की दृष्टि से विशेष सुविधा उपलब्ध हो। जैन विचारणा में गृहस्थ-धर्म को देशविरति चारित्र और श्रमण धर्म को सर्वविरति चारित्र, अथवा क्रमश: विकल चारित्र और सकल चारित्र भी कहा गया है। जिस साधना में अहिंसादि व्रतों की साधना पूर्णरूपेण हो वह सर्व-विरति चारित्र कहलाता है। गृहस्थ अपने पारिवारिक जीवन के कारण अहिंसा, सत्यादि व्रतों की पूर्ण साधना नहीं कर पाता है, अत: उसकी साधना को देश चारित्र, अंश चारित्र या विकल-चारित्र भी कहते हैं। इस सम्बन्ध में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। एक तो यह कि यद्यपि जैन धर्म में मुनि-धर्म और गृहस्थ-धर्म में भेद अवश्य किया गया है किन्तु यह भेद गुणात्मक न होकर केवल मात्रिक है। एक गृहस्थ अपने परिवार में रहता है और पारिवारिक दायित्वों से मुक्त नहीं होता, इसलिए उसे केवल धर्माचरण में कुछ छूट मात्र मिली हुई है। अहिंसा, सत्य-व्रत आदि का पालन तो वस्तुतः उसे भी करना ही है तभी वह साधना पथ पर आगे बढ़ सकता है। उसके लिए सद्गुणों की कोई अलग से गणना नहीं हुई है। जब यह कहा जाता है कि अणुव्रतों और महाव्रतों में अन्तर है तो यह अन्तर केवल उनके पालन करने की मात्रा में है न कि व्रतों में अन्तर्वस्तु का अन्तर है। दूसरी बात यह है कि मुनि-धर्म और गृहस्थ-धर्म यद्यपि दो विशेष प्रकार के लोगों के लिए निर्धारित धर्म हैं किन्तु इन्हें इस अर्थ में विशेष-धर्म नहीं मानना चाहिए कि जिस अर्थ में हिन्दू दर्शन में वर्णाश्रम विशेष-धर्म माने गये हैं। जैन दर्शन गृहस्थों की किसी वर्ण-व्यवस्था में विश्वास नहीं करता और इसलिए प्रत्येक वर्ण के व्यक्तियों के लिए उसमें कर्तव्यों का अलग-अलग प्रावधान भी नहीं है। सभी गृहस्थों को अणुव्रतों का पालन करना है, वह फिर हिन्दुओं के हिसाब से किसी भी वर्ण का क्यों न हो। इसी प्रकार जैन धर्म में आश्रम-व्यवस्था का भी कड़ाई से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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