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२८ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६
स्थिति में सावधानी बरतना संयम है।
इंद्रिय-विषयों तथा कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्मा को संस्कारित कर अपने अंतःकरण को विकसित करता है वह तप करता
है।२८
इसी प्रकार त्याग है। त्यागी वह कहलाता है जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक (स्वेच्छा से) भोगों का त्याग करता है।२९
किसी भी वस्तु में ममत्व भाव न रखना ही आकिञ्चन्य है। जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार काम-भोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उसमें लिप्त नहीं होता वही अकिंचन ब्राह्मण (सत्-पुरुष) कहलाता है।"
__इसी प्रकार देहासक्ति से जो युक्त हैं, अर्थात् जो दूसरे के शरीर से तृप्ति करने से पूर्णतः विमुख हैं (विमुक्त परदेहतृप्ते) और स्त्रियों के सभी अंगों को देखते हुए भी जो अपने मन में दुर्भाव नहीं लाते और विकार पैदा नहीं होने देते, वे वस्तुतः ब्रह्मचर्य-भाव को ही धारण करते हैं।३१ ।
उपरोक्त सभी दस धर्म मनुष्य के कर्तव्यों की ओर संकेत करते हैं कि उसे क्या करना चाहिए। उसे अपने स्वभाव में स्थित होने के लिए दूसरों को क्षमा कर देना चाहिए, विनम्र होना चाहिए, कुटिलता से बचना चाहिए, किसी के प्रति भी ममत्व नहीं रखना चाहिए इत्यादि। मनुष्य के ये सभी साधारण कर्तव्य हैं। इन कर्तव्यों में, यदि हम ध्यान से देखें, तो कुछ कर्तव्य स्वयं से सम्बन्धित हैं, तथा कुछ अन्य समाज से। मार्दव, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, और ब्रह्मचर्य मूलत: वैयक्तिक गुण हैं। इसी प्रकार क्षमा, आर्जव, सत्य आदि सामाजिक हैं। क्योंकि व्यक्ति से समाज के बीच में कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं हो सकती इसलिए इन सद्गुणों को भी वैयक्तिक और सामाजिक की स्पष्ट कोटियों में नहीं रखा जा सकता। वैयक्तिक गुणों में भी समाज को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता और जो सामाजिक सद्गुण हैं, उन्हें बरतने वाला तो आखिर व्यक्ति है ही।
जैन दर्शन में दस सामान्य धर्मों के अतिरिक्त कुछ विशेष-धर्म भी हैं जो मुनियों और सामान्य जन के लिए अलग-अलग निर्धारित किये गए हैं। जैन-साधना में धर्म के दो रूप माने गये हैं - एक, श्रुत धर्म (तत्त्वज्ञान) और दो, चारित्र धर्म (नैतिक सद्गुण)।३२ श्रुत धर्म का अर्थ है - जीवादि तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान और श्रद्धा। चारित्र धर्म का अर्थ है - संयम और तप। गृहस्थ और श्रमण दोनों ही
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