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________________ १६ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ होता है, प्रजा के कल्याण के लिए नैतिकता और मर्यादा की स्थापना करता है। वह सेतु, नहर, पुल तथा सड़क का निर्माण करवाता है, भूमि तथा कृषि की उचित व्यवस्था करता है। राज्य को चोरों, लुटेरों तथा उपद्रवियों से रहित करके दुर्भिक्ष और महामारी से रक्षा करता है। शासन-व्यवस्था : शासन व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिये पूरा राज्य अनेक विभागों में विभक्त था, जहाँ विभिन्न पदाधिकारी एवं राजकर्मचारी नियुक्त थे। जैन साहित्य में शासन-व्यवस्था के लिये मुख्य युवराज, श्रेष्ठि, अमात्य, पुरोहित आदि सहायक पुरोषों के अतिरिक्त अन्य बहुत से राज्याधिकारियों का उल्लेख मिलता है।४९ व्यवहारभाष्य से ज्ञात होता है कि राजकीय आय का बहुत बड़ा भाग इन राज्य कर्मचारियों के वेतन पर व्यय होता था। सैन्य-व्यवस्था : बाह्य आक्रमण से सुरक्षा एवं आन्तरिक शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए राजा विशाल सेना रखते थे, जिसके रख-रखाव पर राज्य का बहुत सा धन व्यय होता था। राजप्रश्नीयर से पता चलता है कि कैकयार्ध का राजा राज्य की आय का १/४ भाग सेना पर व्यय करता था। आन्तरिक शान्तिव्यवस्था के लिए न्याय-व्यवस्था का भी सुदृढ़ होना आवश्यक था। अतः राज्य के न्यायालयों में न्यायिक प्रक्रिया, कारावासों की व्यवस्था तथा न्यायाधीशों एवं अन्य दण्डाधिकारियों के वेतन एवं रख-रखाव पर भी राज्य का बहुत सा धन व्यय होता था। __ अन्तःपुर-व्यवस्था : प्राचीन काल में विशेषकर ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में उत्तर भारत में राजतन्त्र पूर्णतया स्थापित हो चुके थे। इन राजाओं का जीवन बड़ा ऐश्वर्यशाली एवं विलासितापूर्ण था। उनके विशाल अन्तःपुर पर राज्य का बहुत धन व्यय होता था। राजप्रश्नीय२ से ज्ञात होता है कि कैकयार्ध का राजा प्रवेशी राजकीय आय का १/४ भाग अन्तःपुर के रख-रखाव पर व्यय करता था। निशीथचूर्णि३ में उल्लेख है कि हेमपुर के राजकुमार के अन्तःपुर में ५०० स्त्रियाँ थीं जिन पर बहुत धन व्यय होता रहा होगा। जन-कल्याण : प्रजाहित को सर्वोपरि मानकर शासन करने वाला राजा उत्तम माना जाता था। ओघनियुक्ति से ज्ञात होता है कि दैवीय विपदा जैसे दुर्भिक्ष, अनावृष्टि और महामारी के समय प्रजा की सहायता की जाती थी। ऐसे समय में राज्य की ओर से प्रजा को अन्न वितरित किया जाता था। निशीथचर्णि५ से ज्ञात होता है कि सम्राट अशोक के प्रपौत्र सम्प्रति ने नगर के चारों द्वारों पर दानशालाएँ खुलवाई थीं, जहाँ निःशुल्क भोजन उपलब्ध था। राजप्रश्नीय.६ से ज्ञात होता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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