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________________ ४०. : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ ऊर्ध्वगामी होती जाती है और पूर्ण-मुक्ति होने पर मोक्ष पा जाती है। जैन दर्शन में मोक्ष को दो रूपों में वर्णित किया गया है - नकारात्मक और स्वीकारात्मक। जिस प्रकार उपनिषदों में नेति-नेति' सूत्र द्वारा आत्मा के बारे में वस्तुओं और विषयों को इंगित करते हुए कथन किये गए हैं कि आत्मा यह नहीं है, यह नहीं है, इत्यादि, उसी तरह जैन दर्शन में भी आत्मा/मोक्ष के स्वरूप का हमें प्रायः नकारात्मक वर्णन ही मिलता है। आगमिक साहित्य में कहा गया है कि वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न ही स्पर्श है। कहा गया है कि वहाँ से सब स्वर लौट जाते हैं। वचन द्वारा उसे प्रतिपाद्य नहीं किया जा सकता। उसका वर्णन असम्भव है क्योंकि वहाँ शब्दों की प्रवृत्ति नहीं है, वहाँ तर्क-वितर्क के लिए भी कोई स्थान नहीं है। वह बुद्धि से परे है। मति द्वारा ग्राह्य नहीं है। वह अकेला, ओज और प्रकाश से पूर्ण शरीर में अप्रतिष्ठित होने के कारण, अशरीरी है। वह शरीर न होकर आत्मा है, ज्ञाता है।.. पुनः वह निराकार है। न बड़ा है, न छोटा है, न वृत्त है, न त्रिकोण है और न ही चतुष्कोण है। वह परिमण्डलाकार भी नहीं है। उसका कोई रंग नहीं है। वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पीत है और न ही शुक्ल है। वह गन्धहीन है। वह न सुगन्ध है और न ही दुर्गन्ध है। वह रसरहित है। न तिक्त है, न कटु है, न कषाय है, न अम्ल है और न ही मधुर है। वह स्पर्श से परे है। न कड़ा है, न मुलायम है, न भारी है, न हल्का है, न ठंडा है, न गरम, न चिकना है और न ही रूखा है। वह अशरीरी, अजन्मा और असंग है। वह लिंगातीत है। न पुरुष है, न स्त्री है और न ही नपुंसक है।८२ वह अनुपम, अतीत और सभी पदों से परे है।८३ _ इतना ही नहीं, मोक्षावस्था एक ऐसी अवस्था है जहाँ न दुःख है, न सुख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न मरण है, न जन्म है। जहाँ न इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न विस्मय है, न निद्रा है, न तृष्णा है, न भूख है, जहाँ न कर्म है, न नोकर्म (शरीर) है। न चिन्ता है, न किसी भी प्रकार का ध्यान है। मोक्ष/आत्मा के उपर्युक्त नकारात्मक वर्णन से जैन दर्शन में यह रेखांकित किया गया है कि मोक्ष का वास्तविक विवरण, इन्द्रियानुभव से परे होने के कारण, शब्दों में सम्भव नहीं है। साथ ही मनुष्य की संवेगात्मक अनुभूतियाँ (जैसे, दु:खसुख इत्यादि) की कोटि में भी इसे नहीं रखा जा सकता। वस्तुतः मोक्षानुभूति शारीरिक-भौतिक अनुभवों से परे हैं, अनुभवातीत है। प्रश्न उठता है, फिर उसे कैसे, किस प्रकार, समझा-समझाया जा सकता है ? जैन दर्शन मोक्ष को अनुभवातीत और शब्दातीत कहकर चुप नहीं बैठ जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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