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जैन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय :
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इत्यादि मोक्ष के ही समानार्थक है, भले ही उनके अर्थ-छटाओं में थोड़ा बहुत अन्तर क्यों न हो ?
निर्वाण शब्द का प्रयोग अधिकतर बौद्ध-दर्शन में हुआ है। उसका अर्थ बुझा देने से है। निर्वाण वह अवस्था है जहाँ दुःखों और कष्टों की अग्नि शान्त कर दी गई है। जैन-दर्शन में भी निर्वाण इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अबाध से तात्पर्य बन्धनरहित होने से है। यह आत्मा की वह अवस्था है जिसमें आत्मा जन्म-मरण के चक्र से पूर्णतः मुक्त हो जाती है और इस प्रकार अपने सांसारिक बन्धनों से छुटकारा पा जाती है। सिद्धि, आत्मसिद्धि या आत्मलाभ है। यह आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि है। आत्मा का स्वभाव जैन दर्शन के अनुसार 'समत्व' है। समत्व का आध्यात्मिक अर्थ आत्मा का अपने आपमें अवस्थित होना है। आत्मा जब अपने आपमें सभी कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर अवस्थित होती है, तभी वह सिद्धि प्राप्त करती है। सिद्धि इस प्रकार आत्मा की सिद्धावस्था है। जैन दर्शन का एकमात्र मूल्य आत्मा की अपनी पहचान प्राप्त करना है। यह सर्च फॉर आइडेंटिटी है। इसी खोज की परिणति सिद्धि है। लोकाग्र से अर्थ, जैन दर्शन के अनुसार, ऊर्ध्वलोक के अग्रभाग से है जहाँ आत्माएँ सिद्धि के उपरान्त 'सिद्धशिला' के नाम से विश्रुत स्थान पर स्थित रहती हैं। जैन दर्शन में कई लोकों' की परिकल्पना की गई है और आत्मा को ऊर्ध्वगामी माना गया है। आत्मा जब कर्मों के बन्धन से पूर्णतः मुक्त हो जाती है तो वह ऊर्ध्वगमन करती है। यह ऊर्ध्वगमन ऊर्ध्वलोक के अग्रभाग तक ही सम्भव होता है क्योंकि इसके आगे धर्मास्तिकाय (गति का नियम) का अभाव है। अतः मोक्ष को लोकाग्र भी कहा गया है। क्षेम से आशय कल्याणकारी या हितकर से है। मनुष्य का हित या कल्याण इसी में है कि वह मोक्ष-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करे। क्षेमावस्था एक ऐसी स्थिति है जो सभी उपद्रवों से मुक्त है। मोक्ष को अनाबाध भी कहा गया है। यहाँ कोई बाधा नहीं है। यह बाधा-रहित, अबाधित है। यह वह अवस्था है जहाँ आत्मा पूर्ण स्वतन्त्र है, अनाबाध है। अन्तत: स्वयं मोक्ष शब्द वस्तुतः कर्म-बन्धनों से मुक्ति की ओर संकेत करता है। आत्मा जब तक कर्मबन्धनों से मुक्त नहीं हो जाती, मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती। मोक्ष आत्मा की पूर्ण मुक्तावस्था है।
जैन दर्शन में मोक्ष का स्वरूप वस्तुतः आत्मा का अपना स्वरूप है। यहाँ कल्पना की गई है कि आत्मा ऊर्ध्वगामी है - "उडढं पक्कमई दिसं", वह सदा ऊर्ध्व दिशा की ओर ही प्रस्थान करती है। दुर्भाग्य से, आसक्ति के कारण, कर्म-कण उससे संलग्न हो गये हैं और इस प्रकार आत्मा के भारी हो जाने से वह अधोगति को प्राप्त है। किन्तु कर्म-बन्धन से जैसे-जैसे वह मुक्त होती जाती है, वह
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