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________________ ३८ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ होते और वे जो भले ही तिलक आदि लगाकर मुनि का वेश धारण कर लें, यदि काम के प्रति अपनी आसक्ति नहीं छोड़ पाते तो उन्हें काम से आवर्त ही समझा जाएगा। कुछ लोग तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करते (अर्थात् विषयों में लिप्त नहीं होते) और कुछ सेवन न करते हुए भी विषयों का सेवन करते हैं (अर्थात्, उनसे अपने रागात्मक लगाव को नहीं छोड़ पाते)। इन दोनों में स्पष्ट ही प्रथम प्रकार के लोग ही सच्चे सत्पुरुष हैं जो कर्म तो करते हैं किन्तु उसमें (उसके फल में/उसके कर्तृत्व में) अपना अधिकार नहीं मानते। यह ठीक वैसे ही है जैसे अतिथि रूप में आया कोई पुरुष विवाहादि कार्य में लगा रहने पर भी उस कार्य का स्वामी न होने से कर्ता नहीं होता। मोक्ष का स्वरूप अन्य भारतीय दर्शनों की भांति ही जैन-दर्शन का अभीष्ट भी ज्ञान प्राप्त करना मात्र नहीं है। मोक्ष जैन-दर्शन का केन्द्र बिन्दु है और मोक्ष से आशय दुःख से आत्यन्तिक निवृत्ति और चरम सुख प्राप्त करना है। इसीलिए जैन दर्शन में मोक्ष को पुरुषार्थ में सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है और क्योंकि इस मोक्ष की प्राप्ति केवल धर्म-मार्ग से ही सम्भव है इसलिए धर्म भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं माना गया है। धर्म, यद्यपि मोक्ष की अपेक्षा से, केवल एक साधन मूल्य है किन्तु साधन-मूल्य होने के नाते वह मोक्ष-मार्ग भी है। अतः उसकी मूल्यवत्ता मोक्ष से कतई कमतर नहीं है। जैन दर्शन में 'मार्ग' और 'मार्ग-फल इन दो अवधारणाओं में अन्तर किया गया है। 'मार्ग मोक्ष का उपाय है। उसका फल 'मोक्ष' या 'निर्वाण' है। किन्तु उपाय या मार्ग आखिर है क्या ? गाथा के अनुसार यह निश्चित ही 'सम्यक्त्व' है। जो व्यक्ति सम्यक् मार्ग पर चलता है, वही अन्ततः मोक्ष प्राप्त करता है। इस मार्ग के अनुसरण के फलस्वरूप ही निर्वाण सम्भव हो सकता है। जैन दर्शन में समत्व को धर्म कहा गया है। जो धर्म है, वही समत्व है। अतः सिद्ध हुआ - मार्ग = समत्व = धर्म धर्म और मोक्ष एक दूसरे से साधन-साध्य रूप में सम्पृक्त हैं। एक मार्ग है दूसरा मार्ग-फल है। एक उपाय है, दूसरा गन्तव्य है। गन्तव्य (मोक्ष) वह प्रयोजन है जिस तक केवल मार्ग (धर्म) द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। मोक्ष केवल वे ही प्राप्त कर सकते हैं जो धर्म-मार्ग पर चलते हैं, उन्हें महर्षि कहा गया है। उन्हें महावीर, अर्हत्, वीतराग आदि नामों से भी सम्बोधित किया गया है। मोक्ष के लिए भी जैन साहित्य में एकाधिक नाम मिलते हैं -- १. निर्वाण, २. अबाध, ३. सिद्धि, ४. लोकाग्र, ५. क्षेम, ६. शिव और ७. अनाबाध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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