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________________ जैन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय : ४१ बल्कि उसका भावात्मक (पॉज़िटिव) विवरण भी प्रस्तुत करता है। बेशक, मोक्ष इन्द्रियानुभूति नहीं है, लेकिन यह एक अशरीरी आध्यात्मिक अनभूति तो है ही, जिसको पूरी सावधानी बरतते हुए, भाषा में प्रस्तुत तो, समझाने की दृष्टि से, करना ही होगा और इस प्रस्तुतीकरण में जैन दर्शन हिन्दू दर्शन की अपेक्षा कहीं अधिक समृद्ध है। हिन्दू दर्शन में तो आत्मा को अनिर्वचनीय कहकर उसके सम्बन्ध में कोई निश्चित बात नहीं कही गयी, किन्तु जैन दर्शन में मोक्ष के सम्बन्ध में निश्चित तौर पर काफी कुछ कहा गया है। उदाहरण के लिए एक गाथा के अनुसार, मोक्षावस्था एक ऐसी अवस्था है जहाँ केवल ज्ञान, केवल दर्शन, केवल सुख, केवल वीर्य, अमूर्तता, अस्तित्व और सप्रदेशत्व के गुण होते हैं। केवलज्ञान से तात्पर्य यहाँ उस ज्ञान से है जो इन्द्रिय आदि से निरपेक्ष तथा सर्वग्राही आत्मज्ञान है। यह एकान्त रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान है। यह लोक और अलोक को सर्वतः परिपूर्ण रूप से जानता है। भूत, भविष्य और वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे केवल ज्ञान नहीं जानता।६ इसी प्रकार केवलसुख केवल ज्ञानवत् इन्द्रियादि से निरपेक्ष अनन्तसुख या निराकुल आनन्द है। केवलदर्शन भी केवलज्ञान के समान ही सर्वग्राही दर्शन है। केवलवीर्य जानने-देखने आदि की अनन्त शक्ति है और यह भी इन्द्रिय आदि से निरपेक्ष और सर्वग्राही है। अमर्तता से अर्थ है कि मोक्ष/आत्मा स्वभावत: इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। वह नित्य है, साथ ही आन्तरिक रागादि भावों से मुक्त है।८ अस्तित्व तो आत्मा का बेशक है। मोक्षावस्था में भी उसका अस्तित्व बना रहता है। लेकिन यह शरीरी-भौतिक अस्तित्व न होकर बिना किसी विशेषण के (मात्र) अस्तित्व है। इसके अतिरिक्त मुक्त-जीवों का निवास मुक्ताकाश में होता है। इसी को आत्मा का सप्रदेशत्व गुण कहा गया है। मुक्त-आत्मा के उपर्युक्त सभी गुण, यदि हम ध्यान से देखें, तो शरीरनिरपेक्ष हैं। स्पष्ट ही आत्मा का स्वभाव शारीरिक-भौतिक न होकर आध्यात्मिक है। क्या मोक्षावस्था केवल दुःखाभाव है अथवा भावात्मक रूप से सुख-भाव है ? यह प्रश्न दार्शनिकों को काफी परेशान करता रहा है। हिन्दू दर्शन में सुख और आनन्द में अन्तर करके मोक्षावस्था को आनन्दमय माना गया। इसका कारण मुख्यतः यह था कि सुख सदैव दुःख की अपेक्षा से ही सुख है। इसी प्रकार दुःख भी सुख की अपेक्षा से ही सम्भव है। सुख-दुःख एक दूसरे से अपृथक हैं और दोनों ही इन्द्रियानुभूति के विषय हैं। आनन्द आत्मा का विषय नहीं है। आत्मा स्वयं आनन्दस्वरूप है। जैन दर्शन आनन्द और सुख में इस तरह का कोई भेद नहीं करता लेकिन वह सुख में एक गुणात्मक अन्तर अवश्य करता है। एक प्रकार का सुख इन्द्रियानुभविक सुख है जो निःसन्देह दुःख-सापेक्ष है और इसीलिए क्षणिक है किन्तु एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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