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________________ ६२ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ तित्थंकरपडिमाणं = तीर्थङ्कर प्रतिमाओं को; कंचणमणिरयणविद्दुममयाणं = कंचनमय, मणिमय, रत्नमय, मूंगामय; सुरवरकयाणं = श्रेष्ठ देवों द्वारा रचित (कृत); तिहुअणविभूसगाणं = तीन लोक में विभूषित; सासय = शाश्वत; विचित्तभवणेसु = विचित्र भवनों में; चमरबलिप्पमुहाणं = चमरेन्द्रबलि प्रमुख; भवणवईणं = भवनपति देव को; जाओ = जानना; य = और; अहोलोए = अधोलोक में; जिणिंदचंदाण पडिमाओ = चन्द्र के समान कान्तिमय जिनेन्द्र प्रतिमाओं को, जाओ य तिरियलोए = तिर्यक् लोक में जो भी; किन्नरकिंपुरिसभूमिनयरेसु = किन्नर किंपुरुष भूमिनगरों में; गंधव्वमहोरगजक्खभूय = गंधर्व, महोरग, यक्ष, भूत; तह = तथा; रक्खाणं च = राक्षसों को; जाओ य = और जानना; दीवपव्वय = दीप पर्वत; विज्जाहरपवर = विद्याधर पर्वत के सिद्धभवणेसु = श्रेष्ठ सिद्ध भवनों में; तह = तथा; चंदसरगहरिक्खतारगाणं = चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारों के विमाणेसु = विमानों में। अनुवाद : ऊर्ध्वलोक में श्रेष्ठ देवताओं द्वारा निर्मित तीन लोक में विभूषित कंचनमय, मणिमय, रत्नमय, मूंगामय शाश्वत जिनप्रतिमाओं को, अधोलोक में चमरेन्द्रबलिप्रमुख भवनपति देवों के विचित्र भवनों में स्थित चन्द्र के समान कान्तिमय जिनेन्द्र प्रतिमाओं को तिर्यग्लोक में किन्नर, किंपुरुष, गंधर्व, महोरग, यक्ष, भूत, राक्षस आदि व्यन्तर देवों के भूमिगत नगरों में और इसी प्रकार द्वीप, पर्वत एवं विद्याधरों के श्रेष्ठ सिद्ध-भवनों में तथा चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारों के विमानों में जो भी जिनप्रतिमाएँ हैं - उन्हें समर्पित यह धूप मेरा समुद्धार करे ।। ४-७ ।। जाओ य उड्डलोए सोहम्मीसाणवरविमाणेसु । जाओ मणोहरसणंकुमारमाहिंदकप्पेसु ।। ८ ।। जाओ य बंभलोए-लंतयसुक्के तहा सहस्सारे । आणयपाणयआरण-अच्चुयकप्पेसु जाओ य ।। ९ ।। जाओ गेविज्जेसुं जाओ वरजियवेजयंतेसु । तह य जयंतपराजि (यविमा) णसव्वट्ठसिद्धेसु ।। १० ।। जाओ य उड्डलोए = यावत् ऊर्ध्वलोक में; सोहम्मीसाणवरविमाणेसु = सौधर्म, ईशान श्रेष्ठ विमानों में; जाओ = जाना; मनोहर = सुन्दर; सणंकुमारमाहिंदकप्पेसु = सनत्कुमार माहेन्द्र कल्पों में; जाओ य = यावत्; बंभलोए-लंतयसुक्के = ब्रह्मदेवलोक, लातंक देवलोक, महाशुक्रदेवलोक; तहा = तथा; सहस्सारे = सहस्रदेवलोक; आणयपाणयआरण = आनत देवलोक, प्रानत देवलोक; अच्चुयकप्पेसु = अच्युत देवलोक के कल्पों में; जाओ य = यावतः जाओ = यावतः गेविज्जेसुं = ग्रैवेयकों में; जाओ = जानना; वरविजयवेजयंतेसु = श्रेष्ठ विजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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