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२६ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६
इस द्वैत के प्रति समभाव रखता है, वही सम्यक् जीवन जीता है।
__इतना ही नहीं, समभाव की आवश्यकता व्यक्ति की द्विविध प्रकृति के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं है। सभी प्राणियों के प्रति भी समभाव आवश्यक है। कहा है, जो सभी त्रस और स्थावर प्राणियों पर समभाव रखता है वह समदृष्ट है और यह बात केवली भाषित है।२०
प्रश्न उठता है कि जब आत्मा का स्वभाव ही समत्व है तो मनुष्य को इसे प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर है कि मनुष्य केवल आत्मा ही नहीं है, वह शरीर भी है। वह जीव और अजीव दोनों का सम्मिश्रण है। वह स्वयं ही द्वैत है। इसलिए यह आवश्यक है कि वह अपने इस द्वैत से विरत होकर अपने स्व-भाव में स्थित हो। राग, आसक्ति, तृष्णा आदि भाव आत्म-भाव नहीं हो सकते। इनका सम्बन्ध अन्ततः शरीर से है। जहाँ राग है, आसक्ति है और तृष्णा है, वहाँ सुख-दुःख, जय-पराजय, मान-अपमान भी है। मनुष्य को इन्हीं कषायों से ऊपर उठना है तभी वह 'सम' पर आ सकता है। आत्मा की समस्थिति प्राप्त करना ही मनुष्य का उद्देश्य है, उसका परम प्रयोजन है। यह स्थिति कहीं बाहर नहीं है, आत्मा के ऊपर प्रक्षेपित नहीं है, किसी और ने उस पर लादी नहीं है। यह उसी की अपनी सत्यनिष्ठ स्थिति है। इस स्थिति में ही आत्मा शान्त रह सकती है। वे सारी बातें जो आत्मा को, मनुष्य को अशान्त करती हैं, उसे द्वन्द्व में अवस्थित करती हैं, उसे तनावग्रस्त करती हैं - आत्मा के अपने भाव नहीं हैं, वे विभाव हैं। आत्मा का क्या स्वभाव है और क्या विभाव है, इसे निर्धारित करने का एक ही मापदण्ड है। जिससे हम तनावग्रस्त होते हैं, विक्षोभित होते हैं, विचलित होते हैं, वही विभाव है। जो शान्ति प्रदान करता है वह स्वभाव है। समभाव स्पष्ट ही शान्तिदायक है क्योंकि इसमें रहते आत्मा अपने स्वरूप को प्राप्त करती है। वह जो वीतराग है, अनासक्त है, तृष्णारहित है, वह अपना निजी स्वरूप प्राप्त करता है, सम-भाव अर्जित करता है। धर्म का यही आदेश है। यही उसकी आज्ञा है कि व्यक्ति अपनी आत्मा में अवस्थित हो और सभी द्वन्द्वों से सुख-दुःख, काम-क्रोध, मानापमान, निन्दा-प्रशंसा से वीतराग हो। यही धर्म है और यही धर्मादेश है। जिसने धर्म के इस गूढ़ रहस्य को जान लिया है, वही उसे प्राप्त भी कर सकता है।
धर्म जहाँ एक ओर वस्तु के स्व-भाव की ओर संकेत करता है, वहीं वह दूसरी ओर मनुष्य के कर्तव्य की ओर भी स्वतः इंगित करता है। यदि मनुष्य का स्वरूप आत्मा है और आत्मा का स्वभाव समभाव है तो स्पष्ट ही उस समभाव को प्राप्त कर लेना ही मनुष्य का कर्तव्य भी हो जाता है। इस कर्तव्य को कैसे निभाया
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