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________________ ७२ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ पायाणि इत्यादि। कभी-कभी एक ही पद्य में द्विविध पाठान्तर मिलते हैं। इस प्रकार की विसंगति का मूल कारण पाठक और लेखक ही रहे हैं। इस सन्दर्भ में लेखक का निवेदन है कि प्राचीन पाठ को मूल पाठ मानकर उसे प्राथमिकता दी जाय जिससे मूल प्राचीन अर्धमागधी का संरक्षण हो सके। लेखक का यह निवेदन समस्त आगम अध्येताओं के लिये तथा विशेषरूप से पाठालोचकों के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और परम उपयोगी है। इसी प्रकार मध्यवर्ती व्यञ्जनों के लोप के विषय में भी लेखक का निष्कर्ष ध्यातव्य है, सराहनीय है। पुस्तक को समग्र रूप से पढ़कर यही धारणा बनती है कि यह प्राकृत के अध्ययन के क्षेत्र में नई दिशा का उन्मीलन करने वाली है। ग्रन्थ लेखक की नितान्त शोधवृत्ति तथा भाषावैज्ञानिक दृष्टि का परिचायक है। प्राकृतभाषा में रुचि रखने वालों के लिये तथा विशेषरूप से आगमों पर शोध करने वाले विद्वज्जनों के लिये अवश्य पठनीय है, संग्रहणीय है। ऐसा विश्वास होता है इसे पढ़कर उनकी अनेक भ्रान्त धारणाओं का निराकरण होगा। - प्रो० सुरेश चन्द्र पाण्डे पुस्तक : द्रव्य संग्रह, लेखक : आचार्य श्री नेमिचंद्र, हिन्दी पद्यानुवाद : आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज, संकलनकर्ता : परिमल किशोर भाई खंधार, प्रकाशक : श्रीमती समताबहेन खंधार चेरिटेबल ट्रस्ट, अहमदाबाद, प्रथम संस्करण : १९९४, पृष्ठ : ७६, मूल्य : स्वाध्याय, आकार : डिमाई पेपरबैक। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत द्रव्यसंग्रह एक अनूठी प्राकृत काव्य रचना है। इसमें गाथाकार ने मात्र एक-एक गाथा में विराट अर्थ सँजोकर गागर में सागर भरने का प्रयास किया है। प्रथम गाथा में जिनेश्वर वृषभदेव का मंगलगान करने के उपरान्त गाथा २-१४ तक जीव के विभिन्न पक्ष-नव अधिकार, उपयोग, अमूर्तत्व, कर्तृत्त्व, भोक्तृत्त्व, स्वदेह परिणाम, जीवों के भेद, सिद्धत्व और ऊर्ध्वगमन को एक गाथा में विश्लेषित कर स्पष्टतः अभिव्यक्त किया गया है। इसी प्रकार विभिन्न अजीव द्रव्यों -पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल की भी उसी क्रम में गाथा १५-२६ में व्याख्या की गई है। आगे सप्त पदार्थों का अंकन गाथा २७ से ३७ तथा मोक्ष के कारण या उपाय की दृष्टि से रत्नत्रय का परिचय भी बड़ा सूक्ष्म है। ध्यान की विशेष उपलब्धि के लिए ध्यान का विश्लेषण और परमेष्ठी वन्दन भी उपादेय है, जो गाथा ४७ से ५७ में समाहित है। आचार्य श्री विद्यासागरजी ने भी उसी क्रम से एक-एक गाथा को एक-एक पद्य द्वारा बड़े ही सरस और सूक्ष्म ढंग से हिन्दी में अनुवाद कर पुस्तक को जन-जन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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