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________________ पुस्तक समीक्षा : ७३ संवेद्य बना दिया है। अतएव पुस्तक संग्रहणीय है। पुस्तक का मुद्रण कार्य निर्दोष एवं सुन्दर है। पुस्तक का बाह्य आवरण भी आकर्षक है। - डॉ० ब्रजनारायण शर्मा पुस्तक : आत्म समीक्षण, रचयिता : आचार्य नानेश, सम्पादक : शान्तिचन्द्र मेहता, प्रकाशक : श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, समता भवन, बीकानेर, (राज.), पृष्ठ : ४६३, मूल्य: ६० रुपये मात्र। प्रस्तुत रचना ग्यारह अध्यायों में विभक्त है। पहला अध्याय है - आत्मसमीक्षण जिसका प्रारम्भ अन्तर्यात्रा से होता है। आत्मा आन्तरिक तत्त्व है इसलिये इसकी यात्रा बाहर से न की जा सकती है और न देखी जा सकती है। यह यात्रा आत्मरमण की स्थिति होती है जो बिना आत्म-चेतना की जागरुकता के सम्भव नहीं होती है। इसलिए दूसरे अध्याय में अपनी चेतना का आह्वान किया गया है। अध्याय तीन में चेतना की प्रबुद्धतम एवं जागृति पर प्रकाश डाला गया है। आत्म-जागृति का अर्थ है सम्यक्त्व भाव। अध्याय चार में बताया गया है कि जो आत्मा को जानता है वह सत्य को जानता है। सत्य भगवान होता है। महात्मा गाँधी ने कहा है कि सत्य ईश्वर है और उस सत्येश्वर को अहिंसा के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। यद्यपि सत्य को ईश्वर के रूप में स्वीकार करना गाँधी मत के समान है, किन्तु जैन चिन्तन से कुछ अलग ज्ञात होता है, क्योंकि उसमें अहिंसा को ही साध्य रूप में स्वीकार करके सत्य आदि को साधन के रूप में माना गया है। अध्याय पाँच में कर्म सिद्धान्त विश्लेषित है। अध्याय छः में आत्मशुद्धि, भावशुद्धि, समदर्शिता आदि के विवेचन हैं। अध्याय सात में ज्ञेय, हेय तथा उपादेय को स्पष्ट किया गया है, क्योंकि इनके बोध होने से ही स्वाभाविक गुणों का विकास होता है, मानव का सही रूप में निर्माण होता है। अध्याय आठ से ज्ञात होता है कि विनय धर्म का मूल है । अध्याय नौ में रत्नत्रय की साधना पर बल दिया गया है, क्योंकि ये तो जैन धर्म-दर्शन के आधार स्तम्भ हैं। अध्याय दस में 'मैं' के विविध रूपों को प्रकाशित किया गया है। 'मैं' आत्मबोध करता है, अपने स्वरूप को जानता है। 'मैं' रत्नत्रय को धारण करके मुनि बनता है। 'मैं' ज्ञान की साधना करके उपाध्याय कहा जाता है। 'मैं' अनुशासन करने के कारण आचार्य होता है। मैं जब वीतराग को अपनाता है तो वह अरिहन्त कहा जाता है; जब 'मैं' शुद्ध बुद्ध हो जाता है तब उसे सिद्ध कहते हैं; 'मैं' अनश्वर ओऽम् है । आत्मतत्व के विकास के विविध सारों का विश्लेषण इस रचना की विशेषता है। अभ्यास-ग्यारह में समता को महत्त्व दिया गया है, क्योंकि मानव जीवन में विजयी बनने के लिए समता ही मूल मंत्र है, किन्तु समता को सिर्फ दार्शनिक या सैद्धान्तिक रूप तक ही सीमित रखना अपने को 'विजय' से दूर रखना है। इसलिए इसे व्यवहार में लाकर सबका कल्याण और साथ ही अपना For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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