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________________ ७४ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ कल्याण भी सम्भव है। अध्यायों के अन्त में आचार्य श्री ने अपना संकल्प प्रस्तुत करके धर्म, आचार और समाज के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की है जो उनकी लोकहितकारिणी दृष्टि का परिचय देती है। विश्वास है इस पुस्तक से सन्त, विद्वान् एवं सामान्यजन भी लाभान्वित होंगे। पुस्तक की छपाई साफ और सुन्दर है तथा बाह्य रूप आकर्षक है। इस रचना के लिए लेखक, सम्पादक अन्य सम्बन्धित लोग बधाई के पात्र हैं। - डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा पुस्तक : ज्ञान का विद्या-सागर, भेंटकर्ता : श्रीमती रमा जैन, पुरानागंज, सिकंदराबाद, बुलंदशहर (उ० प्र०), प्रकाशन वर्ष : १९८३ ई०, पृष्ठ : ३९२, मूल्य : सदुपयोग। ज्ञान का विद्या-सागर नामक पुस्तक में आचार्य विद्यासागर जी की रचनाएँ संकलित हैं। विद्यासागरजी आचार्य ज्ञानसागरजी के सुशिष्य हैं। सम्भवतः इसीलिए पुस्तक का नामकरण इस रूप में हुआ है, किन्तु श्री विद्यासागर जी का नाम तो रचयिता के रूप में आना चाहिए था। यदि नामकरण में कोई अन्य उद्देश्य छिपा है तो वह पाठकों के लिए और दुरूह है। पुस्तक अध्यायगत नहीं बल्कि विषयगत विभाजित है जिसमें स्तुति, शतक आदि हैं। गुरु की महानता को बताते हुए कहा गया है कि शिष्य अन्धा बहरा के समान होता है, अज्ञ होता है उसे वे आँख और कान से युक्त बना देते हैं, विज्ञ बना देते हैं। इसका मतलब यह है कि गुरु शिष्य को ज्ञान का स्रोत प्रदान करने से उसे ज्ञानी बना देते हैं। मंगलाचरण में सम्यक्त्व तथा कर्म की चर्चा है, जहाँ कहा गया है कि कर्म के उदय से पाप आता है तो सम्यक्त्व से उसे दूर करना चाहिए अन्यथा सम्यक्त्व से क्या लाभ? यदि पाप दूर नहीं होगा तो मुक्ति ललना कभी वरने को तैयार नहीं होगी। मुक्ति जो एक आध्यात्मिक विषय है, के महत्त्व को सामान्य भाषा में समझाकर कवि ने अपनी दार्शनिक एवं साहित्यिक दोनों ही सूझबूझ का परिचय दिया है। भावनाशतक में कहा गया है कि संसार सागर जो असार है, अपार है तथा खरा भी है उसे पार कराने वाला धर्म के सिवा और कोई नहीं है। ज्ञानोदय में दुःख-सुख अशुभ-शुभ में समभाव रखने वाले शुचितम चेतन को प्रणम्य कहा गया है। जो बुद्धिमान है उसके लिए प्रमाद करना योग्य नहीं है। रयणमंजूषा तो आचार्य समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकश्रावकाचार का पद्यानुवाद है। अतः इसका तो कहना ही क्या ? नामानुसार इसमें श्रावकों के सभी आचार विवेचित हैं। निजामृतपान में निश्चयनय और व्यवहारनय की उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है। विशुद्ध नय के आश्रय में ही स्वानुभूति होती है जो निर्मल और पूर्व प्रकाशित होती है। गुणोदय में आत्मानुशासन का विवेचन करते हुए कहा गया है कि सुख एवं दुःख दोनों ही स्थितियों में धर्म की आवश्यकता होती है। राग-द्वेष प्रवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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