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________________ पुस्तक समीक्षा : ७१ अलग ऐसा अर्थ नहीं कि संस्कृत प्राकृत की जननी है या उसमें से उसकी उत्पत्ति हुई है। लेखक का यह मन्तव्य मौलिक नहीं है क्योंकि पहले शब्दानुशासन के व्याख्याकार ज्ञानमुनि भी अपनी भूमिका ( पृ० ख, ग, दिल्ली, १९७४) में यही बात कह चुके हैं। लेखक ने एक स्थान पर कहा है - "इह में से इध हुआ हो यह भी सही नहीं है। मूल तो इध ही था, उसमें से ही संस्कृत में इह बना है ।" इस मान्यता को प्रमाणित करने के लिये कोई पुष्ट तर्क नहीं दिया गया। पुस्तक के “ङ् और ज् व्यञ्जन का अनुस्वार में परिवर्तन" शीर्षक छठें अध्याय में लेखक ने उक्त दो व्यञ्जनों के सम्बन्ध में विविध वैयाकरणों की मान्यताओं का महत्त्वपूर्ण विवेचन किया है। उन्होंने पृष्ठ ३८ में ञ् ङ् के अनुस्वारीकरण के प्रसंग में हेमचन्द्र की एक विसंगति की ओर ध्यान आकृष्ट कराया है। लेखक का कहना है कि हेमचन्द्र ने 'अथ प्राकृतम्' सूत्र की वृत्ति में 'ङ् ञौ स्ववर्ग्य संयुक्तौ भवत एव' कहा है तथा 'ङ् ञ् णमो व्यञ्जने' सूत्र में उनके अनुस्वार हो जाने की बात कही है, अर्थात् जब ङ् ञ् व्यञ्जन का अनुस्वार हो जाना कहा गया तो उनका व्यञ्जन रूप में प्रयुक्त होना क्यों कहा गया। वस्तुतः यहाँ विसंगति नहीं है, क्योंकि हेमचन्द्र के मन्तव्य को टीकाकर समीचीन रूप में समझा देते हैं। वे कहते हैं - " यद्यपि प्राकृतवर्णसमाम्नाये ङ् ञ् इत्येतयोः वर्णयोः प्रतिषेधः कृतोऽस्ति परन्तु यदीमौ वर्णौ स्ववर्ग्यसंयुक्तौ स्याताम् तर्हि अनयोः प्रयोगो यथायथं भवति" । अर्थात् प्राकृत भाषा में ङ् और ज् का स्ववर्गीय व्यञ्जन से संयोग से भिन्न स्थल में स्वतन्त्र रूप से प्रयोग नहीं होता जब भी वे देखे जाते हैं स्ववर्ग्यसंयुक्तरूप में ही देखे जाते हैं। जैसे पराङ्मुख का परंमुहो ही बनेगा परङ्हो नहीं बनेगा। ― पुस्तक के ग्यारहवें अध्याय में सप्तमी विभक्ति के प्रत्ययों पर किया गया समीक्षात्मक तथा तुलनात्मक विवेचन भाषाशास्त्रीय विद्वानों के लिये परम उपयोगी है, इन प्रत्ययों के भाषिक विकासक्रम का प्रतिपादन मनोग्राही, विद्वत्तापूर्ण तथा परिश्रमसाध्य है। लेखक की सूक्ष्म विश्लेषण बुद्धि का प्रसाद है। लेखक ने 'म्मि' प्रत्यय की उत्पत्ति 'म्ह' से मानी है और लेखकों, पाठकों तथा लिपिकों के प्रमाद से स और म के बीच भ्रम हो जाने से 'म्सि' का 'म्मि' या 'सि' या 'मि' में परिवर्तन हो गया होगा, लेखक की यह उद्भावना सर्वथा समीचीन प्रतीत होती है। चतुर्दश अध्याय में लेखक ने एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट कराया है, वह यह कि आगम ग्रन्थों की अर्धमागधी में प्राचीन तथा उत्तरवर्ती दोनों ही प्रकार के पाठ मिलते हैं। • जैसे भगिणी, भइणी, एगदा, एगया, पादाणि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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