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________________ ७० : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ पृष्ठ सं० ६८ पृष्ठ सं० ६९ - -- वाग्परिम्लिष्टपंक: (वाक्परिम्लिष्टपङ्कः) हृज्जाड्यं विलयं यांति (हृज्जाड्यं विलयं याति ) • प्रो० सुरेश चन्द्र पाण्डे --- ग्रन्थ : परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी, ग्रन्थकार : डॉ० के० आर० चन्द्र, प्रकाशन : प्राकृत जैन विद्या विकास फण्ड, अहमदाबाद, १९९५, आकार : डिमाई, मूल्य : ५० रुपये, पृष्ठ : १५२ । इस ग्रन्थ में प्राकृत भाषा के व्याकरण सम्बन्धी नियमों का ऊहापोहपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। लेखक ने सभी प्राकृत व्याकरण ग्रन्थों का तथा प्राकृत व्याकरण पर भाषावैज्ञानिक दृष्टि से शोध करने वाले भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन कर व्याकरण के नियमों की वैदुष्यपूर्ण मीमांसा की है । ग्रन्थ में 1 १५ अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के विषय में विवेचन किया गया है । द्वितीय अध्याय में मध्यवर्ती 'त' के 'द' में परिवर्तन की प्रवृत्ति का ऐतिहासिक क्रम से प्रतिपादन है। इसी प्रकार तृतीय अध्याय में मध्यवर्ती 'प' का 'व' होना, चतुर्थ में मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यञ्जनों का लोप, पञ्चम में मध्यवर्ती उद्वृत्त स्वर के स्थान में 'य' श्रुति की यथार्थता, षष्ठ में 'ङ्' और 'ञ्' का अनुस्वार में परिवर्तन, सप्तम में नकार का कार में परिणत होना, अष्टम में मध्यवर्ती नकार की स्थिति, नवम में 'ज्ञ' का 'न' या 'ण' में परिवर्तन, दशम में ण्य, न, न्य, र्ण का 'न' या 'ण्ण' होना, एकादश में सप्तमी एकवचन के 'स्मिं' प्रत्यय पर विवेचन, द्वादश में कुछ अन्य विभक्ति प्रत्यय, त्रयोदश में 'ळ' व्यञ्जन पर विचार, चतुर्दश तथा पञ्चदश अध्यायों में अर्धमागधी के स्वरूप पर विचार - इन विविध विषयों का प्रतिपादन किया गया है। - विद्वान् लेखक ने प्राकृत व्याकरण की उन सभी सूक्ष्म समस्याओं पर गम्भीरता से विवेचना की है जो प्रायः प्राकृत भाषा प्रेमियों के समक्ष उपस्थित रहती हैं। सभी विषयों का विशद प्रतिपादन लेखक के गम्भीर एवं व्यापक अध्ययन तथा विस्तृत अनुभव का परिचायक है। समस्याओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझ कर उनके निराकरण का प्रयास किया गया है। अनेक मौलिक तथ्यों को उजागर किया गया है। लेखक की भाषा वैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि और नवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा समग्र ग्रन्थ में प्रतिबिम्बित है। पुस्तक के प्रारम्भ में ही लेखक ने प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र के प्रकृतिः संस्कृतम् पर विचार करते हुए कहा है कि हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्रयुक्त 'प्रकृति' शब्द का अर्थ यही होता है कि प्राकृत भाषा को समझने के लिए संस्कृत का आश्रय लिया जाता रहा है। उसे आधार मानकर समझाया जा रहा है, इससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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