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________________ ३६ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ कामी है।६० मनुष्य की कामनाएँ विशाल हैं, अनन्त हैं। इतना ही नहीं वे दुराग्रही और हठी हैं - 'गुरु से कामा।'६१ उनका अतिक्रमण करना सहज नहीं है। इसीलिए कामना को 'गुरु' कहा गया है और फिर, किसी भी कामना की पूर्ण सन्तुष्टि नहीं हो पाती, क्योंकि यह पुरुष अनेक चित्त वाला है। एक कामना सन्तुष्ट हो नहीं पाती कि मन दूसरे की ओर, दूसरे विषय की ओर आकृष्ट हो जाता है। कोई अगर यह सोचता है कि शयन से नींद पर, भोजन से भूख पर अथवा लाभ से कामनाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है तो निश्चित ही वह भ्रम में है।६२ मनुष्य मानो चलनी भरना चाहता है जो कभी भर ही नहीं सकती।६३ । ___पुरुषार्थ चतुष्टय में काम साध्य है और अर्थ साधन। काम की आसक्ति ही मनुष्य को अर्थसंग्रह के लिए प्रेरित करती है और अर्थ-संग्रह से कामनाएँ पैदा होती हैं।६५ यह एक दुष्चक्र है। जो बात अर्थ के लिए सही है, काम के सन्दर्भ में भी वही खरी उतरती है। अर्थ अपने आपमें न मूल्य है, न विमूल्य। उसका उपयोग ही उसे मूल्य या विमूल्य बनाता है। जो अर्थ का परिग्रह करता है और पदार्थों के प्रति आसक्ति रखता है, वह अर्थ को विमूल्य कर देता है। इसी प्रकार जो कामभोग के प्रति ममत्व रखता है, वह काम को विकृत करता है, उसे विषम बनाता है।६६ अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम काम को विकृत न होने दें और इस प्रकार उसे मूल्यवान बनाएँ। ऐसा नहीं है कि विषय-भोगों (काम) में कोई सुख नहीं है। यदि सुख न होता तो मनुष्य उसकी ओर आकृष्ट ही क्यों होता? किन्तु काम की अपनी सीमाएँ और समस्याएँ हैं, वे इस प्रकार हैं - १. सभी विषय भोग जो सुख प्रदान करते हैं, उनका सुख क्षणिक है और वे दीर्घकाल तक दुःख देने वाले हैं।६७ २. शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त व्यक्ति आत्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता क्योंकि ये सभी विषय इन्द्रियों से सम्बन्धित हैं। इन्द्रियाँ शरीर का अंग हैं। वे आत्मा में अनुपस्थित हैं। शुद्ध आत्मा में तो वर्ण, रस आदि तथा स्त्री, पुरुष आदि पर्याय और संस्थान, संहनन होते नहीं हैं,६८ फिर इनमें आसक्ति रखकर भला व्यक्ति आत्मलाभ कैसे कर सकता है ? ३. विषय भोग द्वारा प्राप्त शारीरिक सुख, जिसे हम वस्तुतः सुख समझते हैं, सुख होता ही नहीं। इसकी तुलना खुजली के रोगी से की जा सकती है। खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुःख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य दुःख को सुख मानता है।६९ ।। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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