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________________ जैन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय : ३५ अर्थ के प्रति मूर्छा न रखना और इसलिए उसके संग्रह से बचे रहना, यही अपरिग्रह है, यही धर्म है। यदि अर्थ के प्रति कोई लगाव नहीं होगा तो उसका दान भी सम्भव हो सकेगा और दान करने से व्यक्ति उसके संग्रह से भी बच सकेगा। इसीलिए कहा गया है कि इस संसार में जितने मनुष्य अपरिग्रही हैं वे इसी अर्थ में अपरिग्रही हैं कि वे न तो वस्तुओं के प्रति आसक्त होते हैं और न ही उनका संग्रह करते हैं।५७ पुनः परिग्रह दो प्रकार का होता है। एक, बाह्य ( वस्तुओं के प्रति ) और दूसरा, आभ्यन्तर परिग्रह। दस प्रकार की वस्तुएँ बाह्य हैं जिनके प्रति व्यक्ति का परिग्रह (आसक्ति, लगाव) हो सकता है, वे हैं - खेत, मकान, धन-धान्य, वस्त्र, भाण्ड, दास-दासी, पशु, यान (वाहन), शय्या और आसन। इसी प्रकार चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रह हैं, वे हैं - रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, इत्यादि। उन सभी के परिग्रह से यदि मनुष्य मुक्त हो जाता है तो वह शान्ति पाकर प्रसन्नचित्त हो सकता है और यह मुक्ति-सुख ऐसा होगा जो चक्रवर्ती राजा-महाराजाओं को भी नसीब नहीं है। परिग्रह का सामान्य अर्थ संग्रह से है। यदि संग्रह का यह सामान्य अर्थ ही लिया जाय तो अर्थ का पूर्ण-अपरिग्रह लगभग असम्भव है। मनुष्य आखिर एक देह धारी प्राणी है और देहधारी की अपनी कुछ आवश्यकताएँ होती हैं जिनकी पूर्ति अर्थ द्वारा ही की जा सकती है, और फिर मोक्ष हेतु धर्म साधने के लिए भी तो शरीर की आवश्यकता है। अतः शरीर और उसकी आवश्यकताओं को हम पूर्णतः निरस्त नहीं कर सकते। मोक्ष का साधन ज्ञान और तप है और तप का साधन देह है। देह के लिए आहार आवश्यक है।५८ अतः थोड़ा बहुत अर्थ-संग्रह और अर्थ-उपार्जन भी जरूरी है। जैन-दर्शन में इसलिए गृहस्थ के लिए यह निर्देश है कि वह स्वयं अपने पुरुषार्थ से ही सम्पत्ति का अर्जन करे। पुरुषार्थ से यहाँ तात्पर्य स्वप्रयत्न से है। मनुष्य को केवल स्वप्रयत्न से उपार्जित सम्पत्ति को भोगने का ही अधिकार है। गौतमकुलक में कहा गया है कि पिता के द्वारा उपार्जित लक्ष्मी निश्चय ही पुत्र के लिए होती है और दूसरों की लक्ष्मी पर-स्त्री के समान है। दोनों का ही भोग वर्जित है। अतः स्वयं अपने पुरुषार्थ से धन का उपार्जन करके ही उसका भोग धर्मानुसार कहा जा सकता है। प्रश्न यह है कि व्यक्ति को भोग करने का भी आखिर कितना अधिकार है ? यह प्रश्न हमें सीधे काम की व्याख्या की ओर अग्रसर करता है। काम का स्वरूप जैन दर्शन में मनुष्य-जीवन में काम के महत्त्व को कभी अनदेखा नहीं किया गया। आगमिक साहित्य स्पष्टत: कहता है कि पुरुष निश्चित रूप से कामFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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