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________________ प्राचीन जैन आगमों में राजस्व व्यवस्था : १३ से धन लेने की सलाह भी दी है। कर के रूप में राजा को प्रदान किये जाने वाले द्रव्य को निशीथचूर्णि' में 'खोड़' कहा गया है। कर नकद और वस्तु दोनों रूपों में कर-अधिकारियों द्वारा ग्रहण किया जाता था। ग्राम कर : बृहत्कल्पभाष्य और चूर्णियों में १८ प्रकार के ग्राम करों का उल्लेख है, जिनका विवरण डॉ० जगदीशचन्द्र जैन ने दिया है। ये हैं - गोकर, महिषकर, उष्ट्रकर, पशुकर, अजकर, तृणकर, भुसकर, पलालकर, अङ्गारकर, काष्ठकर, लाङ्गलकर, देहलीकर, जंघाकर, बलिवर्दकर, घटकर, कर्मकर, बुल्लकर और औतितकर । ये सभी कर कृषि और पशु सम्बन्धी थे। आवश्यकचूर्णि१२ में भी क्षेत्रकर और पशुकर का उल्लेख हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि कृषि-आय का कोई भी स्रोत करमुक्त नहीं था। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि जहाँ पर कर नहीं लगते१३ वह नगर है। पर अन्य बहुत से सन्दर्भो में नगरों से वाणिज्य-व्यापार सम्बन्धी कर लिये जाने का उल्लेख है, जिससे नगरों के कर-मुक्त होने की पुष्टि नहीं होती।" जैन ग्रन्थों में राजकीय आय का विस्तृत उल्लेख तो नहीं मिलता है, पर बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि आदि ग्रंथों में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि भूमिकर, वाणिज्यशुल्क, वाणिज्यपथ, दण्ड, उपहार और विजित राजाओं से प्राप्त धन राजकीय आय के साधन थे। भूमिकर : आय का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत भूमिकर था, जो भूमि की उर्वरता पर निर्भर करता था। बृहत्कल्पभाष्य५ में उल्लेख है कि इक्ष्वाकुवंश के राजा १/१० और वृष्णि वंश के राजा १/६ भाग कर ग्रहण करते थे। व्यवहारभाष्य में भी उपज का १/४, १/६, १/१० राज-अंश कहा गया है। गौतमधर्मसूत्र में कहा गया है कि कृषक को उपज के अनुसार १/६, १/४, १/१० कर के रूप में देना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि भूमिकर उपज का राज्यांश था, जिसे 'भाग' कहा जाता था और जो सामान्य उपज का १/६ होता था। भूमि के नीचे से प्राप्त गुप्तधन राजकीय सम्पत्ति समझा जाता था।८ वाणिज्य-कर : राज्य को व्यापारियों द्वारा प्राप्त कर 'शुल्क' कहलाता था। शुल्क ग्रहण करने वाले आधिकारी को 'सुकिया' और शुल्क ग्रहण किये जाने वाले स्थान को 'सुवंवद्धणे' कहा जाता था।९ बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार वाणिज्य-कर वस्तु के क्रय-विक्रय की लागत, मार्ग-व्यय, यातायात-व्यय और व्यापारी के भरण-पोषण हेतु पर्याप्त धन को छोड़कर लगाया जाता था। निशीथचूर्णि बताता है कि पण्य पर मूल्य का १/२० चुंगी के रूप में लिया जाता था। गौतमधर्मसूत्र में भी विक्रय की जाने वाली वस्तुओं पर १/२० राजकीय कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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