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________________ १४ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ माना गया है। ज्ञाताधर्मकथा२३ से ज्ञात होता है कि कभी-कभी राजा प्रसन्न होकर व्यापारियों को वाणिज्यकरों से मुक्त भी कर देते थे। वर्तनीकर : यातायात की सुविधा के लिए सड़कों, घाटों और नावों की व्यवस्था की जाती थी, जिसके लिये राज्य, व्यापारियों और यात्रियों से कर लेता था। बृहत्कल्पभाष्य से ज्ञात होता है कि मार्गों पर 'वर्तनीकर' लिया जाता था। ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि नदी आदि पार करने के लिए भी शुल्क देना पड़ता था जिसे 'तरदेय' या 'तरपण' कहा जाता था। निशीथचूर्णि२५ से ज्ञात होता है कि एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते हुए व्यापारियों और यात्रियों को निर्धारित कर देकर पार-पत्र लेना आवश्यक था। निःस्वामिक धन : उत्तराधिकारीविहीन स्वामी की सम्पत्ति को राज्य अधिग्रहीत कर लेता था। उत्तराध्ययन२६ तथा जातक कथाओं२७ में एक पुरोहित का उल्लेख आता है जिसके पत्नी तथा पुत्रों के साथ दीक्षित हो जाने पर राज्य द्वारा उसकी सम्पत्ति का अधिग्रहण कर लिया गया। गृहकर : प्रत्येक गृह से गृहकर लिया जाता था। पिंडनियुक्ति२८ से ज्ञात होता है कि प्रत्येक गृह से दो 'द्रम' गृहकर लिया जाता था। बृहत्कल्पभाष्य२९ के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बड़े भवनों पर अधिक कर तथा छोटे पर कम कर निर्धारित थे, जबकि बहुत छोटे घर करमुक्त थे। उपहार : राजा के राज्याभिषेक, पुत्रोत्पत्ति तथा विशेष उत्सवों के अवसर पर प्रजा तथा अधीनस्थ सामन्त राजा को भेंट देते थे। दूसरे देशों के व्यापारी भी व्यापार आरम्भ करने के पूर्व राजा को भेंट आदि देकर प्रसन्न करते थे। विजित राजाओं से प्राप्त धन : राजकोष में वृद्धि का एक प्रमुख साधन युद्ध में पराजित राजाओं से प्राप्त धन भी था। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति से ज्ञात होता है कि भरत चक्रवर्ती को यवन तथा अरब आदि पराजित विदेशी और देशी राजाओं ने आभूषण और रत्न भेंट किये थे। पउमचरियं३२ में उल्लेख है कि राजकुमारी कल्याणमालिनी अपने बंदी पिता के सिंहासन और राज्य की सुरक्षा के बदले म्लेच्छ शासक को निश्चित धन कर के रूप में भेजती थी। आवश्यकचूर्णि३३ के अनुसार निर्धारित धन न दे पाने कारण कुछ राजाओं ने अपने सामन्तों पर आक्रमण कर दिया था। अर्थ-दण्ड : राज्य के नियमों का उल्लंघन करने पर अपराध की गम्भीरता के आधार पर अर्थ-दण्ड भी लगता था। व्यवहारभाष्य से ज्ञात होता है कि किसी व्यक्ति पर प्रहार करने या उसे गिराकर घायल करने वाले को साढ़े तेरह रुपक दण्ड स्वरूप देना पड़ता था। ज्ञाताधर्मकथा५ में उल्लेख है कि मेघकुमार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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