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________________ १२ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ इस प्रकार राज्य के कार्य अत्यन्त ही सीमित थे। इसी कारण प्राचीन काल में सार्वजनिक ऋण, वित्तीय प्रशासन एवं राजकोषीय नीति जैसी अवधारणाओं का अस्तित्व लगभग नहीं था। अतः प्राचीन जैन साहित्य में इनका उल्लेख नहीं मिलता। . प्राचीन जैन साहित्य प्रमुख रूप से श्वेताम्बर परम्परा से सम्बन्धित रहा है। यह प्राकृत भाषा में आगमों, नियुक्तियों, भाष्यों और चूर्णियों के रूप में निबद्ध है। यह मुख्यतः उत्तरी एवं उत्तर पश्चिमी भारत से ही सम्बन्धित है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा के कुछ पुराण-ग्रंथों का रचना-क्षेत्र दक्षिण भारत रहा, पर वे तत्कालीन आर्थिक जीवन पर कोई विशेष प्रकाश नहीं डालते। इसका उल्लेख डॉ० मोतीचन्द ने “सार्थवाह' में भी किया है। अतः इस लेख का सम्बन्ध उत्तर भारत से ही अधिक है। जहाँ तक काल-निर्धारण का प्रश्न है प्राचीन जैन आगम साहित्य एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में देश और काल का स्पष्ट और निश्चित संकेत न होने से तथा प्रायः अतिशयोक्तिपूर्ण और कहीं-कहीं दोषपूर्ण वर्णन होने के कारण उनकी विषयवस्तु को ऐतिहासिक धरातल पर खरा नहीं माना जा सकता। फिर भी हरमन जैकोबी के विचार में जैन आगमों का रचनाकाल जो भी हो पर उनमें जिन तथ्यों का संग्रह है, वे प्राचीन परम्परा के हैं और प्राचीन परम्परा का काल ईस्वी पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से लेकर ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी के मध्य-काल तक माना जाता है। राजकीय आय जैन आगम-ग्रंथ मुख्यतः आध्यात्मिक ग्रंथ थे। अतः इनमें राज्य की आय-वृद्धि के लिए लगाए गए करों, उनके निर्धारण और उनकी दर के सम्बन्ध में विशेष उल्लेख नहीं मिलता । यत्र-तत्र आधे प्रसंगों से ही कर-व्यवस्था का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। कर लगाते समय कर देने वाले की आर्थिक क्षमता का ध्यान रखा जाता था। विपाकसूत्र में प्रजा को कष्ट देकर अत्यधिक धन-संग्रह करने वाले राजा को पापी कहा गया है। आदिपुराण में उल्लेख है कि राजा द्वारा प्रजा को बिना कष्ट दिये कर ग्रहण करना चाहिए। नीतिवाक्यामृतम् के अनुसार भी प्रजा को पीड़ित करने वाले राजा का कोष नष्ट हो जाता है और राज्य की महान क्षति होती है क्योंकि भय के कारण या तो लोग व्यापार ही बन्द कर देते हैं या फिर छल-कपट का आश्रय लेते हैं। आपत्तिकाल में रिक्त कोष की पूर्ति हेतु सोमदेव सूरि ने राजा को ब्राह्मणों और वणिकों का ऐसा धन अधिग्रहीत कर लेने का परामर्श दिया है जो कि धर्मानुष्ठान, यज्ञ और कुटुम्ब-संरक्षण में उपयोगी न हो। इसके अतिरिक्त उन्होंने धनिकों, धर्माधिकारियों, मंत्रियों, पुरोहितों और अधीनस्थ राजाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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