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२२ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६
काम और अर्थ को न केवल धर्मोन्मुखी बनाने पर बल दिया, बल्कि ठीक हिन्दू 'त्रिवर्ग' की धारणा के अनुरूप ही 'धर्म', 'अर्थ' और 'काम' के कुछ इस प्रकार के सेवन की अनुशंसा की कि वे परस्पर अविरोध में रहें।
फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि जैन मूल्यों में अर्थ और काम को कुल मिलाकर हेय दृष्टि से देखा गया है, और इन दोनों की आवश्यकता पर बहुत ही कम बल दिया गया है। हिन्दू दर्शन इन्हें निन्दनीय नहीं ठहराता बल्कि इनके उदात्तीकरण पर बल देता है, ताकि ये भी मोक्ष-मार्ग को प्रशस्त कर सकें। जैन दर्शन में 'अर्थ' और 'काम' की यदि कोई स्वीकृति है तो वह केवल मनुष्य की अपनी दुर्बलता को देखते हुए मानो मजबूरी में है। यदि मनुष्य अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर मोक्ष के लिए उद्यत हो जाता है तो उसके लिए यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है कि वह काम और अर्थ को मूल्यों के रूप में ग्रहण करे। मोक्ष की अपेक्षा से तो अन्ततः काम और अर्थ जैनदर्शन के अनुसार 'विमूल्य' ही हैं। किन्तु हिन्दू दर्शन में ऐसा नहीं है। हिन्दू दर्शन काम और अर्थ को भी उनके उदात्त स्वरूप में मोक्ष के लिए सहायक मानता है। वे विमूल्य कभी नहीं होते। वे साधन मूल्य की अपनी श्रेणी से कभी च्युत नहीं किये गए हैं। इसका कारण मुख्यतः यही है कि जहाँ एक ओर जैनदर्शन मूलतः निवृत्तिपरक है, वहीं हिन्दू दर्शन के निवृत्तिमार्ग में भी 'प्रवृत्ति को अंशतः स्वीकृति मिली हुई है। किन्तु जैन दर्शन में 'प्रवृत्ति के लिये यदि कोई स्थान है तो केवल संयम और तप की ओर प्रवृत्ति के लिए ही कोई गुंजाइश सम्भव है। एक जैन गाथा में बड़े आकर्षक ढंग से कहा गया है कि एक ओर निवृत्ति तो दूसरी ओर प्रवृत्ति का पालन करना चाहिए - असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति। हिन्दू दर्शन भी बेशक संयम पर बल देता है किन्तु वह शरीर की ओर से पूरी तरह विमुख हो जाने के लिए कभी नहीं कहता क्योंकि जब तक मनुष्य शरीरधारी है उसे अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर उसे स्वस्थ रखना ही होगा और इसके लिए अर्थ और काम दोनों ही मूल्य बने रहेंगे। वे कभी विमूल्य नहीं हो सकते।
पूर्णतः निवृत्तिपरक होने के कारण, जैन दर्शन में इस प्रकार केवल दो ही पुरुषार्थों पर बल दिया गया है - मोक्ष और धर्म। मोक्ष परम पुरुषार्थ है और धर्म मोक्ष का राज-मार्ग है। पुरुषार्थ का अर्थ
पुरुषार्थ से सामान्यतः दो अर्थ लगाए गए हैं - १. पुरुष का प्रयोजन और २. पौरुष अथवा पुरुष द्वारा किया गया प्रयत्न। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दर्शन में पुरुषार्थ के दूसरे अर्थ पर अधिक बल दिया गया है। पुरुषार्थ को परिभाषित करते
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