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जैन दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय : २३
समय जैन संस्कृति में कहा गया है - "पौरुषं पुनरिह चेष्टितम् ।" तात्पर्य यह है कि मनुष्य यदि अपना प्रयोजन (जो मोक्ष है) प्राप्त करना चाहता तो उसे इसके लिए स्वयं प्रयत्न करना होगा। इसके लिए किसी भी प्रकार की दैवी सहायता उसे उपलब्ध नहीं है। जैन दर्शन ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करता है।
ईश्वरवादी दार्शनिक पद्धतियाँ प्राय: मानवारोपण के दोष से ग्रसित होती हैं। वे ईश्वर को मनुष्य के स्तर पर देव या अवतार के रूप में नीचे खींच लाती हैं और इस प्रकार ईश्वर मनुष्य का सहायक बन जाता है। जैन दर्शन, ठीक इसके विरुद्ध मनुष्य को ही, जब उसकी शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं, ईश्वर के रूप में देखता है। ईश्वर यहाँ अधिक से अधिक 'आत्मा' के लिए एक दूसरा शब्द है। यह वह 'आदर्श पुरुष' है जो मनुष्य का आदर्श है। इस आदर्श की प्राप्ति का एक ही मार्ग है कि इसे ठीक उसी तरह प्राप्त किया जाय जैसे अर्हतों, ऋषियों-मुनियों ने, जिनके उदाहरण हमारे सामने हैं, इसे प्राप्त किया था। जैन दर्शन के इस आदर्श में मनुष्य को अपने प्रति पूर्ण आस्था है। उसे पूर्ण विश्वास है कि वह स्वतः प्रयत्न से ईश्वर की कोटि तक पहुँच सकता है। जैन दर्शन ने इस प्रकार मोक्ष-प्राप्ति का पूरा उत्तरदायित्व स्वयं मनुष्य पर डाल दिया है। उसकी सहायता के लिए किसी भी दैवी रोक्ति या ईश्वर का यहाँ प्रावधान नहीं है।
जे० जैनी का मत है कि किसी भी अन्य धर्म की बजाय जैन धर्म मनुष्य को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता या स्वाधीनता प्रदान करता है। मनुष्य जो भी करता है और जो भी उसके कर्मों के फल हैं, इन दोनों के बीच कोई हस्तक्षेप करने वाला नहीं है। एक बार कर्म सम्पन्न हो जाने के बाद उन पर मनुष्य का कोई वश नहीं रहता। उसके फल उसे भुगतने ही पड़ते हैं। इस प्रकार हमारी स्वतन्त्रता और हमारे दायित्व का एक सह-सम्बन्ध है। हम जैसा चाहें कर सकते हैं। लेकिन एक बार हमारी इच्छानुसार जो भी हमने चुना है उस कर्म से और उसके फल से बचा नहीं जा सकता।
जैन दर्शन में पुरुषार्थ से आशय, इस प्रकार मलतः मानव-चेष्टा से है - जिसमें व्यक्ति को स्वतन्त्रता भी मिली हुई है और जिसका उत्तरदायित्व भी उसे निभाना है। व्यक्ति कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है किंतु फल भोगने का उत्तरदायित्व भी उसी का है। इसमें किसी अन्य व्यक्ति/देवता/ईश्वर का हस्तक्षेप नहीं है। मनुष्य चाहे तो ईश्वर की कोटि भले प्राप्त कर सकता है, यह मनुष्य की क्षमता के बाहर की वस्तु नहीं है। लेकिन ईश्वर से तात्पर्य यहाँ व्यक्ति का स्वयं अपना ही निजरूप है जो सभी ऐश्वर्यों से परिपूर्ण है। अपने निजरूप को प्राप्त करना ही, मनुष्य का प्रयोजन/आदर्श है।
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