SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ सामान्य रूप से संस्कृत भाषा में लिखे श्लोकों का अर्थ लगा पाना संस्कृत न जानने वालों के लिए कष्टदायी होता है। अतएव उनके हित को ध्यान में रखकर ही विद्वानों ने इसका हिन्दी अनुवाद किया है। जिस प्रकार सागर को पार करने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति को नौका का आश्रय लेना पड़ता है उसी प्रकार भवसागर से पार उतरने के अभिलाषी व्यक्ति को भक्ति रूपी नौका का आश्रय लेना पड़ता है। 'तेरी महिमा मेरे गीत' नामक पुस्तक का विविधत पाठ ही मानो वह (भक्तिरूपी) नौका है जो मायाजाल में फँसे व्यक्तियों को भवसागर से पार करा सकती है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक एवं मुद्रण कार्य निर्दोष है। पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है। ७८ : डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी पुस्तक : वीरन विहरमान जिन स्तवन, लेखक : श्रीमद् देवचन्द्र जी उपाध्याय, विवेचिका: साध्वी दिव्यदर्शनाश्री, सम्पादक : पुखराज भण्डारी, प्रकाशक : श्री जैन श्वेताम्बर श्राविका संघ, बागरा, जिला : जालोर (राजस्थान), प्रथम संस्करण : १९९४, आकार : डिमाई, मूल्य : साठ रुपये मात्र । सत्रहवीं अठारहवीं शताब्दी के आध्यात्मिक जैन कवियों में आनन्दघन और यशोविजय के पश्चात् यदि किसी का क्रम आता है तो वे श्रीमद् देवचन्द्र हैं । जिस प्रकार आनन्दघन जी ने वर्तमान अवसर्पिणी काल के भरतक्षेत्र के चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति में स्तवन लिखे उसी तरह श्रीमद् देवचन्द्र जी ने महाविदेह क्षेत्र के बीस विहरमान जिन के स्तवन लिखे । उनके स्तवनों में एक विशिष्ट प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूति समाहित है। जैन परम्परा में भक्ति के ऐसे उच्चकोटि के स्तवन विरल ही हैं। श्रीमद् देवचन्द्र ने उसमें भक्ति के साथ-साथ अध्यात्म, अनुभूति और आत्मदर्शन का अद्भुत मिश्रण किया है । साध्वी श्रीदिव्यदर्शनाश्री जी ने स्तवनों के हार्द का जिस सरस ढंग से विश्लेषण किया है वह जन-जन को श्रीमद् देवचन्द्र के इन स्तवनों का रसपान कराने में सहायक होगा। कृति का मुद्रण निर्दोष और साज-सज्जा आकर्षक है। कृति के अन्त में परिशिष्ट के रूप में गुणस्थान, सप्तनय, पञ्चअनुष्ठान, अष्टयोग दृष्टियों आदि का जो भी विवेचन है, वह कृति के महत्त्व को और बढ़ा देता है । कृति पठनीय एवं संग्रहणीय है। डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी पुस्तक : चेतना का विकास, लेखक : मुनि श्री चन्द्रप्रभ सागर, सम्पादन : श्रीमती लता भंडारी मीरा, प्रकाशक : श्री जितयशा फाउण्डेशन, सी, एस्प्लनेड रो ईस्ट, कलकत्ता - ६९, प्रथम संस्करण : जनवरी १९९४, मूल्य : बारह रुपये मात्र, आकार : डिमाई | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy