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________________ १० : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ जैन परम्परा के अध्ययन के अभाव में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता है। आज साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर उठकर तटस्थ एवं तुलनात्मक रूप से सत्य का अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त मानव को मुक्ति दिला सकता है। राक्षस और देवता मोतीलाल सुराना, इन्दौर सुबह के समय जो गुरुजी ने शिष्य को पढ़ाया था, उस बाबत दोपहर को बाहर बैठकर गुरुजी व शिष्य आपस में बातचीत कर रहे थे। तभी एक व्यक्ति जो शिष्य से दीक्षित होने से पहले ही परिचित था, आया तथा खड़ाखड़ा शिष्य को डाँटने-डपटने लगा। बोला - तुझे शर्म नहीं आती। गुरुजी के हाथ-पाँव दबाना तो दूर बैठा-बैठा गप्पें हाँक रहा है। शिष्य कुछ न बोला तो वह और अधिक तेज आवाज में बोला - मुफ्त का माल खाता है तथा माँगकर कपड़े पहनता है। तुझे किस बात की फिकर। मेहनत करके कमाकर खावे तो पता चले कि आटे-दाल का भाव क्या है ? इस पर शिष्य कुछ न बोला तो वह व्यक्ति छोटी-मोटी गालियों का उपयोग करते हुए नई-नई बातें सुनाने लगा। इस पर शिष्य को क्रोध आ गया तथा वह भी तेज आवाज में सफाई देते हुए गड़े मुर्दे उखाड़ने लगा। यह सब सुनकर गुरुजी कमरे में चले गये। दो-चार बातें क्रोध की हो जाने पर जब शिष्य ने देखा कि गुरुजी कमरे में चले गये हैं तो वह उठकर उनके पास आ गया तथा भीतर चले आने का कारण पूछा तो गुरुजी बोले - जब तक तू क्षमा धारण कर उसकी बात सुन रहा था तब तक तुझमें देवता विराजमान थे। पर जब तू क्रोधित होकर जवाब सवाल करने लगा तो देवता चला गया और राक्षस आकर तेरे भीतर बैठ गया। फिर मैं राक्षस के पास कैसे बैठता? यह सुनकर शिष्य पश्चात्ताप करते हुए बोला - भविष्य में मैं कभी भी क्रोध नहीं करूंगा। क्रोध राक्षस के समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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