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________________ वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान : ४९ पाता है। मानव-मन की यह चंचलता ही मनुष्य के दुःखों का कारण बनती है। व्यक्ति सदैव यही विचार करता रहता है कि सारी दुनियाँ उसी के चारों तरफ आकर्षित हो, सभी उसी के मनोनुकूल आचरण करें। सभी परिस्थितियाँ उसके मन के अनुसार घटित हों। लेकिन यह सम्भव नहीं हो पाता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति इस दिशा में और अधिक प्रयत्न करना प्रारम्भ कर देता है। उसके उस प्रयत्न के परिणाम उसकी तृष्णा को निरन्तर बढ़ाते रहते हैं, जो उसके दुःख का कारण बनते हैं। ध्यान की साधना से व्यक्ति अपनी इस भूल को समझता है। वह यह विचार करता है कि जब मैं स्वयं ऐसा चाहता हूँ, मेरा स्वयं का मन ऐसा चाहता है, तो दूसरा ऐसा क्यों नहीं चाहेगा। जैसे ही उसके मन में यह भाव जगता है, वह तृष्णारूपी विकल्पों के मिथ्यात्व से अवगत हो जाता है। अब उसके मन में एक ही बात कौंधती है, वह है स्वयं को सुधारने की। जब वह इस अवस्था में आ जाता है तो उसके मन में चलने वाली बहुमुखी चिन्तन की धारा एक ओर प्रवाहित होने लगती है। इस कारण व्यक्ति अनेक चित्तता से दूर हटकर एक चित्त में स्थित हो जाता है और यही ध्यान है। बौद्ध-परम्परा में ध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि किसी विषय पर चित्त को स्थिर कर चिन्तन करना ही ध्यान है।' भारतीय संस्कृति में ध्यान ऐसी साधना है जो व्यक्ति के अन्तर का शोधन करती है। इसके अभ्यास से व्यक्ति वृत्तियों, विकल्पों से मुक्त होकर एक-चित्तता की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति अपने क्षुद्र स्वार्थों और राग-द्वेष की प्रवृत्ति को कम करके समाज में एक सुव्यवस्था की नींव डाल सकता है। उसकी यह प्रवृत्ति उसे तो सुख और शान्ति का वातावरण उपलब्ध कराती ही है साथ ही साथ समाज के सभी प्राणियों को भी इस दिशा में विकास करने का अवसर प्रदान कराती है। ध्यान से व्यक्ति विनम्र हो जाता है, उसमें स्वार्थ, अभिमान एवं दीनता का धीरे-धीरे अभाव होता जाता है और मैत्री, स्वाभिमान, सहृदयता झलकने लगती है। ध्यान की नियमित साधना चिन्तन और व्यवहार की दूरी सदा के लिए समाप्त कर देती है। आज आचरण एवं आस्था के बीच जो खाई बन गई है उसका सही निदान ध्यान है। ध्यान एवं वैदिक परम्परा वैदिक वाङ्मय में वेद और उपनिषद् अति प्राचीन हैं। इनमें योग, ध्यान, साधना, विषयक विचार स्थान-स्थान पर मिलते हैं। वैदिक-परम्परा में ध्यानविषयक साधना का उल्लेख योग के अन्तर्गत माना जाता है, क्योंकि योग प्रणाली ही सर्वाधिक प्रचलित प्रणाली थी। योग-साधना मंत्रयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि अपने विविध रूपों में प्रचलित रही हैं। वैदिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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