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________________ ५० : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९६ वाङ्मय में वेदों को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। यजुर्वेद में योग के सम्बन्ध में कहा गया है कि मोक्ष की इच्छा रखने वाले हम (योगी) लोग शुद्ध मन (शुद्धान्तःकरण) से योगफल के द्वारा प्रकाशमय आनन्दस्वरूप अनन्त ऐश्वर्य में स्थित होते हैं। यहाँ योग साधना योगी की आध्यात्मिक वृत्ति का परिणाम है। योगीजन योगाभ्यास के द्वारा मुक्ति या मोक्ष-पथ पर अग्रसर होते हैं और परमसुख को प्राप्त करते हैं। यह योग अथवा ध्यान साधना का आध्यात्मिक स्वरूप माना जा सकता है। बाद में औपनिषदिक साहित्य में ध्यान पर विस्तृत चिन्तन हुआ और योग का आत्मपरक अथवा अध्यात्मपरक विवेचन भी किया गया। इसे आत्म-ज्योति, ब्रह्म-स्वरूप, आत्म-दर्शन को प्राप्त कराने वाला कारक माना गया। विष्णु-पुराण में कहा गया है कि आत्म-ज्योति के दर्शन के लिए साधना की आवश्यकता होती है। जब साधना समाधि की ओर अग्रसर होती है तब ध्यान अनिवार्य हो जाता है। समाधि की प्राप्ति में ध्यान प्रमुख है। ध्यान की अनुभूति से ही आत्म-स्वरूप प्रगट होता है और ध्यान साधना इन्द्रियों की बाह्य प्रवृत्तियों से नहीं होती वरन् अन्तर्मुखी वृत्ति से होती है। अन्तर्मुखी वृत्ति व्यक्ति को रागादि प्रवृत्तियों से मुक्त करती है, फलतः साधक भावरहित होकर अपने साधना पथ पर आगे बढ़ता जाता है और अन्त में ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। कठोपनिषद् में कहा गया है कि योग-विद्या का पालन करके ही नचिकेता रागादि से अलिप्त होकर तथा मृत्यु के भय से रहित होकर ब्रह्म को प्राप्त हुआ। उपनिषद्-युग में आत्म-सत्ता की ध्वनि अधिक गुंजरित रही। आत्मा ज्ञेय है, कर्म-बन्धनों के तोड़ने का कार्य ज्ञान करता है, जन्म-मृत्यु चक्र, संकल्पविकल्पों को क्षीण करना मनुष्य का ध्येय बना जाता है। लेकिन सम्पूर्ण त्रैकालिक ज्ञान की प्राप्ति ध्यान करने से होती है। ध्यान से प्राप्त फलश्रुति शारीरिक स्वस्थता का प्रथम सोपान है। क्योंकि स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन रहता है। ध्यान से शरीर निरोग रहता है। वह हलका, विकार, वासनाओं से अनासक्त, सौरभयुक्त, प्रकाशवान् हो जाता है। मन की मलिनता दूर होने लगती है। व्यक्ति मधुर वाणी का प्रयोग करने लगता है और मधुरता की अनुभूति भी करता है। ध्यान की साधना से मनुष्य की स्मृति का विकास होता है। यह व्यक्ति में शुभवृत्तियों को जगाती है जिससे साधक आसक्ति, कामना, क्रोध जैसी दुष्प्रवृत्तियों से अपने को बचाकर रखता है। गीता में कहा गया है – विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है, सम्मोह से स्मृति भ्रमित हो जाती है और स्मृति-भ्रम से बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धिहीन व्यक्ति को सभी तरह के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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