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________________ पुस्तक समीक्षा : ६७ खण्ड, 'प्रकृति की गोद में' मुख्यतः प्रकृति और मनुष्य के बीच रिश्तों को परिभाषित करती कविताएँ हैं । 'छुअन में कहा गया है - प्रकृति प्रमदा / प्रेम वश / पुरुष से लिपटी । हरिताभ हँस पड़ी / प्रणय कली / महकी गंध भरी / खुल खिल पड़ी रक्ताभ लस रही। किंतु / पुरुष सचेत है... इसी प्रकार ‘सो जाने दो' कविता में वे कहते हैं - ओरी / ललित लीलावती / चलित शीलावती / भ्रमित चेतना जब से तेरा / क्रीड़ास्थल / बाहर से भीतर आ बना है। तब से पुरुष की पीड़ा / और घनीभूत हुई है... अब पुरुष को । सानंद अनंत काल तक / सो जाने दो ! 'लहराती लहरें खण्ड में संगृहीत काव्य लहरियाँ भी मुनि के मानस से उठकर आध्यात्मिक ऊँचाइयाँ स्पर्श करती हैं। यहाँ भी पुरुष और प्रकृति के गहन रिश्ते की ही गवेषणा की गई है - प्रकृति को मत पकड़ो / पर परखो उसे ये तो क्षणिकाएँ हैं | पकड़ में नहीं आती भ्रम-विभ्रम की जनिकाएँ हैं तुम पुरुष हो, पुरुषार्थ करो... 'चेतना के गहराव' खण्ड के अन्तर्गत पाठक के लिए संकेत है कि वह उस आध्यात्मिक गहराई को, जो उसे भटकने से मुक्त कर सकती है, समझे और जाने। पुरुष से आग्रह किया गया है कि चेतन हो तुम / पहचान करो... समता को नित / अनुपान करो ! ('पता तू बता') समता क्या है ? मुनि भी कहते हैं, यह तामस का विलोम है। इसीलिए वे कामना करते हैं कि 'अंग अंग में, रग रग में, विश्व का तामस आ भर जाय, किन्तु विलोम भाव से ! ता... म...स- स... म... ता! वे कविताएँ ही क्या जो पढ़ने वाले के चेहरे पर अपना आरेख अंकित न कर पाएँ ! चेहरे के आलेख' खण्ड में ऐसी ही कविताएँ हैं। उनमें जहाँ आध्यात्मिक प्रकाश है, वहीं व्यंग्य का हलका पुट भी है । 'धर्मयुग' शीर्षक कविता में वे कहते हैं कि 'यह युग, अप्रत्याशित, आगे बढ़ चुका है बहुत दूर; और धर्म... बहुत दूर पीछे रह चुका है। अन्यथा, पत्रिका का नाम - 'धर्मयुग' क्यों पड़ा है ? इसी प्रकार जीवन की सर्वोत्तम विधा को परिभाषित करते हुए, आचार्य श्री कहते हैं - www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.525025
Book TitleSramana 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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